गुलामगीरी / भाग-6 / जोतीराव गोविंदराव फुले

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[बली राजा, ज्योतिबा, मराठे, खंडोबा, महासूबा, नवखंडों का न्यायी, भैरोबा, सात आश्रित, डेरा डालना, रविवार को पवित्र मानना, वामन, श्राद्ध करना, विंध्यावली, घट रखना, बली राजा की मृत्यु, सती जाना, आराधी लोग, शिलंगण, भ्रात का बली राजा बनाना, दूसरे बली राजा के आने की भविष्यवाणी, बाणासुर, कुजागरी, वामन की मृत्यु, उपाध्ये, होली, वीर पुरखों की भक्ति, बलि प्रतिपदा, भाई-दूज आदि के संबंध में।]

धोंडीराव : फिर बली राजा ने क्या किया?

जोतीराव : बली राजा ने अपने राज्य के करीब-करीब सभी सरदारों को पड़ोसी क्षेत्रपतियों की ओर तुरंत भेज दिया और इस तरह की ताकीद की कि उन सभी लोगों को किसी भी तरह की दलील न देते हुए अपनी सारी फौज ले कर उसकी मदद के लिए आना चाहिए।

धोडीराव: इस देश का इतना बड़ा प्रदेश बली के अधिकर में था।

जोतीराव : इस देश में कई प्रदेश बली राजा के अधिकार में थे। इसके अलावा सिंहलद्वीप आदि पड़ोस के कई प्रदेश इसके अधिकार में थे, ऐसा भी कहा जाता है। चूँकि वहाँ बली नाम का एक द्वीप भी है। इस प्रदेश के दक्षिण में कोल्हापुर की पश्चिम दिशा में बली के अधिकार में कोंकण और मावला [9] प्रदेश के कुछ क्षेत्र थे। वहाँ ज्योतिबा नाम का मुखिया था। उसके रहने का मुख्य स्थान कोल्हापुर के उत्तर में रत्नगिरी नाम का पहाड़ था। इसी प्रकार दक्षिण में बली के अधिकार में दूसरा एक और प्रदेश था, उसको महाराष्ट्र कहा जाता था। और वहाँ के सभी मूल क्षेत्रवासियों को महाराष्ट्री कहा जाता था। बाद में उसी का अपभ्रंश रूप हो गया मराठे। यह महाराष्ट्र प्रदेश बहुत बड़ा होने से बली राजा ने उस प्रदेश को नौ क्षेत्रों में बाँट दिया था। इसी के कारण उस हर क्षेत्र के मुखिया का नाम खंडोबा पड़ गया था, इस तरह का उल्लेख मिलता है। हर खंड के मुखिया को योग्यता, के अनुसार उनके हाथ के नीचे कहीं एक, तो कहीं दो प्रधान रहते थे। उसी प्रकार हर एक खंडोबा के हाथ के नीचे बहुत मल्ल (पहलवान) थे। इसलिए उसको मलूखान कहते हैं।

