गोड़पोछना / जयनन्दन
रपचा बेसरा दिल्लगी में कहा करता था कि मजाल नहीं कि दोहारी के उठने के पहले सूरज उग जाये। एक दिन देर तक दोहारी सोयी रह गयी। संयोग से आसमान में बदली छायी हुई थी। रपचा ने उसे झिंझोड़ते हुए कहा, “अब उठ भी जाओ। देखो, सूरज तुम्हारे उठने का इंतजार कर रहा है। तुम उठोगी नहीं तो वह उगेगा नहीं। धूप के बिना कँपकँपी लग रही है। मुझे काम पर भी जाना है, खाने का डब्बा चाहिए। लगता है तुम्हें आज नहीं जाना।”
ऐसी ही थी दोहारी। तड़के उठती थी, बासी घर को तरोताजा करती थी। खाना-पीना देकर और लेकर काम पर चल देती थी। वह चलती थी तो उसके साथ एक ग्रुप चलता था, गीत चलते थे, रोशनी चलती थी, उम्मीद चलती थी, खुशी चलती थी, अल्हड़ता और बेफिक्री चलती थी। वह मेठ थी अपने ग्रुप की। ग्रुप में रेजा, कुली और मिस्त्री की संख्या काम के हिसाब से घटती-बढ़ती रहती थी। काम था ढलाई करना। कभी तीन हजार वर्गफुट, कभी पाँच हजार, तो कभी दस हजार भी। कभी जमीन पर, कभी एक तल्ले पर, कभी पाँचवें तल्ले पर, कभी सातवें तल्ले पर। सातवें या आठवें तल्ले पर जब ढलाई होती तो एक-एक रेजा अपने सिर पर सीमेंट, बालू और गिट्टी का गारा लेकर लगभग पचास-साठ बार चढ़ना-उतरना कर लेती।
दोहारी की एक मुँहलगी और करीबी रेजा माहो मुर्मू ने एक बार कहा था, “कुछ शहरी औरतें हिमालय चढ़ जाती हैं तो उसका कितना नाम होता है, उसकी कितनी वाहवाही होती है, लेकिन हम तो रोज हिमालय चढ़ते हैं और कई-कई बार चढ़ते हैं, अकेले, बिना किसी सहारे के। हमारे चढ़ने-उतरने से दीवार बन जाती है, छत बन जाती है, लेकिन हिमालय पर चढ़ने उतरने से कुछ नहीं बनता। सुनते हैं लाखों-लाख रुपये खर्च भी हो जाते हैं।”
दोहारी ने उसका समर्थन करते हुए कहा था, “आदमी आदमी में बहुत फर्क होता है माहो। हम गरीब और अनपढ़ औरतें हैं। हमारे होने और करने की कोई अहमियत नहीं है। हमारे दिन भर पसीना बहाने और हाड़ तुड़वाने की कीमत सौ रुपये से भी कम है, लेकिन ऐसे भी लोग हैं जो ठंढा घर में कुर्सी पर बैठकर हुक्म चलाते हैं और जिसकी कीमत हमसे पचास-साठ गुणा ज्यादा होती है। मतलब हम पचास-साठ दिन में जितना मुश्किल से अनिश्चय की स्थिति में कमा पाते हैं, उतना कोई आराम से एक दिन में कमा लेता है।”
माहो ने कहा था, “हिमालय चढ़नेवाले को मदद करके चढ़ानेवाले शेरपा लोग सुनते हैं सामान लेकर कई बार ऊपर-नीचे होते रहते हैं लेकिन उनका कोई नाम नहीं होता, उनके बारे में कोई चर्चा नहीं होती।”
“अरे माहो, बड़ी-बड़ी जो बिल्डिंग बनती है वो किनके दम पर बनती है, हमारे दम पर। लेकिन वह बिल्डिंग जानी जाती है उसके मालिक के नाम से जो उसे बनाने में पैसा लगाता है। हम गरीब आदमी एक सामान की तरह होते हैं, जैसे कड़ाही, बेलचा, कुदाल। काम किया, घिस गये तो कबाड़ बन गये।”
विधातानगर के पार्श्व में जो एक ऊँचा पहाड़ है, उसी की तलहटी में बसे एक गाँव चुंडू से आता था पूरा ग्रुप। वे अपने औजार, बेलचा, झूड़ी, कड़ाही, कुदाल, गैंता, कड़नी, बसुल्ली, पाटा, साहुल, सूता आदि से लैस होते थे। उनके साथ हँसी, ठिठोली और किस्सा, कहानी भी साथ चलती थी। वे हमेशा चहकते हुए दिखते थे, काम पर जाते हुए भी और काम से वापस आते हुए भी।
