गूलर के फूल / अखिल मोहन पटनायक / दिनेश कुमार माली
अखिल मोहन पटनायक(1927-1982)
जन्म-स्थान:-ढेंकानाल और खोर्धा
प्रकाशित-गल्पग्रंथ : “मनस्तात्विक र चिट्ठी “1957 (परवर्ती समय में “अनागतफाल्गुन “,1982), “झड़र इगल ओ धरणीर कृष्णसार”,1964,”और “प्रथम ओ शेष”,1990 -6 गल्प ग्रंथ और समुदाय 58 गल्प।
भद्र महिला ने पहले से मुझे संजय समझ लिया था। मेरा उससे किसी भी तरह का प्रतिवाद करने का साहस नहीं था। पहले से उस घटना के बारे में बता रहा हूँ।
उस समय मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर छात्र हुआ करता था। दुर्गा पूजा की छुट्टियों के समय मैं गुवाहटी घूमने गया था। शायद वह एक सम्भ्रांत इलाका था, क्योंकि वहाँ जितने घर थे; वे भी काफी सुंदर, आकर्षक, भव्य दिखाई पड़ रहे थे। ये सभी घर आधुनिक डिजाइन के थे। कभी-कभी इन मकानों की एक ही प्रकार की संरचनादेखकर मन उब जाता था। ऐसा लगता था मानो रातोरात बाजार से खरीदी हुई स्थापत्य की किताब से उतरकर यहाँ अवतीर्ण हुए हैं। घर कहने से मन में जिसका अहसास होता है, वैसा अहसास इन भव्य महलों को देखने से नहीं होता है। इन सब महलों में रहने वालों के साथ मेरा परिचय न होना स्वाभाविक है। पर महलों की बात यहाँ प्रमुख नहीं है। मैं अपनी असली बात पर लौट आता हूँ।
मैं इस आभिजात्य इलाके के एक होटल में ठहरा हुआ था। एक दिन शाम को मैं पैदल-पैदल होटल को लौट रहा था. अचानक आकाश में उत्तर दिशा की ओर से काले-काले बादल घुमड़कर छाने लगे और तेज हवा चलने लगी। देखते-देखते बारिश की बड़ी-बड़ी बूँदे गिरनी शुरु हो गई। थोड़ा और पैदल चलना मुश्किल हो गया।
इस वजह से रास्ते के किनारे बनी एक बड़ी-सी इमारत की तरफ मैं भागने लगा। दूसरा समय होता तो दरबान या अलसेशियन कुत्ते का डर या संकोच रहता, परंतु इस अचानक बारिश के कारण ये सारी बातें एक पल के लिए भी मन में नहीं आई। पूरी तरह भीग जाने से पहले मैं फाटक खोलकर बरामदे के ऊपर चला गया। उस मकान के बरामदे की साजो-सज्जा बहुत ही सुंदर थी।
मोजाइक के फर्श पर केन की चार कुर्सियाँ पड़ी हुई थी। दीवार पर सागवान की लकड़ी से बना एक नाम-पट्ट था। उसके नीचे एक छोटा सा लेटर बॉक्स लटका हुआ था। दाहिनी ओर सीमेंट की ग्रिल के ऊपर ‘राधातमाल’ फूलों की लता ऊपर की ओर फैली हुई थी। कुछ पोर्सिलीन के टब में दुष्प्राप्य केक्टस लगे हुए थे।
बाहर मूसलाधार बारिश हो रही थी। बीच-बीच में बिजली चमक रही थी। बड़े आश्चर्य की बात थी कि इतने बड़े मकान में कोई रहने वाला नजर नहीं आ रहा था। इस परिस्थिति में रेडियो या बर्तनों की ठनठनाहट या कुछ भी नहीं होने से घर के खिड़की दरवाजे बंद होने की आवाज तो सुनाई पड़नी चाहिए थी। घर के सामने वाली खिड़की में महीन पर्दा हवा के झोंकों से उड़ रहा था। उड़ते समय ड्राइंग रुम में कुछ पत्र-पत्रिकाएँ के पन्नों की फरफराहट सुनाई पड़ रही थी। कोई भी आदमी ये आवाज सनकर कबूतरों के पंखों की फड़फड़ाहट का अनुमान लगा लेगा। कहीं नृत्यशाला में थिरकती संगीत की आवाज जैसी बारिश की रिमझिम प्रतीत हो रही थी। दूर स्थित बिजली के खंभों पर गिरती पानी की बूँदे ऐसे लग रही थी जैसे एक उज्ज्वल भाले के कलेवर को बेधते हुए रजत-भस्म को प्रकाशित कर दे रही हो।
