गुलिवर की मौत / लिअनीद अन्द्रयेइफ़ / प्रगति टिपणीस
…पहाड़ की तरह विशाल वह शख़्स अपने दर्द से कुछ देर तक जूझता और लड़ता रहा, लेकिन आख़िरकार उसने दम तोड़ दिया। उसके इर्द-गिर्द उसके कुछ दोस्त, दानिशमन्द, दरबारी, डॉक्टर और आम लोग मौजूद थे। लेकिन उनमें से किसी की भी उसके पास जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी, क्योंकि अभी तक उन्हें इस बात पर यक़ीन नहीं हो पा रहा था कि इस पर्वत-मानुस की मौत हो गई है। सभी को इस बात का डर था कि उसके पास जाने पर उसे हो रहे भयानक दर्द के चलते अगर पर्वत-मानुस के हाथ-पैर अनजाने में हिल गए, तो उस झटके की वजह से लगने वाली चोट उनके लिए घातक होगी। लोगों में पर्वत-मानुस का हाल जानने की जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी। उसके घर की ओर उमड़ती भीड़ का हुजूम भी बढ़ता जा रहा था। सुरक्षा का अच्छा इंतज़ाम होने के बावजूद वहाँ व्यवस्था को बनाए रखने में सुरक्षा-कर्मियों को ख़ासी मशक़्क़त करनी पड़ रही थी।
जब दो घंटे तक उस भीमकाय आदमी के बदन में कोई हरकत न हुई तो वहाँ मौजूद लोगों को यह यक़ीन हो गया कि अब उसके शव के पास जाने में कोई ख़तरा नहीं है। पर्वत-मानुस अपने आस-पास वाले लोगों के बीच गुलिवर के नाम से जाना जाता था। उसकी मौत का औपचारिक प्रमाणपत्र तैयार करने के लिए डॉक्टरों को उसके शव के पास रखी सीढ़ी पर चढ़कर उसकी छाती तक पहुँचना पड़ा, ताकि वे पूरी पड़ताल करके इस तथ्य को दर्ज कर सकें कि उसकी वास्तव में मौत हो चुकी है। डॉक्टरों द्वारा अच्छी तरह से जाँच-पड़ताल करने के बाद दिया गया यह मृत्यु-प्रमाणपत्र बाद में प्रकाशित भी किया गया। उस सर्टिफ़िकेट में गुलिवर की मौत की बाबत ये दलीलें दर्ज थीं — गुलिवर की छाती साँस लेते समय इतनी तेज़ी से हिचकोले खाया करती थी कि कई लिलिपुटवासियों को बिलकुल वैसे ही मतलियाँ आने लगती थीं जैसे समुद्री जहाज़ पर सवार सैलानियों को आती हैं। लेकिन उस विराट शरीर में क़ैद वही छाती अब राजधानी के मुख्य मन्दिर के संगमरमर के फ़र्श की तरह गतिहीन और ठण्डी है। साथ ही पर्वत-मानुस का बेतहाशा बड़ा दिल भी बिलकुल शान्त है, उसकी धड़कन से आने वाली डरावनी आवाज़ें और घरघराहटें बन्द हो चुकी हैं। अगर यह माना जाए कि पर्वत-मानुस का दिल शरीर में उसी जगह पर स्थित था, जहाँ लिलिपुटिवासियों का होता है तो डॉक्टरों की टोली को उस जगह से न ही कोई आवाज़ सुनाई दी है और न ही वहाँ कोई हरकत महसूस हुई।
अगली सुबह पूरी राजधानी काले झंण्डों के समन्दर में डूबी हुई थी। पर्वत-मानुस के विदाई-समारोह के लिए दोपहर बारह बजे का वक़्त मुक़र्रर किया गया था। लिलिपुटवासियों की भारी भीड़ शहर के उस फ़ाटक पर उमड़ आई थी, जहाँ से गुलिवर के घर के लिए सड़क जाती थी। सभी जानते थे कि गुलिवर शहर के फ़ाटक से आधा मील दूर स्थित एक निर्जन मन्दिर में रहता है। गणितज्ञों की गणना के अनुसार, गुलिवर के शव के पास 121,223 लोग इकठ्ठा हुए थे। इस गिनती में उन बच्चों का शुमार नहीं था जो ग़रीब महिलाओं की गोद में थे। उन्हीं गणितज्ञों के अनुसार, मरहूम के विदाई-समारोह में बोलने के लिए 15,381 आदमियों ने अर्ज़ी लगाई थी। इस बात ने दुश्वारी यह पैदा कर दी थी कि किसे बोलने का मौक़ा दिया जाए और किसे नहीं।
