गुलामी के दौर में देशभक्ति की फिल्में / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 15 अगस्त 2019
राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने के पहले अंग्रेज सेंसर से बचते हुए देशप्रेम की भावना जगाने वाली फिल्मों को धार्मिक अख्यान और इतिहास की पृष्ठभूमि पर रची फिल्मों की तरह बनाया जाता रहा है। द्वारकादास सम्पत ने महाभारत की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म 'महात्मा विदुर' में नायक को महात्मा गांधी जैसी पोशाक पहनाई। अभिनेता ने भी महात्मा गांधी की चालढाल और भाव-भंगिमा का ही प्रदर्शन किया। सिनेमाघर में बैठे दर्शक फिल्मकार के इरादे को समझ गए और हर दृश्य पर तालियां बजाने लगे। कहीं-कहीं जय हिंद के नारे भी लगाए गए। द्वारकादास सम्पत की फिल्म 'महात्मा विदुर' 1918 में प्रदर्शित हुई, जब महात्मा गांधी को दक्षिण अफ्रीका से लौटे मात्र चार वर्ष ही बीते थे।
भालजी पेंढारकर बाल गंगाधर तिलक के अखबार 'केसरी' के सह-संपादक थे। उन्होंने अपने भाई बाबूराव पेंटर के आग्रह पर 'वंदेमातरम् आश्रम' नामक फिल्म बनाई, जिसका प्रारंभ ही महात्मा गांधी के इस कथन से होता है कि जो शिक्षा संस्थाएं व्यावहारिक जीवन के सामान्य ज्ञान एवं आदर्श जीवन मूल्यों को अपने पाठ्यक्रम में शामिल नहीं करतीं, वे संस्थाएं मृत समान मानी जानी चाहिए। आज तक पाठ्यक्रम में परिवर्तन नहीं हुआ है। इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग का छात्र घर में बिजली का फ्यूज टीक करना नहीं जानता। सिविल इंजीनियरिंग का छात्र अपने घर की टपकती छत की मरम्मत नहीं करा पाता, अत: उसके बनाए हुए पुल तो टूट ही जाएंगे। बरसात के मौसम में सड़कों पर उभर आए गड्ढों में कारें फंस जाती हैं।
शांताराम ने 1921 में कोल्हापुर में स्थित स्टूडियो में सहायक बढ़ई की नौकरी प्राप्त की और फिल्म निर्माण देखते हुए विधा का ज्ञान प्राप्त करके 1927 में 'उदयकाल' नामक राष्ट्रप्रेम की फिल्म का निर्माण किया। अगर हम 20वीं सदी के फिल्म उद्योग को एक दिन मान लें तो कहना होगा कि शांताराम हिंदुस्तानी सिनेमा के अलसभोर में उससे जुड़े और सामाजिक सोद्देश्यता की फिल्मों के निर्माण के सूर्यास्त के समय विदा हुए।
भालजी पेंढारकर के बड़े भाई बाबूराव पेंटर ने 'शाहुकारी पाश' नामक फिल्म बनाई थी। 'शाहुकारी पाश' में ही वे बीज बोए गए थे, जो मेहबूब खान की 'औरत' और उसके 1957 में बने रंगीन संस्करण 'मदर इंडिया' में अंकुरित होते दिखाई दिए। इस तरह देखें तो बिमल रॉय की 'दो बीघा जमीन' को भी 'शाहुकारी पाश' का ही बाय प्रोडक्ट माना जाएगा। ज्ञातव्य है कि सआदत हसन मंटो ने भी 'किसान कन्या' नामक पटकथा लिखी थी। बाबूराव पेंटर ने ही 1925 में 'बाजीराव मस्तानी' नामक फिल्म बनाई थी। उस समय संजय लीला भंसाली का जन्म भी नहीं हुआ था। एक ही कथा कई बार नए दृष्टिकोण से लिखी जाती है। शरत बाबू का 'देवदास' उपन्यास भी ग्यारह बार फिल्मों में रूपांतरित हुआ। आज भी 'देवदास' एक महान संभावना है, क्योंकि मूल उपन्यास में देवदास 17 वर्ष का है, पारो 14 की और चंद्रमुखी 22 वर्ष की है। आश्चर्य तो यह है कि 1902 में उपन्यास लिखा गया और 1917 में प्रकाशित हुआ। लेखन के समय शरत बाबू भी युवा ही थे। फिल्मकार जैफरली ने रोमियो जूलियट के अपने संस्करण में 14 वर्षीय जूलियट व 17 वर्षीय कलाकारों से ही रोमियो का अभिनय कराया था। भारत में बाल फिल्में तो बनती नहीं किशोरवय के कलाकारों के साथ 'देवदास' कौन बनाएगा।
