गैर पारंपरिक कथात्मक यथार्थ के कथाकार / राहुल सिंह
हिंदी आलोचना में परंपराओं के निर्माण की परंपरा रही है और परंपराओं के निर्माण के मूल में विचारधारात्मक आग्रहों की प्रभावशाली भूमिका रही है। इन विचारधारात्मक आग्रहों की वल्गाएँ आलोचकों-अध्यापकों के हाथ रही है। हर दौर में ऐसे कुछ रचनाकार रहे हैं जो आलोचकों की निगाह में किसी 'अज्ञात कारण' से नहीं आ सके हैं। इन्हें दुर्भाग्यशाली कहना पुनः उनके साथ अन्याय करना है। हमारे समय में उपेक्षा की इस परंपरा को समृद्ध करने का काम कुछ हद तक संजीव कर रहे हैं। तकरीबन दो सौ कहानियाँ और ग्यारह उपन्यासों के सर्जक। संजीव के बाबत यह बात उनकी रचनाओं की संख्या के आधार पर नहीं कही जा रही है बल्कि इन रचनाओं की गुणवत्ता तथा उसकी सीमा और संभावना एवं उनसे कमतर रचनाओं को मिली अनुशंसा, प्रशंसा और पुरस्कारों के मद्देनजर कही जा रही है। संजीव के कथा संसार से कहानियों की व्यापक उपस्थिति को एक ओर रखते हुए, फिलहाल उनके उपन्यासों को केंद्र में रखकर कुछ बातें प्रस्तावित भर कर रहा हूँ।
'किसनगढ़ के अहेरी' (1981), 'सर्कस' (1984), 'सावधान! नीचे आग है' (1986), 'धार' (1990), 'पाँव तले की दूब' (1995), 'जंगल जहाँ शुरू होता है' (2000), 'सूत्रधार' (2002), 'आकाशचंपा' (2008), 'रह गईं दिशाएँ इसी पार, (2012) के अलावे दो बाल उपन्यास 'रानी की सराय' और 'डायन'। इनमें से 'किशनगढ़ का अहेरी' सहजता से न मिल पाने के कारण और बाल उपन्यास जानकारी के अभाव के कारण पढ़ नहीं सका। इसलिए संजीव के उपन्यासों पर अपनी तईं पूरी कोशिश के बावजूद इस लेख में एक अधूरापन है।
संजीव प्रसंगवश भले कभी फणीश्वरनाथ रेणु, प्रेमचंद आदि की परंपरा में दिखलाई देते हों लेकिन सही अर्थों में वे एक नई परंपरा के प्रस्थापक हैं। वह नई परंपरा है 'शोध आधारित उपन्यास लेखन की', 'यथार्थ को अलग तरीके से आयत्त करने की'। उनकी अब तक के औपन्यासिक लेखन में बिना नागा इस निष्ठा का अनुपालन देखा जा सकता है। शोध आधारित होने के कारण उनका प्रत्येक उपन्यास एक 'प्रोजेक्ट' की तरह लगता है। इन समस्त उपन्यासों में एक बात जो आमतौर पर नजर आती है, वह है, कथा की आधारभूमि विकसित करने में संजीव के द्वारा किया जानेवाला अत्याधिक श्रम। जिस विषय पर भी उपन्यास लिखा जाना हो, उसका आधिकारिक ज्ञान उन्हें उसे कथात्मक संरचना में ढालने की सहूलियत देता है। लेकिन कई अवसरों पर विचार को कथात्मकता की शर्तों पर ढालने के लिए जिस संरचनागत पकड़ की आवश्यकता होती है, उसका स्पष्ट अभाव भी देखने को मिलता है। जहाँ विचार कथा का अभिन्न हिस्सा नहीं बन पाता है, वहाँ न केवल आस्वाद के धरातल पर कथा रस में बाधा पैदा होती है बल्कि 'कथा का क्षय' भी होता है। स्वयं संजीव ने राजेंद्र यादव से हुए पत्राचार में 'सावधान! नीचे आग है' के शुरुआती ड्राफ्ट्स के संदर्भ में स्वीकार किया है कि 'हालाँकि कलात्मक क्षय भले ही प्रत्यक्ष में उभर कर आ रहा हो, अविश्वसनीय और अकलात्मक नहीं बने यह कोशिश रही है मेरी।' (पाखी, सितंबर 2009, पृ 70) संजीव कला की विश्वसनीयता को प्रस्तावित करनेवाले उपन्यासकार हैं, कई बार कलात्मकता की कीमत पर। अपने प्रत्येक उपन्यास में संजीव कथा की विश्वसनीयता को आद्यंत बनाए रखने में सफल रहे हैं लेकिन यही बात कलात्मकता के संदर्भ में नहीं कही जा सकती है। दरअसल कथा की विश्वसनीयता को बनाए-बचाए रखने के लिए यथार्थ के प्रामाणिक चित्रण के क्रम में वे तथ्यों का इस्तेमाल व्यापक स्तर पर करते हैं। संजीव के कथात्मक ढाँचे का एक बड़ा हिस्सा इसी वजह से तथ्यात्मक होता है, जो कई बार कथात्मक ढाँचे को कमजोर करता है। इन ब्यौरे से न सिर्फ कथा की गति मंथर पड़ती है बल्कि कथा रस के आस्वादन में एक बाधा पैदा होती है।
तो बिस्मिल्लाह 'सर्कस' से करते हैं क्योंकि 'किशनगढ़ के अहेरी', मिल नहीं सका। बावजूद इसके 'किशनगढ़ के अहेरी' के बारे में इतना कह सकता हूँ कि यह एक कमजोर रचना रही होगी क्योंकि संजीव बतौर उपन्यासकार अपने हर उपन्यास के साथ 'ग्रो' करते गए हैं। मेरा यह अनुमान भी दिलचस्प तौर पर सही साबित हुआ जब 17 जून 2012 को झारखंड से प्रकाशित होने वाले दैनिक अखबार प्रभात खबर में संजीव का एक लंबा साक्षात्कार प्रकाशित हुआ, जिसमें उन्होंने कहा कि वे अपने पहले उपन्यास 'किशनगढ़ के अहेरी' को फिर से इन दिनों लिखने में मुब्तिला हैं। 'किशनगढ़ के अहेरी' के बाद आया उनका उपन्यास 'सर्कस' भी एक कमजोर उपन्यास है। सर्कस को पढ़ते हुए फौरी तौर पर जो बात महसूस होती है वह यह कि यदि यह उपन्यास के बजाय लंबी कहानी के रूप में लिखी गई होती तो रचनात्मक धरातल पर ज्यादा सफल होती। 'कथ्यगत बुनावट' अंततः रचना को कौन-सा रूप देगी, इसके पूर्वानुमान की क्षमता संजीव की तुलना में शिवमूर्ति, अखिलेश और उदय प्रकाश के यहाँ बेहतर रूप में मौजूद है। किसी उपन्यास का कहानी-सा जान पड़ने की तुलना में, किसी कहानी का औपन्यासिक लगना रचनात्मक धरातल पर ज्यादा बेहतर और सफल स्थिति है। 'सर्कस' के साथ थोड़ी नरमी सिर्फ संजीव के आरंभिक प्रयासों में से एक होने के कारण बरती जा सकती है, अन्यथा दूसरी कोई वाजिब वजह नही दिखती।
भारतीय संदर्भ में 'सर्कस' जैसी 'थीम' पर इससे बेहतर उपन्यास संजीव लिख सकते थे क्योंकि उपन्यास अंततः जिन बातों को रेखांकित करता है, उसके लिए इतने बड़े उपक्रम की योजना अनावश्यक लगती है। 'सर्कस' जैसे विषय को संजीव 'एक्सप्लोर' नहीं कर सके। बल्कि जिस रूप में 'सर्कस' हमारे सामने उपस्थित है, उसमें यह कहना ज्यादा संगत जान पड़ता है कि जिन तथ्यों और विचारों के इर्द-गिर्द संजीव ने 'सर्कस' का ताना-बाना बुना है, उसमें एक लंबी कहानी लिखी जा सकती थी, जो औपन्यासिकता की सीमा को आद्यंत छूते रहती। संजीव के परवर्ती उपन्यासों की तुलना में 'सर्कस की कथावस्तु' का ग्राफ एकरेखीय है, जबकि 'कथा की बहुस्तरीयता' संजीव के उपन्यासों की खासियत है। यहाँ भी यह बहुस्तरीयता संभव थी, पर संजीव 'सर्कस' की संभावनाओं का प्रचुर मात्रा में दोहन नहीं कर सके हैं। ऐसा इसलिए कह रहा हूँ कि 'सर्कस' एक बहुरंगी और बहुस्तरीय संरचना है और 'राष्ट्र' (भारत) भी। अगर कथा सूत्र कुछ इस तरह विकसित हुए होते कि उपन्यास के अंत तक आते-आते इन दोनों संरचनाओं की समरूपता उजागर होती चली जाती तो यह थीम हमारे समय के एक रूपक (मेटाफर) के बतौर विकसित होता। लेकिन ऐसा न होकर अंत में संजीव विचार की एक थिगली चिपकाकर यह साबित करना चाहते हैं कि राष्ट्र रुपी सर्कस की सफलता इस बात में निहित है कि वह अपने दर्शकों को यह अहसास कराते रहे कि वह दर्शक ही इसके कलाकार हैं और असली रिंग मास्टरों की पहचान छिपी रहे।
'सर्कस' के साथ समस्या यह थी कि जब उसे पढ़ना आरंभ करें तो लगेगा कि 'सर्कस' की 'थीम' पर लिखा गया उपन्यास है, पर संजीव उस 'थीम' को 'सब्जेक्ट' में बदल देते हैं और जिसे अंत में राष्ट्र का एक रूपक घोषित कर दिया जाता है। यदि 'सर्कस' की 'थीम' कथात्मक शर्तों के अनुरूप रूपक में तब्दील हो पाती तो सराहनीय बात होती लेकिन किसी 'सब्जेक्ट' का केवल उपदेशात्मकता के आधार पर रूपक में तब्दील हो जाना कतई सराहनीय नहीं कहा जा सकता है। दो सौ चार पन्नों के उपन्यास को पढ़कर, गर यह लगे कि, 15-20 पृष्ठ के किसी लेख में इस विषय के साथ ज्यादा न्याय किया जा सकता था तो इसे उपन्यासकार की भारी असफलता ही कही जाएगी। इस असफलता के मूल में संजीव की कथागत दुविधा रही है। संजीव बुनियादी रूप से तो 'सर्कस' पर खुद को फोकस करना चाह रहे थे, इसके लिए उसने झरना को बहाना बनाया। लेकिन आगे चलकर सर्कस और झरना इस उपन्यास के दो अलग-अलग केंद्रों के तौर पर सामने आते हैं और यह कहानी जितनी सर्कस पर है उससे कमतर झरना की नहीं रह जाती। झरना के विकास में एक कालानुक्रमिकता दिखलाई देती है लेकिन मनोरंजन के एक महत्वपूर्ण उपादान के बतौर सर्कस के विकास या हृास के कालगत ऐतिहासिक कारणों को रेखांकित करने में संजीव नाकाफी साबित होते हैं। मनोरंजन के उपादन के बतौर सर्कस जैसी विधा के खत्म होने के कारणों के रूप में वे सर्कस के लिए उपलब्ध कराए जानेवाले मैदानों को धार्मिक प्रयोजनों और चुनावी सभाओं के इस्तेमाल तथा ग्लैमर के बढ़ते प्रभाव का बस उल्लेख भर ही करते हैं, ग्लैमर कैसे सर्कस जैसी विधा के लिए चुनौती प्रस्तुत कर रहा है, इसकी कोई संतोषजनक व्याख्या वे प्रस्तुत नहीं करते। इतिहास की दृष्टि से सर्कस के संदर्भ में वे महज तीन ऐतिहासिक घटनाओं की ओर संकेत करते हैं एक चीन से युद्ध, दूसरा अकाल और तीसरा आपातकाल, यह भी बहुत कन्विसिंग रूप से नहीं। 'सर्कस' में संजीव का विषयगत काल बोध पूरी तरह से फ्रैक्चर्ड है। उपन्यास में यदि सर्कस को बतौर मनोरंजन की एक विधा के बढ़ने और मरणासन्न अवस्था की ओर बढ़ते एक स्पष्ट काल बोध के साथ दिखलाया गया होता तो बात कुछ और होती, लेकिन ऐसा पढ़ते हुए नहीं जान पड़ता है। अंत तक आते-आते सर्कस की जगह झरना केंद्र में आ जाती है। और सर्कस जैसी 'थीम' जाया हो जाती है।
