गुलाब वाला कप / श्याम सुन्दर अग्रवाल

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सुबह-सवेरे चाय बनाने हेतु बुजुर्ग हीरालाल रसोईघर में पहुँचे तो गुलाबी कप अपने स्थान पर नहीं था। उन्होंने हर तरफ निगाह घुमाई। लेकिन कप कहीं भी दिखाई नहीं दिया। नए कप तो पड़े थे, पर उनका पसंदीदा गुलाबी कप गायब था। पहले तो शैल्फ पर ही रखा होता था। उनका दोस्त दे गया था, शादी की पच्चीसवीं वर्षगाँठ पर। बोला था—गुलाबी कपों में चाय पीने से प्यार गहरा होता है। तब से वे उन्हीं गुलाबी कपों में ही चाय पीते आ रहे थे। छह में से दो कप बेटे की शादी में टूट गए, दो बेटी की शादी में। उन कपों में चाय पीने वाले तब तक वे रह भी दो ही गए थे। पाँच वर्ष पहले जीवन-संगिनी गुलाब के साथ छोड़ जाने से पहले ही एक कप बहू से टूट गया था। तब कई बार वह और गुलाब एक ही कप में बारी-बारी से घूँट भर चाय पीते थे। आखरी बचे कप को वह स्वयं ही धोकर रखते ताकि कहीं टूट न जाए। किसी और कप में उन्हें चाय स्वाद ही नहीं लगती थी।

तभी बहूरानी उठ कर आ गई। उन्होंने उससे कप के बारे में पूछ लिया।

“बहुत पुराना हो गया था, पापा जी! दूसरे कपों में रखा अलग-सा अकेला कप अच्छा नहीं लगता था। कल रात रसोई की साफ-सफाई के दौरान आपके बेटे ने फेंक दिया। नये कप लाएँ हैं, उनमें से ले लो। चाय ही तो पीनी है।”

“अच्छे को क्या हुआ था, सुन्दर लगता था।” वे मुँह मे ही बुड़बुड़ाते हुए कमरे में आकर बिस्तर पर ढेर हो गए।

“इन्हें क्या पता पुरानी चीजों की अहमियत। मैँ और गुलाब उस कप में ही चाय पीते रहे हैं। कप की डंडी पर उसकी उंगलियों के निशान थे और किनारों पर होठों के…इतने ध्यान से धोता था कि कहीं किसी निशान पर साबुन न लग जाए…इन्हें क्या पता यादों का मोल…।”

उस दिन के बाद वे कभी रसोईघर में नहीं गये। बहू कितनी भी अदरक-इलायची डालकर चाय बना देती, पर उन्हें कभी स्वाद नहीं लगी। आधी पीते, आधी छोड़ देते।

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