गूगल में खोजिए मंटोस्तान / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :12 मई 2017
सआदत हसन मंटो की चार कहानियों पर फिल्में बनाकर उन्हें ढाई घंटे के एक शो के रूप में दिखाया जा रहा है, जिसका नाम है, 'मंटोस्तान।' गूगल पर इस देश की खोज करने से कोई लाभ नहीं होगा, क्योंकि किसी भी संकीर्ण नज़रिये से देखने पर 'मंटोस्तान' गायब हो जाता है। 'मि. इंडिया' की तरह अदृश्य हो जाने का कीमिया उसे हासिल है। सआदत हसन मंटो और इस्मत चुगताई पर उनके जीवन काल में मुकदमे कायम किए गए और वे बाइज्जत बरी भी हुए। आज के हालात में यह मुमकिन है कि मंटो की कब्र खोदी जाए और उन्हें अदालत में पेश किया जाए। मंटो को परेशानी यह होगी कि अदालत में धार्मिक किताब की शपथ लेनी होती है और वे इसे कबूल नहीं कर पाएंगे। सच बोलने के लिए शपथबद्ध होने की आवश्यकता क्यों है। आज अलबत्ता मंटो की शपथ लेकर संकीर्णता के खिलाफ लामबंद हो सकते हैं।
यह इत्तफाक गौरतलब है कि एक ही कालखंड में मुंशी प्रेमचंद और सआदत हसन मंटो फिल्म उद्योग की गुफा के सामने खड़े होकर 'खुल जा सिम सिम' के मंत्र की तलाश में थे। उद्योग की भीतरी ज़हालत ने उन्हें अवसर ही नहीं दिए। पर्ल एस. बक के 'गुडअर्थ' और मेहबूब खान की 'औरत', जो बाद में 'मदर इंडिया' के नाम से बनाई गई, के बहुत पहले सआदत हसन मंटो 'किसान कन्या' लिख चुके थे, जिस पर फिल्म बनाने की कोशिश की गई। साहित्य में कुलीनता के खिलाफ गाली की तरह उभरे थे सआदत हसन मंटो। नवाजुद्दीन को लेकर नंदिता दास बायोपिक बना रही हैं। मंटो के प्रति यह रुचि इस बात का संदेश है कि कुलीनता का नकाब उतार फेंकने को कुछ लोग लालायित हैं। यह घने स्याह बादलों में चांदी की लकीर की तरह मानी जा सकती है गोयाकि पूरी तरह हताश होेने की आवश्यकता नहीं है।
कहीं ऐसा तो नहीं कि अश्लीलता के प्रति हमारे मन में मोह है और सआदत हसन मंटो का पुनरागमन हम केवल अपनी इस अभद्र भूख की खातिर कर रहे हैं। सामूहिक अवचेतन में कई गांठें हैं। मनुष्य के उदर में आकी-बाकी लंबी अंतड़ियां हैं और उसी की अनुकृति स्वरूप गांठों वाली एक रस्सी अवचेतन में भी गहरी पैठी हुई है। सआदत हसन मंटो का जन्म 11 मई 1912 को समरना नामक कस्बे में हुआ, जो लुधियाना के निकट है गोयाकि साहिर और मंटो अनकरीब एक ही मिट्टी से उपजे हैं। मंटो खाक-ए-सुपुर्द किए गए 1955 में। कट्टरता की कुलबुलाती बाहों ने मंटो को अपने आगोश में जकड़ने के प्रयास किए परंतु मंटो कभी किसी बंधन को स्वीकार करने वाले व्यक्ति नहीं थे। जोश मलीहाबादी पाकिस्तान से आहत होकर ही भारत लौटे थे। मंटो तो ताउम्र आहत होते रहे परंतु हर चोट उन्हें मजबूत बनाती थी। सआदत हसन मंटो की सारी कहानियां विभाजन से उपजे दर्द की कहानियां हैं। हर संग्राम में सबसे अधिक आहत महिलाएं होती हैं। मंटो के अफसाने महिला दर्द की हकीकत रहे हैं। उन्होंने तमाम 'टाट के