उन नौ में जेजोरी का खंडोबा एक था।[10] यह खंडोबा नाम का मुखिया अपने पास-पड़ोस के क्षत्रपतियों के अधिकार में रहनेवाले मल्लों को ठीक करके उन्हें अपने वर्चस्व में रखता था। इसलिए उसका यह दूसरा नाम मल्लअरी पड़ गया था। मल्हारी [11] इसी का अपभ्रंश है। उसकी यह विशेषता थी कि वह धर्म के अनुसार ही लड़ता था। उसने कभी भी पीठ दिखा कर भागनेवाले किसी भी शत्रु पर वार नहीं किया। इसलिए उसका नाम मारतोंड पड़ गया था, जिसका अपभ्रंश मार्तंड [12] हो गया। उसी प्रकार वह दीन लोगों का दाता था। उसको गाने का बड़ा शौक था। उसके द्वारा स्थापित या उसके नाम पर प्रसिद्ध मल्हारराग है। यह राग इतना अच्छा है कि उसी के सहारे से तानसेन नाम का मुसलिमों में जो प्रसिद्ध गायक हुआ है, उसने भी एक दूसरा मल्हार राग बनाया है। इसके अलावा बली राजा ने, महाराष्ट्र में महासूबा और नौ खंडों के न्यायी के रूप में दो मुखिया वसूली और न्याय करने के लिए नियुक्त किए थे। उनके हाथ के नीचे अन्य कई मजदूर थे, इस प्रकार का भी उल्लेख मिलता है। फिलहाल उस महासूबे का अपभ्रंश म्हसोबा हुआ है। वह समय-समय पर लोगों की खेती-बाड़ी की जाँच-पड़ताल करता था और उसी के आधार पर छूट-सहूलियत दे कर सभी को खुश रखता था। इसलिए मराठों में एक भी कुल (‌किसान) ऐसा नहीं मिलेगा जो अपनी खेतों-बाड़ी के समय किसी भी पत्थर को महासूबे के नाम पर सिंदूर की लिपा-पोती कर, उसको धूप जला कर उसका नाम लिए बगैर खेत बोएगा। वे तो उसका नाम लिए बगैर खेत को हैसिया भी नहीं लगा सकते। उसके नाम का स्मरण किए बगैर खलिहान में रखे अनाज के ढेर को तौल भी नहीं सकते। उस बली राजा ब्राह्मण सूबे (प्रदेश) बना करके किसानों से वसूली करने का तरीका यवन लोगों ने अपनाया होगा, इस प्रकार का तर्क दिया जा सकता है। क्योंकि उस समय यवन लोग ही नहीं, बल्कि मिस्त्र से कई विद्वान यहाँ आ कर, ज्ञान पढ़ कर जाते थे, उस तरह के भी प्रमाण मिलते हैं। तीसरी बात यह है कि अयोध्या के पड़ोस में काशीक्षेत्र के इर्द-गिर्द कुछ क्षेत्र बली राजा के अधिकार में थे। उस प्रदेश को दसवाँ खंड कहा जाता था। वहाँ के मुखिया कुछ दिन पहले काशी शहर का कोतवाल था, इसके भी प्रमाण मिलते हैं। वह गायन-कला में इतना कुशल था कि उसने अपने नाम पर एक स्वतंत्र राग बनाया। उस भैरव राग को सुन कर तानसेन जैसे ख्यातिप्राप्त महागायक भी नतमस्तक हुए। उसने अपनी ही कल्पना से डौर नाम के एक वाद्य का भी निर्माण किया। इस डौर नाम के वाद्य की रचना इतनी विलक्षणीय है कि उसके ताल-सुर में मृदंग, तबला आदि वाद्य भी उसकी बराबरी नहीं कर सकते। लेकिन उसकी ओर ध्यान न देने से, उसको जितनी प्रसिद्धि मिलनी चाहिए थी, उतनी नहीं मिल सकी। उसके जो सेवक हैं, उन्हें भैरवाड़ी कहते हैं जिसका अपभ्रंश भराड़ी है। इसमें इस बात का पता चलता है कि बली राजा का राज्य इस देश में आजपाल यानि राजा दशरथ के पिता जैसे कई क्षेत्रपतियों के राज्य से भी बड़ा था। इसीलिए सभी क्षेत्रपति उसी की नीति का अनुसरण करते थे। इतना ही नही, उनमें से सात क्षेत्रपति बली राजा को लगान दे कर उसी के आश्रय में रहते थे। इसलिए उसका नाम सात-आश्रित पड़ गया था, इस प्रकार का उल्लेख मिलता है। तात्पर्य, उक्त सभी कारणों से बली का राज्य विशाल था और वह बहुत बलशाली था, इस बात को प्रमाणित करनेवाली एक लोक कहावत भी है। यह कहावत यह है कि 'जिसकी लाठी उसकी भैस' (बळी तो कान पिळी) इसका मतलब है, जो बलवान है उसी का राज। बली राजा कुछ विशेष महत्वपूर्ण काम अपने सरदारों पर सौंप देता था। उस समय बली राजा अपना दरबार भरवाता था। वहाँ सबके सामने एक उलटी थाली रख देता था। उस थाली में हलदी का चूर्ण और नारियल के फल के साथ पान, का बीड़ा रखवा कर कहता था कि जिसमें यह काम करने की हिम्मत है, वह यह बात पान का बीड़ा उठा ले। बली राजा के इस तरह कहने पर जिसमें इस तरह के काम हिम्मत होती थी, वही 'वही हर-हर महावीर' [13] की कसम खा कर, हलदी का तिलक माथे पर लगा कर, नारियल और पान के बीड़े को हाथ में उठा कर, अपने माथे पर रख कर बाद में अपने दुपट्टे में बाँध लेता था। उसी वीर को बली राजा उस काम की जिम्मेदारी सौंप देता था। बाद में वह वीर बली राजा की आज्ञा ले कर अपनी फौज के साथ पूरी शक्ति लगा कर शत्रु की फौज पर हमला बोल देता था। इसी की वजह से उस संस्कार का नाम तड़ उठाना (तळ उचलने) पड़ा होगा। उसका अपभ्रंश 'तड़ी उठाना' (तड़ी उचलणे) हो गया। बलि राजा के महावीरों में भैरोंबा, ज्योतिबा तथा नवखंडोबा अपनी रैयत की सुख-सुविधा के लिए इसी तरह के शर्तिया प्रयास करते थे। आज भी मराठों ने कोई भी अच्छा कार्य प्रारंभ करने से पहले तड़ी उठाने का संस्कार अपना रखा है। उन्होंने अपने इस संस्कर के तहत बहिरोबा, जोतिबा और खंडोबा को देवता-स्वरूप कबूल कर लिया और उनके नाम से तड़ी उठाने लगे। वे लोग 'हर-हर महादेव' बहिरोबाचा या जोतिबाचा चांग भला - इस प्रकार का युद्धघोष करते थे और बहिरोबा अथवा ज्योति का स्तुतिगान करते थे। इतना ही नहीं, बली राजा अपनी सारी प्रजा के साथ महादेव के नाम से रविवार के दिन को पवित्र दिन के रूप में मानता था। इसकी पृष्ठाभूमि में आज के मराठे यानि मातंग, महार, कुनबी और माली आदि लोग हर रविवार के दिन, अपने-अपने घर के उस कुलस्वामी की प्रतिमा को जलस्नान करवा कर, उसको भोजन अर्पण किए बगैर वे अपने मुँह में पानी की एक बूँद भी नहीं डालते हैं।