शुरू में किसी ने यह सुझाव रखा कि नाम की पर्ची निकालकर वक्ताओं का चुनाव किया जाए। लेकिन बहुत लोग इस सुझाव के हक़ में नहीं थे। इन लोगों का कहना था कि पर्ची निकालकर वक्ता चुनने का तरीक़ा बिलकुल ठीक नहीं है। इस तरह से चयन करने पर वक्ताओं की सूची में गूंगे-बहरों का भी शुमार हो जाएगा, क्योंकि अर्ज़ी लगाने वालों में वे लोग भी शामिल थे। इन लोगों ने सुझाव रखा कि वक्ताओं का चुनाव उनकी क़द-काठी और आवाज़ की बुलन्दी के आधार पर किया जाना चाहिए। उनका यह भी कहना था कि ऐसा करते समय विद्वानों और वैज्ञानिकों को थोड़ी रियायत दी जानी चाहिए क्योंकि ये लोग आमतौर पर झुककर चलते हैं और बातें फुसफुसाकर करते हैं, इसलिए इनकी सही लम्बाई और आवाज़ का किसी को ठीक अंदाज़ा नहीं होता है।
काफ़ी देर तक सोच-विचार करने के बाद इन्हीं दोनों कसौटियों के आधार पर वक्ताओं को चुनने का फ़ैसला किया गया। सबसे पहले बुलन्द आवाज़ वाले 500 लोगों को चुना गया। उन्हें फिर उनकी ऊँचाई या लम्बाई के आधार पर अलग-अलग गुटों में बाँटा गया। फिर सबसे लम्बे 60 वक्ताओं को मंच पर आमंत्रित किया गया। दुर्भाग्यवश उनमें से दो को फ़ौरन ही ख़ारिज कर देना पड़ा। एक को तो यही नहीं पता था कि उसने अर्ज़ी क्यों भेजी थी और दूसरे ने उसकी देखा-देखी अपना नाम भेज दिया था। यह बात भी खेदजनक है कि शाम होने तक बहुत सोच-समझ कर निर्धारित की गईं कसौटियाँ बेकार साबित हो गईं। चयनित वक्ताओं की सूची से इतर कुछ लोग मंच पर चढ़ आए थे और मरहूम गुलिवर की शान में क़सीदे पढ़े जा रहे थे। वे लोग मौजूद हुजूम को भड़काने का काम भी कर रहे थे। लेकिन यहाँ उन लोगों और उनकी बातों का ज़िक्र करना बेकार है।
उस समारोह की भव्यता का वर्णन कर पाना संभव नहीं है। भीड़ के उन लोगों को समारोह में शिरकत नहीं करने दी गई थी जो सस्ती और भड़कीली पोशाकों में आए थे। गुलिवर की लाश के बग़ल में खड़े लिलिपुटवासी चींटियों की तरह लग रहे थे। ये सभी काले रंग के महँगे सूट पहने हुए थे। कुछ लोग घोड़ों पर भी सवार थे। लिलिपुटियन सैनिक और गार्ड अपनी शानदार वर्दियों में क़दमताल कर रहे थे। गुलिवर के जिगरी दोस्तों में वह लिलिपुटियन भी था जो अपने साथियों से नाख़ून बराबर ही लम्बा था, लेकिन उसकी इसी ख़ूबी के चलते सब उसे पर्वत-मानुस का उत्तराधिकारी बनाना चाहते थे। ऊँची एड़ी के जूते पहने घमण्ड और उत्सुकता से तना हुआ वह गुलिवर की लाश के पास चहलक़दमी कर रहा था। अपने जूतों की वजह से वह और अधिक लम्बा और ख़ास लग रहा था। इतराते हुए वह गुलिवर की पीली और ठण्डी पड़ गई छोटी उँगली पर आराम करने के लिए बैठ गया। लेकिन जल्दी ही वह यह समझ गया कि शव के एक तरफ़ बैठने से वह दूसरी ओर के लोगों को वह दिखाई नहीं देगा। शव उसकी तुलना में इतना विराट जो था ! वह फ़ौरन उठा और शव के घुटनों पर चढ़कर वज्रासन की मुद्रा में बैठ गया। अब वह सबको दिखाई दे रहा था। तेज़-नज़र लिलिपुटवासियों को तो वह सबसे दूर की क़तारों से भी नज़र आ रहा था।
