गैस / सूर्यबाला
शहर के एक छोर पर उसका घर है, दूसरे छोर पर गैस वाले साहनी का ऑफिस... और रिक्शा है कि उल्टी तरफ से आते तेज हवा के झोंकों के बीच तेज चल ही नहीं पा रहा। चाहे जैसे हो, आज तो साहनी से बात करनी ही है... ' रिक्शे वाले! ज़रा तेज करना भइया! और उत्तर में गर्म हवा के एक भरपूर वार को सहते रिक्शा वाले ने कान पर लटकते अंगोछे के छोर से पसीना निचोड़कर जिस तरह उसे घूरा उससे वह सहम गयी। आवाज में खुद-बखुद अनुनय उभर आयी।
"असल में दफ्तर बंद हो जायेगा न गैस का... जानते तो हो इन कचहरी, दफ्तरी वालों को..."
डसने बेचैन होकर सौवीं बार कलाई में बंधी घड़ी देखी, गैस वाले साहनी ने आज चार बजे बुलाया था और इस मौके को वह किसी भी शर्त पर चूकना नहीं चाहती थी कि आपको तो चार बजे बुलाया था न... अब आज नहीं हो सकता दूसरे दिन आइए।
हालांकि चार और सवा चार या साढ़े चार जैसी समय की पाबंदियों का कितना मूल्य इन दफ्तरों में है, वह अच्छी तरह जानती थी पर इस समय उसे हर शर्त पर अपनी गैस के लिए एक सिलिंडर चाहिए था।
गैस के इस एक सिलिंडर के लिए वह कहां-कहाँ नहीं दौड़ी, किस-किस से नहीं मिली। तीन महीने पहले ही गैस खत्म हो जाने की बुकिंग करायी थी। पहला, दूसरा हफ्ता तो यों ही सड़क पर खटकाते आते सिलिंडरों के ढेर वाले रिक्शे के इंतजार में बीता। तीसरे हफ्ते खटका हुआ। पूछ-ताछ पर पता चला, गैस की एजेंसी वाला बसंल चार-सौ बीसी के घपले में पकड़ा गया है। दुकान पर पुलिस का ताला पड़ा है।
अब? पूछ-ताछ फिर शुरू हुई तो पड़ोसन नंबर तीन कान में फुसॅफुसायी।
"किसी से कहना मत-सुना है, गोदाम से कुछ लोगों को सिलिंडरों की सप्लाई हुई है। तुम भी जाकर पता लगाओ नहीं ंतो! ..." थोड़ा अटककर जोड़ा-"अपने मिस्टर से कह दो न-ऐसी भी क्या लाट साहबी..."
'मिस्टर' की लाट साहबी पर हुए कमेंट में ज़रा भी रूचि न दिखाकर उसने झटपट पड़ोसन से पूछकर गैस के गोदाम का पता नोट कर लिया और स्कूल से लौटते हुए सीधे जाकर तुरंत-फुरत पता करने का निश्चय भी कर लिया। वैसे भी "मिस्टर" यानी महेश से कहने का मतलब है, गोदाम तक जाकर पता करने के लिए ही कम से कम एक हफ्ते तक रोज महेश के आगे अनुनय-विनय करना, याद दिलाना और उसके बाद लानत के साथ भेजी झिड़की खाना-छोड़ो, इन लोगों के पास इन घरेलू माथापच्चियों के लिए समय भी कहा?
दूसरे दिन स्कूल से हाफ-डे लेकर दौड़ी-दौड़ी गोदाम पहुंची। गोदाम वाले ने देखते ही बेरूखी से हड़क दिया-"हम कहाँ से सिलिंडर दे सकते हैं। सप्लाई दो महीने बाद जारी होगी-नंबर लिखा जाइए."
अजीब पेशोपेश में पड़ी वह खड़ी रही, किस तरह कहे कि बहुतों को इसी गोदाम से आपने सप्लाई दी है और हमें नंबर लिखाने का कानून सिखा रहे हैं? कहीं भड़क गया तो बनता काम बिगड़ जायेगा। हारकर वही लाचारी और आजिजी का सहारा लिया। समझदारी से बात समझाने की कोशिश की जिसमें किसी अनाम व्यक्ति द्वारा गैस के गोदाम वालों की स्तुति गायी गयी और साथ ही यह पलीता लगाया गया कि अगर... आप लोग चाहें तो अपवादस्वरूप किसी लाचार आदमी की ज़रूरतों को देखते हुए एक-दो सिलिंडरों की सप्लाई कर देते हैं।
"नहीं-नहीं जिसने बताया है, ग़लत बताया है। यहाँ कुछ भी नहीं हो सकता..."
