गुलामगीरी / भाग-7 / जोतीराव गोविंदराव फुले
[ब्रह्मा, ताड़ के पत्तों पर लिखने का रिवाज, जादूमंत्र, संस्कृत का मूल, अटक नदी के उस पार जाने पर रोक, प्राचीन काल में ब्राह्मण लोग घोड़ी आदि जानवरों का मांस खाते थे, पुरोहित, राक्षस, यज्ञ, बाणासुर की मृत्यु, अछूत (परवारी), धागे की गेंडली का निशान मूलमंत्र, महार, शूद्र, कुलकर्णी, कुनबी, शूद्रों से नफरत, अस्पर्शनीय भाव, मांगल्य (सोवळे), धर्मशास्त्र, मनु, पुरोहितों की पढ़ाई-लिखाई का परिणाम, प्रजापति की मृत्यु, ब्राह्मण आदि के संबंध में।]
धोंडीराव : वामन की मृत्यु के बाद उपाध्यों का मुखिया कौन हुआ?
जोतीराव : वामन की मृत्यु के बाद उन लोगों को कुलीन मुखिया की नियुक्ति के लिए समय ही नही मिला होगा। इसलिए ब्रह्मा नाम का एक चतुर-चालाक दप्तरी था, वही सारा राज्य शासन सँभालने लगा : वह बहुत ही कल्पना-बहादुर था। उसको जैसे-जैसे मौका मिलता था, वह उस तरह से काम करके अपना मतलब साध लेता था। उसके कहने पर, उसकी बात पर लोगों का बिलकुल ही विश्वास नहीं था। इसलिए उसको चौमुँहा कह कर पुकारने का प्रचलन चल पड़ा। मतलब यह कि बहुत ही चतुर हठीला, धूर्त, दुस्साहसी और निर्दयी था।
धोंडीराव : ब्रह्मा ने सबसे पहले क्या किया होगा?
जोतीराव : ब्रह्मा ने सबसे पहले ताड़वृक्ष के सूखे पत्तों पर कील से कुरेद कर लिखने को तरकीब खोज निकाली और उसको जो कूछ इराणी जादूमंत्र और व्यर्थ की नीरस कहानियाँ याद थीं, उनमें से कुछ कहानियाँ उसमें मिला कर, उस काल की सर्वकृत (जिसका अपभ्रंश 'संस्कृत' शब्द है) चालू भाषा में आज की पारसी बयती जैसी छोटी-छोटी कविताओं (छंदों) की रचना की और सबका सार ताड़वृक्ष के पत्तों पर लिख दिया। बाद में इसकी बहुत प्रशंसा भी हुई। उसी की वजह से यह धारणा प्रचलित हुई कि ब्रह्मा के मुँह से ब्राह्मणों के लिए जादूमंत्र विद्या का प्रादुर्भाव हुआ है। उस समय उपाध्ये लोग बिना भोजन पानी के मरने लगे थे। इसी की वजह से वे लोग लुके-छिपे इराण में भाग गए। इसके बाद उन्होंने यह नियम बना लिया था कि अटक नदी या समुद्र को लाँघ कर उस पार किसी को नहीं जाना चाहिए, और इसका उन्होंने पूरा बंदोबस्त कर लिया था।
धोंडीराव : फिर उन्होंने उस जंगल मे क्या-क्या खा कर अपनी जान बचाई?
जोतीराव : उन्होंने वहाँ के फल, पत्ती, कंदमूल और उस जंगल के कई तरह के पंछी और जानवरों को ही नहीं, बल्कि कई लोगों ने अपने पालतू घोड़ी की भी हत्या करके उन्हें भून करके खाया और अपनी जान बचाई। इसीलिए उनके रक्षक उन्हें भ्रष्ट कहने लगे। बाद में उन पंडों ने कई तरह की कठिनाइयों में फँस जाने की वजह से कई तरह के जानवरों के मांस खाए। लेकिन जब उन्हें उस बात कि लज्जा आने लगी तब उन्होंने किसी भी प्रकार का मांस खाने पर रोक लगा दी होगी। लेकिन जिन ब्राह्मणों को पहले से ही मांस खाने की आदत लगी थी, उस आदत को एकदम से छुड़ाना बड़ी मुश्किल बात थी। उन्होंने कुछ समय बीत जाने के बाद समय देख कर उस निम्न कर्म का दोष छुपाने के लिए पशुओं की हत्या करके उनका मांस खाने में सबसे बड़ा पुण्य मान लिया और खाने योग्य पशुओं की हत्या को पशुयज्ञ, अश्वमेध यज्ञ आदि प्रतिष्ठित नामों से संबोधित कर उनके बारे में उन्होंने अपने ग्रंथों में लिख कर रखा। (उसमें उन्होंने यज्ञों का पूरी तरह से समर्थन किया। उनका धर्म अर्थात् ब्राह्मण-धर्मवाद बाद में 'यज्ञों का धर्म' कहलाया। उनके यज्ञ पूरी तरह से हिंसक ही थे। बिना हिंसा के वैदिकों का ब्राह्मणों का यज्ञ होता ही नहीं था-अनु.)।
धोंडीराव : बाद में ब्रह्मा ने क्या किया?