लौटती में वे चरबोदा सेठ की दुकान से सौदा-सुलुफ करते हुए जाते। चूँकि इस दुकान में उन्हीं के रंग, रूप और समाज का अलसा टुडू नौकर था, जो उनकी जरूरत की चीजें निकालकर-तौलकर दिया करता था। वे उससे संथाली या हो भाषा में बात कर लेते थे। उसके होने से उनके मन में तसल्ली रहती थी कि वे यहाँ ठगायेंगे नहीं। अलसा की वजह से उन्हें वहाँ पाँच-दस दिन की उधारी की सहूलियत भी बहाल हो गयी थी। वह काम दिलाने का भी एक माध्यम बन गया था। जिन्हें ढलाई करनी होती, वे अलसा को इत्तिला कर देते। फिर दोहारी उससे संपर्क कर लेती। बड़े-बड़े बिल्डरों-ठेकेदारों-मकान मालिकों के आने-जाने की वजह से सेठ का भी परिचय का दायरा विस्तृत हो गया था। ढलाई में जो सफाई, फुर्ती और गुणवत्ता की जरूरत होती है, उनमें दोहारी ग्रुप शहर में अच्छा नाम रखने लगा था। कुछ लोग तो इसके इतने कायल थे कि इनकी उपलब्धता के आधार पर ही ढलाई की तारीख तय करना उचित समझते थे। इन सभी पहलुओं के मद्देनजर दोहारी और उसके आदमियों का दुकान में आना सेठ को अच्छा लगता था, दुकानदारी के लिहाज से भी और उनकी जीवंत गपशप के लिहाज से भी। सेठ देखता था कि वे हाड़तोड़ परिश्रम के बावजूद अभाव और मुश्किल में रहकर भी हँसी-ठट्ठा कर ले रहे हैं। जबकि वह रुपये-पैसे से लदा-फदा आराम के आसन पर बैठा रहता, फिर भी उसे हँसे हुए कई-कई हफ्ते गुजर जाते। वह रोज जोड़-घटाव कर इसी निष्कर्ष पर पहुँचता कि सुख का संबंध धन-दौलत से नहीं है। संतोष और बेफिक्री में रहने का अभ्यास हो तो फटेहाली में रहकर भी सुख की सवारी की जा सकती है।
बोदा सेठ दोहारी की अक्ल और प्रबंधन कौशल पर मुग्ध रहता... बिना पढ़ाई-लिखाई के कैसे यह औरत सौ-सवा सौ लोगों को एक सूत्र में पिरोकर खुश रखती है... कैसे बड़े-बड़े ठेकेदारों और बिल्डरों से डील कर लेती है। अलसा ने बताया था कि ग्रुप के सारे लोगों की दाल-रोटी और दवा-दारू ठीक से चले, इसका वह पूरा खयाल रखती है।
दोहारी का एक ब्रांड बनते हुए देखना बोदा सेठ को एक आंतरिक खुशी दे रहा था। यह जानते हुए भी कि स्थानीय लोगों का बाहरी लोगों की सुख-समृद्धि से गहरा खुन्नस और चिढ़ है। सेठ इसे स्वाभाविक मानता था और उसे ऐसे लोगों से कोई शिकायत नहीं थी। दोहारी के साथ दुकान में उसका मर्द रपचा बेसरा भी कभी-कभार आ जाया करता था। जल्दी छूट जाने पर काम से लौटते हुए वह साथ हो लिया करता था। एक दिन अलसा से संथाली में बात करते हुए वह कहने लगा था, “देखो, हमलोगों का खून चूस-चूस के साला सेठ अपना तोंद कितना बढ़ाता जा रहा है। चार साल पहले यह दुकान एक टुटपुंजिया जैसी मामूली दिखती थी, आज यह सेठ करोड़ से कम का मालिक नहीं होगा। हमलोग दिन भर पसीना चुआते हैं और खून जलाते हैं, तब भी पेट है कि साला भरता ही नहीं। हालत वैसी ही पतली की पतली।”
अलसा जानता था कि सेठ जी संथाली भाषा समझने लगा है और थोड़ा-थोड़ा बोल भी लेता है। अतः उसने उसकी हामी नहीं भरी। उसका ध्यान उनलोगों की तरफ सरक गया जो मूलवासियों और आदिवासियों के तारणहार के रूप में जाने जाते थे। उसने संथाली में ही कहा, “अगर बाहरी लोग हमारे खून चूसते हैं तो हमारे अपने कहे जानेवाले कौन से पीछे हैं। अलग राज्य बने हुए तो कितने साल हो गये, कितना भला हुआ यहाँ के गरीब-गुरबों का? जबकि हर बार मुख्यमंत्री और उसके साथ ज्यादातर मंत्री आदिवासी ही रहे। ओहदा और पावर जिसे भी मिला वह करोड़ों-अरबों का वारा-न्यारा कर गया। लेकिन तुम पहले भी विधाता स्टील में ठेकेदार मजदूर थे, आज भी हो। तुम्हारी घरवाली दोहारी और हम जैसे पहले थे, वैसे ही आज भी हैं।”