फर्क इतना था कि इस बार लहजा थोड़ा नर्म अवश्य पड़ गया था। इसी नर्म लहजे की कलाई पकड़कर वह झूल-सी गयी। इधर-उधर से अनुनय करती रही और 'आप' से 'भाई साहब' पर उतर आयी।
अंततः 'भाई साहब' पसीजे. इधर-उधर देखे, थोड़े करीब आकर फुसफुसाये...
"देखिए, अगर आपको इतनी ज़रूरत है तो एक उपाय बतलाता हूँ। आप गैस सप्लाई के ऑफिस इंचार्ज से मिलकर लिखवा लाइए. उनका ऑर्डर हो जायेगा तो गोदाम से सप्लाई हो सकती है।" और खींसे निपोर दीं।
उसने कृतकृत्य होकर झटपट बैग खोलकर डायरी निकाल ली-"क्या नाम है उनका?"
"साहनी-मिस्टर साहनी... सिविल लाइंस से पहले वाले मोड़ पर किसी से भी पूछिएगा, गैस सप्लाई ऑफिस का पता चल जायेगा।"
निहाल हो, 'भाई साहब' को पांच के एक हरे पत्ते पर धन्यवाद परोस कर लौट आयी वह।
"कहाँ? कहाँ?" बरामदे के बीचोबीच वाले दरवाजे पर खड़े चपरासी ने भूरी आंखों से घूरते हुए उद्दंड, रूखी आवाज में उसे टोका, "पीछे, लाइन में लगिए, अंदर जाने का ऑर्डर नहीं है..." और इसके बाद के शब्द वह उतनी ही उद्दंडता से मुंह के अंदर भी भुनभुना गया।
अवश, अपमान और लाचारी से उसके चेहरे से कान तक दहक उठे। एक सांस में उस अपमान का घूंट गुटकर उसने ठंडी लेकिन रूक्षसी आवाज में कहा-"लाईन है कहाँ तुम्हारी-सभी तो आगे-पीछे ठुंसे जा रहे हैं..."
ठुसी भीड़ को देखते हुए चपरासी समझ गया था कि इस प्वाइंट पर वह बहस नहीं कर सकता इसलिए वैसे ही उजड्डपने से उसने पूछा-"क्या काम है आपको..."
"ज़रूरी काम है मिस्टर साहनी से..." एक क्षण को सोचा कहें या नहीं, न कहने पर भी यह छोड़ने वाला नहीं इसलिए बताना पड़ा-और सचमुच उसने पूरे उजड्डपने से जवाब दे दिया-"ज़रूरी तो सबही का काम होता है..."
"गैस सिलिंडर की परमिट के लिए बात करनी है साहब से..."
" साहब के इहाँ गैस का सिलिंडर नहीं मिलता... जाइए लकसा पर गैस-गोदाम।
एकाएक उसके अंदर पिये हुए अपमान का जहर खौल उठा-"तुम सीधे से मुझे अंदर जाने देते हो या नहीं... कह दिया मेरी मिस्टर साहनी से बात हो चुकी है और उन्होंने मुझे बुलाया है..."
क्हने के साथ ही एक धड़ल्ले के साथ वह दरवाजे के अंदर घुस गयी थी। लेकिन दिल बुरी तरह धड़धड़ाने लगा था अपने इस प्रत्युत्पन्नमति नुमा झूठ पर।
पीछे चपरासी भन्ना रहा था कुछ अनाप-शनाप, लेकिन दबे स्वर में और लोगों की कसमसाती हुई भीड़ इसका मजा ले रही थी।
अंदर भी टेबुल के आगे-पीछे लोग झुके हुए थे। दो-एक बार उसे उचकने की कोशिश करते देख एक भले आदमी ने आगे कर दिया...