जोतीराव : बली राजा के पुत्र बाणासुर के मरने के बाद उसके राज्य में कोई मुखिया नहीं रहा। प्रजा पर जो नियंत्रण था, वह भी ढीला पड़ गया। जिधर देखिए, उधर बेबसी का वातावरण था। हर कोई अपने-आपको राजा समझ कर चल रहा था। सभी लोग ऐशोआराम की जिंदगी में पूरी तरह से मगशूल थे। यही सुनहरा, उचित समय समझ कर ब्रह्मा ने अपने साथ उन सभी भूख से त्रस्त थे, व्याकुल ब्राह्मण परिवारों को (जिसका अपभ्रंश आज 'परिवारी' है) लिया। फिर उसने राक्षसों पर (रक्षक-जो अब्राह्मणों के यहाँ के मूल निवासियों के रक्षक थे, उन्हें राक्षस कहा गया होगा। राक्षस शब्द मूलत: रक्षक अर्थात रक्षण करनेवाला होना चाहिए-अनु.) रात में एकाएक हमला बोल दिया और उनका पूरी तरह से विनाश किया। बाद में उसने बाणसुर के राज्य में घुसने के पहले इस तरह सोचा होगा कि आगे न जाने किस तरह की मुसीबत अपने पर आ जाए और हम सभी को इधर-उधर तितर-बितर होना पड़े, उसमें हमको अपने-अपने परिवार को पहचानने में कठिनाई हो जाएगी लेकिन तितर-बितर होने के बाद भी हम अपने-अपने परिवार के लोगों को पहचान सकें, इसलिए ब्रह्मा ने अपने परिवार के सभी लोगों के गले में छह सफेद धागों से बने रस्से को अर्थात जातिनिर्देशित निशान, मतलब, जिसको आज (ब्राह्मण लोग) ब्रह्म-सूत्र कहते हैं (जनेऊ) उसको उसने हर ब्राह्मण के गले में पहना दिया। उस जनेऊ के लिए उसने उनको एक जातिनिर्देशित मूलमंत्र दिया, जिसको गायत्री मंत्र [15] कहा जाता है। उन पर किसी प्रकार की मुसीबत आने पर भी उन्हें उस गायत्री मंत्र को क्षत्रियों को नहीं बताना चाहिए, इस तरह की शपथ दिलाई। इसी की वजह से ब्राह्मण लोग अपने-अपने परिवार के लोगों को बड़ी आसानी से पहचान कर अलग-अलग करने लगे।
धोडीराव: उसके बाद ब्रह्मा ने और क्या-क्या किया?