भाषण के लिए मंच पर्वत-मानुस की छाती पर ही बनाया गया था। मंच को छोटी पताकाओं और फूल-पत्तियों से सजाया गया था। जल्दबाज़ी में बनाई गई गुलिवर की एक आवक्ष-प्रतिमा भी वहाँ लगाई गई थी। प्रतिभाशाली मूर्तिकार ने भावावेग में आकर अपनी कृति को गुलिवर से कहीं अधिक भव्य और महान बना दिया था। प्रतिमा को पास से देखने के बाद हर कोई यही फुसफुसा रहा था कि चापलूसी की भी आख़िर कोई हद होती है। मंच के बाईं ओर गुलिवर के पेट पर ही सम्मानित अतिथियों के बैठने की व्यवस्था थी। ये ख़ास लोग आम लोगों की भीड़ को तिरस्कार की नज़रों से देख रहे थे। लेकिन प्रतिष्ठित लोगों में अपने प्रिय और परिचित चेहरे देखकर आम जनता की ख़ुशी का ठिकाना न था। भीड़ की नजरों से बचाने के लिए गुलिवर की क़ब्र खोद रहे लोगों के इर्द-गिर्द जल्दबाज़ी में एक बाड़ खड़ी कर दी गई थी। जब कभी लोगों का शोर थोड़ा थमता था तो पत्थर पर गिरने वाले लोहे के औजारों की खनक और खोदी जा रही मिट्टी की सरसराहट की आवाज़ें सुनाई देने लगती थीं और यह भान हो जाता था कि क़ब्र की खुदाई का काम ज़ोर-शोर से चल रहा है। मंच की ऊँचाई से क़ब्र का गड्ढा दिखाई देने लगा था। समारोह के शुरू होने की प्रतीक्षा में बैठे प्रतिष्ठित अतिथि पूरी दिलचस्पी से क़ब्र की खुदाई का काम देख रहे थे और लॉर्ड रेलड्रेसल के काम और नीतियों की ख़ूब तारीफ़ कर रहे थे।
आखिरकार सभा शुरू हो गई। सभा के संचालक के इशारे पर भाषण शुरू हुए।
सबसे पहले विद्वानों को मंच पर आमंत्रित किया गया। वे सभी एक साथ वहाँ पहुँचे और एक साथ ही बोलने लगे। सभी ने लगभग एक जैसी ही बातें दोहराईं। फुसफुसाहटों में दिए उनके भाषण कोई सुन नहीं पाया। इससे उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा, क्योंकि उनके भाषण घर पर संशोधित और संपादित करने के बाद लिलिपुटियन विज्ञान अकादेमी की "वार्षिक पुस्तिका" में प्रकाशित होने वाले थे, ताकि तथाकथित विद्वान-मण्डली के सभी सदस्य उन्हें पढ़ सकें। आम-ओ-ख़ास दोनों ही वर्ग के लोगों ने भाषणों के बीच ही नाश्ता करना शुरू कर दिया। समारोह शुरू होते-होते बहुत देर हो गई थी और अब तक लोग बहुत थक गए थे। समारोह-संचालक के निर्देश पर उस जगह पर संगीत की व्यवस्था कर दी गई, जहाँ पर ख़ास लोग नाश्ता कर रहे थे। मौक़े की नज़ाकत को देखते हुए उदास और शोकाकुल धुनें ही प्रस्तुत की गईं।