'सर्कस' के बाद जब 'सावधान! नीचे आग है' के पन्नों से हम गुजरते हैं तब विषय को लेकर संजीव के द्वारा किए जाने वाले शोध की ओर हमारा ध्यान जाता है। कोयला खनन की बारीकियों से जुड़ी तकनीकी शब्दावली का भरपूर प्रयोग उनके श्रम की ओर ध्यान खींचता है। 'सावधान! नीचे आग है' पुनः संजीव के 'आँखों देखी शैली' के कारण थोड़ा बोझिल हो गया है। कोयला खदान और खनन से जुड़ी शब्दावली और गतिविधियों के प्रामाणिक अंकन का लोभ पठनीयता की धरातल पर एक ऊब पैदा करती है। 'सावधान! नीचे आग है' में कथानक दो खंडों में विभक्त है; 'एक सतह के नीचे' और दूसरा 'सतह के ऊपर'। पहला 185 पृष्ठों में फैला है तो दूसरा महज 85 पृष्ठों में। इस उपन्यास में कहानी की पृष्ठभूमि निर्मित करने में संजीव जरा ज्यादा ही श्रम, समय और पन्ने खर्च कर बैठे हैं। इसे ऐसे समझें कि 'सावधान! नीचे आग है' के आखिरी 110 पृष्ठ उसे एक जरूर पढ़े जानेवाले उपन्यास में शुमार कराने के लिए पर्याप्त है। लेकिन वह आखिरी 110 पृष्ठ जिन 160 पृष्ठों के बाद आता है, उनसे गुजरना आम पाठक के लिए खासा चुनौतीपूर्ण है। इन आखिरी 110 पृष्ठों में ईश्वर, नियति और प्रकृति के खिलाफ ऊधम सिंह के इक्कीस दिनों का जो 'एपिक स्ट्रगल' है, वह हिंदी उपन्यासों की परंपरा में अदम्य संघर्षशीलता और उद्दाम जिजीविषा का एक बेनजीर उदाहरण है। ऊधम सिंह के इस बेमिसाल संघर्ष के समानांतर सत्ता और व्यवस्था जितनी टुच्ची, कुटिल और कमीनापूर्ण आचरण करती नजर आती है, वह व्यवस्था के प्रति घृणा पैदा करती है। इन आखिरी 110 पृष्ठों की भाँति ही संजीव ने यदि आरंभिक 160 पृष्ठों में भी ऐसी ही निर्ममता दिखलाई होती तो 'सावधान! नीचे आग है' एक ज्यादा कसी हुई कृति के बतौर हमारे सामने होती। 'सावधान! नीचे आग है' के आरंभिक 160 पृष्ठों में संजीव एक उपन्यासकार से ज्यादा प्रशिक्षु पत्रकार नजर आते हैं, जो क्षेत्र की भौगोलिक संरचना, जातीय समीकरण, रीति-रिवाज, रहन-सहन, धार्मिक आस्था, खदान और खनन से जुड़ी तकनीकी जानकारियाँ देते नजर आते हैं। लेकिन आखिरी 110 में बतौर उपन्यासकार संजीव अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराते हैं।
'सावधान! नीचे आग है' के बाद 'धार' प्रकाश में आता है। 'सावधान! नीचे आग है', कोयला खदानों के राष्ट्रीयकरण के बाद की कहानी बयाँ करती है तो 'धार' उससे पहले की। 'धार' में संजीव अपनी पिछली संरचनागत कमियों को अप्रत्याशित रूप से कम करते नजर आते हैं। पहली पंक्ति से ही 'कथात्मकता की शर्तों का निर्वहन' दिखने लगता है। न सिर्फ बतौर उपन्यासकार बल्कि चेतना के धरातल पर भी वे ज्यादा परिपक्व रचनाकार के रूप में सामने आते हैं। मार्क्सवादी विचारधारा के अंतर्गत एक बेहतर दुनिया बनाने के 'माड्यूल' से इतर हट कर संजीव कुछ नया प्रस्तावित करते हैं। यह 'कुछ नई प्रस्तावना' रचना के स्तर पर एक 'सरप्लस वेल्यू' का सृजन करती है जो संजीव की दृष्टि में आए बदलाव को रेखांकित करता है। बतौर उपन्यासकार 'धार' को संजीव की औपन्यासिक यात्रा का एक महत्वपूर्ण पड़ाव माना जा सकता है। ऐसा कहने के कई कारण हैं। इस सुखद बदलाव को सबसे पहले तो उपन्यास के शीर्षक के स्तर पर देखा जा सकता है। 'धार' से पहले के संजीव के उपन्यासों के शीर्षकों पर गौर फरमाएँ ('किशनगढ़ के अहेरी', 'सर्कस', 'सावधान! नीचे आग है' ) तो इनमें एक सपाटता है। इन शीर्षकों से इनकी कथावस्तु का अनुमान किया जा सकता है। लेकिन 'धार', 'पाँव तले की दूब', 'जंगल जहाँ शुरू होता है', 'सूत्रधार', 'आकाशचंपा' और 'रह गईं दिशाएँ इसी पार' के शीर्षकों में निहित सांकेतिकता की अर्थवत्ता को इन उपन्यासों से गुजरे बिना नहीं समझा जा सकता है। यदि 'धार' का ही उदाहरण लें तो एक ओर तो यह समकालीन प्रगतिशील काव्य के 'सारा लोहा उन लोगों का अपनी केवल धार' की परंपरा से अपनी संबद्धता व्यक्त करती है। दूसरी ओर, संजीव स्वयं उपमा की सहायता से जनांदोलन के संदर्भ में इसकी जो अर्थपूर्ण व्याख्या करते है, वह अलग से रेखांकित करने योग्य है। 'साथियों, लाल झंडे में यह जो हँसुआ आप देख रहे हैं, यह सचमुच नीले आतंकों के सीने में रोशनी की कटार की तरह धँसा हुआ है। जैसे-जैसे कामयाबी हासिल होती जाती है, हँसुआ पुष्ट होता जाता है। रोशनी तो मिलती है लेकिन धार भी मरने लगती है। यहाँ तक कि पूरणमासी के दिन वह गोल ही हो जाता है। तब अँधेरा धीरे-धीरे उसे नोचना शुरू करता है। रोशनी दिनोंदिन छीजने लगती है, चंद्रमा दिनोंदिन हारने लगता है... और अमावस का एक दिन ऐसा भी आता है जब चंद्रमा का कहीं नामोनिशान नहीं रह जाता। चारों तरफ सिर्फ काली मनहूस रात! गाफिली का यही अंजाम होता है। ...तो साथियों, यह धार ही हमारी शक्ति है और धार का भोथरा होना ही मौत। यहाँ ही नहीं जहाँ-जहाँ भी साम्यवादी सरकारें हैं, यह उपमा लागू होती है।' (पृ 157) इस से यह नहीं मान लेना चाहिए कि संजीव मार्क्सवादी विचारधारा के प्रस्तावित सिद्धांतों के अनुरूप जनसंघर्ष के सिद्धांतों की प्रस्तावना करते हैं। प्रकारांतर से संजीव प्राकृतिक संसाधनों से प्रचुर (खासकर खनिजयुक्त) राज्यों में मार्क्सवादी विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए एक संशोधित राह सुझाते जान पड़ते हैं। संशोधित राह यह कि इन क्षेत्रों में जमीनी वास्तविकता के अनुरूप एकजुटता और संघर्ष की रणनीतियों को समायोजित करने की आवश्यकता है। कोयला खदानों के राष्ट्रीयकरण के पूर्व उन क्षेत्रों के असंगठित मजदूरों को एकजुट करने की 'जनखदान' की जो अवधारणा 'धार' में प्रस्तावित है। वह वास्तव में एक मूल्यवान 'विचार' है और उस विचार और अवधारणा की खूबसूरती के लिए 'धार' को अवश्य पढ़ा जाना चाहिए। इससे यह न मान लिया जाए कि आज के बदले हालात में भी यह विकल्प कारगर होंगे।
'सावधान! नीचे आग है' और 'धार' की पृष्ठ संख्या को मिला दिया जाए तो यह पौने पाँच सौ पन्ने हो जाते हैं। हाल ही में 'गैंग्स ऑफ वासेपुर' देखी, जिसमें एक मार्के की बात अनुराग कश्यप ने की है। 'इस देश में कोयला पहला प्राकृतिक संसाधन था जिसका भरपूर दोहन किया गया और कोल माफिया वे पहले लोग थे जिन्होंने माफियागिरी को इस देश में जन्म दिया। उन खदानों पर सबका हक हुआ करता था लेकिन अंग्रेजों के भारत से जाने के बाद उन खदानों को टाटा, बिड़ला और थापर को आबंटित कर दिया गया। उन खदानों से वहाँ के बाशिंदों को बेदखल कर दिया गया। इन बड़े कारपोरेट घरानों को अपने उद्योगों और कारखानों को चलाने के लिए कोयले की आवश्यकता तो थी लेकिन उनके पास कोयला खदानों को संचालित करने का अनुभव नहीं था। अतः उन लोगों ने पुनः उन्हीं लोगों को इस काम की जिम्मेदारी सौंपी जो अंग्रेजों के समय में इस काम को अंजाम दिया करते थे। उनमें पहलवान (दबंग) किस्म के लोग थे जो जबर्दस्ती लोगों से कोयला खदानों में काम कराया करते थे। लेकिन स्वतंत्रता के बाद उन्हें इस बात का अहसास हो गया कि कोयला जैसे प्राकृतिक संसाधन पर सबका अधिकार है और इससे बहुत रुपया बनाया जा सकता है। इन सबने कोयले के धंधे में एक निरंकुश किस्म की उठाईगिरी को जन्म दिया। बाद में स्थितियाँ बदलीं सांवैधानिक प्रावधान किए गए। बाबू जगजीवन राम जब श्रम मंत्री बने तब उन्होंने संघों के निर्माण पर बल दिया लेकिन जल्द ही माफिया उन संघों के द्वारा कोयले के व्यापार को संचालित करने लगे। जब इन खदानों को राष्ट्रीयकरण किया गया तो माफियाओं ने यहाँ भी अपने लिए रास्ता बना लिया। इन माफियाओं ने अपनी अंतरात्मा को अपने इस उठाईगिरी के लिए यह कह कर समझा लिया कि जब हर कोई इसमें अपना हिस्सा ले रहा है तो फिर हम पीछे क्यों रहें? तो यह एक किस्म का बंदरबाँट हो गया। हर कोई अपना हिस्सा चाहने लगा।' तो इस कोण से देखने पर यह एक ज्यादा महत्वपूर्ण दृष्टिकोण लगता है, जिसके साथ पौने पाँच सौ पृष्ठों के उपन्यास में पौने पाँच घंटे की फिल्म की तुलना में ज्यादा न्याय किया जा सकता था। किसी विषय या थीम के प्रति अपनाया गया रवैया कितना बड़ा अंतर पैदा कर सकता है, ऊपर के उदाहरण द्वारा इसे समझा जा सकता है।