रपचा कुछ देर निरुत्तर रहकर कहने लगा, “बात सोलह आने सच कह रहे हो, अलसा। राज्य के अनेक पूर्व मंत्री सरकारी खजाने में सेंध मारने के मामले में जेल की हवा खा रहे हैं। छह-आठ महीने के लिए मुख्यमंत्री बनकर एक ने तो ऐसी हाथ की सफाई दिखाई कि रुपये रखने और छुपाने तक की जगह उसके पास न रही। ऐसे में उसे अपने आसपास के धूर्त और चालबाज दोस्तों की मदद लेनी पड़ी। जाहिर है इस कोटि में बाहरी लोग ही आ सकते थे ठाकुर, चौधरी, शर्मा, पांडेय, अग्रवाल, श्रीवास्तव, गुप्ता। चूँकि मुंडा, कोड़ा, मरांडी, मुर्मू, बेसरा, लकड़ा जैसों को प्रपंच पुराण का ज्ञान तो कभी मिला नहीं... कुर्सी छोटी हो या बड़ी, बुड़बक के बुड़बक ही रह गये सबके सब। मालामाल हो गये वे तिकड़मफरोश लोग, पुलिस खोज रही है उन्हें, पता नहीं कब पकड़ में आयेंगे। वे दुबई और सउदीअरब भागकर ऐश कर रहे हैं और बुड़बकलाल मुख्यमंत्री की दुम जेल की हवा खा रहा है।”
अलसा ने कहा, “लूट तो सभी रहे हैं, लेकिन अपने लोगों को तो यह भी नहीं आता। कोशिश भी की तो फायदा खुद से ज्यादा दूसरों को पहुँचा दिया। जब जब हराम के माल डकारने की जुगत लगायी, कै-दस्त करके पूरी दुनिया में बदबू फैला दी।”
बोदा सेठ को इनकी बातचीत का सार बिल्कुल सही लग रहा था। वह अपने बही-खाता देखने के बहाने अनदेखा सा करके कान इधर ही लगाया हुआ था। उसके दिमाग में भी यह कड़वा सच एक तरस उड़ेल जाता था कि बाहर से आकर लोग यहाँ अपना तंबू फैला लेते हैं, अपना रुतवा बढ़ा लेते हैं, लेकिन यहाँ के लोग सिमटे-सिकुड़े, दबे-कुचले रह जाते हैं। वह रपचा से मुखातिब होते हुए टूटी-फूटी संथाली में कहने लगा, “तुम्हारा दर्द और शिकायत लाजिमी है रपचा, मुझे तो कारण बस एक ही नजर आता है कि तुमलोग पढ़ाई को प्राथमिकता देकर उसे अपना अस्त्र नहीं बना रहे। आगे बढ़ने की यही एक अचूक कुंजी है भाई। सब कुछ इसी में निहित है... होशियारी, समझदारी, ईमानदारी, बेईमानी, ठगी, दिशाबोध, कामयाब होने के अच्छे-बुरे हजार रास्ते।”
“वाह सेठ जी, आपने तो हमारी भाषा को भी अपना लिया। माफ कीजिए, मैं आपके लिए कुछ जली-कटी कह गया। आपसे हमें बहुत मदद मिलती है, मेहरबानी करके आप नाराज मत हो जाइएगा।”
“अरे नहीं रपचा, मुझे एकदम बुरी नहीं लगी तुम्हारी बात। तुमने जो कुछ कहा, उसमें गलत कहाँ है...।”
“थोड़ा सा गलत तो है सेठ जी,” दोहारी ने बीच में ही सेठ को रोक दिया, “आप हमलोगों का खून नहीं चूसते। बल्कि खून बढ़ाते हैं संपर्क केंद्र के तौर पर हमारी मदद करके। यह तो ऐसे ही कुछ से कुछ बोलता रहता है। कारखाने में वेल्डिंग का काम करता है न, दिमाग गरम हो जाता है इसका।” आँखें तरेरकर वह देखने लगी रपचा को।