लिलिपुटियन विज्ञान अकादेमी की "वार्षिक पुस्तिका" में छपे विद्वानों के भाषणों में मुख्य रूप से जिन बातों को रेखांकित किया गया था, वे ये हैं — पर्वत-मानुस इसलिए अनोखा था क्योंकि उसकी क़द-काठी विशाल थी और उसकी ताक़त उसके शरीर के अनुरूप थी। विद्वानों ने गुलिवर की ऊँचाई, उसके शरीर के गठन और उसके वज़न की बहुत ही सटीक और सही जानकारी प्रस्तुत की थी। लेकिन वैज्ञानिक इस बात का कोई जवाब नहीं दे पाए थे कि गुलिवर इतना लम्बा-चौड़ा क्यों था और अब तो शायद यह बात हमेशा के लिए पहेली बन गई थी। साथ ही वे यह समझने में असमर्थ थे कि उसे इतना भीमकाय बनाने के पीछे क़ुदरत की क्या मंशा रही होगी। उसकी ताक़त को लेकर वैज्ञानिकों में थोड़ा मतभेद था। कुछ का दावा था कि ताक़त से ही सब कुछ नहीं होता, जबकि दूसरों का मानना यह था कि अगर गुलिवर इतना ताक़तवर न होता तो इतने सारे निर्माण-कार्य और बोझ उठाने वाले काम वह कैसे करता। लेकिन आख़िर में सब इस बात पर सहमत हुए कि ताक़त की व्याख्या करना असंभव है, इसलिए ज़रूरत से ज़्यादा ताक़त मानवजाति के लिए ख़तरनाक और नुक़सान-देह होती है। इसलिए विज्ञान और उसके नामचीन नुमाइंदे गुलिवर की हक़ीक़त को ख़ारिज करते हैं। सभी साइंसदानों का यह मानना है कि गुलिवर मात्र आम-लोगों की कल्पना की उपज था। उसके मिथक को लोगों ने चमत्कार और अजूबों के प्रति अपनी भूख को शान्त करने के लिए गढ़ा था। हक़ीक़त तो यह है कि गुलिवर कभी वजूद में था ही नहीं और जो कोई भी इससे उलट दावा करेगा वह साइंसदान होने का हक़ खो देगा। उसे अकादेमी से हमेशा के लिए बेदख़ल कर दिया जाएगा और अकादेमी की " वार्षिक पुस्तिका" में उसकी भर्त्सना की जाएगी।
सभी विद्वान अपने भाषणों की समाप्ति पर ज़ोरदार तालियों की गड़गड़ाहट के बीच एक झुण्ड में गुलिवर के शव से नीचे उतरे। लेकिन नीचे उतरते ही अकादेमी के दो प्रतिष्ठित प्रतिनिधियों के बीच हाथापाई शुरू हो गई। बाद में मिली ख़बरों के मुताबिक़ यह हाथापाई गुलिवर के बारे में एक बुनियादी असहमति के कारण हुई थी। एक का कहना था कि गुलिवर एक मिथक है और दूसरा उसे एक किम्वदन्ती मानता था। इस दौरान कुछ विद्वान यह शिकायत करने लगे कि गर्म कपड़ों, जूतों और सभी ज़रूरी उपाय कर लेने के बावजूद मंच पर सर्दी लग जाने की पूरी सम्भावना थी, क्योंकि ठण्डे पड़ गए गुलिवर के भीमकाय शव के आसपास सब कुछ इतना ठण्डा हो गया था कि जोशीले से जोशीला वक्ता भी वहाँ पर जम सकता था। उनका कहना था कि लाश पर मंच बनाने का ख़याल ही न केवल एक भद्दा मज़ाक था, बल्कि साइंस की तौहीन भी था। उनको यह डर भी था कि वहाँ इकठ्ठा अज्ञानी भीड़ जिसने गुलिवर की लाश को अपनी आँखों से देखा है, वह भला वैज्ञानिकों द्वारा दिए गए इस नतीजे को कैसे मानेगी कि गुलिवर एक मिथक है। लेकिन समारोह-संचालक के एक ही इशारे पर विद्वत-मंडली की उत्तेजना तुरन्त ही शान्त हो गई और उन दो लड़ने वाले प्रतिष्ठित विद्वानों को एक बिना खिड़की वाली अंधेरी गाड़ी में बिठाकर वापस अकादेमी भेज दिया गया।
