गैर-मुल्की लड़की / अल्ताफ़ फ़ातिमा / शम्भू यादव

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वह गैर-मुल्की लड़की, जो खीरी जिला लखीमपुर से आयी या यों कहिए कि विवाह के लिए लायी गयी थी, महीनों से यहां पड़ी थी और संख्त बोर हो रही थी। इसी बोरियत की अवस्था में उसने अपनी मां को पत्र में लिखा था :

“और सुना अम्मा बी! यहां पाकिस्तान में लोग शक्कर को चीनी कहते हैं और उसको कुंजी-ताले में रखते हैं! और हां, यहाँ लड़के-लड़कियाँ आपस में हंसी-मंजाक तक अँग्रेजी में करते हैं!” बड़ी देर तक वह अपनी कच्ची-कच्ची-सी लिखाई में छोटी-छोटी-सी बातों को महत्त्व दे-देकर लिखती रही। बिलकुल उसी जिम्मेदारी से जिस तरह की जिम्मेदारी गैर-मुल्कों से पत्र लिखते समय बरती जाती है।

और भई वह क्यों न लिखती! वह कोई ऐसी-वैसी तो नहीं थी, खालिस गैर-मुल्की लड़की थी। उसके काले बड़े बक्स में सचमुच का पासपोर्ट और वींजा झिलमिल करते रेशमी कपड़ों की तह में रखा था। सरहद पर उसकी पूरी-पक्की तलाशी हुई थी और स्टेशन से वह सीधी थाने ले जाई गयी थीअपने आगमन की रिपोर्ट दर्ज करवाने के लिए। हर हफ्ते ही वह इसी किस्म के लम्बे-चौडे पत्र लिखा करती थीपूरी तन्मयता और जोश से, इसलिए कि वह यहाँ संख्त बोर हो रही थी और यह कि पच्चीसियों बातें ऐसी थीं, जिनकी याद हरदम सताया करती थी।

अव्वल तो खीरी का वह लखौरी ईंटों का बना पुराने ढंग का मकान, जिसको आपका जी चाहे तो हवेली भी कह सकते हैं, और उसके दालान-सेहनचियां याद आते थे! और फिर आँगन की दीवार से लगा हुआ बेरी वह छतनार पेड़, जिसमें खट्टे-मीठे बेर लगा करते थे सुर्ख-पाले बेसनी बेरजिनको सुनसान दोपहरों में वह बारीक पिसे हुए नमक-मिर्च के साथ चटखारे ले-लेकर खाया करती थी और फिर ऊपर से कलईदार, नक्शदार कटोरे में भर-भरकर ठंडा पानी पिया करती थी। यह और ऐसी ही कितनी अन्य बातों के अलावा उसको अपनी दादी अम्मा और उनकी जली-कटी बातें भी कुछ कम याद न आती थीं।

पहले पहल जब घर में उसके पाकिस्तान जाने की बातें शुरू हुईं तो उसने शुक्र ही किया, अच्छा है, इन कम्बंख्तों हरदम लड़ने-झगड़ने वाली बहनों और लम्बी-लम्बी सूखी-सूखी टांगों वाले भाइयों से मुक्ति तो मिलेगी, चौबीस घंटे उसकी जान को आये रहते थे। फिर उसके कान में यह खबरें भी पड़ने लगीं कि उसकी शादी के लिए वहाँ मझली फूफू के पास भेजा जा रहा है।

“उई मझली फूफू! आज तक अपनी शादी तो करवा न पायीं, मेरी खाक करवाएंगी।”

उसने मन-ही-मन सोचा। मगर प्रकट में यो घुन्नी बनी बैठी रही, जैसे उसको कुछ खबर ही न हो । लेकिन यह हंकींकत है कि जिस तेंजी से पासपोर्ट के पड़ाव तय हो रहे थे, उसी तेजी से उसका मस्तिष्क सोचने में व्यस्त था।

“उई! यह भी कोई बात हुई कि शादी करवाने अपना देश छोड़कर परदेश जाओ। ऐसे क्या पाकिस्तान के लड़कों में सुरंखाब के पर लगे हुए हैं? यह क्या इन लोगों के दिल में समायी है, जो अपनी लड़कियों को ढकेल-ढकेल कर भेज रहे हैं। वहाँ के लोग क्या कहेंगे?