परदों' को चिथड़ा-चिथड़ा कर दिया है। हिंदुस्तान की भाषाओं में रचे साहित्य को नोबेल पुरस्कार समिति नज़रअंदाज करती रही है। टैगोर के काव्य के अंग्रेजी अनुवाद को नवाज़ा गया है। अगर सआदत हसन मंटो को कहा जाता कि उनकी रचनाओं को नोबेल पुरस्कार से नवाज़ा जाए, इसके प्रयास हो रहे हैं तो वे 'नोबेल' शब्द पर ही भड़क जाते, क्योंकि अभिजात्य आवरण को ही वे छिन्न-भिन्न करते रहे हैं। इस तरह के पुरस्कार को वे अस्वीकृत कर देते। मंटो अपने बेबाक साहसी विचारों के कारण सारी उम्र जलते अंगारों पर चलते रहे, भूख लगने पर उन्होंने अंगारे ही खाए और अंगारे ही रचे। जब आप मंटो के अफसाने को पढ़ते हैं तब हथेलियों पर छाले हो जाने चाहिए और ऐसी हथेलियों से हुक्मरान के लिए तालियां नहीं बजाई जा सकतीं। इस तरह आप तमाशे का हिस्सा नहीं बन सकते। मंटो कोई अवतार नहीं कि बार-बार जन्म लें परंतु मंटो नामक साहस आज भी कुछ लोगों में नज़र आता है, वह जर्रे-जर्रे में मौजूद है, क्योंकि उन्होंने विभाजन का विरोध किया था और आज भी भांति-भांति के विभाजन हो रहे हैं। अंग्रेजों की तरह बांटकर शासन किया जा रहा है। एक समुदाय दूसरे के खिलाफ खड़ा है और इतना ही नहीं कि मनुष्य को मनुष्य के खिलाफ खड़ा करके नकारात्मकता की ताकतें मुतमइन हो गई हैं। वे चाहती हैं कि मनुष्य का साया उसकी चुगलखोरी करे। कहीं भी मानवीय करुणा की कोई कोंपल उगे, उसे लोहे के जूते से दबा दिया जाए।
लोहे के जूत का रूपक 1908 में रचा गया। किताब का नाम था 'आयरन हील,' जिसमें अमीर व्यक्ति लोहे की हील से गरीबों को रौंदता है। इसके पूर्व जॉर्ज ऑरवेल ने 1884 में एक मनुष्य चेहरे का आकल्पन लोहे के जूते की तरह किया था। इसी तरह रिचर्ड मैकगिल मर्फी की किताब का नाम है, 'पार्टीशन्स ऑफ मेमोरी।' जॉन स्टीनबैक की 'ग्रेप्स ऑफ रेथ' का प्रकाशन 1939 में हुआ, जिसमें छोटे किसानों को उनकी जमीन से बेदखल करने की कथा थी। इसमें एक स्त्री का बच्चा जन्म के समय ही मर जाता है और वह एक उम्रदराज भूखे व्यक्ति को अपना दूध पिलाकर कुछ समय और जीवित रखना चाहती है इस आशा में कि सहायता उपलब्ध हो सकती है। आज किसी फिल्म में ऐसा दृश्य हो तो पहलाज निहलानी का सेन्सर काट देगा। इस रचना के लिए जॉन स्टीनबैक को पुलित्जर इनाम देने की घोषणा हुई थी, जिसे लेने से उन्होंने यह कहकर इनकार किया कि यह भी उन किसानों के शोषण की तरह होगा।
यह इत्तफाक देखिए कि 1939 में ही पर्ल एस. बक की 'गुडअर्थ' का प्रकाशन हुआ, जिसमें चीन के किसान की वेदना प्रस्तुत की गई और जॉन स्टीनबैक अमेरिका के छोटे किसान का दर्द बयां करते हैं और उसी दरमियान मुंशी 'प्रेमचंद' भी गोदान लिखते हैं। सारांश यह कि दुनिया के सभी देशों के गरीब और उपेक्षित लोगों को समान दर्द होता है और शोषण के लोहे के जूतों से कोई बच नहीं सकता। इसके बावजूद नन्ही कोपलें हैं कि थमती नहीं। वे उगती रहेंगी।