अब बारी आई गुलिवर के बेशुमार दोस्तों की। इन्हें जब बोलने के लिए आमंत्रित किया गया तो इन लोगों ने आहें और सिसकियाँ भरते हुए अपने मृतक मित्र को याद किया। इनमें जो पहला वक्ता था, वह पर्वत-मानुस का सबसे क़रीबी दोस्त था। उसकी आवाज़ सुरीली और भारी थी। उसका हुलिया असरदार था। भाव-विभोर आवाज़ में उसने तफ़सील से यह बताया कि गुलिवर कैसे एक बार उसे अपनी जेब में रखकर पूरे दो दिन के लिए उसके बारे में भूल गया था। अपनी अद्भुत वाक्पटुता का परिचय देते हुए उसने उत्सुक श्रोताओं को उन दो दिनों के दौरान अपनी लाचारी का विवरण दिया। उसने बताया कि वो दो दिन भूख, प्यास और अँधेरे से जूझते हुए उसने कैसे गुज़ारे। और इस बारे में भी बताया कि तीसरे दिन तम्बाकू की डिबिया निकालने के लिए गुलिवर ने जब जेब में हाथ डाला और वहाँ अपने अज़ीज़ दोस्त को पाया तो गुलिवर की ख़ुशी सातवें आसमान पर थी। वक्ता ने बड़ी विनम्रता से इस बात का ज़िक्र भी किया कि उसकी सलाहों और सुझावों पर अमल करने के कारण ही गुलिवर इतना ताक़तवर और महान बना था।
दूसरा वक्ता गुलिवर का सबसे पुराना दोस्त था और उसकी आवाज़ बहुत मीठी थी। एक दोस्त के नाते मृतक के प्रति उसका ईमानदार होना लाज़िमी था, इसलिए उसने मृतक की कुछ बुराइयों का भी ज़िक्र किया। उसने यह स्वीकार किया कि गुलिवर लालची, स्वार्थी और अहंकारी था। अपने फ़ायदे के लिए वह किसी भी हद तक जा सकता था। वह सिर्फ़ ऐसे मशहूर लोगों से दोस्ती करता था, जिनके बड़प्पन की रौशनी उसकी चमक को बढ़ा सकती थी। गुलिवर एक मामूली-सा शख़्स था और अधिक लम्बा नज़र आने के लिए मोटे तले के जूते पहनता था। जिस लिलिपुट राज्य ने उसे आश्रय दिया था, मृत्यु से ठीक पहले वह उसी राज्य के साथ विश्वासघात करने की योजना बना रहा था। इस बात का ख़ुलासा वक्ता ने रुआँसी आवाज़ में बमुश्किल किया। वक्ता ने यह भी कहा कि उस नाचीज़ की कोशिशों के चलते ही यह सम्भव हुआ था कि गुलिवर ने लिलिपुटवासियों को अपने जूतों तले नहीं रौंदा। उसका कहना था कि शब्दों में उस हिकारत, नफ़रत और जलन को बयान कर पाना मुमकिन नहीं है जो गुलिवर अपने सभी सच्चे दोस्तों के लिए महसूस करता था। गुलिवर सिर्फ़ और सिर्फ़ ख़ुशामदी लोगों को अहमियत देता था...।
बड़े अफ़सोस की बात है कि उत्तेजना के आवेग में अचानक इस वक्ता को किसी अजीबोग़रीब बीमारी का दौरा पड़ गया। उसके मुँह से झाग निकलने लगा और मीठी बोलों की जगह बेक़ाबू चीख़ों ने ले ली। हालाँकि समारोह-संचालक के इशारे पर उसका दौरा फ़ौरन ही थम गया और तालियों की गड़गड़ाहट के बीच वह सिर ऊँचा किए हुए नीचे ज़मीन पर उतरा। लेकिन सबसे ज़्यादा तालियाँ तीसरे वक्ता के हिस्से में आईं। वह भी गुलिवर का एक ख़ास दोस्त था। अपने ओजपूर्ण भाषण से उसने मौजूद लिलिपुटवासियों में देशभक्ति की आग जला दी थी। उसने यह साबित कर दिया कि अगर गुलिवर को खाने के लिए हर साल हज़ारों की तादाद में लिलिपुटियन भेड़ें न मिली होतीं तो उसका कोई वजूद ही न होता। अपनी आवाज़ को और ऊँची करके वह बोला कि हमारी लिलिपुटियन भेड़ों की बदौलत ही पर्वत-मानुस को ताक़त और शोहरत मिली। हमारी भेड़ों ने ही उसके मांस, ख़ून और दिमाग़ का पोषण किया।
दुश्मनों के ब्लेफ़ुस्कु द्वीप पर जीत किसने हासिल की? पर्वत-मानुस ने? जी नहीं। ये हमारी लिलिपुटियन भेड़ें थीं जिन्होंने ब्लेफ़ुस्कु द्वीप को हराया। पर्वत-मानुस भेड़ों के झुण्ड के अलावा और कुछ नहीं था !
