गेट सम्राट / अशोक भाटिया
कालोनी की उस गली में जलमल नाथ भी रहता था |उसके पास अपना ठीक-ठाक मकान था,पढ़ी-लिखी नौकरीपेशा पत्नी थी और दो बच्चे थे- सुंदर और पढ़ने में होशियार ।वह सामान्य जीवन जी रहा था |लेकिन जब से पड़ोसी का घर एक से दो मंजिल का हो गया,तब से जलमल के जीवन में हलचल मच गई थी ।उसकी इतनी हैसियत नहीं थी कि मकान पर दूसरी मंजिल डाल सके ।लिहाज़ा वह पड़ोसी की ऊँची अट्टालिका से दबा-दबा रहने लगा था।
दूसरी मंजिल संवारकर पड़ोसी ने अपना गेट भी बदलवा डाला था ।हल्के सुंदर रंग का हल्का और सुंदर गेट गलीवासियों के बीच आकर्षण का केंद्र हो गया था ।वे उसके घर के आगे से आते-जाते गेट-चर्चा में मशगूल हो जाते । जलमल के घर का गेट पड़ोसी के गेट के बिलकुल साथ लगता था । वह रोज़ दफ्तर जाते हुए दोनों गेटों को देखता ।अपना काला गेट उसे गंदे भालू -सा लगता;पड़ोसी का गेट शेरनुमा लगता ।पड़ोसी के गेट को देखकर उसकी आँखें चौंधिया जातीं,मानो सूर्य से साक्षात्कार हो गया हो ।अपना गेट उसे अँधेरे की प्रतिमा लगता ।तिस पर पड़ोसी के गेट पर लगे बरछे देखते ही मानो उसके दिल के आर-पार हो जाते थे ।खाना खाते वक्त भी वह गेट उसका स्वाद खराब कर देता था ।टी.वी.के अच्छे-भले प्रोग्राम भी उसकी गेट-पीड़ा का निदान नहीं कर पाते थे ।
'कुछ करना पड़ेगा इलाज ।हमें क्या बोड़ू समझ रखा है ?'-उसने सोचा ।कुछ दिन गेट-चिन्तन किया ।घर में गेट-समस्या पर मंत्रणा की ।आखिरकार पीड़ा-हरण की योजना बनी ।'ऑपरेशन गेट' की कार्रवाई शुरू हुई ।पड़ोसी के गेट से डेढ़ गुना ऊँचा गेट बनवाया गया ।उस पर आसमान से बातें करते बड़े-बड़े भाले मोतियों की तरह जड़े गए ।इतना ऊँचा गेट पूरी गली में किसी का नहीं था ।गेट पर तीन-चार रंगों के पेंट कराए गए ।बॉर्डर,पत्तियां,फूल,बरछे-चारों के अलग-अलग रंग ।
गेट जब एकदम तैयार हो गया ,तो जलमल ने अपने परिवार को गेटेश्वर महाराज के दर्शनों के लिए आवाज़ दी।थोड़ी देर में पूरा परिवार सड़क के बीचों-बीच खड़े होकर गेट-सौन्दर्य पर मुग्ध हुआ जा रहा था ।वे पड़ोसी के गेट को भी कनखियों से देखकर उसकी तुच्छ हस्ती पर टिप्पणी कर रहे थे ,जिसका सार था -'छुटभैया कहीं का ।' जलमल की चाल में आज असाधारण चुस्ती आ गई थी ।वह गेट-उत्सव मनाने के लिए मिठाई ले आया ।मिठाई खाते वक्त सबने मिलकर इस असाधारण गेटोपलब्धि का ऊँची आवाज़ में बखान किया और गेट देवता की महिमा गाई ।
जलमल अपनी नजरों में गेट-युद्ध का निर्विवाद विजेता बन चुका था ।पर उसे इतने से तसल्ली नहीं हुई ।अभी रड़क बाकी थी ।वह चाहता था कि पड़ोसी उसकी तरफ देखे और वह आँखों से ही उससे पूछे-कहो कैसी रही ?' एक बार पड़ोसी को देख वह ऐसा कहने की मुद्रा में आया,लेकिन उसे पड़ोसी ने उसे ऐसा मौका नहीं दिया ।फिर कुछ सोचकर उसने अपना स्कूटर निकाला ।गेट के नत-बोल्ट उतारकर उसके दोनों पल्ले स्कूटर पर फिट किये ।फिर दोनों पल्लों को अपनी पीठ से सटाया । गेट के रंग अपने चेहरे पर चिपकाए ।गेट के भाले अपने दिमाग में ठोंके ।फिर स्कूटर स्टार्ट कर विजयश्री के लिए निकल पड़ा....
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