जोतीराव : ब्रह्मा ने अपने उन सभी पारिवारिक ब्राह्मणों को साथ में ले कर बाणासुर के राज्य में घुसपैठ की, फिर हमला किया। उसने वहाँ के कई छोटे-बड़े सरदारों के हौसले नाउम्मेद कर दिया। उसने अधिकांश भूक्षेत्र अपने अधिकार के लिए लिया और युद्ध में कमर कस कर लड़नेवाले महाअरी (आज उस शब्द का अपभ्रंश रूप महार है) क्षत्रियों के अलावा जो लोग उसकी चंगुल में आ गए थे, उनका सब कुछ उसने छीन लिया। बाद में उसने सत्ता की गरमी में उस सब क्षुद्र लोगों (जिसका अपभ्रंश रूप 'शूद्र' है) को अपना गुलाम बनाया। उसने उनमें के कई लोगों को गुलामस्वरूप सेवा के लिए अपने लोगों के घर-घर बाँट दिया। फिर उसने गाँव-गाँव में एक एक ब्राह्मण-सेवक भेज कर उनके द्वारा भूक्षेत्र विभाजन करवाया और उन शेष सभी शूद्रों को कृषिकार्य करने के लिए मजबूर किया। उसने इन कृषक-शूद्रों को जिंदा रहने के लिए जमीन की उपज का कुछ हिस्सा स्वयं ले कर शेष भाग इन स्वामियों को दे देने का नियम बनाया। इसी की वजह से उन ग्राम सेवक ब्राह्मण कर्मचारियों का नाम कुले करणी (जिसका अपभ्रंश रूप है कुलकर्णी) हो गया और उसी प्रकार उन शूद्र कुलों का (किसान) नाम कुलवाड़ी (जिसका अपभ्रंश शब्द है कुलंबी, कुळंबी या कुनबी [16]) हो गया। लेकिन उन दास कुनबियों औरतों को हमेशा ही खेती का काम नहीं मिल पाता था। उनको कभी-कभी ब्राह्मणों के घर का काम करने के लिए, मजबूर हो कर ही क्यों न सही लेकिन जाना पड़ता था। इसलिए कुनबी और दासी इन दो शब्दों में कोई अर्थ भिन्नता नहीं दिखाई देती। उक्त प्रकार के बुनियादी आधार के अनुसार बाद में सभी ब्राह्मण दिन-ब-दिन मस्ती में आ कर शूद्रों को इतना नीच मानने लगे कि उसके संबंध में यदि सारी हकीकत लिखी जाए तो उसका अलग से ग्रंथ हो जाएगा। इस तरह की कुछ बातें आज भी समाज में प्रचलित हैं। ग्रंथ विस्तार के डर के उन बातों की चर्चा यहाँ मैं संक्षेप में ही कर रहा हूँ। उसी प्रकार आजकल के ब्राह्मण भी (चाहे वे झाड़ू लगानेवाले मांतग-महारों की तरह अनपढ़ ही क्यों न हों।) भूखे मरने लगे, इसलिए जो नहीं करना चाहिए, वह नीचकर्म करने पर आमादा हुए हैं। वे लोग पाप-पुण्य की कल्पना किसी भी प्रकार का विधि-निषेध नहीं रखते हैं अज्ञानी शूद्रों को अपने जाल में फँसाने के लिए हर तरह की तरकीबें खोजते रहते हैं। अंत में जब उनका बस न चलता है तब वे शूद्रों के दरवाजे-दरवाजे पर धर्म के नाम पर भीख माँग कर जैसे-तैसे अपना पेट पालते हैं। लेकिन शूद्रों के घर के नौकर (सेवक) बन कर उनके खेत के जानवरों की देखभाल करने के लिए राजी नहीं होंगे। जानवरों के कोठे में पड़े गोबर को उठाने के लिए, कोठे की साफ सफाई करने के लिए, गोबर की टोकरी सिर पर उठाने के लिए तैयार नहीं होंगे। गोबर की टोकरी उठा कर गड्ढे में डालने के लिए तैयार नहीं होंगे। वे लोग किसान के खेत में हल जोतने के लिए, मोट को जोत कर खेतों को, फल सब्जियों के बागों को पानी देने के लिए तैयार नहीं होंगे। वे लोग खलिहान में काम करने के लिए राजी नहीं होंगे। वे लोग खेतों को खोदने, कुदाली-फावड़ा चलाने के लिए खेत से घास सिर पर ढोने के लिए तैयार नहीं होंगे। वे लोग हाथ में लठ ले कर रात-रात भर