अब वक्ता ने दिल छू लेने वाले जीवन्त रंगों में लिलिपुटियन भेड़ों की तस्वीर उकेरनी शुरू की। हमारी भेड़ें विनम्र, और आज्ञाकारी होने के साथ-साथ राष्ट्रहित में अपना सब कुछ निछावर करने के लिए भी तैयार रहती हैं। हालाँकि इन्हें ज़रूरी तवज्जो नहीं दी जाती है लेकिन इनका ऊन ज़िन्दगी में चमक भरता है और इनका मांस ही लिलिपुट राज्य को शक्ति प्रदान करता है। वक्ता ने अपनी स्वर-तंत्रिकाओं की फ़िक्र न करते हुए लिलिपुटियन भेड़ों की शान में तत्काल रचित अपनी कविता भी गाकर सुनाई।
श्रोताओं का आनन्द चरम सीमा पर पहुँच ही रहा था कि समारोह-संचालक ने गायन बंद करने का निर्देश दिया। कोई भी गायन, भले ही वह कितना भी देशभक्तिपूर्ण क्यों न हो, कभी-कभी बहुत ख़तरनाक साबित होता है। बात दरअसल यह थी कि भीड़ में उच्च वर्ग की भाषा को समझने वाले लोग कम थे। मौजूद लोगों ने गीत की लय तो पकड़ ली थी लेकिन गीत के बोलों को वे अपनी समझ के अनुसार शब्द दे रहे थे। अगले वक्ताओं को सचेत करते हुए समारोह-संचालक ने उन मुद्दों को गिनवाया, जिनपर चर्चा करना वर्जित था। उसके द्वारा गिनवाए गए मुद्दे थे — नई मौद्रिक प्रणाली, लिलिपुट-राज्य के दक्षिण-पूर्व में स्थित नहर, एडमिरल जनरल की फुंसियों भरी नाक आदि। वैसे तो एडमिरल जनरल की नाक का मज़ाक़ बनाने का कोई भी मौक़ा सड़कछाप लफ़्फ़ाज़ ज़ाया नहीं करते थे। साथ ही संचालक ने उस अभद्र विधि का उल्लेख करने पर भी रोक लगा दी, जिसकी मदद से गुलिवर ने कभी कोई आग बुझाई थी। इसी तरह के कई और मुद्दों को भी निषिद्ध बताया गया था। इन मुद्दों की सूची पढ़ने में लगभग एक घंटे का समय लगा। समय का सदुपयोग करते हुए लिलिपुट की सेना की टुकड़ियों ने इस दौरान शव के सामने तीन बार सलामी-जुलूस निकाला।
अगला वक्ता दुर्भाग्य से लिलिपुटवासियों के बिलकुल उलट एक चिड़चिड़ा और बे-तहज़ीब शख्स निकला। हँसमुख भीड़ के मनोरंजन के लिए वह यह साबित करने लगा कि पहले तीन वक्ता गुलिवर से परिचित तक नहीं थे, जो ख़ुद को उसका क़रीबी दोस्त बता रहे थे। गुलिवर की अंधेरी जेब में दो दिन रहने का दावा करने वाला शख़्स वहाँ संयोगवश पहुँचा। जेब में उसे पाकर गुलिवर ख़ुश होने के बजाय बहुत ही नाराज़ हुआ था और ख़ूब फटकार लगाने के बाद गुलिवर ने उसे सज़ा भी दिलवाई थी। उसने कहा वह कभी भी पर्वत-मानुस का मित्र नहीं कहलाना चाहेगा। उसे अगर नक़ली मुद्रा बनाने और गुलिवर से दोस्ती करने के बीच किसी एक काम को चुनना हो तो वह पहले काम को ही चुनेगा ...।
इस भाषण से लोगों का आक्रोश इतना बढ़ गया था कि वक्ता की ठीक-ठाक पिटाई हो जाती, लेकिन एक अजीब-सी दुखद घटना से उसका भाषण रुक गया। हुआ यह कि वह लम्बा लिलिपुटियन, जिसे पर्वत-मानुस का उत्तराधिकारी माना जा रहा था और जो उसके घुटनों पर बैठा हुआ था, अचानक सिर के बल गिर पड़ा। एक आसन से दूसरे आसन की तरफ़ जाते वक़्त उसकी एड़ी किसी चीज़ में फँस गई थी। मरते-मरते वह सिर्फ़ इसलिए बचा क्योंकि वह एक लम्बी और थुलथुल औरत पर जा गिरा था। उस डरी हुई औरत की चीख़, भीड़ के बेतहाशा ठहाकों और चारों तरफ़ से हो रही चीख़-पुकार और सीटियों से कुछ लम्हों के लिए समारोह भंग हो गया। लेकिन जैसे ही समारोह-संचालक ने शान्त रहने का अनुरोध किया, शोर तुरन्त थम गया और ख़ाली हुए मंच पर नए वक्ता चढ़ आए। इन लोगों के भाषणों के बारे में कुछ भी कहना मुश्किल है, ख़ासकर इसलिए क्योंकि उनकी आवाज़ें शव की ऊँचाई के कारण नीचे तक सुनाई नहीं दे रही थीं। लेकिन कार्यक्रम में मौजूद सभी लोग एक-सुर में इस बात का दावा कर रहे थे कि भावनाओं की इतनी सुन्दर अभिव्यक्ति, शब्दों का इतना बढ़िया प्रभाव उन्होंने पहले कभी नहीं देखा था। कई श्रोता अत्यन्त भावुक हो गए थे। और जेब से रूमाल चुरा रहे जेबक़तरों को यह शिकायत थी कि उन्हें सभी रूमाल गंदे और नम मिले थे और इस वजह से वे उनका फ़ौरी इस्तेमाल नहीं कर पा रहे थे।
