गूदड़ी में लाल / जयशंकर प्रसाद
Gadya Kosh से
‘गूदड़ी में लाल’ अभागिनी किंतु स्वाभिमानी बुढ़िया की चरित्र प्रधान कथा है। शरीर थक जाने पर भी वह किसी की दया पर आश्रित नहीं रहना चाहती। रामनाथ उससे कुछ भी काम नहीं लेना चाहता, दयाद्र होकर उसको सहायता देना चाहता है; किंतु बुढ़िया की समस्या है -
“मैं बिना किसी काम के लिए इसका पैसा कैसे लूँगी? क्या यह भीख नहीं?’’
श्रम की महत्ता और स्वाभिमान एक-दूसरे के पूरक हैं। कर्म-विरत होकर उदरपोषण करने वाले स्वाभिमान की रक्षा नहीं कर सकते। सामयिक प्रश्न के रूप में परतंत्रता की पीड़ा भी इस लघुकथा में व्यक्त हुई है –
“जिस देश का भगवान ही नहीं, उसे विपत्ति क्या! सुख क्या!”
प्रकारांतर से प्रसाद गुलामी के जीवन को कष्टकर मानते हैं। बुढ़िया की निराशा में भी जीवन के क्रूर प्रश्न छिपे हुए हैं। वह ईश्वर के विषय जाल को भी चुनौती के रूप में स्वीकार करती है।