'सावधान! नीचे आग है' की कथा भूमि कोयलांचल और 'धार' की संथाल परगना रही है। कोयलांचल और संथाल परगना दोनों आजाद भारत के वे भू-भाग हैं जो आजादी के बाद की आंतरिक औपनिवेशन की प्रक्रिया के शिकार रहे। आंतरिक औपनिवेशन के शिकार रहे इन भू-भाग के बाशिंदों का यथार्थ मुख्यधारा में व्यक्त होते आए यथार्थ से अलग रहा है। यथार्थ को उपन्यास में रूपांतरित करने की तीहरी चुनौती संजीव के समक्ष रही है, पहली तो, दमित और हाशियागत यथार्थ को उपन्यास का विषय बनाने की। दूसरी, उस यथार्थ को विश्वसनीय बनाने की और तीसरी संप्रेष्य बनाने की। देखना यह जरूरी हो जाता है कि क्या इन चुनौतियों से संजीव का लेखन प्रभावित हुआ है? संजीव इन चुनौतियों के प्रति किस तरह 'रेस्पांड' करते हैं ? हम पाते हैं कि आंतरिक औपनिवेशन के शिकार भू-भागों के यथार्थ को उपन्यास की शर्तों पर पूरी विश्वसनीयता के साथ व्यक्त करने के संजीव के प्रयत्नों का एक परिणाम उनके उपन्यासों में 'ब्योरों की बहुलता' का होना है। संजीव के उपन्यासों में परिवेश के यथार्थ को विश्वसनीय ढंग से व्यक्त कर पाने की कोशिश में उनके लेखन का एक बड़ा हिस्सा ब्योरों में जाता रहा है। 'परिवेश के यथार्थ' से तात्पर्य यह कि परिवेश और यथार्थ दोनों बहुस्तरीय संरचनाएँ हैं। परिवेश में एक साथ सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक-सांस्कृतिक पहलू समाहित हैं तो इन हर पहलुओं का अपना एक निजी यथार्थ रहा है जो अन्य पहलुओं से एक साथ ही संबद्ध और असंबद्ध दोनों है। परिवेश और यथार्थ के इस आपसी जटिल रिश्तों को उनकी जटिलता में उकेरने के प्रयत्न लगातार संजीव के उपन्यासों में देखे जा सकते हैं। 'पाँव तले की दूब' इसका बेजोड़ उदाहरण है, ऐतिहासिक यथार्थ की जटिलता अपनी समग्रता में मौजूद है (कांपलेक्स टोटैलिटी ऑव हिस्टोरिकल रियलिटी)। संजीव के इस प्रयास को फणीश्वरनाथ रेणु के आंचलिक उपन्यासों में व्यक्त यथार्थ के माध्यम से समझा जा सकता है। जिस प्रकार फणीश्वरनाथ रेणु पूर्णिया अंचल की सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक-सांस्कृतिक संरचना को एक साहित्यिक संरचना में रूपांतरित करने का ऐतिहासिक काम किया था, संजीव की रचनाओं में भी वैसा ही कुछ देखने को मिलता है। इस लिहाज से संजीव, रेणु की विरासत को आगे बढ़ाने का काम करते हैं। 'सावधान! नीचे आग है' और 'धार' के बारे में कुछ बातें और है जो गौरतलब है। जैसे, इनमें पहला यथार्थमूलक (रियलिस्टिक) है और दूसरा आदर्शमूलक (आइडियालिस्टिक)। अपने चरित्र और स्वरूप में अलग-अलग एप्रोच के साथ लिखे जाने के बावजूद इनकी परिणतियाँ एक-सी हैं अर्थात् अलग-अलग अर्थों में दलित, दमित, वंचित और असंगठित जनसमूहों की दुर्गति से है। 'सावधान! नीचे आग है' और 'धार' विकास के नाम पर होने वाली लूट की हकीकत को सामने लाने का काम करती है। सरकारी कार्य पद्धति की कमियों को उजागर करते हुए, उन कमियों का खामियाजा भुगतने वाले वर्गों की कहानी बयाँ करते हुए लोकतंत्र की सीमाओं का उद्घाटन करती है।
'सर्कस' अगर श्रमपूर्वक जुटाई गई सूचनाओं और तथ्यों को कथा में रूपांतरित करने का उपक्रम था तो 'सावधान! नीचे आग है' और 'धार' के स्रोतों को अखबारी कतरनों में तलाशा जा सकता है। संजीव ने 'गैर पारंपरिक कथात्मक स्रोतों से अर्जित तथ्यों और सूचनाओं को कथात्मक यथार्थ में रूपांतरित करने के काम' को अंजाम दिया है लेकिन इन दोनों प्रयत्नों की कुछ बड़ी सीमाएँ हैं कि गैर पारंपरिक कथात्मक स्रोतों से अर्जित तथ्यों और सूचनाओं का रूपांतरण बहुत 'रिफाइंड' तरीके से कथात्मकता की शर्तों के अनुरूप नहीं हो सका है। यथार्थ का एक खुरदरापन इन दोनों उपन्यासों में मौजूद है, जो कथा रस के निर्बाध आस्वादन में बाधा पैदा करता है। दूसरा, यह कि चाहे वह 'सर्कस' हो, 'सावधान! नीचे आग हो' या 'धार' हो, इन तीनों उपन्यासों की एक बड़ी सीमा काल-सापेक्षता के स्पष्टता बोध का अभाव रहा है। इन उपन्यासों में व्यक्त देश (स्पेस) को तो सहजता से चिह्नित किया जा सकता है लेकिन उस देश का काल क्या रहा है? यह जानने के लिए काफी मेहनत करनी पड़ती है।
'धार' के बाद 'पाँव तले की दूब' का प्रकाशन हुआ। 'पाँव तले की दूब' की कथाभूमि पुनः झारखंड मुक्ति आंदोलन से संबद्ध है। इसका मुख्य पात्र सुदीप्त गैर आदिवासी होने के कारण अपनी ईमानदार संवेदना के बावजूद एक 'आउट साइडर' मान लिए जाने की वंचना का शिकार है। यहाँ अनजाने ही संजीव के लेखन का एक महत्वपूर्ण सूत्र हाथ लगता है। हम पाते हैं कि संजीव के पूर्ववर्ती और परवर्ती उपन्यासों में लगातार ऐसे पात्र हैं, जो 'आउटसाइडर' हैं और जिनकी जाति-संस्कृति और प्रादेशिकता कथाभूमि के मूल निवासियों से अलग रही है। संवेदना और विचार के धरातल पर भले यह अपनी जाति-संस्कृति और प्रादेशिकता से ऊपर उठ गए हों लेकिन वे जिनके बीच हैं, उनकी निगाह में संदिग्ध हैं। क्या यह 'आउटसाइडर' स्वयं संजीव हैं, जो बार-बार खुद को जाति-प्रदेश के बंधनों से मुक्त कर अपनी प्रतिबद्धता वंचितों, दलितों और दमितों के पक्ष में प्रस्तुत करते हैं। उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर के बाँगर कलाँ गाँव में जन्मे, पश्चिम बंगाल में बढ़े और शिक्षित हुए, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, गढ़वाल आदि को अपनी कथाभूमि बनाने वाले संजीव को कहाँ का कथाकार मानेंगे? उत्तर प्रदेश की पैदाइश होने के कारण उनकी प्राथमिक पहचान वहीं के रचनाकार की बनती है, लेकिन उनके दस उपन्यास की कथा भूमि बिहार-झारखंड के भू-भाग रहे हैं। मसलन 'सावधान! नीचे आग है', 'धार' और 'पाँव तले की दूब' इन तीनों को गर एक साथ पढ़ें तो पाते हैं कि इन तीनों की कथा भूमि झारखंड के अलग-अलग भू-भाग हैं। इसमें 'जंगल जहाँ शुरू होता है' और 'सूत्रधार' को जोड़ लें तो संजीव अविभाजित बिहार के एक बड़े रचनाकार के रूप में सामने आते हैं। भले संजीव की पैदाइश बाँगर कलाँ गाँव, सुल्तानपुर (उत्तर प्रदेश) रही हो, लेकिन 2002 तक उनके उपन्यासों की कथा भूमि बिहार और झारखंड के अलग-अलग भू भाग ही रहे हैं। उनके ग्यारहवें उपन्यास 'रह गईं दिशाएँ इसी पार' की कथा बंगाल, केरल, राजस्थान के रास्ते विदेशों तक पहुँचती है। उत्तर प्रदेश वालों के पास पैदाइश के अलावा बहुत ठोस वजह नहीं है कि वे संजीव को अपना उपन्यासकार मानें। बिहार-झारखंड पैदाइश को लेकर कुछ ज्यादा ही संवेदनशील रहा है (डोमेसाइल का मसला, बिहारी-झारखंडी का मामला)। इसलिए ले-दे कर वे कोयलांचल के कथाकार मान लिए गए हैं। इन कारणों से संजीव के उपन्यासों में लगातार 'आउटसाइडर' की उपस्थिति में स्वयं संजीव का अक्स ही मुझे झाँकता नजर आता है। संजीव के उपन्यासों में 'आउटसाइडर' केवल एक कथानक रूढ़ि न होकर संजीव के अंदर का दर्द है, जो उनके उपन्यास में अब तक निरंतर बना रहा है। वस्तुतः 'पाँव तले की दूब' रूपक है, संजीव की इस विडंबनामूलक अवस्था का।