धोंडीराव : बली राजा के राज्य की सरहद पर आने के बाद वामन ने क्या किया?

जोतीराव : वामन अपनी सारी फौज को ले कर बली राजा के राज्य में सीधे-सीधे घुस आया। उसने बली राजा की प्रजा को मारते-पीटते, खदेड़ते हुए हाहाकार मचा दिया था और इस तरह से वह बली की राजधानी तक आ पहुँचा। इसलिए बली अपनी देशभर में फैली हुई फौज को इकट्ठा करने से पहले ही, बेबस हो कर, अपनी निजी फौज को साथ में ले कर वामन से मुकाबला करने के लिए युद्धभूमि पर उतर पड़ा। बली राजा (बली) भाद्रपद वद्य 1 पद से वद्य 30 तक, हर दिन वामन और उसकी फौज के साथ लड़ कर शाम को आराम के लिए अपने महल में आता था। इसी की वजह से दोनों ओर के जितने लोग उस पखवाड़े में एक-दूसरे से लड़ते हुए मर गए, उनके मरने की तिथियाँ ध्यान में रही। इसलिए हर साल भाद्रपद माह में उस तिथि को श्राद्ध करने की पंरपरा पड़ गई होगी, इस तरह का तर्क निकलता है। आश्विन शुद्ध 1 पद से शुद्ध अष्टमी तक बली राजा वामन के साथ लड़ाई में इतना व्यस्त था कि वह सब कुछ भूल गया था और उस दरम्यान अपने महल में आराम के लिए भी नहीं आ सका। इधर बली राजा की विंध्यावली रानी ने अपने हिजड़े पंडे सेवक के द्वारा एक गड्ढा खुदवाया। उसने उसमें उस पंडे सेवक के द्वारा जलाव लकड़ियाँ डलवाईं और वह उस गड्ढे के पास आठ रात आठ दिन तक बिना कुछ खाए-पिए बैठी रही। उसने वहाँ अपने साथ पानी का एक कलश रखा था। रानी इस तरह बिना खाए-पिए पानी के सहारे इस कामना की पूर्ति की विजय हो और वामन की बला टल जाए। इसलिए रानी यहाँ बैठ कर महावीर की प्रार्थना कर रही थी। इस दरम्यान आश्विन शुद्ध अष्टमी की रात में बली राजा के युद्ध में मारे जाने की खबर मिलते ही उसने गड्ढे में पहले से रखी गई लकड़ियों को आग लगा कर अपने-आपको उसमें झोंक दिया। उसी दिन से सती होने की रूढ़ि चल पड़ी होगी, यह तर्क किया जा सकता है। जब रानी विंध्यावली अपने पति के बिछोह के कारण आग में कूद कर मर गई, तब उसकी सेवा में रहनेवाली औरतों और हिजड़े पंडो ने अपने-अपने बदन के कपड़ों को नोंच-नोंच कर फाड़ डाला होगा और उस आग में जला दिया होगा। उन्होंने अपनी-अपनी छाती को पीट कर, जमीन पर अपने हाथों को पिटते हुए, तालियाँ पिटते हुए, रानी के गुणों का वर्णन करते हुए, उस गड्ढे के ईर्द-गिर्द घूम कर अपना शोक प्रकट किया होगा कि 'हे रानी, तेरा ढिंढोरा घमघमाया, आदि। दुख की चिंता के ये शोले वही शांत हो जाएँ, फैले नहीं इसलिए ब्राह्मणों के धूर्त ग्रंथकारों ने बाद में मौका तलाश कर, उस गड्ढे का होम (कुंड) बनवा कर उसके संबंध में कई गलत-सलत बदमाशी-भरी घटनाएँ गूँथ कर अपने ग्रंथों में लिख कर रखी होंगी, इसमें कोई शक नहीं। उधर बली राजा के युद्धभूमि में मरने के बाद बाणासुर ने पूरे एक दिन हर तरह की मुसीबतों