खेतों में हँसिया से घास काट कर बैलों के लिए खेत से घास सिर पर ढोने के लिए तैयार नहीं होंगे। वे लोग हाथ में लठ ले कर रात-रात भर खेतों की देख-रेख करने के लिए राजी नहीं होंगे। वे लोग किसी भी प्रकार का शारीरिक श्रम करने के लिए शरमाते हैं। वे लोग शूद्रों के घरों में नौकर बन कर, उनकी घोड़ियों की साफ सफाई करने के लिए, दाना खिलाने के लिए, घोड़ों को आगे-पीछे दौड़ने के लिए शरमाते हैं। वे लोग शूद्रों की जूतियों को बगल में दबा कर, सँभाल कर रखने के लिए राजी नहीं होंगे। वे लोग शूद्रों से घरों की साफ-सफाई करने के लिए, उनके घर से जूठे बर्तनों की साफ-सफाई करने के लिए, उनके घर की लालटेन साफ करके जलाने के लिए तैयार नहीं होंगे। वे शूद्रों के घर पर लीपा-पोती का काम करने के लिए तैयार नहीं होंगे। वे लोग रेलवे स्टेशनों पर, बस स्टेशनों पर, माल-धक्के पर कुली, कबाड़ी का काम करने के लिए शरमाते हैं। इसी प्रकार ब्राह्मण औरतें शूद्रों की नौकरानियाँ हो कर शूद्रनियों को नहलाएँगी नहीं, उनके बाल कंघी नहीं कर देंगी। शूद्रों के घर साफ-सफाई का काम नहीं करेगी। शूद्रानियों के लिए बिछाना नहीं लगा कर देंगी। उनकी साड़ियाँ, उनके कपड़े धोने के लिए राजी नहीं होंगी। उनकी जूतियाँ सँभालने के लिए तैयार नहीं होंगी, शरमाती हैं।
फिर जब वे महाअरि (महार) लोग अपने शूद्र भाइयों को ब्राह्मणों के जाल से मुक्त करने की इच्छा से ब्राह्मणों से प्रतिवाद करने लगे, उन पर हमले करने लगे कि वे शूद्र का छुआ हुआ भोजन भी खाने से इनकार करते थे। उसी नफरत की वजह से आजकल के ब्राह्मण शूद्रों द्वारा छुआ हुआ भोजन तो क्या, पानी भी नहीं पीते हैं। ब्राह्मणों की किसी शूद्र के द्वारा छुई हुई कोई भी वस्तु नहीं लेनी चाहिए, इसलिए मांगलिक (सोवळे-ओवळे) होने की संकल्पना को जन्म दिया गया और उनमें यह आम रिवाज हो गया। फिर अधिकांश शूद्र-विरोधी ब्राह्मण ग्रंथकारों ने, दूसरों की बात छोड़िए, अपने मन में भी थोड़ी लज्जा नहीं रखी। उन्होंने मांगलिक होने के रिवाज का इतना महत्व बढ़ाया कि मांगलिक ब्राह्मण किसी शूद्र का स्पर्श होते ही अपवित्र (नापाक), अमांगलिक हो जाता था। इसके समर्थन के लिए उन्होंने धर्मशास्त्र जैसी कई अपवित्र, भ्रष्ट किताबे लिखी हैं। ब्राह्मणों ने इस बात की भी पूरी सावधानी रखी कि शूद्रों को किसी भी तरह पढ़ना-लिखना नहीं सिखाना चाहिए। उन्हें ज्ञान-ध्यान नहीं देना चाहिए, क्योंकि कुछ समय बीत जाने के बाद यदी शूद्रों को अपने बीते हुए काल के श्रेष्ठत्व की स्मृतियाँ हो गई तब वे कभी-न-कभी उनकी छाती नोंचने के लिए कोई भी कसर बाकी नहीं रखेंगे। उनके खिलाफ बगावत, विद्रोह करेंगे, इसलिए उन्होंने शूद्रों को पढ़ने-लिखने से, ज्ञान ध्यान की बातों से दूर रखने के पूरा षड्यंत्र रचा था। उन्होंने अपने धर्मशास्त्रों में शूद्रों के पढ़ने-लिखने के खिलाफ विधान बनाया। उन्होंने इतना ही नहीं किया बल्कि कोई ब्राह्मण यदि धर्मग्रंथ का अध्ययन कर रहा हो, तो उसके अध्ययन का एक शब्द भी शूद्रों के कान तक नहीं पहुँचना चाहिए, इस बात की भी पूरी व्यवस्था उन्होंने की थी और इस तरह का विधान भी उन्होंने अपने धर्मशास्त्रों में लिख रखा था। इस