इस विडंबनामूलक अवस्था से उबरने की कोशिशों ने अनायास ही संजीव की रचनाशीलता में ऊपरी स्तर पर तमाम वैविध्य के बावजूद भीतरी स्तर पर एक 'पैटर्न' का निर्माण किया है। जिसकी सर्वप्रमुख खासियत आउटसाइडर से इनसाइडर बनने की है। इनसाइडर होने की इस पुरजोर कोशिश में ही संजीव की औपन्यासिक संरचनाएँ चरमराती रही है। इसे 'सर्कस' से लेकर 'सावधान! नीचे आग है' तक तो लगातार घटित होते देखा जा सकता है। 'सर्कस' की सारी समस्या इसी नुक्ते पर टिकी है कि संजीव 'सर्कस' के बारे में कितना जानते हैं? 'सावधान! नीचे आग है' में भी कोयला खदान की बारीकियों की अपनी जानकारी गिनाने में बेवजह बहुत पन्ने काले कर डालते हैं। कई बार तो वे जबर्दस्ती जिज्ञासु पात्रों को सिर्फ इसलिए गढ़ देते हैं कि वे बस कुछ जिज्ञासाएँ जाहिर कर फना हो जाएँ और ये अपने फन की कारीगरी दिखा सकें। जिन मौकों पर वे जबर्दस्ती अपना ज्ञान प्रदर्शित करने लगते हैं उन मौकों पर उपन्यासकार कम और प्रशिक्षु पत्रकार ज्यादा लगते हैं। 'सावधान! नीचे आग है' तक वे विश्वसनीयता और कलात्मकता के कुशल निर्वाह की अदा अपनी लेखनी में विकसित नहीं कर सके थे। 'धार' से इसकी शुरुआत होती है, 'पाँव तले की दूब' में इस दिशा में एक संतुलन-सा विकसित होता दिखता है। 'जंगल जहाँ शुरू होता है' में संजीव उसे साध लेते हैं। 'सूत्रधार' में उस साधना का कमाल दिखाते हैं। 'आकाशचंपा' और 'रह गईं दिशाएँ इसी पार' में वे इसे एक साहित्यिक कौशल में बदल देते हैं।
'पाँव तले की दूब' तक आते-आते संजीव उपन्यास की कई संरचनागत कमजोरियों से उबर चुके हैं। 'पाँव तले की दूब' के बाद उनके चार उपन्यास आए, 'जंगल जहाँ शुरू होता है', 'सूत्रधार', 'आकाशचंपा' और 'रह गई दिशाएँ इसी पार', इन सबमें कथानक के स्तर पर एक बड़ा बदलाव देखने को मिला वह यह कि कथानक एकायामी होने के बजाए बहुआयामी होने लगा। 'सर्कस', 'सावधान! नीचे आग है', 'धार', 'पाँव तले की दूब' की कथावस्तु को जितनी कम पंक्तियों में स्पष्ट किया जा सकता है, 'पाँव तले की दूब' के बाद आए चारों उपन्यासों के बारे में वही बर्ताव नहीं किया जा सकता है। बाद के उपन्यासों में 'यथार्थ के परस्पर गुंफित तत्वों को पकड़ने का उपक्रम है।' यथार्थ अपनी जटिलता और संश्लिष्टता के साथ इन उपन्यासों में दर्ज है, जिसके कारण यह सिर्फ साहित्य मात्र न होकर हमारे समय का सामाजिक दस्तावेज बन जाता है। बाद के इन चारों उपन्यासों में वर्णित समय और समाज की चालक शक्तियों और उनके द्वारा आरंभ की गई और गति प्रदान की गई प्रक्रियाओं के परिणामस्वरूप समाज में आने वाले बदलावों को दर्ज किया जाता है। बदलाव की उस सामाजिक प्रक्रिया को समग्रता में पकड़ने के कारण संजीव हमारे समय के एक 'संदर्भवान रचनाकार' के तौर पर उभरते हैं। सन्दर्भवान कई अर्थों में - समकालीनता के आग्रह को स्वीकार करने के अर्थ में, अपने लेखन की अर्थवत्ता के संदर्भ में, सरोकार के अर्थ में, प्रतिबद्धता के स्तर पर, प्रतिकूलताओं के मध्य विकल्पों के प्रस्तावक के अर्थ में, चरम निराशा के क्षणों में आशा के संचारक के अर्थ में, विकास के अंतर्विरोधों को रेखांकित करनेवाले रचनाकार के अर्थ में, परिवर्तनकामी दृष्टि के वाहक होने के अर्थ में।
'जंगल जहाँ शुरू होता है' संजीव की धाकड़ रचना है। धाकड़ इसलिए कह रहा हूँ कि यह अकेले बहैसियत उपन्याकार उनकी धाक जमाने के लिए काफी है। जिन बातों के लिए अब तक संजीव की आलोचना करता आया हूँ वह सब कारक इसमें भी मौजूद है। (क्षेत्र की भौगोलिक संरचना, जातीय समीकरण, रीति-रिवाज, रहन-सहन, धार्मिक आस्था से जुड़ी जानकारियों की प्रचुर मात्रा में उपलब्धता आदि।) लेकिन एक मामूली से अंतर के साथ, अर्थात् कथात्मकता की शर्तों पर। कहानी की गति आद्यंत पाठकों को बांधे रहती है। विश्वसनीयता और कथात्मकता के बीच संतुलन के जिस निर्वाह का अभाव संजीव के पिछले उपन्यासों में दिखता रहा है, वह यहाँ सिरे से गायब है।
संजीव के उपन्यासों को पढ़ने के दौरान एक बात जो लगातार मैंने महसूस की, वह यह कि परवर्ती उपन्यास में ऐसे सूत्र छिपे हैं जो उनके पिछले उपन्यासों में निहित कई तथ्यों की ओर ध्यान दिलाते हैं। 'जंगल जहाँ शुरू होता है' से संजीव के उपन्यासों के बारे में जो महत्वपूर्ण सूत्र हाथ लगता है वह यह कि संजीव भारतीय लोकतंत्र की कार्य शैली, क्षमता और उसकी परिणतियों को लगातार प्रश्नांकित करनेवाले उपन्यासकार हैं और इसे हम भले 'सर्कस' से जानते रहे हों लेकिन 'जंगल जहाँ शुरू होता है' से ही सही तौर पर पहचानने की स्थिति में आते हैं। एक राष्ट्र के तौर पर भारत किन प्रमुख मोर्चों पर नाकाम रहा है। इस लिहाज से देखें तो संजीव वाकई चौंकाते हैं क्योंकि उनके हर उपन्यास की बुनियादी चिंता इन्हीं असफल मोर्चों को संबोधित है। नौकरशाही, राजनीति, प्रशासन, अकादमिक जगत की विफलता और जाति व्यवस्था, भाई-भतीजावाद आदि की भयावह सफलता, इतने विस्तार से संजीव के यहाँ मौजूद है कि स्वातंत्र्योत्तर भारत की पतन गाथा को उसकी समग्रता में रेखांकित करनेवाले चुनिंदा उपन्यासकारों में उन्हें आसानी से शुमार किया जा सकता है।
संजीव एक रेडिकल रचनाकार हैं। रेडिकल दो अर्थों में एक परिवर्तकामी के अर्थ में और दूसरा मूलगामी के अर्थ में। उनकी परिवर्तकामी चेतना के उदाहरण के तौर पर 'धार' और 'पाँव तले की दूब' को देखा जा सकता है। उनकी मूलगामिता का एक उदाहरण 'जंगल जहाँ शुरू होता है' से रख रहा हूँ। 'जंगल जहाँ शुरू होता है' पश्चिमी चंपारण के उस हिस्से की कहानी कहती है जिसे 'मिनी चंबल' भी कहा जाता है। आखिर यह इलाका क्योंकर डाकुओं की 'नर्सरी' में तब्दील हो गया? इस बुनियादी सवाल का जवाब ढूँढ़ते हुए संजीव जिन बातों को रखते हैं उसे देखने की जरूरत है। संजीव डाकुओं का इतिहास खोल कर बैठ जाते हैं। किस तरह एक पंडित की बहन का बलात्कार एक मुस्लिम गुंडे द्वारा किए जाने पर धरम और मरजाद के नाम पर धार्मिक गुटबंदी सामने आई और हत्याओं का एक दौर शुरू हुआ। फिर बदलते समीकरणों के हिसाब से अपनी बादशाहत कायम रखने की युक्तियों से इनका इतिहास बनता-बिगड़ता रहा। उपन्यास का एक पात्र मुरली पांडे डी.वाई.,एस.पी. कुमार से कहता है 'जरा सोचिए, यह जो आज का परेमा (नामी डकैत) है, जिस पर एक लाख का इनाम है, पहले पंडित के दल में ही था, लेकिन था अहीर। उधर गद्दी भी एक तरह से मुसलमानी अहीर। अब सोचिए की जात-पात के चलते परेमा गद्दी की ओर खींचता और दल और हिंदुआपे के चलते। अविनाश पंडित की ओर। किस्सा लंबा है, मुख्तसर में ई जान लीजिए कि परेमा ने पहले अविनाश पंडित को मारकर जाति का ऋण उतारा, फिर गद्दी को मारकर धर्म का। अब चूँकि पंडित रह नहीं गए थे, सो हिंदुओं का अघोषित संरक्षण भी मिलने लगा उसे।
यह तो एक अंतर्कथा हुई, दूसरी? दूसरी, रामफल यादव की है। आपको पता होगा, पुलिस में सूबेदार था, नौकरी छोड़कर डाकू हो गया। ऐसे बहुत से होमगार्ड्स और दूसरे सैनिक बल के जवानों को डकैती का यह धंधा सूट करता था। तीसरी कथा में लछिमन गोकुल और गामा जो यादवों के गुंडे थे, अचानक मंत्रीजी के नाक के बाल बन गए। ये गुंडे मंत्रीजी के लिए बूथ कैप्चर करते, चंदा उगाहते, बदले में मंत्रीजी उन्हें संरक्षण देते...।