का मुकाबला करते हुए वामन की फौज ले कर भाग गया। इस युद्ध में विजय की मस्ती में वामन इतना बदमस्त हुआ कि बली राजा की मुख्य राजधानी में कोई भी पुरुष नहीं है, यह सुनहरा मौका देख कर उस राजधानी पर हमला बोल दिया। वामन अपने साथ पूरी फौज ले कर आश्विन शुद्ध दशमी को बड़ी सुबह ही उस शहर में पहुँचा। उसने वहाँ के अंगणों में लगा हुआ जितना सोना था, सब लूट लिया। उस शब्द का अपभ्रंश 'शिलंगण का सोना लूट लिया', यह हो गया। इस लूट के बाद के वामन तुरंत अपने घर (प्रदेश) लौट गया। जब वह अपने घर पहुँचा, तो पहले से ही उसकी औरत ने मजाक के खातिर कनकी (चावल) का एक बली राजा करके अपने दरवाजे की दहलीज पर रखा था। वामन के घर पहुँचने पर उसने वामन से कहा कि यह देखो, बली राजा आपके साथ पुन:युद्ध करने के लिए आया है। यह सुनते ही उसने उस कनकी के बली राजा को अपने लात की ठोकर से फेंक दिया और फिर घर के अंदर प्रविष्ट किया। उस दिन से आज तक ब्राह्मणों के घरों में हर साल आश्विन महीने में विजयादशमी (दशहरा) को ब्राह्मण औरतें कनकी या भात का बली राजा बना कर अपने-अपने दरवाजे की दहलीज पर रखती हैं। बाद में अपना बायाँ पाँव उस कनकी के बली राजा के पेट पर रख कर कचनार की लकड़ी से उसका पेट फाड़ती हैं। बाद में उस मृत बली राजा को लाँघ कर अपने घर में प्रविष्ट होती हैं। यही उनमें सदियों से चली आ रही परिसाटी है। (ब्राह्मण-पंडा-पुरोहितों के घरों में यह त्योहार बडे उत्साह के साथ मनाया जाता है, इसलिए इस त्योहार को ब्राह्मणों का त्योहार कहते हैं। अनु.) इसी तरह बाणासुर के लोग आश्विन शुद्ध दशमी की रात में अपने-अपने घर गए। उस समय उनकी औरतों ने उनके सामने दूसरें बली राजा की प्रतिमा रख कर और यह भविष्यवाणी जान कर कि दूसरा बली राजा ईश्वर के राज्य की स्थापना करेगा, अपने घर की दहलीज में खड़े हो कर उसकी आरती उतारी होगी और यह कहा होगा की 'अला बला जावे और बलों का राज आवे (इडा पिडा जावो आणि बळी राज्य येवो)।' उस दिन से ले कर आज तक सैकड़ों साल बीत गए, फिर भी बली के राज्य के कई क्षेत्रों में क्षत्रिय वंश की औरतों ने हर साल आश्विन शुद्ध दशमी को शाम के समय अपने-अपने पति और पुत्र की आरती उतार कर आगे बली का राज्य आवे, इस इच्छा का त्याग नहीं किया है। इसमें पता चलता है कि आगे आनेवाला बली राजा कितना अच्छा होगा। धन्य है वह बली राजा और धन्य है वह राजनिष्ठा। लेकिन आज के तथाकथित मांगलिक हिंदू लोग अंग्रेज शासकों की मेहरबानी पाने के लिए कि उनको अंग्रेजी सत्ता में बड़े-बड़े पद और प्रतिष्ठा के स्थान मिलें, इसलिए ये लोग रानी के जन्म पर, आम सभाओं मे लंबे-लंबे भाषण देते हैं। लेकिन समाचार-पत्रों में या आपसी बातचीत में उनके खिलाफ अपना रोष व्यक्त करने का दिखावा करते हैं।

