गुलामी / सुप्रिया सिंह 'वीणा'
हाँ हम आज़ाद हो गए. घर के प्रतियेक कार्य के लिए नौकरानी है और बच्चो को क्रेच में डाल दिया। अपने लिए अब समय मिल रहा है-आराम से साज संवर कर ऑफीस जाते है और मोबाइल वाट्सएप के साथ फ़ुर्सत में ऑफीस का कार्य निपटाते है। छुट्टी के दिन पति के साथ घूमना होता है या अपनी किटी पार्टी में व्यस्त रहते है। कुछ फालतू सोचने करने का मेरे पास समय नहीं। दूसरे के सोच का बोझ हम क्यों ढोए. सॉरी हम किसी के गुलाम नहीं।
मौन माँ अब बोलती है-"सच बेटी आपने बहुत तरक्की कर ली पर यहाँ रुक कर कुछ सोचना होगा। क्या तुम्हारी स्वतंत्रता तुम्हारी सहयोगिनी है? क्या तुम पूर्णत: सुखी और संतुष्ट जीवन जी रहीं हो? तुमने प्रत्यक्षत: भौतिक वादी प्रवृति को अपनाया है, जो मन की शांति का प्रतीक नहीं है।" कोई भी क्षणित सुख स्थाई नहीं होता, यह प्रकृति का नियम है। आत्मा को एक अलौकिक सुख और शांति का विस्तार चाहिए. हम सत्य के जितने करीब होते है उतना ही मानवीय गुणो का विस्तार होता है। फिर स्त्री तो ईश्वर के समकक्ष है-क्योंकि दोनो में सर्जन की क्षमता है। तुम पुनः उसी गुलामी की ओर अग्रसर हो रही हो जिसने सदियों से नारी को जाकड़ रखा है। किसी पर भी निर्भर होना हमें गुलाम बनाता है। बस गुलामी का रूप परिवर्तित हो गया है। तुमने अपनी दुनिया वाट्सएप में क़ैद कर रखा है-जहाँ खाने-पीने, हँसने-बोलने सोने तक की आज़ादी नहीं। एक दिखावे और भुलावे में जीना तुम्हारी मजबूरी है। अपनी शक्ति सामर्थ्य का ज्ञान हमे स्वयं अच्छी तरह होता है-किसे अपनाना है किसे छोड़ना है यह हमसे बेहतर कोई नहीं जानता, फिर भेद चाल का क्या औचित्य! यह तो संपूर्ण मानवता की दुश्मन है।
मेरी कामना है तुम मुक्ति का प्रतीक बनो। साधन का उपयोग विकास के लिए होना चाहिए विनाश के लिए नहीं। गुलामी की हर ज़ंज़ीर को काटना तुम्हारी प्राथमिकता होनी चाहिए तभी तुम पूर्ण रूपेन आधुनिक होगी और एक समर्थ शक्ति साधिका बनोगी।