हर बार साहनी के गर्दन उठाने पर वह अनुनयभरी नजरों से देखती। अंत में चश्मे मढ़ी आंखें उसकी ओर भी उठीं-और उसने धड़धड़ाते दिल से हांफती-सी आवाज में कई बार जोड़-तोड़ कर ठीक किया गया मिसरा एक सांस में बोल दिया।
लेकिन मिसरे पर फुलस्टॉप बैठाने से पहले ही उसे बेहद चालू रूखे लहजे में सुनाई पड़ा-"तो उसके लिए लकसा-गोदाम में जाइए, यहाँ..."
लाचार हो उसने जल्दी से उनके वाक्य का आखिरी सिरा पकड़ लिया।
"जी... वहीं से पता चला कि अगर आप..."
"मैं?" इस बार लहजे में रूखाई के साथ विद्रूप भी घुला था-" मैं क्या कर सकता हूँ-गैस तो नंबर वाइज गोदाम से ही मिलेगी।
और 'हाँ!' कहकर उन्होंने दूसरों की तरफ गर्दन मोड़ी ही थी कि उसने आंखों में तिरतिराता पानी पूरे जीवट से संभालकर किसी तरह अनुनय की...
"प्लीज, मिस्टर साहनी, मैं जानती हूँ, पूरी तरह समझती हूँ आपके प्रॉबलम्स... लेकिन मेरी यदि बेहद लाचारी नहीं होती तो मैं इस तरह आपको परेशान करने हर्गिंज नहीं आती... गोदाम वालों ने भी सीधे-सीधे ना ही की थी। लेकिन मेरी सारी परेशानियाँ सुनकर ही मुझसे कहा कि आप साहनी साहब के पास जाइए... वे आपकी अवश्य मदद करेंगे।"
सहनी जैसे फंस से गये।
"ठीक है, शनिवार को चार बजे आइए-जैसी पोजीशन होगी देखूंगा..."
"थैंक्यू, थैंक्यू सर..."
"इट्स आल राइट..." साहनी का लहजा इस बार बेरूखी से भरा तो हार्गिज नहीं था और समूचे लथाड़, अवमानना और लाचारी भरे दिल में एक अदद औपचारिक शिष्टाचार भरा जुमला ही किसी उपलब्धि से कम नहीं था।
"कहाँ है आपका दफ्तर? ... रिक्शा वाला भन्नाते हुए बोला-तो उसने चौंककर आंखें उठायीं-" अरे-रे-रे वह तो पीछे छूट गया... ध्या नहीं-नहीं रहा... जहरा पीछे कर लो रिक्शा। "
मुंह-के-मुंह में भुनभुनाते हुए रिक्शेवाले ने रिक्शा पीछे किया।
उतरकर रिक्शा वाले के हाथ में तो किये हुए ढाई रूप्ये की जगह चार आने ज़्यादा रखे तो वह हुमककर बोला-' ई क्या? भीख दे रही हैं क्या? "और बगैर अगल-बगल से गुजरने वालों की परवाह किये रिक्शेवाला पूरी बुलंदी से बड़बड़ाने लगा-" चार दफे आगे से पीछे, पीछे से आगे कराया, कहाँ से कहाँ दौड़ा देते हैं लोग और पैसे देते वख्त सिरफ चार आने... मुफ्त का माल समझ रखा है..."
इस बार एक और अठन्नी उसके हाथ पर पटककर वह आगे बढ़ गयी। किसी तरह की हुज्जत में समय गंवाने की, बिलकुल मुहलत नहीं और मुहलत हो भी तो क्या? चपरासी से लेकर रिक्शा वाले तक, किस-किससे अपनी इज्जत की भीख मांगी जा सकती है?
उसी तमतमाहट में एक बार उस खुर्राट चपरासी को, दूसरी बार कलाई की घड़ी को कनखी से देखते हुए कहा-"साहब ने इसी टाइम बुलाया था..." कहकर एक रेले की तरह शंकित धड़कते दिल से वह भीतर घुस गयी। वैसे भीड़ भी कम थी आज और चपरासी पर भी उस दिन की तमतमाहट का थोड़ा-बहुत असर तो पड़ा था ही।
अंदर जाकर भी, सामने पड़ने पर साहनी ने पिछले दिन की तरह ही अजूबी प्रश्नवाचक दृष्टि उठायी, लेकिन जैसे ही उसने... "वो...सर... आपने परसों सिलिंडर के लिए..."