“और उन दादी अम्मा को देखो। अब कैसी चुप्पी मारे बैठी हैं! सारे तमाशे अपनी आ/खों से देख रही हैं।” वह सहनची में बैठी सूखी-चमरख दादी अम्मा को चुभती नंजरों से घूरती। क्या तो इत्ती दकियानूस बनती थीं कि जरा दुपट्टा जगह से बेजगह हो और उन्होंने टांग ली। उस दिन जरा-सी कनकिया की डोर लूट ली तो जान को आ गयीं उई, क्या हवाई-दीदा लड़की उठायी है। पूरा लौंडा है। क्या मंजे से भाइयों के संग लगी कनकब्बे लट रही है। और जो जरा आये-गये के सामने जा बैठी तो फौरन टोक देगीए बीबी, तुम क्यों बुर्ज मुंह पर चढ़ी आ रही हो, चलो, जरा शरबत तो बना लाओ।

और अब एकदम ऐसी रोशन-खयाल हो गयीं कि यह भी खयाल नहीं कि बेटी उठा पराये देश चलती कर दी। न दुलहा आया, न बरात चढ़ी, न सूत, न कपास और दुलहिन बेंगम चली जा रही हैं जुलाहे से लठम-लठा करने, अब कैसी चुप साधी है बड़ी बी ने! बस, जम्मो का दिन ऐसी ही ऊटपटांग बातें सोचते हुए कट जाता। जो सच पूछो तो, उसका दिल पढ़ने-लिखने से भी उचाट हो गया था। स्कूल जाती और किताबें आला कर डाल देती।

“अरी जम्मो, सुना है तू अपना विवाह रचाने पाकिस्तान जा रही है।” लाजवन्ती की तरह नांजुक और लचकदार सुरजीत कौर ने उसको छेड़ा।

“हां, जा तो रही हूं।” वह मारे बेबसी के ढिठाई और चिड़चिडेपन पर उतर आयी।

“इस बेचारी को पाकिस्तानी दुलहा ही जुड़ा।” सरोपी आँखें मटकाती।

“हां, चल, तुझे भी जुड़वा दूं।” फिर वह जलकर सोचती अभी जुड़ा किस कम्बंख्त को है? अभी तो बीजा लेकर ढूंढने निकलना है।

“अरी जम्मो! तुझे खबर है, तेरे ससुराल वाले, यानी पाकिस्तान वाले कैसी जबान बोलते हैं?” सुरजीत फिर बात शुरू करती।

“खबर क्यों नहीं, तेरी ही तरह बैठकर 'साडे-फाडे' किया करते हैं वे।” वह जले-कटे जवाब दिये चली जाती।

“भई जम्मो! सुरजीत से अदब-तमींज से बात किया करो। जो सच पूछो तो देश के रिश्ते से यह तुम्हारी ननद लगी। खास-उल-खास शहर लाहौर से आयी है और तुम वहीं चली हो।” कमर-उलनिसा ने अपने हिसाब से बड़ी बुध्दिमत्ता की बात कह दी।

जम्मो का बस चलता तो जूता लेकर इन कमबंख्तों पर पिल पड़ती। नंफरत आ रही थी उसको इन सबकी शंक्लें देख-देखकर। खुद तो कमबंख्त अपने अब्बा-अम्मा के कूले से लगी बैठी थीं। एक वही थी, जिसे यूसुंफे-गुमगश्ता की तलाश में भेजा जा रहा था। मगर वह यों अपनी शिकस्त मानने वाली न थी। उलटा भभक-भभककर कमर-उलनिसा को कोसना-काटना शुरू कर देती

“अल्लाह करे कमरन, तुम भी पाकिस्तान ही भेजी जाओ। अल्लाह करे बंगाल को फेंकी जाओ।”

“ए जम्मो! तुम तो ऐसी बेजार हो! वहां भी अपने मामू, चाचा, फूफी के लड़के ही होंगे।” कमरन फिर टोकती।

“हुआ करें, हम उनको क्या जानें, लो भई, अब वह वहां के रहने वाले और हम...हम...”जम्मो हकला जाती! दरअसल वह इतनी सीधी थी कि अपना मतलब भी उनको न समझा पाती।