एक बार एक डी.एम. आए। इत्तेफाक से वे भी यादव थे और ज्यादातर डाकू भी यादव। यानी रक्षक भी उसी जाति का, भक्षक भी उसी जाति का! डी.एम. अगर स्वजातीय दरिंदों के खिलाफ स्ट्रांग एक्शन लेते तो जाति-बिरादरी से जाते और न लेते तो बदनाम होते। सो एक बार उन्होंने उन डाकू सरदारों को बुलाया और बिरादराना अपनत्व के तहत अपनी मुश्किल पेश करते हुए सुझाव दिया 'आप लोग ऐसा कुछ क्यों नहीं करते कि कानून की गिरफ्त से भी बचे रहिए और हमें बचाते भी रहिए?' हत्या और डकैती छोड़कर अपहरण कीजिए और फिरौती वसूलिए...। (ज्यादातर डाकू यादव हैं ऐसा क्यों? कुमार ने पूछा) जवाब - सर मिलिटेंसी भी कोई मुद्दा है। अत्याचार सभी पर होता है, मगर प्रतिवाद वही करते हैं जो मिलिटेंट होते हैं। यह तो रहा एक फैक्टर, दूसरा यह कि जिले एवं प्रांत में इनकी संख्या भी ज्यादा है, जो कहीं गहरे इमोशनल सेक्योरिटि, वो क्या है भावनात्मक सुरक्षा भी देती है, तीजे यह सभी अपहरणकर्ता रेता के अंचल से आते हैं, जहाँ नारायणी नदी हर साल तबाही मचाती रहती है। दो-चार गाँवों को तो उनके पेट में जाना ही है। मकान ढहा, जमीन गई। क्या खाएँ, कहाँ रहें? फिर वे आते हैं जमींदारों के पास। जबरन वसूली, बेगारी, बलात्कार, दमन-इसकी ट्रेनिंग यहीं मिलती है। कुछ दिनों के बाद वे सोचते हैं कि जमींदार और सेठ हमारे ही बल पर यह सब करते हैं तो हम खुद क्यों न करें। तब शुरू करते हैं डकैती। नाम कर गए, प्रभाव क्षेत्र का विस्तार हो गया तो मंत्री लोगों के काम करने लगते हैं। जबरन चंदा वसूली, पार्टी फंड बूथ कैप्चरिंग, लठैती! परेमा, परशुराम, बिंदा, गोकुल सब की एक दास्तान। (और ये जमींदार-इनकी शक्ति का स्रोत?) ये एक लंबा इतिहास है। ये थारुओं के इलाके में पैरासाइट बनकर आए। यह आगमन सन् 1857 के सिपाही विद्रोह से शुरू होता है जब अंग्रेजों से देशी रजवाड़ों और सिपाहियों ने लड़ाई ली और खंड-खंड स्वार्थ के चलते हार गए और जान बचाने के लिए भागे। कुछ लोग जो इधर भागकर आए उन्हें नेपाल की तराई यानी थारुओं का यह अंचल सिर छुपाने के लिए ज्यादा माकूल लगा। मुख्यतः थे तो थारु ही यहाँ, इफरात जगह, प्रतिरोध न के बराबर। पाँव जमते ही उन्होंने थारुओं का शोषण करना शुरू कर दिया - कहीं कम, कहीं ज्यादा। अब देखिए, बीस-बीस वर्ष पहले रेता के डकैतों ने थारुओं से कहा कि हमारा साथ दो, हम तुम्हें ठेकेदारों, जमींदारों से तुम्हारी जमीन, तुम्हारी इज्जत वापस दिलाएँगे। मगर यह तो एक झांसा था। (डकैतों को फीड-बैक के पाँच जोन आपने बताए, जाति-धर्म, जमींदारी, पुलिस या अर्द्धसैन्य बल के आज के डेवियेटेड संस्कार, मौजूदा अफसरसाही और मौजूदा राजनीति का अपराधीकरण या अपराध का राजनीतिकरण!) चोर दरवाजे अभी और हैं कुमार साहब, यहाँ का विशिष्ट भूगोल, यहाँ की परजीवी सामंती व्यवस्था, यहाँ के मारवाड़ी महाजनों का उपनिवेश... और भी कई। किसी भी दरवाजे से आइए, आपको यहाँ डाकू बैठा मिल जाएगा, मगर जहाँ तक आपका सवाल ताल्लुक रखता है, आपको इन सारे फैक्टर्स के अंतर्संबंधों और अंतर्विरोधों को सही ढंग से जोड़ते-घटाते आगे बढ़ना होगा। गौर करने की बात है कि एक ही व्यक्ति, जो क्रांतिकारी हो सकता था, जरा-सा मट्ठा पड़ा कि डाकू बन जाता है। ऐसा क्यों होता है, इस भेद को समझ पाएँगे, तभी आप उस बिंदु पर पहुँच पाएँगे जहाँ से एक डाकू का जन्म लेता है।' (पृ. 102-105) संजीव की इस बुनियादी चिंता में लोकतंत्र की तल्ली में पिछली सुराखों के साथ बने नए सुराखों का भी वर्णन है। 'जनतंत्र' में 'जन' बड़ा है या 'तंत्र' के सवाल पर संजीव भारत के लोकतंत्र के दावों और राष्ट्र राज्य की अवधारणा की चिंदी-चिंदी उड़ाकर रख देते हैं। दरअसल यही वह 'रेफरेन्स प्वाइंट' है जिसकी कमी संजीव के पिछले उपन्यासों में रहते आई थी। उस प्रस्थान बिंदु के मिलते ही, 'जंगल जहाँ शुरू होता है' हमारे समय के एक रूपक में तब्दील होने लगता है। हमारे आस-पास और अपने भीतर उग आए जंगल की ओर हमारा ध्यान जाता है और हम पाते हैं कि 'जंगल यहाँ शुरू होता है', हमारे आस-पास से। और पूरा देश एक मिनी चंबल में तब्दील हो जाता है।
'जंगल जहाँ शुरू होता है' के बाद संजीव 'सूत्रधार' लेकर आते हैं। 'सूत्रधार' लोक कलाकार भिखारी ठाकुर के जीवन पर आधारित जीवनीपरक उपन्यास है। 'सूत्रधार' वास्तविक अर्थों में एक 'बड़ी' रचना है। 'सूत्रधार' के कारण ही संजीव के प्रति मन में एक अतिरिक्त आदर पैदा हुआ। इस उपन्यास की बहुध्वन्यात्मकता और बहुस्तरीयता ने हतप्रभ कर दिया। 'सूत्रधार' एक साथ इतने स्तरों पर संतरण करती है कि संजीव की प्रतिभा का कायल हुए बिना रहा नहीं जा सकता है। 'जंगल जहाँ शुरू होता है' में भोजपुरी की जो छौंक संजीव ने लगाई थी वह अपने पूरे शबाब में 'सूत्रधार' में मौजूद है। 'लोक' की अलग-अलग अर्थ छवियों और भंगिमाओं से भरा यह उपन्यास अधिकाधिक कोणों से देखने की माँग करता है। लोक-नायक कैसे बनते हैं, लोक-प्रियता कैसे मिलती है, लोक अपने नायकों की कितनी कड़ी परीक्षा लेता है, लोक-साहित्य किन चिंताओं में पनपता और प्रश्रय पाता है, लोक-साहित्य का सौंदर्यबोध कैसे विकसित होता है, लोक का शास्त्र कैसे निर्मित होता है, लोक के सृजन प्रक्रिया से जुड़ी बारीकियों की जानकारी, लोक कलाओं के समाजशास्त्र, कलाकार बनने की कहानी, लोक-साहित्य किस कदर मुख्य धारा के साहित्य से अलग होता है, लोक नाट्य को बचाए रखना किस कदर चुनौतीपूर्ण है, तमाम प्रतिकूलताओं के मध्य लोक जीवनदायिनी प्रेरणा कहाँ से प्राप्त करता है, सामंतवादी मूल्य किस तरह कला के प्रगतिकामी और परिवर्तनकामी स्वभाव के विकास में बाधक होते हैं, जातिवादी शक्तियाँ किस कदर प्रभावशाली हुआ करती हैं, भिखारी ठाकुर किस तरह एक कथा नायक में तब्दील हो गए, क्यों वे भोजपुरी के शेक्सपियर कहलाए, अपनी नाच और नौटंकी के जरिए किस तरह उन्होंने लोकचेतना को संस्कारित करने का काम किया, कैसे लोकमंगल को लोकरंजन की जगह संस्कार के रूप में प्रस्तावित किया, लोक आस्वाद को तरजीह देते हुए कैसे लोकप्रियता के शिखर पर जा बैठे, कैसे लोक धुनों और लोक नृत्यों को अपनी कला में शामिल कर उसकी प्रभावोत्पादकता को दुगुना-तिगुना करने का काम किया, कैसे लोकनाट्य को सामाजिक जागरण के साधन के बतौर विकसित किया, नाच-नौटंकी की परंपरा को किस कदर अपने ढंग से परिभाषित किया, नाच-नौटंकी में अन्य कलाओं का समावेश करते हुए कैसे बदलते वक्त की चुनौतियों का सामना किया, कैसे खुद के लिए और अपनी कला के इंच दर इंच सम्मान अर्जित किया। 'सूत्रधार' संजीव द्वारा लिखे गए उपन्यासों में मुझे सर्वाधिक प्रिय है। संजीव ने शोधाधारित लेखन के जरिए यथार्थ को आयत्त करने की जो प्रविधि व्यक्तिगत स्तर पर अर्जित की थी, 'जंगल जहाँ शुरू होता है' के बाद 'सूत्रधार' में वे पुनः उसके साथ न्याय करते हैं। 'जंगल जहाँ शुरू होता है' की तुलना में 'सूत्रधार' में स्थिति थोड़ी अलहदा इस लिहाज से थी कि 'भिखारी ठाकुर तीस वर्ष पहले तक जीवित थे; उन्हें देखने और जाननेवाले लोग अभी भी हैं (उपन्यास के लिखे और प्रकाशित होने के दौरान)। सो, सत्य और तथ्य के ज्यादा से करीब पहुँचना मेरी (संजीव की) रचनात्मक निष्ठा के लिए अनिवार्य था।' (सूत्रधार की भूमिका 'सूत्रधार के सूत्र' से) जैसा कि मैंने संजीव के संदर्भ में ऊपर रेखांकित किया है कि संजीव गैर कथात्मक स्रोतों से अर्जित तथ्यों को कथात्मक यथार्थ में रूपांतरित करने में माहिर हैं। तो उसी की नजीर वे 'सूत्रधार' में प्रस्तुत करते हैं। भिखारी ठाकुर के जीवन को केंद्र में रख कर लिखे गए इस उपन्यास की मार्मिकता इरविंग स्टोन की क्रमशः विन्सेन्ट वॉन गॉग और माइकेल एंजेलो की जीवन पर आधारित उपन्यासों 'लस्ट फॉर लाइफ' और 'एगोनी एंड इकेस्टसी' में व्यक्त मार्मिकता के समतुल्य जान पड़ती है।
'सावधान! नीचे आग है' और 'धार' में विचार को कथात्मक संरचना में रूपांतरित कर सकने में एक 'स्मूथनेस' की कमी महसूस होती है, वह उनके अगले तीन उपन्यासों 'पाँव तले की दूब', 'जंगल जहाँ शुरू होता है' और 'सूत्रधार' में देखने को नहीं मिलती है। इन उपन्यासों को एक क्रम से पढ़ें तो बतौर उपन्यासकार संजीव के रचनात्मक विकास को देखा जा सकता है। इन उपन्यासों में जो बात समान रूप से देखी जा सकती है वह कथानक के एक 'प्रॉपर' आदि, मध्य और उत्कर्ष के ढाँचे का अनुपालन। संजीव के इस रचना कौशल की संगति कुम्हारों से बैठती हैं। जैसे एक कुम्हार चाक पर मिट्टी चढ़ाने से पहले मिट्टी काट कर लाता है, उससे कंकड़-पत्थर और अन्य अवांछित पदार्थों की छंटनी करता है फिर उन्हें रौंदकर या सानकर मनचाहे आकार में ढालने लायक नमनीयता पैदा करता है तब जाकर महज उँगलियों की जुंबिश और हथेली की थपकियों से भाँति-भाँति के आकार पैदा करता है, वैसे ही संजीव रचनारत होने के पूर्व उसके लिए कच्ची सामग्री जुटाते रहते हैं फिर उससे गैर जरूरी चीजों को अलगाकर उसे कथात्मक संरचना में ढालने लगते हैं। हर उपन्यास में यही प्रक्रिया दुहराई गई है, पर हर उपन्यास बतौर उत्पाद एक अलग संरचना है और हर रचना में एक किस्म की संरचनात्मक अन्विति (स्ट्रक्चरल यूनिटी) देखी जा सकती है। रचना के विभिन्न घटकों के मध्य जो आवयविक संबंध दिखते हैं वह श्रमपूर्वक अर्जित की गई सलाहियत है, जो किसी साधना से कम नहीं है। समग्रता में देखें तो संजीव हाशिए के कथाकार हैं। हर जगह वे वंचितों के पक्ष में खड़े हैं। उनकी इस प्रतिबद्धता को 'सर्कस' से लेकर 'सूत्रधार' तक देखा जा सकता है। विषय और वस्तु के धरातल पर संजीव भले हर बार खुद का अतिक्रमण करते रहते हों पर उनकी प्रतिबद्धता और पक्षधरता हर जगह दमित अस्मिताओं के साथ हैं।