" ओऽऽ... कहकर साहनी रूके, एक खर्रा फाड़ा और 'परमिटेड वन गैस सिलिंडर' कहकर इस तरह पकड़ा दिया-जैसे जल्दी से जल्दी उसे टालना चाहते हों...
"थैंक्स, थैंक्स सर..." ठीक उसी दिन की तरह बल्कि और ज़्यादा कृतज्ञता से झुककर वह दरवाजे की ओर बढ़ गयी। ऐसा नहीं कि साहनी के लहजे की उपेक्षा उसने महसूस न की हो, लेकिन एक तो ऐसे बेमुरव्वती लहजों की इस कदर आदत पड़ गयी है कि उन पर ठहरने, महसूसने की फुरसत ही नहीं रहती? और दूसरे इस समय तो साहनी की लिखी पर्ची के रूप में उसे दुनिया की सबसे बड़ी नियामत मिल गयी थी। पूरे पंद्रह दिनों की अनवरत दौड़ का एकमात्र इच्छित फल।
मुड़ी हुई पर्ची को उसने फिर से दो-तीन बार पढ़ा। पूरी तसल्ली की और करीने से तहाकर बैग के अंदरूनी खाने में रख लिया। अब महेश की भाभी यानी शोभा जीजी और उनकी दोनों लड़कियां-नीना, मीना के आने पर कम-से-कम सहूलियत हो जायेगी। नहीं ंतो स्कूल की जल्दी ही शुरू होने वाले मेहमान और गैस नदारद... सोचकर ही वह आतंकित हो उठी थी।
गैस के अभाव में उपले, पत्थर के कोयले-लकड़ी के कोयले और सिगड़ी से लेकर मिट्टी के तेल के साथ मटमैले, धुएँ भरे दमघोंट माहौल में मेहमानों के सांस लेने की कल्पना ही उसके लिए बेहद शर्मिंदगी से भर जाती।
हर एक-दो साल पर छुट्टियों में जिठानी के यहाँ हफ्ते-दस दिनों को जाना होता ही था। वे बड़े शहर, बड़े घर वाले लोग थे। अच्छा बड़ा-सा आरामदेह घर; साफ-सुथरा, सब व्यवस्थित। बड़े प्यार से सब लोग रखते। ऐसे में लौटते समय आदर और मनुहार से जिठानी और उनकी लड़कियों की 'चाची' के पास कुछ दिनों के लिए आने, रहने का आमंत्रण देते रहना ज़रूरी ही था। लेकिन इतना सालों बाद पिछले हफ्ते जब उन लोगों के आने की सूचना मिली तो उस पर जैसे बदहवासी-सी छा गई थी। सबसे ज़्यादा घबराहट उसे रसोई को लेकर ही थी। पिछले तीन महीनों से गैस खत्म थी और गैस की आदत पड़ जाने की वजह से इन दिनों सबुह ही पत्थर के कोयले जोड़ना, जुटाना, अंगीठी सुलगाना और खाना पकाकर स्कूल जाना, खासा थका डालता था। स्कूल में परीक्षाओं की सरगर्मीं से रूटीन और भी 'टाइट' हो गया था। इतना कि पंद्रह दिनों से जगह-जगह से टूटी मिट्टी की भट्टी की भी मरम्मत करने का समय नहीं निकाल सकी थी। असल में मीना-नीना का पत्र पाने के बाद थोड़ी देर तो वह हकबकी-सी बैठी यही सोचती रही थी कि सुबह-सुबह ही उसके स्कूल चले जाने के बाद मीना, नीना इस टूटी भट्ठी और भुतही रसोई के बीच आखिर करेंगी क्या? शोभा जीजी, क्या सोचेंगी? और नहीं भी सोचेंगी तो उन्हें कितनी दिक्कत होगी-मन-ही-मन वह घबराहट से पसीने-पसीने होने लगी, जैसे उनका सामना करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही हो। छुट्टी भी नहीं ले सकती, स्कूल से। इस समय बिजली का चूल्हा खरीदने की भी न गुंजाइश न औकात और औकात होती भी तो क्या, बिजली के ही हर समय रहने की कोई गारंटी दी जा सकती थी? घंटों-घंटों के लिए बिजली भी तो गायब!