हिमांशु राय, देविका रानी और निरंजन पॉल लंदन में परिचित हुए और उन तीनों ने भारत आकर 'बॉम्बे टॉकीज' नामक फिल्म निर्माण संस्था की स्थापना की। महान क्रांतिकारी बिपिनचंद्र पाल के पुत्र निरंजन पाल को पुलिस से बचाने के लिए लंदन भेज दिया गया था। निरंजन पाल असाधारण प्रतिभा के धनी थे और उनके अंग्रेजी भाषा में लिखे नाटक लंदन में मंचित भी किए गए थे। हिमांशु राय, देविका रानी और निरंजन पाल ने बॉम्बे टॉकीज की स्थापना की और सारी पटकथाएं निरंजन पाल ने लिखीं। हिमांशु राय के अवचेतन में यह भय समाया था कि अत्यधिक सुंदर देविका रानी किसी परपुरुष के मोहपाश में फंस सकती हैं। निरंजन पाल उन्हें बार-बार समझाते कि उनका भय निराधार है। निरंजन पाल ने महसूस किया कि एक काल्पनिक डर से भयभीत हिमांशु राय के साथ वे काम नहीं कर पाएंगे। अत: वे लंदन लौट गए।
दूसरा विश्वयुद्ध प्रारंभ होते ही बॉम्बे टॉकीज के जर्मन तकनीशियन भारत से निकाल दिए गए और हिमांशु राय को अकेले ही अधूरी फिल्मों को पूरा करना पड़ा। काम और जवाबदारी के अतिरेक से हिमांशु असमय ही हृदयघात के कारण संसार से विदा हो गए। आज़ादी के पहले ही उदयशंकर ने अपने अल्मोड़ा स्थित नृत्यशाला के कलाकारों के साथ 'कल्पना' नामक फिल्म बनाई। इस फिल्म में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ देश की स्वतंत्रता का संदेश था। चेतन आनंद ने मैक्सिम गोर्की की 'लोअर डेप्थ' से प्रेरित 'नीचा नगर' बनाई।
पृथ्वीराज कपूर की नाटक कंपनी से जुड़े लेखक रमेश सहगल ने दिलीप कुमार अभिनीत 'शहीद' बनाई। इस पिता-पुत्र द्वंद्व की फिल्म में पिता अंग्रेजपरस्त सफल धनवान वकील हैं और पुत्र अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र क्रांति करता है। इसी फिल्म में मोहम्मद रफी का गाया गीत 'वतन की राह में वतन के नौजवां शहीद हो, शहीद तेरी मौत ही तेरे वतन की ज़िंदगी' अत्यंत लोकप्रिय हुआ। ख्वाजा अहमद अब्बास की फिल्म 'धरती के लाल' का व्यापक प्रदर्शन नहीं हो पाया, क्योंकि विभाजन के पूर्व ही प्रारंभ हुए दंगों के कारण अनेक शहरों में कर्फ्यू लगा दिया गया था।
श्री हरिकृष्ण 'प्रेमी' के नाटक 'रक्षाबंधन' से प्रेरित फिल्म 'चित्तौड़ विजय' बनाई गई। 'रक्षा बंधन' में एक हिंदू रानी मुगल बादशाह से रक्षा की प्रार्थना करती है और वह आकर उसकी रक्षा करता है। सारांश यह कि गुलामी के दौर में राष्ट्रप्रेम की भावना जगाने वाली अनेक फिल्में बनीं। अंग्रेजों द्वारा संचालित फिल्म्स डिवीजन ने गांधीजी के स्वतंत्रता संग्राम पर इतने वृत्तचित्र बनाए हैं कि उनके आधार पर भी उस महान संग्राम का इतिहास जाना जा सकता है।