“निगोड़ी जा रही है इस घर से दुलहिन बने और माँग में सिन्दूर भरवाये बिना।” अम्मा बी ने कहा तो दादी अम्मा से था, मगर सुन लिया जम्मो ने। और इसका नतीजा यह हुआ कि जब जरा ही देर बाद चुन्नू झपट्टा मार उसके हाथ से जामुनों का प्याला छीनकर ले गया तो वह उसका बहाना पकड़कर फूट-फूटकर रोयी। और उसने अपने आपको खूब ही तो कोसा, इतना कि सुनकर अम्मा बी ने घर भर को दुत्कार डाला, “अरे भागवानो, अब तो चारों इसको न सताओ। वह तो खुद ही दफा हो रही है। ऐसा हर वक्त उसका पीछा किया कि वतन से बेवतन हो रही है। अब तो सब्र कर लो कुछ दिन।”

और जब अब्बू को पता चला कि उनकी बेटी जामुनों के लिए रो रही है तो खुद उन्होंने उसको गले से लगा लिया, “मैं अपनी बिटिया को जामुनें मंगाकर दूंगा।”

“और अब्बू, कमरखें भी!” जम्मो ने सिसकियाँ लेते हुए कहा। उसको खूब पता था कि पाकिस्तान में कमरख नहीं मिलती।

जब उसने कमरखों के ढेर सारे कचालू और नमक डालकर फटकी हुई जामुनें खाकर पानी पीया तो दादी अम्मा अपनी फटी-फटी आवांज में चिल्लायीं, “क्यों नेकबंख्त अपनी जान के पीछे पड़ी है। अरी गला बैठ जाएगा। वहाँ वाले क्या कहेंगे कि गला बैठी दुलहिन उतरी है। दादी अम्मा के हिसाबों तो वह उसी दिन से दुलहिन बन चुकी थी, जिस दिन से मंझली फूफू ने पत्र में लिखा था कि यहाँ चन्द अच्छे लड़के, रोंजगार वाले लड़के नंजर में हैं। जम्मो आ जाए तो उसका इन्तंजाम हो सकता है। बस, लड़की भेज दो बाकी सारी बातें मैं खुद निपट लूंगी। और जम्मो का यह था कि जब स्कूल जाने को दिल न चाहता तो प्याज की गांठ बगल में दबाकर धूप में पड़ जाती। बुखार चढ़ाने की यही तरकीब उसने सुन रखी थी, मगर बुखार न तब कभी चढ़ा और न अब, जो बींजा मिलने वाला था तो बीमार पड़ने की कोई तरंकीब काम नहीं कर रही थी।

और यों वह गैर-मुल्की लड़की खीरी से यहाँ आयी या लायी गयी थी और सख्त बोर हो रही थी। इसलिए कि मझली फूफी खुद तो कॉलेज में पढ़ाती थीं और 'मेटर-ऑफ-फेक्ट' किस्म की हो ही गयी थीं। वह रहती भी बड़े चचा के लड़के के साथ थीं, अब यह था कि बड़े चचा के लड़के यानी छोटे भइया बड़े तने-तने से रहते थे। वह बड़ी कोठी, एयरकंडीशन कमरे, फ्रिज और जनाब बिजली का टोस्टर और ऑवन अल्ला-बल्ला। बैठने को ओपल-रिकार्ड, बात करने को टेलीफोन। भई, यह पाकिस्तान तो बिलकुल अमरीका हो रहा है। उसने सहमकर सोचा, हम बेचारे सीधे-सादे लोग ठहरे। न भइया, पाकिस्तानी दुलहा भी कोई टेढ़ी खीर होगा और अगर उसके घर में यह अट्म-शट्म हुआ तो वह तो ऐसी कुबड़ और बेअंकल-सी थी कि सारी मशीनें तोड़-ताड़ बैठ रहेगी और क्या ताज्जुब इतने बड़े नुकसान पर उसको वापसी का टिकट ही मिल जाए। उसकी बिसात ही कितनी थी। सोलह-सत्रह साल की नौवीं जमात तक पढ़ी हुई। वहाँ के मुट्ठी भर सिमटे-सिमटाये मुस्लिम माहौल में पली हुई कस्बाती लड़की, इससे ंज्यादा सोच भी क्या सकती थी?