बहुत ही तेज गति से एक दीर्घ काले रंग की गाड़ी पोर्टिको में आकर रुकी। गाड़ी पोर्टिको के नीचे खड़ी होने के बाद भी सामने की लाइट जल रही थी और वह लाइट मेरे ऊपर गिरकर मेरे व्यक्तित्व को लांछित कर रही थी। मुझे लगा, मैं जैसे जंगल में भूले भटके किसी कोतवाल का पुत्र हूँ, जो किसी आश्रय की तलाश में प्रताड़ित होकर किसी दानव की गुफा में फँस गया हो।
गाड़ी की लाइट बुझते ही अंधेरा अपना मुँह खोलकर मुझे निगल गया। गाड़ी के अंदर किसी नारी की उत्कंठित आवाज सुनाई दी, “तुम संजय....” और गाड़ी से जो भद्र महिला उतरी थी, वह बहुत आत्मीयता से मुझे घर के अंदर ले गई और मैने पहली बार उसका चेहरा प्रकाश में देखा।
भद्र महिला की उम्र चालीस के आस-पास थी, फिर भी वह स्वस्थ और सुंदर थी। हम दोनों एक दूसरे की तरफ अपलक बिना कुछ बोले देख रहे थे। मैं सोच नहीं पा रहा था, मैं किस प्रकार उससे कहूँ कि मैं संजय नहीं हूँ। शायद उन्हें किसी प्रकार की ग़लतफहमी हो गई है। मेरे कुछ कहने से पहले ही उस भद्र महिला ने कहना शुरु किया, “संजय, अभी तक तुम वैसे ही हो तुम्हारे चेहरे में कोई बदलाव नहीं आया है।”
उसके बाद उसने कुक को बुलाकर कॉफी बनाने को का आदेश दिया, “मुझे पता है कि तुम चाय नहीं पीते हो। माँ-बाप को बच्चों की हर चीज का ख्याल रहता है। पर तुम बोलो, संजय, मैं चाय में कितने चम्मच चीनी लेना पसंद करती हूँ।”
गलत उत्तर देने की की अपेक्षा चुपचाप रहना उचित लगा। इतने कम समय में भी भद्र महिला की आँखों से उदासीनता स्पष्ट रूप से झलक रही थी। वह सोफे के ऊपर थोड़ा लेट गई थी, और कहने लगी, “मैं जानती हूँ, संजय, तुम्हारी उम्र में हमारी बातें याद रखना अस्वाभाविक है। मंजु को देखो, वह क्या रिसर्च कर रही है आज तक? चार-पाँच सालों में एक बार भी हमें देखने के लिए नहीं आई। क्या उसके पास इतना भी समय नहीं है? तुम तो फिर भी आए हो? मंजु के पापा कह रहे थे कि उन्होंने ट्रेन के टिकट करवा लिए हैं। देखो, छुट्टी खत्म होने जा रही है, फिर भी वह घर नहीं आई।”
मैं मूकदर्शक बनकर बैठा रहा। इस गोरखधंधे में मैं उलझता जा रहा था। जब तक बारिश रूक नहीं जाती है, तब तक मैं इस परिस्थिति से मुक्ति नहीं पा सकता था। मैने इस बात का अंदाज लगा लिया था।
वह भद्र महिला कहने लगी, “मंजु तो जानती है, वह आने वाले दिसम्बर में विदेश जाएगी। उनके पिताजी ने सभी चीजों की तैयारी कर ली है। न जाने कब फिर उससे मुलाकात होगी? कौन कह सकता है मुलाकात होगी या नहीं? बचपन में मंजु मेरे पास थी, तुम भी थे, कितना अच्छा लग रहा था ! मगर पढ़ाई के लिए अपने परिवार वालों से इतना दूर जाना ठीक नहीं है। भद्र महिला की आवाज भारी होने लगी थी, “मैं मंजु के पास और पैसा नहीं भेजती तो वह मजबूरन चली आती, परंतु मैं माँ होने के नाते ऐसा कैसे कर पाती? ”