वैसे भी इन गये तीन महीनों में उसने क्या-क्या नहीं आजमाया। लकड़ी का कोयला जलाओ तो दस मिनट बाद ही राख। भाड़ की तरह झोंकते चले जाओ. कोयला-पत्थर के कोयले के लिए तो पूरा सरंजाम, पहले उपले, मिट्टी के तेल और लकड़ी के कोयले की तह-पर-तह जमाओं, तब कहीं पूरे घर को आध तक बसीले, दमघोट धुएँ से भर देने के बाद लहकेगा... उस समय आंच इतनी तेज कि दाल रखकर गुसलखाने से निकलने तक चाहे दाल का पूरा पानी बहकर भट्टी भिंगो चुका होगा चाहे लकड़ी राख हो चुकी होगी और उसके बाद आंच ठंडी पड़ी तो पड़ी, लाख धोंको, कोयला झोंको, असर नहीं। किरोसिन के लिए भी किस-किसके पास नहीं दौड़ी पर सभी की वही एक समस्या। गैस किसी को नहीं मिल रही। इसलिए अपने राशन कार्ड का किरोसिन दे कौन? खुले बाज़ार से खरीदो तो एक बोतल दुगने दाम की।
शोभा जीजी के साफ-सुथरे घर की व्यवस्था याद करने के बाद उन तीनों को एक-एक कप चाय के लिए टूटी भट्ठी और चिर्राई बास वाले स्टोव से जूझने की वह कल्पना भी नहीं कर सकती थी।
अब कम-से कम सुबह उन लोगों को चाय-नाश्ता कराकर कुछ ठीक-ठाक खाना बनाकर ढंक-तोपकर वह स्कूल जा सकेगी। बीच में उन लोगों को जब ज़रूरत पड़े, चाय खुद बनाकर पी सकेंगी। अब टूटी हुई भट्ठी की मरम्मत भी नहीं करनी पड़ेगी। सिर्फ़ बच्चों की किताब-कापियों और कपड़ों वाली अलमारी ठीक करनी है और रसोई के रैक के अखबार बदलने है। पिंकी और टिंकू है जिससे उन लोगों के आने पर कम से कम एक दो दिन बिना कपड़े धोये भी चल जाय। अपना तो खैर नाइलोन की साड़ियों से काम चला लेगी।
गैस रही होती तो दो-एक दिनों के नाश्ते में काम आने लायक कुछ नमकीन, मठरियाँ वगैरह तल लेती, लेकिन यहाँ तो अधटूटी भट्ठी पर कच्चा-पक्का खाना और गैस के गोदाम तक की दौडधूप ही होती रही।
घर पहुंचते ही वह थैला, कॉपियाँ फेंक आंखें मूंद निढाल-सी खाट पर पड़ गयी। मन किया, कहीं से एक कप चाय मिल जाती तो शरीर में चुटकी भर दम आता लेकिन कौन देगा, उलटे अभी पिंकी, टिंकू स्कूल से भूखे आते होंगे... उनके नाश्ते की तैयारी... उसने उठकर गटागट गिलास भर पानी पिया और भट्ठी में उपले, किरोसिन और कोयले जोड़ने लगीं।
महेश के आने की आहट आयी तो वह आंटे पुते हाथ से ही चौके के बाहर आ गयी और अतिरिक्त उत्साह छलकाती बोली-' सुनो... बड़ी मशक्कत से सप्लाई ऑफिस से पर्चा लिखवाकर लायी हूँ, अब किसी तरह कल हाफ-डे लेकर तुम...
लेकिन महेश उलटे बौखलाकर उबल पड़ा-'यार! तुम्हें बात करने तक की तमीज नहीं? ऐं? दिनभर कोल्हू के बैल-सा जुता, शाम को थका-मांदा घर लौट रहा हूँ और तुम हो कि दरवाजे पर पैर रखते देर नहीं कि फरमाइश शुरू...'