दमित अस्मिताओं के प्रति प्रतिबद्धता की अनुगूँज 'आकाशचंपा' में भी सुनी जा सकती है। प्रतिबद्धता-पक्षधरता से इतर 'आकाशचंपा' में पहली बार औपन्यासिक धरातल पर निजता के कुछ टुकड़ों को साझा करते जान पड़ते हैं। दो एक उदाहरण रख रहा हूँ। 'तो क्या एक ईमानदार शिक्षक अपनी पत्नी का ढंग से इलाज भी नहीं करा सकता? वह अपना निजी मकान नहीं बनवा सकता? वह अपने बच्चों को ढंग से आदमी नहीं बना सकता? उसकी पत्नी चालीस साल में ही बूढ़ी हो जाएगी?' (पृ 60, आकाशचंपा) या फिर 'मेरी वेदना उस बूढ़े आदमी की तरह थी जिसने गलत-सही उम्र गुजार दी और अंतिम दिनों में उसके मन में एक तड़प उठी कि काश, जिंदगी में ये भूलें न हुईं होतीं! काश! मैं दोबारा जीवन जी सकता!'(पृ 209) संजीव के निजी जीवन के संघर्षों के बारे में अगर थोड़ी जानकारी हो तो मास्टर मोतीलाल के जीवन में आए इन क्षणों में संजीव के दर्द की कराह सुनी-महसूसी जा सकती है। (संजीव के कराह के इन क्षणों और उसकी परिणतियों की चर्चा आगे करूँगा।) पूरा जीवन अपने ढंग से गुजार देने के बाद गर यह अहसास हो कि काश! कि दोबारा जिंदगी को जी सकता तो यह उस पूरे जीवन की निस्सारता का ही प्रमाण है। इस निस्सारता के बोध से ही या कहें कि दोबारा जी सकने की लालसा के गर्भ से ही आकाशचंपा का जन्म हुआ है। अतृप्त आकांक्षाओं से भरे जीवन का रूपक है, 'आकाशचंपा'। 'आकाशचंपा' की व्याख्या करते हुए गौरा मामी (अतृप्त कामनाओं से भरा जीवन) कहती हैं मोतीलाल से 'दो-दो बार बसंत आता है इसमें-दो-दो बार खिलती हैं आकाशचंपा की कलियाँ - जिंदगी की तरह। एक बार जो जीवन जिया, उसमें कितना कुछ जीने से रह गया, जिस-जिस मोड़ पर मुड़ना था, नहीं मुड़े जहाँ पलटकर पीछे देखना था, नहीं देखे, जहाँ ठहरना था, नहीं ठहरे। सो, आकाशचंपा उन भूलों को सुधारती है, पहली बार जिन डालों में फूल नहीं आए होते, दूसरी बार उन डालों पर भी फूल खिलाती है।' (पृ 273) 'आकाशचंपा' के बारे में यह तय कर पाना मुश्किल लगता है कि संजीव निजता के आवरण में 'इतिहास की भूलों' को लक्ष्य करना चाह रहे हैं या कि इतिहास के जरिए निजता की परिणतियों को उद्घाटित करना चाह रहे हैं। यह दोनों स्वर पूरे उपन्यास में समान रूप से मौजूद है। संजीव संभवतः ईश्वर पर अविश्वास करनेवाले लोगों में से है इसलिए प्रारब्ध या नियति जैसी किसी चीज को वह अपनी अवस्था का जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते हैं। इसलिए उसकी जिम्मेदारी इतिहास की बनती है। इतिहास की भूलों पर पूरा एक अध्याय है, जिसके निष्कर्षों पर असहमतियाँ हो सकती हैं पर केवल उस एक अकेले अध्याय के लिए भी उपन्यास को पढ़ा जा सकता है। खास कर इतिहास को देखने के 'सबाल्टर्न नजरिए' के कारण। भारतीय इतिहास और मिथहासों (मिथक पर आधारित) में उल्लिखित कई घटनाओं के बारे में संजीव के कई दिलचस्प किंतु विवादास्पद 'आब्जर्वेशन' इसमें हैं। बहरहाल यहाँ उन घटनाओं का उल्लेख न कर के इस उपन्यास में संजीव की इतिहास की अवधारणाजन्य कुछ चिंताओं का साझा करना जरूरी लगता है। मसलन् 'इतिहास बहादुरी से नहीं, कौशल से नहीं, संयोग से बनता है।'(पृ 72), 'इतिहास की उन भूलों की ओर हमारी आँखें जाती हैं जो अतीत हो चुकी हैं, चलिए अच्छी बात है, लेकिन उन भूलों का क्या होगा जो इतिहास में आज इस वक्त की जा रही हैं, जिससे हमारा वर्तमान ही नहीं भविष्य भी प्रभावित होनेवाला है?' या फिर 'भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि इतिहास के नाम पर यहाँ दो चीजें चलती हैं - एक 'इतिहास' और दूसरा 'मिथहास'। इतिहास ज्ञात तथ्यों पर आधारित होता है, जबकि मिथहास का आधार 'मिथ' है। अव्वल तो तथ्यों को ही तोड़-मरोड़कर पेश करने से इतिहास भ्रष्ट किया जाता है, दूसरे मिथ। एक पराजित जाति इतिहास से आँख चुराकर अपने खयाली मिथों के आँचल में मुँह छिपाती रही, फलतः उसके लिए तथ्य गौण हो गए, सुखद कल्पनाएँ ही मुख्य। मिथहास या मिथ यूँ ही नहीं बनते। लोग जिसे आमने-सामने नहीं हरा पाते, उसे सपने में हराते हैं, जिसे मार नहीं पाते, उसे खयालों में मारते हैं, इस तरह समस्याओं का समाधान मिथ में ढूँढ़ते हैं और यह निदान अपने पक्ष में होता है। कालांतर में मिथ रूढ़ होते चले जाते हैं और आस्था और विश्वास में, आचार, विचार और व्यवहार में ढल जाते हैं। भारत में लड़ाइयाँ इतिहास ही नहीं मिथहास के स्तर पर भी लड़ी जाती रहीं, आज भी लड़ी जा रहीं हैं। इतिहास की लड़ाई कमोबेश हम हार चुके, लेकिन मिथहास में आज भी घमासान मचा है जो हमें गृहयुद्ध की ओर ले जा रहा है।'(पृ 154) इस संदर्भ में दिलचस्प यह है कि जिस मिथहास की इतनी आलोचना संजीव 'आकाशचंपा' में करते हैं, अपने अगले उपन्यास में वे उस मिथहास के कुछ उदाहरणों को विज्ञान सम्मत ठहराते नजर आते हैं। 'रह गई दिशाएँ इसी पार' में वे न सिर्फ धृतराष्ट्र द्वारा भीम को अपने बाँहों में लेकर खंड-खंड कर देने वाली घटना को बल्कि राम द्वारा अग्नि परीक्षा में प्रविष्ट सीता को भी क्लोनिंग से जोड़कर देखते हैं। इतना ही नहीं 'गांधारी की कोख से निकली मांस-पेशी को घी से भरे सौ घड़ों में रखवाया गया जिनसे सौ संतानों का जन्म हुआ। ये मांस पेशी क्या थी? एंब्रियो स्टेम सेल्स और घड़े थे सरोगेट मदर्स, धृत था जीवन रक्षक द्रव।' ( पृ 290) विचार से इतर आचरण के स्तर पर भी संजीव में कई अंतर्विरोध देखे जा सकते हैं जिसका सबसे ताजा उदाहरण अभी कुछ महीने पहले का है। स्त्री लेखिकाओं के प्रति अमर्यादित शब्द के प्रयोग और उनको जगह देने के कारण हिंदी साहित्यकारों का एक समूह न सिर्फ विभूति नारायण राय के इस्तीफे की माँग कर रहा था बल्कि भारतीय ज्ञानपीठ के दिल्ली कार्यालय के सामने प्रदर्शन करते हुए वे भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक रवींद्र कालिया को हटाए जाने की भी माँग कर रहा था। हिंदी साप्ताहिक तहलका में इस संदर्भ में जो रपट छपी थी उसमें प्रकाशित तस्वीर में संजीव को इस मसले पर भारतीय ज्ञानपीठ के कार्यालय के बाहर प्रदर्शन करते हुए सशरीर देखा जा सकता है। लेकिन आज स्वयं संजीव उसी विश्वविद्यालय का राज्याश्रय स्वीकार कर चुके हैं। यह उनके व्यक्तित्व का दयनीय पक्ष है। उनकी रचना में मौजूद प्रतिरोध के स्वर में पलीता लगाने के लिए उनका यह आचरण पर्याप्त है। हिंदी समाज के बारे में एक शर्मनाक तथ्य यह है कि यह अपने रचनाकारों का मूल्यांकन उनके मरणोपरांत करता है। जीते-जी बहुत कम ही जेनुइन रचनाकार-आलोचक इस सम्मान के हकदार बन सके हैं। संजीव ने अपने जीते-जी ही यह भूल-सुधार लेना जरूरी समझा। आकाशचंपा की भाँति उन्होंने भी यह दूसरी किंतु संक्षिप्त पारी खेलनी जरूरी समझी। एक बार जो जीवन जी चुके थे, उसमें जो कुछ जीने से रह गया, जिस-जिस मोड़ पर मुड़ना था, नहीं मुड़े जहाँ पलटकर पीछे देखना था, नहीं देखे, जहाँ ठहरना था, नहीं ठहरे। सो, संजीव ने 'आकाशचंपा' की भाँति उन भूलों को सुधारने का एक उपक्रम भर किया।
यों तो हिंदी साहित्य में हर जेनुइन रचनाकार की उपेक्षा के कुछ अलग कारण रहे हैं लेकिन इस प्रसंग में दिलचस्प यह है कि रेणु और संजीव दोनों की रचनाधर्मिता के साथ हिंदी आलोचकों द्वारा किए गए आरंभिक बर्ताव में अप्रत्याशित समानता है। इस अप्रत्याशित समानता के कारणों की थोड़ी पड़ताल करें तो यह बर्ताव अप्रत्याशित न लग कर प्रत्याशित जान पड़ता है। इसके लिए थोड़ा अतीत में जाना होगा। रचना और रचनाकार के साथ न्यायपूर्ण आचरण की जिम्मेदारी आलोचना और आलोचक की है। हिंदी में आलोचना के विकास में विश्वविद्यालय के हिंदी विभागों की निर्णायक भूमिका रही है और अधिसंख्य प्रभावशाली आलोचकों का स्रोत भी विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग रहे हैं। हिंदी प्रदेशों में स्थापित विश्वविद्यालयों के इतिहास पर गौर फरमाएँ तो इलाहाबाद विश्वविद्यालय, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय आदि के नामों को इस संदर्भ में बिसराया नहीं जा सकता है।