बात के कई प्रमाण मनुस्मृति में मौजुद हैं। इसी आधार पर आजकल के मांगलिक ब्राह्मण भी उसी तरह की अपवित्र, भ्रष्ट किताबों को शूद्रों के सामने नहीं पढ़ते। लेकिन अब समय में कुछ परिवर्तन आ गया है। अब जब कि इसाई समझी जानेवाली अंग्रेज सरकार की धाक से शिक्षा विभाग के पेटू ब्राह्मणों को अपने मुँह से यह कहने की हिम्मत ही नहीं होगी कि वे शूद्रों को पढ़ना-लिखना नहीं सिखाएँगे। फिर भी वे लोग अपने पूर्वजों का लुच्चापन, हरामखोरी लोगों के सामने रखने की हिम्मत नहीं दिखाएँगे। उनमें आज भी यह हिम्मत नहीं है कि शूद्रों को सही समझ दे कर अपने पूर्वजों की गलतियों को स्वीकार करें और अवास्तविक महत्व न बताएँ। उनको आज भी अपने झूठे इतिहासकार पर गर्व है। वे स्कूलों में शूद्रों के बच्चों को सिर्फ काम चलाऊ व्यावहारिक ज्ञान की बातें भी नहीं पढ़ाते, लेकिन वे शूद्रों के बच्चों के मन में हर तरह की फालतू देश अभिमान, देश गर्व की बातें पढाते रहते हैं और उनको पक्के अंग्रेज 'राजभक्त' बनवाते हैं। फिर वे अंत में उन शूद्रों के बच्चों को शिवाजी जैसे धर्मभोले, अज्ञानी शूद्र राजा के बारे में गलग-सलत बातें सिखाते रहते हैं। शिवाजी राजा ने अपना देश म्लेच्छों से (मुसलमान) मुक्त करवा कर गौ-ब्राह्मणों का कैसे रक्षण किया, इस संबंध में झूठी, मनगढ़ी कहानियाँ पढ़ा कर उन्हें खोखले स्वधर्म (ब्राह्मण-धर्म) के अभिमानी बनाते हैं। ब्राह्मणों के इसी षड्यंत्र की वजह से शूद्र-समाज की शक्ति के अनुसार जोखिम के काम करने लायक विद्वान नहीं बन पाते। इसका परिणाम यह होता है कई सभी सरकारी विभागों में ब्राह्मण कर्मचारी, अधिकारियों की ही भीड़ समा जाती है। सभी सरकारी सेवाओं का लाभ इन्हीं ब्राह्मणों को मिल जाता है। और शूद्र समाज के लोग इन सरकारी नौकरियों में, सरकारी सेवाओं में न आ पाएँ, इसलिए इतनी सफाई से, चतुराई से जुल्म-ज्यादातियाँ करते हैं कि यदि इस संबंध में पूरी-पूरी हकीकत लिखी जाए, तो कलकत्ते में नील की खेती के बागानों में काम करनेवाले मजदूरों पर अंग्रेज लोग जो जुल्म करते हैं, वह हजार में एक अधन्ना भी नहीं भर पाएगा। अंग्रेजी राज में भी चारों ओर ब्राह्मणों के हाथ में (नाम मात्र के लिए टोपीवाले) सत्ता होने की वजह से वे अज्ञानी और शूद्र रैयत को ही नहीं बल्कि सरकार को भी नुकसान पहुँचाते हैं। और वे लोग आगे सरकार को नुकसान नहीं पहुँचाएँगे, इसके बारे में निश्चित रूप से भी नहीं कहा जा सकता। ब्राह्मणों के इस व्यवहार के बारे में सरकार को भी जानकारी है, फिर भी अंग्रेज सरकार अंधे का स्वाँग ले कर केवल ब्राह्मण अधिकारी कर्मचारियों के कंधों पर अपना हाथ रख कर उनकी नीति से चल रही है। लेकिन अंग्रेज सरकार को ब्राह्मणों को इसी नीति से गंभीर खतरा पैदा होने की संभावना है, इस बात को कोई नकार नहीं सकता। तात्पर्य यह कि ब्रह्मा ने यहाँ के मूल क्षेत्रवासियों को अपना गुलाम बना लेने के बाद इतनी मस्ती में चढ़ गया था कि उपहास करने की दृष्टि से महाआरियों का नाम 'प्रजापति' रखा दिया, यह तर्क निकाला जा सकता है। किंतु ब्रह्मा के बाद आर्य लोगों का मूल नाम 'भट्ट' लुप्त हो गया और बाद में उनका नाम 'ब्राह्मण' हो गया।