मझली फूफू की अनुपस्थिति में आये-गये मेहमान एक कोमल-कान्त और लजीली-सी बेहद सादा लड़की को घर में घूमने-फिरते देखकर उसके बारे में पूछताछ करते कि वह कौन है तो फिर जवाबदेह भाभी को ही होना पड़ता। वह उसपर तरस खाने के अन्दांज में उनको बडे विस्तार से बताती। सारांश यह होता है कि बेचारी शादी के लिए यहाँ आयी है। बात यह है कि सारे ढंग के लड़के तो यहाँ हैं।

और वह मन-ही-मन में कुड़कुड़ाती बड़े ढंग के लड़के हैं यहाँ के। यहाँ के लड़के खाक भी तो उसकी समझ में न आये थे; गहरे-गहरे रंगों की नीली-पीली कमींज, बन्दूक के गिलांफ जैसी पतलूनें, हर दम मुल्क को आप ही गालियाँ देते, मुंह से सड़ी हुई शराब के भभके उड़ते, बस, फुल-स्टाप पर रेडियो लगा है और उसके आगे भटक रहे हैं। बडे भइया के वर्ग और माहौल में उसको ऐसे ही लड़के नंजर आये थे और वह मुँह भर-भर कर एतराज करती।

वह अपने दिल में जल-जलकर सोचती रहती और मेहमान-बीबी एतराज करतीए, अकेली शादी करने आ गयी।

खुद क्या आ गयी, इन बेचारों ने बुला भेजा है। आप वहाँ के हालात तो जानती ही हैं। वहाँ लड़के कहाँ मिलते हैं, यह सब बातें जान-बूझ कर ऊँची आवांज से कहती थीं और जम्मो का खून खौल जाता। कैसी बातें बताती हैं। यह और हुई कि हमारे यहाँ लड़के कहाँ! ए, तो क्या हमारे यहाँ लड़कों का बीज ही मारा गया, ए हटो, ढेरों लड़के खुद तो मैंने अपनी आँखों से देखे हैं। यह और बात है कि उनके घरों में ऐसी अला-बला नहीं होती। वे बेचारे तो सीधे-सादे कपड़े पहनते और लालटेनों की टिमटिमाती रोशनियों में किताबों पर सिर झुकाये रात गये तक पढ़ा करते हैं।

और जब रिश्तेदारों की लड़कियाँ मिलती तों वह भी उसको हास्यास्पद नंजरों से देखतीं या फिर नसीहतों पर उतर आतींतुम जरा तो मेकअप करना सीखो।

सच्ची बात तो यह थी कि उनको जम्मो की यह हरकत जरा भी न अच्छी लगी कि वीजा-पासपोर्ट लिये दुलहा ढूँढ़ने दौड़ी चली आयी। यहाँ कौन-सी लड़कों की फसल कट रही है। यहाँ आप तोरा पड़ रहा है। कोई अमरीका से लिये चला आ रहा है, तो कोई फ्रांस से। एक तुम भी आ गयीं हिस्सा बँटवाने।

जम्मो का स्वभाव जिद्दी था। मजाल थी जो किसी की नसीहत मान जाती ऊंह बकने दो। वह सोचती, दादी अम्मा तो कहा करती हैं कि ज्यादा सिंगार करने वाली लड़कियों के मुंह पर दुलहिनापे में नूर नहीं उतरता है। अच्छा है, अब कमबंख्तों के मुंह पर ठीकरे फूटेंगे।

_बख्शो, मैं बाज आयी तुम्हारे यहाँ के दुलहा से, तय किये हुए लड़कों में से किसी के साथ सिनेमा-हॉल में, बैठकर ऊँघना पड़ता था। इसलिए कि वह अँग्रेजी फिल्म उसके कतई पल्ले न पड़ती थी, जिसकी हिरोइन बिलकुल सिड़नों जैसे रंग-ढंग की होती और उसके कपड़े इतने बेंकाबू होते कि फिसले पड़ते और वह लड़के इतने बोर कि उसी सिड़न-सी पर मरते हैं। और लड़कियाँ बेचारियाँ उनको खुश करने के लिए उसी के स्टाइल के बाल कटा-कटाकर दीवानी हुई जाती हैं। वह ऐसी ही बेसुरी बातें सोचती होती कि फूफू का हाथ आगे बढ़ता और बड़ी खूबसूरती से उसके भीगे-भीगे उनाबी होंठों पर सुर्ख लिपस्टिक थोप देती ऊंह ! वह अचानक ही रूमाल से होंठ रगड़ डालती तोबा, मार जैसे घी-सा लग गया हो