हिंदी आलोचना के विकास में इन विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों के अवदान को नकारा नहीं जा सकता है। हिंदी आलोचना की समृद्ध परंपरा के सर्वाधिक प्रभावशाली नामों का संबंध इन विश्वविद्यालयों से रहा है। आगे चलकर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय और दिल्ली विश्वविद्यालय में भी इन विश्वविद्यालयों से निकले प्रतिभावान छात्रों ने इस विरासत को आगे बढ़ाने का काम किया। इस ऐतिहासिक संयोग ने उत्तर प्रदेश को हिंदी साहित्य में एक केंद्रीयता अर्जित करने में निर्णायक भूमिका निभाई है। यह अकारण नहीं है कि सिर्फ इन प्रदेशों के आलोचकों बल्कि उनके समर्थित रचनाकारों ने हिंदी साहित्य में केंद्रीयता अर्जित की। ऐसा नहीं कि इस प्रदेश से आए रचनाकारों और आलोचकों की क्षमताएँ संदिग्ध हैं बल्कि कहना इतना है कि इन प्रदेशों के प्रभावशाली आलोचकों ने जो 'कैनन फार्मेशन' किया, उससे अन्य हिंदी भाषी राज्यों के रचनाकार-आलोचकों के साथ किए गए उपेक्षापूर्ण बर्ताव उतने अप्रत्याशित नहीं जान पड़ते। फणीश्वरनाथ रेणु और संजीव तो इसके नजीर भर हैं। फेहरिस्त काफी लंबी है। (पुनः इस बात को दुहरा दूँ कि ऐसा कहने का यह मतलब कतई ना निकाला जाए कि मैं संजीव को रेणु के बराबर रख रहा हूँ। कहना सिर्फ इतना है कि जंगल जहाँ शुरू होता है और सूत्रधार रचने के बाद संजीव जिस सम्मान के हकदार थे, वह उन्हें नहीं मिला।)
बहरहाल, 'आकाशचंपा' में संजीव के उपन्यासों के संदर्भ में एक अन्य महत्वपूर्ण सूत्र का पता चलता है। और वह है 'यथातथ्यता का चित्रण'। संजीव बल देकर स्थापित करते हैं कि 'वास्तविकता का मतलब रियैलिटी नहीं एग्जैक्टिट्यूड। साहित्यकार रियैलिटी पर जोर देते हैं पर सबकी रियैलिटी अलग-अलग होती है। एग्जैक्टिट्यूड से भ्रम निवारण होगा। 'एग्जैक्टिट्यूड वर्सेज रियलिटी, यथातथ्य बनाम यथा अर्थ... जो चीज जैसी है, उसे उसी रूप में स्वीकारो, उसके अर्थ न निकालो, क्योंकि हर आदमी का अर्थ भिन्न-भिन्न होगा और सत्य धुंधला जाएगा।' (पृ 200) संजीव के उपन्यासों में इस यथातथ्यता का अंकन तो देखने को मिलता है लेकिन इस यथातथ्यता के लिए निर्वैयक्तिक्ता या तटस्थता एक अपरिहार्य गुण है। कहना न होगा कि संजीव में इसका अभाव है। संजीव के लेखन में उनकी पक्षधरता को आसानी से पहचाना जा सकता है। इसलिए संजीव के उपन्यासों में इस यथातथ्यता को समग्रता में ढूँढ़ पाना मुश्किल है, खंडित प्रसंगों में इसकी खूबसूरती टुकड़ों में देखी जा सकती है।
यथातथ्यता के लिए जिस निर्वैयक्तिकता या निर्मोहीपन की आवश्यकता होती है, उसका अभाव संजीव में है। संजीव के उपन्यासों को देखें तो वे अपने रचनाओं के मामले में बेहद खराब संपादक नजर आते हैं। (यह बात उनके लंबे संपादकीय अनुभव को ध्यान में रखकर भी कह रहा हूँ।) संजीव को पढ़ते हुए अक्सर मुझे स्टीफन ज्वाइग की आत्मकथा की वह पंक्तियाँ याद आती हैं जिसमें वे रचनात्मक अनुभव के बारे में बात करते हुए कहते हैं कि 'मेरे पास यदि कोई कला है जिसे मैं जानता हूँ तो वह है मेरे छोड़ने की काबलियत है क्योंकि एक हजार पृष्ठ की पांडुलिपि में आठ सौ पृष्ठ यदि कूड़ेदान की राह पकड़ लें तो मुझे कोई गम नहीं, बशर्ते छँटाई किए उन दो सौ पृष्ठों में उसका अर्क बच जाए। अभिव्यक्ति की गिनी-चुनी शैलियों में खुद को सीमित करने का सख्त अनुशासन और हमेशा एकदम जरूरी बात कहने की जिद - कुछ हद तक यदि ऐसा कुछ है - मेरी किताबों के प्रभाव का राज रहे।' (पृ 267, वो गुजरा जमाना) जिस यथातथ्यता की बात संजीव कर रहे हैं उसके लिए इसी किस्म की निर्ममता की जरूरत जान पड़ती है। लेकिन यह जो लेखकीय निर्ममता है, इसका अभाव संजीव में है। सब कुछ को शामिल कर लेने के मोह से ही उनकी रचनाओं में कथात्मक गति की मंथरता और कथा रस में पैदा होने वाली बाधा को देखा जा सकता है। उनका हालिया उपन्यास 'रह गई दिशाएँ इसी पार' भी इस दोष से अछूता नहीं है। संजीव के परवर्ती उपन्यासों में 'कथा की बहुस्तरीयता' का जो एक गुण उभर कर सामने आता है, वह अपने अब तक के सबसे बेहतर रूप में 'रह गईं दिशाएँ इसी पार' में उपलब्ध है।
रचना के स्तर पर खुद का लगातार अतिक्रमण करना कोई मामूली बात नहीं है। 'रह गईं दिशाएँ इसी पार' के संदर्भ में सर्वाधिक शोर इसी अतिक्रमण का है। लेकिन क्या हर बार नई विषय वस्तु के चुनाव को ही अतिक्रमण मान लिया जाना चाहिए? संजीव के उपन्यासों को गौर से देखें तो पाएँगे कि विषय वस्तु चाहे कितना भी नया क्यों न जान पड़ता हो, उसके 'ट्रीटमेंट' का एक खास संजीवाना अंदाज है। मसलन बहुत श्रम से तैयार की गई कथा भूमि। उसमें एक 'आउटसाइडर' पात्र। एक स्त्री होगी जो बिखरे कथा सूत्रों के बीच एकसूत्रता स्थापित कर रही होगी। (सर्कस में झरना, जंगल जहाँ शुरू होता है में मलारी, धार में मैना, रह गईं दिशाएँ इसी पार में मैना)। इस लिहाज से संजीव के उपन्यासों में स्त्री एक कथा कौशल या साहित्यिक युक्ति जैसा भी कई बार जान पड़ती है। कुछेक ऐसे जिज्ञासु पात्र कहीं भी आविर्भूत हो जाएँगे जो महज अपनी जिज्ञासाएँ जाहिर कर के बिला जाएँगे। (उनकी जिज्ञासाओं को शांत करने के क्रम में संजीव अपने शोध का एक बड़ा हिस्सा आपसे साझा कर चुके होंगे, बिना इस बात की परवाह किए कि उससे उसकी कथात्मकता और कलात्मकता पर क्या असर पड़ रहा है।) मुख्य कथा के समानांतर छोटी-छोटी कथाएँ नियमित अंतराल पर आवा-जाही करती रहेंगी। इनकी रचनाओं में बाघ भी बात-बेबात पर निकल आते हैं। सुखद वैवाहिक जीवन का अभाव इनके उपन्यासों में लगातार दिखाई देता है। प्रसंगवश मिथकों की चीर फाड़ करने में भी खासी दिलचस्पी है। इतिहास की घटनाओं पर भी प्रकारांतर से टीका-टिप्पणी इनके उपन्यासकार का स्थायी भाव है और राजपूतों के खिलाफ एक दबी हुई-सी मंद कुढ़न को भी उनके उपन्यासों में महसूस किया जा सकता है। ('जंगल जहाँ शुरू होता है', 'सूत्रधार', 'आकाश चंपा', 'रह गईं दिशाएँ इसी पार' में ऐसे प्रसंग हैं।) अब बात यदि 'रह गईं दिशाएँ इसी पार' की करें तो यह कथा युक्तियाँ एक साथ उनके इस उपन्यास में मौजूद हैं। मसलन एक सहानुभूतिशील आउटसाइडर अर्थात् अजय, तमाम प्रतिकूलताओं को धता बता कर संघर्ष की अलख जगाने वाली एक स्त्री अर्थात बेला, जिज्ञासा की कुलबुलाहट रह-रह कर अनेक पात्रों में दिखलाई गई है और इस उपन्यास में तो बकायदा एक सेमिनार के बाद सवाल-जवाब का दौर ही रख दिया गया है जिसमें संजीव की बल्लेबाजी देखने लायक है। 'रह गई दिशाएँ इसी पार' में बाघ भी कई मौकों पर दिखते हैं। सुखद दांपत्य जीवन का अभाव, मिथकों की चीर-फाड़ और इतिहास पर प्रसंगवश टीका-टिप्पणी भी इसमें है। इसलिए 'रह गईं दिशाएँ इसी पार' के संदर्भ में पहली बात तो यह कि हिंदी उपन्यासों के अब तक के विकास में संजीव ने भले बिलकुल नया और अछूता विषय चुना हो पर उसके साथ बर्ताव पुराना ही है। पर इसे भी तभी अनुभव किया जा सकता है जब आप उनके सारे उपन्यासों को एक साथ पढ़ रहें हों, अन्यथा नहीं।
संजीव की कई विशेषताओं में से एक यह है कि वे जिस विषय का चुनाव करते हैं, उस पर आधिकारिक पकड़ पहले बनाते हैं। इस कारण प्रत्येक उपन्यास में आद्यंत वे 'सूत्रधार' की भूमिका में रहते हैं। उनकी इस आक्रांतकारी उपस्थिति की अलग-अलग व्याख्याएँ की जा सकती है। इसे उनके सबल पक्ष के तौर पर देखा जा सकता है, किंतु इसके कारण कई बार कथात्मक संरचना में कुछ दुर्बलताएँ भी पैदा हो जाती हैं। जैसे मानवीय आचरण के धरातल पर कई उपन्यासों में हम पाते हैं कि कई अवसरों पर पात्रों की जो स्वाभाविक परिस्थितिजन्य प्रतिक्रिया होनी चाहिए, उसे संजीव अपनी कथात्मकता की शर्तों के निर्वाह के चक्कर में घटित होने से रोक देते हैं। जैसे 'सर्कस' में झरना और जैनुल के बीच, 'सावधान! नीचे आग है' में आशीष और गूँगी के बीच, 'आकाशचंपा' में मोतीलाल और उनके मामी के बीच, 'रह गईं दिशाएँ इसी पार' में अजय और बेला के बीच; एक संभावित संबंध को विकसित होने से वे पूरी तरह रोक देते हैं।