धोंडीराव : उस समय बली राजा द्वारा बुलाए गए सरदार क्या उसकी मदद के लिए आए ही नहीं?

जोतीराव : बाद में कोई छोटे-मोटे सरदार अपनी-अपनी फौज के साथ आश्विन शुद्ध चौदहवीं को आ कर बाणासुर से मिले। उनके बाणासुर से मिलने की खबर सुनते ही बली राज्य के कुल मिला कर सभी ब्राह्मण अपनी जान बचा कर वामन की ओर भाग गए। उनको इस तरह भाग कर आते देखा तो वामन बहुत ही घबरा गया। उसने सभी ब्राह्मणों को इकट्ठा किया। आश्विन शुद्ध पंद्रहवीं को वे सभी इकट्ठा हो कर सारी रात जाग कर, अपने भगवान के सामने प्रसाद स्वरूप दाँव-पेंच तय करने लगे कि बाणासुर से अपना संरक्षण कैसे किया जाए। दूसरे दिन वामन अपने बाल-बच्चों के साथ सारी फौज को साथ ले कर अपने प्रदेश की सीमा पर पहुँच कर बाणासुर का इंतजार कर रहा था।

धोंडीराव : बाद में बाणसुर ने क्या किया?

जोतीराव : बाणासुर ने न आव देखा न ताव, उसने एकदम वामन पर हमला बोल दिया। बाणासुर ने बाद में उसको पराजित कर दिया और उसके पास जो कुछ था वह सब लूट लिया। फिर उसने वामन को उसके सभी लोगों के साथ अपनी भूमि से खदेड़ कर हिमालय की पहाड़ी पर भगा दिया। फिर उसने उस वामन को दाने-दाने के लिए इतना मोहताज बना दिया कि उसके कई लोग केवल भूख से मरने लगे। अंत में इसे चिंता में वही पर वामन-अवतार का सर्वनाश हुआ। मतलब, वामन भी मर गया। वामन के मरने से बाणसुर के लोगों को बड़ी खुशी हुई। वे कहने लगे की सभी ब्राह्मणों में वामन एक बहुत बड़ा संकट था। उसके मरने से, उसके नष्ट हो जाने से हमारा शोषण, उत्पीड़न समाप्त हो गया। उसी समय से ब्राह्मणों को उपाध्य कहने की पारिपाटी चली आ रही होगी, इस तरह का तर्क निकाला जा सकता है। बाद में उन उपाध्यों ने अपने-अपने घरों में युद्ध में मरे अपने सभी रिश्तेदारों के नाम से चिता (जिसको आजकल होली कहा जाता है) जला कर उनकी दाहक्रिया की; क्योंकि उनमें पहले से ही मृत आदमी को जलाने का रिवाज था। उसी प्रकार बाणासुर और अन्य तमाम क्षत्रिय इस युद्ध में मरे अपने-अपने सभी रिश्तेदारों के नाम से फाल्गुन वद्य 1 पद को वीर बन कर, हाथ में नंगी तलवारें लिए बड़े उत्साह में नाचे, कूदे और उन्होंने मृत वीरों का सम्मान किया। क्षत्रियों में मृत आदमी के शरीर को जमीन में दफनाने की बहुत पुरानी परंपरा दिखाई देती है। अंत में बाणासुर ने उस उपाध्ये के रक्षण के लिए कुछ लोगों को वहाँ रखा। शेष सभी को अपने साथ ले कर अपनी राजधानी में पहुँचा। बाणासुर के अपनी मुख्य राजधानी में पहुँचने के बाद जो खुशी हुई, उसका वर्णन करने से ग्रंथ का विस्तार होगा, इस डर की वजह से यहाँ मैं उस घटना का संक्षिप्त इतिहास दे रहा हूँ। बाणासुर अपने सारे जायदाद की गिनती करके आश्विन वद्य त्रयादेशी को उसकी पूजा की। फिर उस नेवद्य चतुर्दशी और वद्य 30 को अपने सभी सरदारों को बढ़िया-बढ़िया खाना खिलाया और सभी ने मौज मनाई। बाद में कार्तिक शुद्ध 