फऽऽ रऽऽ माऽऽ ईऽऽ शऽऽ... वह आटे सने हाथों से हकबकी, अवसन्न-सी खड़ी रह गयी... फिर ओंठों को भींचती हुई चुपचाप वापस आकर आटा मांड़ने लगी। महेश जैसे अपने-आपसे अपनी कैफियत देता बड़बड़ाता रहा।
"वहाँ स्साला यह नया मैनेजर चड्ढा नाक में दम किये रहता है। एक-एक फाइल की हजार-हजार नुक्सें और एक-एक मिनट पर एक नयी तलब लिये हाथ धोकर पीछे पड़ा रहता है। किसी दिन स्साले के मुंह पर फाइल के साथ अपना इस्तीफा भी मार आऊंगा तो चैन पड़ेगी सबको।"
किचेन से सुना। इस्तीफे के नाम पर उसकी नस-नस थरथरा उठी, बदन में आतंक की सुरसुरी-सी दौड़ गयी। ... पिंकी को बुला, चाय दो प्यालों में छान दी। एक प्याला उसके हाथ ही महेश के पास भेज दिया। दूसरा चुपचाप शांत होने की कोशिश में होंठ से लगा लिया। लेकिन घूंट भर गुटकने के साथ ही अनायास दो बड़े आंसू प्याले में लुढ़क आये।
और झलमलाई आंखों में हेड मिस्ट्रेस की बिल्ली-सी घूरती चौकन्नी आंखों और तीखी तुर्श आवाज उभरने लगी...
' यह अपने कैजुअल बचाने आ अच्छा तरीका निकाल लिया है! हर दूसरे, तीसरे हाफ-डे... सारी दुनिया आप ही क्यों घहाती फिरती हैं? आपके पति भी तो हाफ-डे ले सकते हैं अपने ऑफिस से? आगे से पूरे दिन की बकायदा छुट्टी लिया कीजिए और हाँ, एप्लीकेशन मेरे पास एक दिन पहले ही पहुंच जानी चाहिए. जिससे उस क्लास के लिए दूसरी टीचर का इंतजाम किया जा सके... आप ही लोगों की वजह से स्कूल का डिसिप्लिन बिगड़ता है... और आप तो इरेगुलेरिटी के लिए रेगुलर ही हो गयी है...
कानों में कांच के टुकड़े पिघलने लगे तो उसने एक सांस में एक ठंडा-सा घूंट गुटकर आंखें पोंछ लीं।
तभी पिंकी के पीटने और टिंकू के रोने की आवाज पर वह चौंककर झल्ला उठी। तेज कदमों से कमरे में पहुंची और एक भरपूर चांटा पिंकी पर जड़ने ही वाली थी कि पिंकी हदसती, डरी-सी पीछे हटती, रुआंसी आवाज में बोलीः
' ये (टिंकू) होमवर्क करते-करते भूखा ही सो रहा है तो मैं इसे उठा रही हूँ कि सो मत, मम्मी अभी देर से आयी हैं। अभी पलांते (परांटे) बना कर देंदी... तो यह रोता है। "
हाथ पीछे कर धिक्कारती हुई वह चौके में वापस मुंड गयी-जल्दी-जल्दी परांठे सेकें और शक्कर के साथ उन्हें परोस दिया।
परांठे खाते-खाते पिंकी पुरखिनों की तरह पूरी सहानुभूति से पूठ बैठी-"मम्मी! क्ल गैस आ जायेगी क्या?"
पहले तो उसने खींचकर डपट देना चाहा फिर चुप रह जाना या प्रश्न का अनसुना कर जाना... लेकिन फिर जाने कैसे पिंकी पर दया आ गयी, हंसी भी।
मुस्कराकर बोली-"हाँ... पर कल नहीं, कल तो इतवार है और इन लोगों का क्या ठिकाना।"
असल में मन-ही-मन सचमुच सोच रही थी कि बच्चचे परसों स्कूल से लौटने पर गैस का सिलिंडर देखेंगे तो उन्हें कितनी खुशी होगी।
इतवार की शाम उसने पर्ची फिर से सहेजी. सिलिंडर के लिए निकाले इस महीने के पैतालीस में पूरे पैतीस रूपये गैस के सिलिंडर की भागदौड़ में रिक्शे को होम हो गये थे। उसने अपना बड़ा बक्स खोला और सबसे निचली तह से हर महीने के खर्चे से काट-कपटकर बचाये दस-दस पांच-पांच के तीन-चार नोट निकाले। सहेजकर उन्हें बैग में जिपर वाले खाने में साहनी की पर्ची के साथ रख दिया।