बारिश धीरे-धीरे कम होने लगी।छज्जे से पानी की बूँदें टप-टप की आवाज के साथ गिर रही थी। मैं बार-बार घड़ी की तरफ देख रहा था। फिर कहने लगा, “मुझे मेरे एक दोस्त से मिलना है। मुझे जल्दी ही जाना होगा। लौटते समय भद्र महिला ने मुझे मेरा पता-ठिकाना पूछा। मैंने उसे मोड़ के उस पार ‘सी व्यू होटल’ के रूम नं 26 में रूकने के बारे में बताया। मगर उसकी आँखें कुछ और बोलना चाह रही थी। तब तक मैं सीढ़ी से उतरकर नीचे आ गया था।
उसने एक बार फिर आवाज दी, “संजय, इतनी बारिश में तुम पैदल मत जाओ।”
उसकी आवाज में आदेश का स्वर सुनाई पड़ा। वह गाड़ी में बैठने के लिए कहने लगी। “ड्राइवर, तुम्हें होटल में पहुँचा देगा और उसे भी तुम्हारे होटल के बारे में पता चल जाएगा।” मजबूरन मैं गाड़ी में बैठ गया। गाड़ी में बैठकर मैने उस महिला और उसके परिवार के बारे में जानने की उत्सुकता को मुश्किल से दमन किया।
अगले दिन होटल के बेरा के सुबह चाय का प्याला रखकर जाते समय दरवाजे पर ठक-ठक की आवाज सुनाई पड़ी, “मैं अंदर आ सकता हूँ? ”
“आइए।”
कमरे के अंदर एक अधेड़ उम्र का आदमी घुस आया। उसको देखते ही पता चल रहा था कि किसी गंभीर दुख के कारण अधिक उम्र लग रही थी। कुरता पहने हाथ में स्टिक लिए वह एक सम्भ्रांत आदमी लग रहा था। उस सज्जन व्यक्ति ने अपनी आँखों से मोटे चश्मे उतारकर रुमाल से उसको दो बार पोंछकर फिर पहन लिया। कुर्सी के ऊपर अपनी स्टिक को रखकर और एक बार मेरी तरफ नजर घुमा ली।
मैने उनको कुर्सी में बैठने के लिए इशारा किया। कुर्सी में बैठकर वह सज्जन कहने लगा, “मैं जानता था, मेरी पत्नी बहुत ही बड़े भ्रम में है। हाँ, तुम कल शाम को जिस बंगले में बारिश के कारण रुक गए थे, वह मेरा घर था। और वह औरत मेरी पत्नी थी। आज सुबह उसने मुझे जबरदस्ती यहाँ भेजा है। उसके मन में ‘तुम संजय हो’ यह बात घर कर गई है।”
मैं क्षमा माँगते हुए उस सज्जन आदमी से कहने लगा, “मेरा नाम अशोक है। कल शाम की घटना के लिए मैं लज्जित हूँ। परन्तु पता नहीं क्यों, आपकी पत्नी की प्यार भरी बातें सुनकर मैं अपना मुँह खोल नहीं पाया कि मैं संजय नहीं हूँ।”
वह आदमी कहने लगा, “मैं भी मानता हूँ संजय के चेहरे से आपका चेहरा मिलता-जुलता है। ध्यानपूर्वक निरीक्षण करने से ही पता चल सकता है कि तुम संजय नहीं हो। इसलिए माफी माँगने या लज्जित अनुभव करने का कोई कारण नहीं है। अशोक, नियति का यह एक निष्ठुर परिहास है। मेरी बेटी मंजुश्री के साथ संजय का विवाह तय हो गया था मगर वह संभव नहीं हो सका।”
अपनी बात कहते-कहते उस आदमी का कंठ अवरुद्ध हो गया। वह सेन्ट्रल टेबिल की तरफ अपलक देखता रह गया।
मैंने एक कप चाय बनाकर उनके सम्मुख रखी। पहले की तरह अनमने भाव से उसने चाय का कप उठा लिया और कहने लगा, “यह बात तुमसे कहने में कोई फायदा नहीं। बहुत दिनों के बाद कल शाम को मैने अपनी पत्नी के चेहरे पर ख़ुशी के भाव देखे थे। वह तुमको देखकर सोच रही है कि उसके सपने साकार होने जा रहे हैं। मैं उसका यह भ्रम मिटाना नहीं चाहता हूँ. इस भ्रम की वजह से वह अपनी शेष जिंदगी को आनंद से बिता सकती है तो और जीवन में मुझे क्या चाहिए? ”
इतना कहकर वह आदमी चुप हो गया। ऐसे लग रहा था, जैसे वह अपने आप से बात कर रहा हो। आँखों के मोटे लेंस वाले चश्मे उतारकर रुमाल से पोंछते हुए वह बोला, “तुम उम्र में मेरे बेटे की तरह हो। मैं तुम्हें अशोक..... नहीं नहीं संजय कहकर पुकारूँगा, क्योंकि किसी वक्त असतर्कता से मेरी पत्नी के सामने सच न आ जाए।”