मझली फूफू सकते में आ जातीं। यह हमारी भावज ने लड़की पाली है। अब ऐसी लड़की को तो वर मिलना मुश्किल ही था।

वह बेदिल से सजती-बनती तो वाकई उजबक-सी उखड़ी-उखड़ी नंजर आती। सच पूछो तो वह उसके भविष्य से निराश होती जा रही थी। इसे तो कोई मरा-टूटा क्लर्क ही कबूल कर ले तो बड़ी बात है, ऐसा तो वहाँ भी मिल जाता। उसको तो बुलाना ही बेकार हुआ।

बाहर से वापस आकर उसको समझातीं, डाँटती और यह हकीकत उसके मस्तिष्क में बिठाने की कोशिश करतीं कि तुम फिंजूल ही अपने आपको अजनबी समझ रही हो आंखिर यह लड़के कोई गैर तो नहीं।

“अपने ही रिश्तेदार और मुलाकातियों के लड़के हैं। यहाँ में और वहाँ में फर्क ही क्या है?”

“हुं ह! फूफू क्यों नहीं। वाह! यह अच्छी रही। फिर आखिर यह वींजा-पासपोर्ट और सरहद की तलाशियां, यह सब क्या बला है। भई, हम तो गैर-मुल्की हैं।”वह भी खास जबान चलाती।

“अच्छा चलो, ंखामोश रहो। सब बकवास है। कोई फर्क नही।”मझली फूफू एकतरफा फैसला सुना देतीं।

“ऊंह भई, अजीब घपला है!” वह चुप होकर सोचती। मझली फूफू सदा ही उसकी शिंकायतों के दंफ्तर अम्मा को लिख भेजतीं। लेकिन इस बार तो उन्होंने जाने क्या लिख मारा था कि उसके बड़ी मेहनत से लिखे हुए पत्र के जवाब में, जिसमें उसने बड़ी चालाकी से इशारों-ही-इशारों में लिखा था कि यहाँ के लड़कों में उसको तो कोई सुर्खाब के पर नहीं नंजर आते। और यह कि उसमें और इनमें जबर्दस्त फर्क है, दो मुल्कों और समाजों का। अम्मा बी ने उसको एक लम्बा-चौड़ा और अजीब पत्र लिखा था। कस्बाती माहौल में रहने वाली कम-पढ़ी मां ने बड़ी मेहनत से जो फिलसफा और दृष्टिकोण अपनी टूटी-फूटी और उलझी हुई लिखित में लिखा था, उसका सारांश कुछ यों था कि प्यार, खुशामद नारांजगी और उलाहनों के साथ-साथ उन्होंने उसको समझाया था कि वह फर्क, जो वह अपने और उनके बीच में पाती है, वह मुल्क, नस्ल और समाज का नहीं, बल्कि वर्गों का है। और जब इनसान अपने वर्ग से निकल ऊँचे वर्ग में शामिल हो जाते हैं, तो सारा फर्क अपने आप मिट जाता है। उन्होंने उसको समझाया था कि उसकी बेहतरी इसी में है कि वह मझली फूफू के कहने पर अमल करे और वापसी का खयाल छोड़ दे।

पत्र उसके हाथों से गिर गया। जैसे आँखों के नीचे अँधेरा-सा आ गया हो। ओह, इस दुनिया में किस कदर घपला है। और दुनिया, जिसे वह बहुत छोटी-सी और दिलचस्प-सी समझा करती थी किस कदर विशाल और परेशान-कुन है।

हां, तो क्या वाकई, अब अपने वतन से मेरा नाता टूट गया। उसके दिल की धड़कनों ने रुककर सवाल किया और जैसे उसकी अम्मा के गिरे हुए पत्र ने सिर उठाकर कहा हां मेरी चन्दा, अब तुम इस देश से रिश्ते कायम कर लो। मेरा मतलब उस वर्ग से है।

अच्छा अम्मी, अगर तुम्हारी यही मर्जी है, तो यही सही, अब मैं अपने वर्ग से कोई वास्ता न रखूंगी।

अब तुम मुझे देखोगी तो शायद पहचान भी न पाओ।

उसे गैर-मुल्की लड़की ने खुश्क आँखों और दुखी दिल से सोचा और अपनी अम्मा का पत्र उठाकर बेध्यानी में चूम लिया।