गूँज भाग 2 / महावीर प्रसाद
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‘‘यह मुस्लिम औरतों की विवशता है। वे चाहकर भी इसलाम की सड़ी-गली मान्यताओं से छुटकारा नहीं पा सकतीं। हमारा समाज वहशी दरिंदों का समाज है। अभी कश्मीर में बुर्का नहीं पहननेवाली मुसलिम लड़कियों पर गुंडे किस्म के कुछ कट्टरपंथी मुसलमानों ने तेजाब फेंक दिया-समाज तो मुँह देखता रह गया। वोट की भूखी सरकार भी चुप्पी साध गई। तुम्हारा हिंदू समाज इन सब मामलों में बेहतर है तुम्हारे यहाँ समाज-सुधार की लहर चली और परदा-प्रथा उठ गई। लोगों ने आवाज उठाई और घिनौनी सती-प्रथा का अंत हो गया। ऊँचे खयालात के लोगों ने कदम कदम बढ़ाए और विधवा-विवाह शुरू हो गया। मेरे मजहब में तो आवाज उठाने वालों का गला घोंट दिया जाता है। मैंने तो फैसला कर लिया है कि मैं अपने भाग्य का निर्णय स्वयं करूँगी।’’
‘‘तुम्हारा समाज तुम्हें ऐसा करने की इजाजत नहीं देगा।’’
‘‘जरूरत पड़ने पर मैं समाज को ठोकर मार दूँगी।’’
‘‘ठीक है, फिर हम दोनों ऐसा ही करेंगे।’’
‘‘क्यों ? तुम्हारे मजहब में तो किसी चीज की पाबंदी नहीं है।’’
‘‘पाबंदी तो नहीं है, लेकिन एक-से-एक दरिंदे हमारे समाज में भी हैं, जिनकी कथनी और करनी में जमीन-आसमान का अंतर है। किंतु हम दोनों ऐसे ही मर्दों को अपने लिए ढूँढ़ेंगे, जो समाज के कहने पर हम लोगों को नहीं छोड़ेंगे। दुनिया में कुछ अच्छे मर्द तो हैं ही।’’
‘‘जरूर शहनाज हँसकर बोली, ‘‘लेकिन अपने लिए अलग-अलग।’’
‘‘सौ फीसदी अलग-अलग। सुख में बँटवारा कौन चाहता है !’’
‘‘हम लोग कहाँ चाहते हैं ! चाहता तो मर्द है, जो दर्जन भर बीवियों से भी संतुष्ट नहीं होता है। रखैल रखने की बात करता है और कोठा आबाद करने पर फख्र महसूस करता है। पता नहीं ऐसा समाज कब बनेगा, जब इस तरह के नीच लोगों को सरेआम गोलियों से उड़ा दिया जाएगा।’’
शहनाज अपने माता-पिता की अकेली संतान है। उनका भरपूर प्यार उसे मिला हुआ है। माता-पिता के ऊँचे खयालात होने की वजह से किसी प्रकार की बंदिश का सामना उसे बचपन से लेकर आज तक नहीं करना पड़ा है। चंचल हिरणी की तरह घर-बाहर विचरती रही है और जब भी दूसरे लोगों ने उसपर बंदिशें लगाने की कोशिशें की हैं, उसने उन्हें ऐसा करारा जवाब दिया है कि उन्हें दिन में तारे दिखाई देने लगे हैं।
एक बार जब शहनाज की बुआ ने बिना बुर्का के कॉलेज जाने से उसे रोका था तो उसने कहा था,
‘ बुआ जी आप इस मकड़जाल में अपने को जकड़े रहिए, मैं तीन जन्म में भी इस गलीज चीज को हाथ नहीं लगाऊँगी।’
‘और जब तेरा शौहर बुर्का लेकर आएगा तो क्या करेगी तू ?’
‘मैं वैसे आदमी से ब्याह करने से इनकार कर दूँगी।’
‘फिर तो तेरा निकाह भी नहीं पढ़ाया जा सकेगा।’
‘आपसे किसने कहा कि मैं निकाह पढ़ाऊँगी ?’
‘सभी लड़कियों को शादी की रस्म पूरी करने के लिए निकाह पढ़ाना लाजमी है।’
‘मैं उन लड़कियों में से नहीं हूँ।’
‘यह क्या कह रही है तू ?’
‘मैं ठीक कह रही हूँ, बुआजी। औरत की अस्मत बाजार की चीज नहीं है, जिसपर नीलामी की बोली लगाई जाए।’
‘बिटिया रानी, दैन-मेहर की रकम मर्दों को बाँधने के लिए है, ताकि वे लोग छुट्टा साँड़ न हो जाएँ।’
‘छुट्टा साँड़ तो आज का तकरीबन हर मर्द है। वह जब जिसको चाहे, हरम में डाल ले और जब चाहे, तीन बार ‘तलाक’ कहकर छुट्टी पा ले।’
‘नहीं, बिटिया रानी, दैन-मेहर की रकम अदा करने के डर से ही तो मर्द तलाक देने से हिचकिचाता है।’ बुआ ने कहा।
‘और जिसके पास दैन-मेहर अदा करने के लिए ताकत होती है, वह तीन बार तलाक बोलकर औरत को बेसहारा छोड़ देता है। ऐसे मर्द भावनाओं से न जुड़कर उसके जिस्म से खिलवाड़ करते हैं।’
‘फिर अगर औरत-मर्द में न पटे तो तलाक कैसे हो ?’
‘स्वेच्छा से, आपसी समझ-बूझ के आधार पर, दोनों की मरजी से। यहाँ तो अजीब गोरख-धंधा है। मर्द को सनक चढ़े या किसी औरत से मन भर जाए तो ‘तलाक-तलाक-तलाक’ कहकर छुट्टी पा ले और अगर नरक-सी जिंदगी से ऊबकर बेचारी कोई औरत अपने मर्द को छोड़ना चाहे तो उसे काजी के दरबार में हाजिर होना पड़े। यह कहाँ का न्याय है ?’ शहनाज ने उत्तेजित होकर पूछा।
‘फिर औरत-मर्द के बीच नहीं पटने का फैसला कैसे हो, बेटी ?’
‘जिस तरह मर्दों को फैसला करने का अधिकार है उसी तरह औरतों को भी होना चाहिए।’
‘यह बात कुरान शरीफ में नहीं है। फिर हम लोग कुरान शरीफ की बातों से बाहर कैसे जा सकते हैं ?’
‘आप लोग नहीं जा सकती हैं, लेकिन मैं तो जाऊँगी।’
‘यह तू क्या कह रही है, बिटिया रानी ?’
‘वही, जो आज हर तरक्कीपसंद इनसान को कहना चाहिए। जिंदगी को किसी एक किताब के दायरे में बाँध कर रखना सरासर जुर्म है, दरिंदगी है।
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