आवाज़ें बुलन्द होने के बावजूद गायक दबी आवाज़ों में गा रहे थे। उनके गायन से लोगों के मनों में पर्वत-मानुस की एक भव्य छवि उभरने लगी थी और माहौल अधिकाधिक जीवन्त होने लगा था। लेकिन तभी घटित एक और दुखद घटना से संगीत और गायन में रुकावट होने लगी और लोगों की निगाह भीड़ की पिछली क़तारों की ओर मुड़ गईं। पीछे की क़तारों के लोगों को यह पता ही नहीं था कि मंच पर संगीत का समां बँधा हुआ है। भीड़ के उस हिस्से से एक तेज़ और अजीब सी आवाज़ आ रही थी जो पहले की सभी आवाज़ों से बहुत अलग थी। इस रुकावट का पता लगाने के लिए भेजे गए गए लोगों ने समारोह-संचालक को लौट कर बताया कि वहाँ पर किसी आम आदमी का बच्चा रो रहा है, जिसे शायद पर्वत-मानुस के गुज़र जाने का बहुत दुख है। जब तक समारोह-संचालक यह समझ पाता कि माजरा क्या है, उस बच्चे के रोने की आवाज़ में सर्वहारा वर्ग के दूसरे बच्चों की रोने की भद्दी और कर्णभेदी आवाज़ें जुड़ गईं। वैसे यह कोई नई बात नहीं थी, आमतौर पर एक बच्चे के रोने पर दूसरे बच्चे भी रोना शुरू कर देते हैं। प्रबंधकों द्वारा रोने की आवाज़ों को रोकने की तमाम कोशिशें, जिनमें उन्हें थप्पड़ और चपतें लगाना भी शामिल था, बेकार गईं। रोने की आवाज़ें तेज़ से तेज़तर होती चली गईं। इस वाक़ये ने ठण्डी और काठ हो गई लाश के इर्दगिर्द एक बेहद शर्मनाक माहौल बना दिया। सभी बच्चों को तथा उनके माता-पिता और रिश्तेदारों को उस जगह से हटाने पर ही वहाँ शान्ति बहाल हो सकी, लेकिन समारोह की वो पुरानी शान वापस न आ पाई। अब अनजान और गंदे-से कुछ वक्ता बेशर्मी से मंच पर चढ़ गए और पर्वत-मानुस को पूरी तरह भुलाकर अपनी कुछ माँगों और इच्छाओं का राग अलापने लगे। तभी वहाँ मारपीट भी शुरू हो गई। चंद चश्मदीद गवाहों का कहना था कि समारोह में देर से आए विद्वानों की पिटाई हो रही थी, तो कुछ यह दावा कर रहे थे कि गुलिवर के उन दोस्तों से निपटा जा रहा है, जो वक्ताओं के साथ हाथापाई करने लगे थे।
समारोह का समापन कैसा हुआ, इस बारे में कोई जानकारी कहीं दर्ज नहीं मिलती है। मानो इस वाक़ये के बाद कुदरत और इतिहास दोनों के ही पन्नों पर अंधकार छा गया हो। हमें यह मानकर चलना होगा कि समारोह-संचालक के इशारे पर वहाँ व्यवस्था बहाल हो गई होगी, क्योंकि उस दौर की किसी भी ऐतिहासिक कृति में किसी भी असामान्य या भयावह बात का संकेत नहीं मिलता है। बल्कि इसके उलट उस भव्योत्सव के उपलक्ष्य में ढाले गए स्मारकीय कांस्य सिक्के इस बात की गवाही देते हैं कि माहौल बहुत ख़ुशनुमा था और लोग बहुत अच्छे मूड में थे, क्योंकि इन सिक्कों में लिलिपुटवासियों को विनम्रतापूर्वक मुस्कुराते हुए पर्वत-मानुस के सिर पर पुष्पमालाएँ चढ़ाते दिखाया गया है।