'रह गईं दिशाएँ इसी पार' के संदर्भ में जो सबसे खूबसूरत बात है, वह है इसकी स्थानीयता से वैश्विकता की यात्रा। एक स्वप्न और संभावना की परिकल्पना और उसकी परिणतियाँ। कथा की बहुस्तरीयता, समकालीनता का आग्रह, हमारे समय की सामाजिक प्रक्रिया को पकड़ने में अर्जित सफलता, अपनी रचना को सभ्यता समीक्षा में तब्दील करने की काबलियत, विज्ञान की गुत्थियों को साहित्यिक सरसता में भिगो कर परोसने की कला और कथानक की सतह के नीचे भारतीय लोकतंत्र का एक विकासशील रूपक। भारतीय लोकतंत्र की विसंगतियों की आलोचना संजीव की रचनाशीलता में लगातार मौजूद रही है। जैसे - अतुल मेंशन में रहनेवाले लोगों का ब्यौरा देते हुए संजीव लिखते हैं कि 'आकाश में कितने तारे हैं, यह जाना जा सकता है पर अतुल मेंशन में कितने लोग किस-किस हैसियत से जुड़े हैं - यह जानना संभव नहीं है। ठीक ही कहते हैं देबू ठाकुर। उन्हीं से शुरू करें तो मुँह पर कपड़ा बांध कर शाकाहार राँधने वाले देबू ठाकुर के बाद नंबर आता है, स्कर्ट और एप्रोन वाली मांसाहार राँधने वाली लूसी का। तीसरे नंबर पर आते हैं बागवान आरिफ बेग। एक खांटी हिंदू, एक खांटी क्रिश्चयन, एक खांटी मुसलमान। ...इनके अलावा हरेन सिकदार, देवेन, अखिलन, जगमंदर सिंह, खेलावन सिंह, असरफ खान सिक्योरिटी गार्ड हैं। धनपाल प्रद्योत मुखर्जी, सुलतान, राबर्ट ड्राइवर हैं, सावित्री, जगदेई, फुलिया, तुली आदि दाइयाँ। मांझी दूध, अरुष पोल्ट्री और जावेद मांस की व्यवस्था करते हैं - स्वतंत्र भी, संयुक्त भी...। सबका अपना-अपना इतिहास है जो उनके अनुसार गौरवपूर्ण है पर सबसे गौरवपूर्ण इतिहास है शंकर का। कहने को मेहतर या सफाई कर्मचारी लेकिन चेहरा-मोहरा किसी मध्ययुगीन राजपूत का। छह फुटी गोरी चिट्टी काया। ऐंठी मूँछें। साफ-सुथरे कपड़े। यहाँ भी वह सरदार है। ...इस बड़े परिवार में मालिक कहने को अतुल या जिम के पापा विस्नू विजारिया, माँ एलिस, दादी करनी देवी, नानी कैथरीन है। मंदिर से जुड़े अलग घर में रहने वाली दादी करनी देवी का अलग संसार है, अटैच्ड भी और डिटैच्ड भी, जहाँ उनके भाई किस्नू और कुलगुरु भी कभी-कभी चरण धूलि देते हैं। बाकी लोग एक साथ। पारिवारिक मित्र फेमिली डॉक्टर डॉ जैक्सन आउट हाउस में रहते हैं।' (पृ 24) अनेकता में एकता हिंद की विशेषता की तर्ज पर यह कहा जा सकता है कि अतुल मेंशन भारत का एक लघु रूपक है। कथा पश्चिम बंगाल के एक छोटे से कस्बे से शुरू होकर राजस्थान, केरल, सुंदरवन से होती हुई विदेशों का सफर तय करती है। मतलब अपने तईं कहानी में अखिल भारतीयता को समावेशित करने की एक कोशिश भी है।
अतुल मेंशन से ही एक भारत के रूपक का एक दूसरा सिरा विकसित होता है। अतुल बिजारिया उर्फ जिम एक टेस्ट ट्यूब बेबी है। जो अपनी नानी के गर्भ में विकसित हुआ है। इससे पारंपरिक पारिवारिक रिश्तों का गणित गड़बडाया हुआ है। अपनी नानी के गर्भ में विकसित होने के कारण एक स्तर पर जिम और एलिस (माँ-बेटे) भाई-बहन हुए। ऐसे ही अन्य संबंध भी गड़बड़ाए हुए हैं। जिम की जो मानसिक दशा है, उसमें जड़ से उखड़े होने का अवसाद बोध शामिल है। (जिम की दिलचस्पी भी जड़ों को तलाशने में है, इवोल्यूशन अर्थात जैविक विकास में है। इस जैविक विकास को निर्जीव से सजीव के क्रम में कैसे एक तरतीब दी जाए, इसमें है।) भारत के एक राष्ट्र के बतौर विकसित होने की कथा को जिम की कहानी के समानांतर रख कर देखा जा सकता है। भारत भी एक राष्ट्र के बतौर एक ऐसा भ्रूण है जो नैसर्गिक तरीके से विकसित नहीं हुआ है। बतौर राष्ट्र भारत भी एक टेस्ट ट्यूब बेबी सरीखा है जिसे कृत्रिम तरीके से निषेचित किया गया है। चाहे भारतीय इतिहास हो या आधुनिक भारत का संविधान उसमें उसका खुद का कितना है, यह कह पाना मुश्किल है। जिम के तथाकथित पिता विस्नू विजारिया और चचा किस्नू विजारिया के लेखा-जोखा पर नजर डालें तो एक अनैतिक मुनाफाखोर उद्योगपति और दूसरा धार्मिक रूप से प्रपंची-प्रवचनी बाबा है। इन दोनों सिरों को देखें तो एक स्तर पर विस्नू विजारिया लक्ष्मीपति भगवान विष्णु का, तो दूसरी ओर किस्नू का गो-प्रेम भगवान कृष्ण उर्फ गोपाल का आधुनिक संस्करण जान पड़ते हैं। विस्नू पूँजीवाद को पोषक है और किस्नू सांप्रदायिकता का। दिलचस्प यह है कि संजीव विस्नू की तुलना में किस्नू को आज के दिन में कम कर के नहीं आँकते हैं, बल्कि किस्नू को जिस कदर उन्होंने अचानक से ससम्मान धन कुबेर होते हुए दिखाया है, वह हमारे समय के रोज-रोज एक्सपोज होते कलयुगी बाबाओं के संदर्भ में मार्के की बात लगती है।
'रह गईं दिशाएँ इसी पार' की कथावस्तु का दायरा बहुत फैला हुआ है। यह सही मायने में संजीव की अब तक की सर्वाधिक बहुस्तरीय रचना है। जिसके विषय के बारे में कहा जा सकता है कि यह दिगंतव्यापी है। बॉटनी, जूलोजी से सेल्यूलर बायोलॉजी की ओर बढ़ती कहानी, जीन्स-जीनोम-जेनेटिक कोड-क्लोनिंग से होते हुए रोबोटिक्स-जेनेटिक्स-प्रोटॉन कोलाइडर के विषय पर बात करती कहानी, पश्चिम बंगाल के एक कस्बे से आरंभ होकर राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, केरल, तमिलनाड्डु, आंध्र प्रदेश, ओड़िसा और बंगाल के समुद्री तटों से होता हुआ न्यूजीलैंड के समुद्री द्वीपों तक की कथायात्रा, पूँजी द्वारा ज्ञान-विज्ञान की बौद्धिक संपदा के हड़पने की कथा, अमर नहीं अजर होने की चाह में विज्ञान के इस्तेमाल की कथा, गरीब-लाचार लोगों को जीते-जी गिनी पिग में बदल देने की कथा, अपनी हवस के लिए प्रकृति के शर्मनाक दोहन की कथा, पूँजी और धर्म के आपसी गठजोड़ की कथा, आम जन की धार्मिक आस्थाओं के दोहन की कहानी, विचार और सामाजिक संस्था के बतौर विवाह की अवधारणा को कटघरे में खड़ा करने की कहानी ('शादी का मतलब ही समझौता है अपने फ्रीडम से', 'शादी यौन संबंध को वैधता प्रदान करने का नाम है', पृ॰84), हमारे जीवन और प्रकृति को विज्ञान से मिलनेवाली चुनौती की कहानी, समाज की वयस्कता पर प्रश्नचिह्न लगाती कहानी, समलैंगिकता और स्त्री मुक्ति के सवालों को नए सिरे से उठाती कहानी, पारिस्थितिकीय संकट से मनुष्यों और पशुओं के फूड हैविट्स में आए बदलाव की कहानी, ट्रालरिंग के कारण मछुआरों की आजीविका पर बन आए संकट की दास्तान, हमारी दमित आकांक्षाओं के नंगेपन की कहानी, धर्म-अध्यात्म-दर्शन, माइथॉलोजी के कई चिंताओं और प्रसंगो को बिलकुल नई रोशनी में देखने की कोशिश, कुल मिलाकर कहें तो 'रह गईं दिशाएँ इसी पार' हमारे समय के आदमखोर होने की दास्तान है।
इस लिहाज से देखें तो संजीव की औपन्यासिक यात्रा में जो महत्वपूर्ण पड़ाव हमें देखने को मिलते हैं जहाँ से रुक कर और टिक कर संजीव को देखा जा सकता है। उसमें सर्वप्रथम तो उनकी गैर पारंपरिक यथार्थ को कथात्मक यथार्थ में रूपांतरित करने का जज्बा है। यथार्थ को आयत्त करने का यह जो संजीवाना अंदाज है, संभव है इस विरासत का विस्तार भविष्य के कथा साहित्य में हमें देखने को मिले। समकालीनता के चश्मे से अपने समय और समाज को देखने का आग्रह संजीव को लंबे समय तक प्रासंगिक बनाए रख सकता है। भारतीय लोकतंत्र के विकास का ढाँचे-पद्धति-कार्यशैली लगातार उनके जेहन और लेखनी के जद में रहता आया है। हमारे समय के जटिल यथार्थ को सटीक तौर पर व्यक्त करने के क्रम में उनके कथानकों में एक किस्म की बहुस्तरीयता ने अपनी जगह बना ली थी। सिर्फ कमियों को गिनाना ही उनका शगल नहीं रह गया था बल्कि अपनी रचनाओं में वे विकल्पों के प्रस्तावक की भूमिका में भी नजर आते रहे हैं। इतिहास और मिथकों की अनूठी व्याख्याओं से उनका साहित्य भरा पड़ा है। ऐतिहासिक यथार्थ की जटिलता और विचारधारात्मक यथार्थ की जटिलता को वे समग्रता में रेखांकित करने वाले कथाकार रहे हैं। उनके उपन्यासों के संदर्भ में सबसे अखरने वाली बात काल-बोध के धुंधलके का होना रहा है। पर बावजूद इसके यथा-अर्थ की जगह यथा-तथ्य पर बल देने का उनका आग्रह हिंदी कथा साहित्य में कुछ जोड़ने में कामयाब रहा है।