“सुनो संजय, सुनो। आज से मेरे परिवार में तुम्हारा एक मात्र परिचय होगा, संजय के रूप में। और मेरा एक मात्र निवेदन है कि तुम्हें बीच-बीच में मेरे घर आना होगा। मेरे पास पैसों की कभी कमी नहीं थी और अब भी नहीं है। केवल एक ही चीज का अभाव है, जिसे केवल तुम ही पूरा कर सकते हो।”
इतना कहते हुए कातर भाव के साथ वह चुप हो गए, फिर कहने लगे, “मुझसे तुम वायदा करो कि कितनी भी समस्याओं के बावजूद भी तुम बीच-बीच में मेरे घर आकर संजय होने का अभिनय करते रहोगे। ”
मैं सचमुच विचलित-सा हो गया, फिर अपने आपको सँभालते हुए कहने लगा, “ठीक है, मैं वायदा करता हूँ। आप निश्चित रहिए।”
यह सुनते ही ऐसा लगने लगा मानो उस व्यक्ति, के सीने पर से कोई बोझ उतर गया हो।
“हाँ, मैने सुना था कि तुम आज शाम को फ्लाइट से दिल्ली जा रहे हो। मेरी पत्नी, बेटी मंजु के लिए कुछ सामान भेजेगी। हम दोनो एयरपोर्ट पर तुमको मिलने आएँगे। मै तुम्हारा और समय नष्ट करना नहीं चाहता हूँ। मुझे जाने की इजाजत दें।”
मै उस आदमी को कुछ दूर तक छोड़ने के लिए साथ गया।
अगले दिन एयरपोर्ट लाउंज में बैठकर मैं इधर-उधर मन ही मन उस दंपत्ति की तलाश में था। कहीं से आकर अचानक वह आदमी मेरे कंधे पर हाथ रखकर कहने लगा, “हैलो, संजय!” मैं विस्मित रह गया। मैने देखा कि मेरे सामने पिछली रात की रहस्यमयी, स्नेहमयी महिला सामने खड़ी थी। वह एक सुंदर सा पैकेट मेरी तरफ बढ़ाते हुए अंग्रेजी में कहने लगी, “दिस इज फॉर मंजु- माइंड द ट्रबल।” मैने उनके हाथ से वह पैकेट ले लिया। पैकेट के ऊपर स्कैच पेन से बड़े बड़े अक्षरों में लिखा हुआ था - मंजु। तब माइक से यात्रियों के जाने की घोषणा हुई। उस भद्र महिला ने मेरे बाएँ हाथ को अपने हाथ में लेकर धीरे से छोड़ दिया।
मैं उस सज्जन आदमी को थोड़ा दूर ले जाकर पूछने लगा, “देखिए, मैं तो मंजुदेवी का पता नहीं जानता हूँ। आप पैकेट के ऊपर लिख देते तो मुझे सुविधा हो जाती।”
मैने अभी तक किसी भी आदमी की आँखों में इस तरह का भाव नहीं देखा था। ऐसा लग रहा था मानो वह कोई निर्जीव प्राणी हो। ठीक उसी तरह जैसे किसी मूर्ति की तरह आँखें दिखाई दे रही हो। उसके बाद शायद नियति के प्रचंड अट्टहास से उसका शरीर कांपने लगा हो।
मेरे कान के पास अपना मुँह लाकर वह फुसफुसाकर कहने लगा, “मुझे भी मंजु का पता मालूम नहीं। मेरी पत्नी की मानसिक बीमारी के बाद मंजु चल बसी। आज से बहुत साल पहले एक रेल दुर्घटना में मंजु की मौत हो गई थी। तब मंजु बी.ए (थर्ड इयर) में पढ़ रही थी, इसलिए तीन साल के बाद उसे रिसर्च करना चाहिए, रिसर्च करने के बाद वह विदेश चली जाएगी।“
हवाईजहाज का पंखा घूमना शुरु हो गया था। बार-बार मेरे नाम की माइक से घोषणा हो रही थी। मैने हवाई जहाज में अपने कदम रख लिए थे। बीच में मैने एक बार उनकी तरफ देखा। वे लोग मुझे देखकर हाथ हिला रहे थे। मुझे लगा कि वह दोनों भगवान की निष्ठुर सृष्टि में निसंग, अभिशप्त मनुष्य रूपी कठपुतलियाँ है। आकाश की तरफ हाथ हिला रहे हैं।