1 को अपने कई सरदारों को उनकी योग्यता के अनुसार इनाम और उनको अपने-अपने मुल्क में जा कर काम में लग जाने का हुक्म भी दिया गया। इससे वहाँ की सभी स्त्रियों को भी खुशी हुई। उन्होनें कार्तिक शुद्ध 2 को अपने-अपने भाइयों को यथासामर्थ्य भोजन खिलाया। उन्होंने उनको भोजन खिला कर उनका पूरी तरह से समाधान किया। बाद में उन्होंने उनकी आरती उतारी और कहा कि, 'अला बला जावे और बली का राज्य आवे (इडा पिडा जावो आणि बळीचे राज्य येवो)।' इस तरह उन्होंने आनेवाले बली [14] के राज्य स्मरण दिलाया। उस समय से आज तक हर साल दीवाली को, भैयादूज (भाउबीज) के दिन क्षत्रिय लड़कियाँ अपने-अपने भाई को आनेवाले बली राज्य का ही स्मरण दिलाती हैं। लेकिन उपाध्ये कुल में इस तरह का स्मरण दिलाने का रिवाज बिलकुल ही नहीं है।

धोंडीराव : लेकिन बली राजा को पाताल में गाड़ने के लिए आदिनारायण ने वामन अवतार लिया। उस वामन ने भिखारी का रूप धारण किया और उसने बली राजा को अपने छ्लकपट में फँसाया। उसने बली राजा से तीन कदम धरती का दान माँगा। बली राजा ने अपने भोलेपन में उसको दान देने का वचन दे दिया। दान का वचन मिलने के बाद उसने भिखारी का रूप त्याग किया और इतना विशाल आदमी बन गया कि उसने बली राजा से पूछा कि अब मुझे तीसरा कदम कहाँ रखना चाहिए? उसका यह विशालकाय रूप देख कर बली राजा बेबस हुआ। उसने उस वामन को यह जवाब दिया कि अब तुम अपना तीसरा पाँव मेरे सिर पर रख दो। बली राजा का यह कहना सुनते ही उस गलीजगेंडे ने अपना तीसरा पाँव बली राजा के सिर पर रख दिया और उसने बली राजा को पाताल में दफना कर अपना इरादा पूरा कर लिया। इस तरह की बात ब्राह्मण उपाध्यों ने भागवत आदि पुराणों में लिख रखी है। लेकिन आपने जिस हकीकत का वर्णन किया है, उससे यह पुराण-कथा झूठ साबित होती है। इसलिए इस बारे में आपका मत क्या है, यही हम जानना चाहते हैं।

जोतीराव : इससे अब तुम्हीं सोचो कि जब उस गलीजगेंडे ने अपने दो कदमों से सारी धरती और आकाश को घेर लिया था, तब उसके पहले ही कदम के नीचे कई गाँव, गाँव के लोग दब गए होंगे और उन्होंने अपनी निर्दोष जानें गँवाई होंगी कि नहीं? दूसरी बात यह कि उस गलीगगेंडे ने जब अपना दूसरा कदम आकाश में रखा होगा, उस समय आकाश में सितारों की बहुत भीड़ होने से कई सितारे एक दूसरे से टकरा गए होंगे कि नहीं? तीसरी बात यह कि उस गलीजगेंडे ने अपने दूसरे कदम से यदि सारे आकाश को हड़प लिया होगा, तब उससे कमर के ऊपर के शरीर का हिस्सा कहाँ रहा होगा? इस ग्लीजगेंडे को कमर के ऊपर माथे तक आकाश शेप बचा होगा। तब उस गलीजगेंडे को अपने ही माथे पर अपना तीसरा कदम रखना चाहिए था और अपना इरादा पूरा करना चाहिए था। लेकिन उसने अपना इरादा पूरा करने की बात अलग रख दी और उसने केवल छ्लकपट से अपना तीसरा कदम बली राजा के माथे पर रख दिया और उसको पाताल में दफना दिया, उसकी इस नीति को क्या कहना चाहिए!