जल्दी ही रात हो गई। रात के आते ही उस वीरान मैदान पर एक ख़ौफ़नाक और दुखद सन्नाटा छा गया, जहाँ पर वह भीमकाय और सख़्त हो चुकी, लेकिन बहुत ही ख़ास लाश अपनी क़ब्र के इन्तज़ार में पड़ी हुई थी। शहर अभी भी रौशनियों से जगमगा रहा था और वहाँ पर्वत-मानुस के सम्मान में सभाएँ अभी भी चल रही थीं। हवा के झोंकों के साथ उधर की आवाज़ें यदाकदा इधर भी पहुँच रही थीं। यहाँ पर घुप्प अँधेरा और सन्नाटा था। लेकिन जैसे ही चाँद बादलों के पीछे से अपना नन्हा-सा मुँह बाहर निकालता था, तो उस फीकी चाँदनी में विशाल शव बर्फ़ीली पर्वत-चोटियों की किसी शृंखला की मानिन्द लगने लगता था। हालाँकि जिस तरफ़ लाश की बड़ी और काली परछाई पड़ रही थी, वहाँ कुछ मंद रोशनियाँ अभी भी टिमटिमा रही थीं। वहाँ तीन हज़ार लिलिपुटवासी बहुत तेज़ी से उस विराट मनुष्य के लिए क़ब्र खोद रहे थे। रेत और मिट्टी पर उनके फावड़ों के रगड़ने की धीमी आवाज़ सुनाई दे रही थी, पत्थरों पर कुदालों के पड़ने से उन से नीली चिंगारियाँ निकल रही थीं। गिनी-चुनी मशालों की हलकी रोशनी उन काम पर लगे छोटे जीवों को बमुश्किल रौशन कर पा रही थी और वह काला झुण्ड अँधेरे की काली खाई के तल में रेंगता हुआ जान पड़ता था। कोई लगातार उनपर काम जल्दी ख़त्म करने का दबाव डाल रहा था। कहीं से धीमी आवाज़ में आदेशों की फुफकारें सुनाई दे रही थीं और जल्दी-जल्दी क़ब्र खोद रहे लोगों के बीच में डर अदृश्य रूप से पसरा हुआ था।
लाश के दूसरी तरफ़ चाँद की रौशनी पड़ रही थी। उस हिस्से में कुछ धुँधले और लाश की तरह ही गतिहीन-से लेकिन ज़िन्दा धब्बे ओझल होते जा रहे थे। ये लिलिपुटवासी थे जो नीले सन्नाटे में घुटनों के बल बैठे प्रार्थना कर रहे थे। उनमें से कुछ उदासी और घृणा से त्रस्त होकर उस रात चीख़ों और शोरगुल से भरे शहर से भाग गए थे। उन धब्बों का आकार निरन्तर बदल रहा था कभी वह संकरा हो जाता था तो कभी चौड़ा। लेकिन धरती पर गुलिवर द्वारा बिताई गई आख़िरी उस यादगार रात के संवेदनशील सन्नाटे को किसी भी कर्कश ध्वनि ने भंग नहीं किया। चाँद जैसे-जैसे ऊपर चढ़ता जाता था, वह और चमकीला होता जाता था। आसमान पर छाए धुँधले बादल छँट रहे थे। मृत व्यक्ति के मुख पर दिव्य शान्ति छाई हुई थी। रात बीत रही थी। शहर में कुछ शालीन और दयालु लिलिपुटवासी भी थे जो सड़कों पर बाहर निकलने, शोरगुल वाले मैदानों या बड़े-बड़े सभागारों में जाने के बजाय अपने छोटे-छोटे खिलौनानुमा घरों में बैठकर दुनिया पर छाए सन्नाटे को डरावनी निगाहों से देख और महसूस कर रहे थे। एक महान मानव-हृदय हमेशा के लिए दुनिया से चला गया था। एक ऐसा शख़्स जो देश की शान था, जिसके दिल की धड़कनें लिलिपुट राज्य के दिनों और अँधेरी रातों को अर्थपूर्ण बनाती थीं। अगर कभी ऐसा होता था कि आधी रात को कोई लिलिपुटवासी किसी भयानक सपने से जाग उठ्ता था तो उस शक्तिशाली हृदय की समगति से आतीं धड़कनों को सुनते ही वह शान्त हो जाता था और दुबारा सो जाता था। वह नेकदिल एक वफ़ादार संतरी की तरह उन सब की रखवाली करता था और उसकी तेज़ धड़कनें धरती पर सद्भावना और शान्ति का संचार करने के साथ-साथ उन भयानक सपनों को दूर भगा देती थीं जो लिलिपुट की अँधेरी रातों में वहाँ के वासियों को दीखते थे।
यों दुनिया से एक विशाल मानव हृदय कूच कर गया। एक सन्नाटा छा गया। एक अनाथ हो गया असहाय-सा लिलिपुटवासी ख़ौफ़ भरे मन से उस सन्नाटे को सुनते हुए फूट-फूट कर रोने लगा।
1911 —————
मूल रूसी भाषा से अनुवाद : प्रगति टिपणीस
भाषा एवं पाठ सम्पादन : अनिल जनविजय
मूल रूसी भाषा में इस कहानी का नाम है — (Леонид Андреев — Смерть Гулливера)
