गुलाब वाला कप / श्याम सुन्दर अग्रवाल
तभी बहूरानी उठ कर आ गई। उन्होंने उससे कप के बारे में पूछ लिया।
“बहुत पुराना हो गया था, पापा जी! दूसरे कपों में रखा अलग-सा अकेला कप अच्छा नहीं लगता था। कल रात रसोई की साफ-सफाई के दौरान आपके बेटे ने फेंक दिया। नये कप लाएँ हैं, उनमें से ले लो। चाय ही तो पीनी है।”
“अच्छे को क्या हुआ था, सुन्दर लगता था।” वे मुँह मे ही बुड़बुड़ाते हुए कमरे में आकर बिस्तर पर ढेर हो गए।
“इन्हें क्या पता पुरानी चीजों की अहमियत। मैँ और गुलाब उस कप में ही चाय पीते रहे हैं। कप की डंडी पर उसकी उंगलियों के निशान थे और किनारों पर होठों के…इतने ध्यान से धोता था कि कहीं किसी निशान पर साबुन न लग जाए…इन्हें क्या पता यादों का मोल…।”
उस दिन के बाद वे कभी रसोईघर में नहीं गये। बहू कितनी भी अदरक-इलायची डालकर चाय बना देती, पर उन्हें कभी स्वाद नहीं लगी। आधी पीते, आधी छोड़ देते।
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