न, महेश से पैसे भी नहीं मांगेगी। सिलिंडर लाने को भी नहीं कहेगी। वह खुद ही रिक्शा पर लदवाकर ले आयेगी। सिर्फ़ स्वाभिमान ही नहीं, महेश की इस्तीफे वाली बात से वह सचमुच भयभीत हो उठी थी। सिर्फ़ धमकी या गुस्से का उबाल तक ही होता तो कोई बात नहीं लेकिन महेश पहले भी ऐसी धमकियों के बीच ही कई नौकरियाँ छोड़ चुका है और उन दिनों की स्मृति मात्र उसके रोंगटे खड़े कर देती है। पैसे का अभाव, मानसिक क्लेश और अशांति जो रहती थी वह तो रहती ही थी; ऊपर से महेश के 'ईगो' की लगातार पहरेदारी और संभाल उसे अधमरा ही कर डालती थी। नहीं, वह सिलिंडर खुद लदवा लायेगी। महेश से कहना तो दूर, उसे उलटे प्रेम से समझाना पड़ेगा कि नये आये बॉस चड्ढा की बात है... नौकरी छोड़ने की तो उसे कल्पना भी नहीं करनी चाहिए-फिर इस उम्र में कहीं नौकरी मिलना आसान है क्या? ... हे भगवान, इस बार महेश का पारा इस्तीफे पर न उतरे।
स्कूल के फाटक से तीर की तरह भागती आयी थी वह और हांफती-सी बिना मोल-भाव किये एक रिक्शा में बैठ गयी थी-"लक्सा-गैस-गोदाम।"
घड़ी वाली कलाई पर नजर डाली, अभी पौने चार बजे हैं। बंद होने का कोई सवाल नहीं। आज का रिक्शा भी ठीक और तेज था, नहीं तो कोई-कोई रिक्शे रफ्तार ही नहीं पकड़ते और जो कभी एक के बदले दो सवारी बैठ गयीं ऐसे रिक्शा में तो लगता है कि रिक्शा नहीं बल्कि सवारी ही रिक्शा को घचक-घचककर खींचे लिए जा रही है। इस रिक्शा की हैंडिल हलकी चल रही है। इसी को रोक रखेगी, चार-आठ आने ज़्यादा दे सिलिंडर उतारकर घर के अंदर रखवाने के नाम पर हुज्जत करेगा, ऐसा नहीं लगता कल छुट्टी भी है। जमकर सोकर इतने दिनों की थकान मिटायेगी, क्योंकि परसों मेहमान पधार जायेंगे।
' देखिए-यही गैस-गोदाम न..." रिक्शावाले की आवाज ने उसे चौंका दिया।
'हाँ यही-रोको तो,' लेकिन आंखें उठाने पर उसे विश्वास नहीं हुआ। यह कैसा गोदाम, यह सन्नाटा कैसा-अनजान आशंका से दिल घड़घड़ा उठा, जल्दी-जल्दी रिक्शा से उतरकर पास पहुंची तो फाटक पर ताला पड़ा था और ताले के सहारे एक मैली दफ्ती पर काली स्याही से टेढ़े-मेढ़े अक्षरों में लिखा था-गैस स्टॉक खत्म है... सप्लाई महीनेभर बाद चालू होगी।
जैसे किसी पथरीले शाप से जड़ हुई-स रवह, उस मैली दफ्ती और उन काले अक्षरों को घूरती रह गयी, खामोश, सर्द सन्नाटे में...
अचानक रिक्शावाले की आवाज ने उसे चौंकाया-वह चेती और जैसे जड़ता के बीच से कोई किरन फूटी हो इस तरह पलटकर रिक्शा में आ बैठी।
"वापस रिक्शावाले-ज़रा ठठेरी बाज़ार की तरफ से होते चलो।"
ठठेरी बाज़ार आ गया तो उतरी। दुकान से एक पुख्ता लोहे की अंगीठी खरीदी और आधी बोरी कोयले लदवाये, रिक्शा में। बगल में गन्ने के रस का ठेला दिखा तो दो गिलास बर्फ डले रस से नींबू निचुड़वाया, एक अपने लिए, एक रिक्शावाले के लिए. ग्लास वापस रखते-रखते सामने बुकस्टॉल दिखा तो जल्दी से एक मैंग्जीन खरीदी और भागकर रिक्शा में वापस आ बैठी।
रिक्शावाले ने तरोताजा हो पैडेल मारा और रिक्शा सरसराता, चल निकला। पूरे विश्वस्त भाव से उसने एक भरपूर सांस खींची और निशि्ंचत हो पत्रिका के पन्ने पलटने लगी।