धोंडीराव : क्या सचमुच में वह गलीजगेंडा आदिनारायण का अवतार है? उसने इस तरह की सरेआम धोखेबाजी कैसे की? जो लोग ऐसे धूर्त, दुष्ट आदमी को आदिनारायण मानते हैं, उस इतिहासकारों को छी: छी: करते हुए, हम उनका निषेध करते है: क्योंकि उन्हीं के लेखों से वामन छली, धोखेबाज, विनाशकारी और हरामखोर साबित होता है। उसने अपने दाता को ही, जिसने उस पर उपकार किया था, दया दिखाई थी, उसी को पाताल में दफना दिया!

जोतीराव : चौथी बात यह है कि उस गलीजगेंडे का सिर जब आकाश को पार करके स्वर्ग में गया होगा, तब उसको वहाँ बड़े जोर से चिल्लाते हुए बली से पूछना पड़ा होगा कि अब मेरे दो कदमों में सारी धरती और आकाश समेट गए, फिर अब आप ही बताइए कि मैं तीसरा कदम कहाँ रखूँ और अपना इरादा तथा आपके इरादे को कैसे पूरा करूँ? क्योंकि आकाश में उस गलीजगेंडे का मुँह और पृथ्वी पर बली राजा - इसमें अनगनित कोसों का फासला रहा ही होगा, और आश्चर्य की बात यह है कि रशियन, फ्रेंच, अंग्रेज और अमेरिकी आदि लोगों में किसी एक को भी उस संवाद का एक शब्द भी सुनाई नहीं दिया, यह कैसी अजीब बात है! उसी प्रकार धरती के मानव बली राजा ने उस वामन नाम के गलीजगेंडे को उत्तर दिया कि तुम अपना तीसरा कदम मेरे माथे पर रख दो, फिर यह बात उसने सुनी होगी, यह भी बड़े आश्चर्य की बात है। क्योंकि बली राजा उसके जैसा बेढंगा आदमी बना नहीं था। पाँचवी बात यह है कि उस गलीजगेंडे के बोझ से धरती की कुछ भी हानि नहीं हुई, यह कैसी आश्चर्य की बात है!

धोंडीराव : यदि धरती की हानि हुई होती तब हम यह दिन कहाँ से देखते! उस गलीजगेंडे ने क्या-क्या खा कर अपनी जान बचाई होगी? फिर जब वह गलीजगेंडे मरा होगा तब उसके उस विशाल लाश को श्मशान में ले जाने के लिए कंधा देनेवाले चार लोग कहाँ से मिले होंगे? वह उसी जगह मर गया होगा, यह कहा जाए, तब उसको जलाने के लिए पर्याप्त लकड़ियाँ कहाँ से मिली होगी? यदि उस तरह की विशालकाय लाश को को जलाने के लिए पर्याप्त लकड़ियाँ नहीं मिली होगा, यह कहा जाए, तब उसको वहीं के वहीं कुत्ते सियारों ने नोंच-नोंच कर खा लिया होगा और उसका हलवा पस्त किया होगा कि नहीं? ताप्तर्य यह कि भागवत आदि सभी (पुराण) ग्रंथों में उक्त प्रकार की शंका का समाधान नहीं मिलता है। इसका मतलब स्पष्ट है कि उपाध्यों ने बाद में समय देख कर सभी पुराण कथाओं के इस तरह के ग्रंथों की रचना की होगी, यही सिद्ध होता है।

जोतीराव : तात, आप इस भागवत पुराण को एक बार पढ़ लें। फिर आपको ही उस भागवत पुराण से ज्यादा इसप नीति अच्छी लगेगी।