सेठ ने उसे बरजते हुए कहा, “गुस्सा मत करो दोहारी, इसने जो कहा वह तो यहाँ के बहुसंख्यक लोगों की जुबान है। रपचा, देखो, तुम्हारी बहू कितना व्यावहारिक हो गयी है। दो-चार क्लास पढ़ लेती तो ऊँची उड़ान भरने के लिए पंख मिल जाता इसे। लेकिन देखना, यह जिस तरह अक्ल लगाकर मेहनत कर रही है, तुम भी एक दिन जरूर बड़े आदमी बन जाओगे।”
“अरे रहने दीजिए सेठ जी, चूहा मोटा होकर बाघ थोड़े ही न बन जायेगा। लाइए, एक बीड़ी पिलाइए।”
अलसा ने बीड़ी का बंडल निकाला और जिस-जिस को चाहिए था, बाँटने लगा। सेठ की तरफ से यह निःशुल्क सेवा थी। कभी कभी वह अपनी तरफ से सबको चाय भी पिला दिया करता था, कभी मूढ़ी और घुघनी या आलूचाप भी खिला दिया करता था।
दोहारी को खोजते हुए एक आदमी आ गया, जो शहर के एक प्रसिद्ध व्यवसायी रतनलाल बजाज के बन रहे आलीशान भवन (मॉल) के ठेकेदार का मैनेजर था। अठतल्ले पर छत की ढलाई करनी थी। पहले के सातों तल्ले की ढलाई भी दोहारी ग्रुप ने ही किया था। बात तय हो गयी। ढलाई में मेहनत ज्यादा होती है और हर हाल में एक ही सुर में काम खत्म करना होता है, भले ही शाम की जगह रात हो जाये। इसलिए दूसरे कामों के बनिस्वत इसमें रेट ज्यादा मिलता है। ढलाई के क्षेत्रफल के हिसाब से वह रेजा-कुली की संख्या घटा-बढ़ा लेती थी। इस बार आठ हजार वर्गफुट की ढलाई थी। इसके लिए लगभग डेढ़ सौ जोड़ी हाथ चाहिए थे। जमीन पर रखी मिक्सचर मशीन में नाप-नाप कर सीमेंट, बालू, गिट्टी और पानी डालना, फिर मिले हुए मसाला को कड़ाही में भर भरकर बाँस और फराटी से बनी अस्थायी सीढ़ियों से चढ़कर ऊपर तक पहुँचाना। वाइब्रेटर के जरिये मसाले को कसना और चिकने पाटा से ठोक-ठोक कर समतल करना। दोहारी कभी वर्ग फुट के हिसाब से तो कभी प्रति मजदूर के हिसाब से मजदूरी तय कर लेती थी।
जब मैनेजर फाइनल करके चला गया तो आदिवासी विकास सभा (आविस) के दो नेता आ गये दोहारी को ढूँढ़ते हुए। वे कहने आये थे कि उनकी पार्टी के सुप्रीमो की आम सभा होनेवाली है जिसमें उसे अपने सारे लोगों को लेकर पहुँचना है। ट्रक उसके गाँव में भेज दिया जायेगा। सभा की तारीख वही थी जो अभी-अभी तय हुई ढलाई की तारीख थी। दोहारी ने साफ इनकार कर दिया, “हम नहीं आ सकते। अभी-अभी बजाज के ठेकेदार का मैनेजर हमें बयाना देकर चला गया है। एक दिन का नागा हमारे कई दिनों की रोटी छीन लेता है। हम अपने काम से बेईमानी नहीं कर सकते।”
काम न रहा होता उस दिन तो शायद वह सबको लेकर भीड़ बढ़ाने चली जाती। ऐसी सभाओं में वह कई बार जा चुकी है। एक-दो बार तो वह मिले हुए काम को छोड़कर भी जा चुकी है। मतलब गरीबी में आटा गीला करके। हर बार निष्कर्ष निकालकर उसने देखा तो भेड़-बकरी की तरह भीड़ का हिस्सा होने के अलावा उनलोगों की कोई उपयोगिता नहीं... उनके हित में कुछ हुआ हो, होनेवाला हो ऐसा भी नहीं। सिर्फ वे भीड़ दिखाकर अपनी नाक ऊँची करते हैं और उनसे जय जयकार करवाते हैं।
दोहारी के इनकार पर नेता की भवें तन गयी, “तुम ऐसा कहकर अपने बड़े नेता का अपमान कर रही हो। उन्हें पता चलेगा तो वे बहुत बुरा मान जायेंगे। उनका बुरा मानना तुम्हारे और पूरे कुनबे के लिए महँगा पड़ सकता है। वे तुमलोगों के कल्याण के लिए ही रात-दिन लड़ते, मरते और जूझते रहते हैं, बदले में तुमलोगों को एक दिन का समय निकालना भी दुश्वार लग रहा है। यह तो भलाई के बदले में भाला भोंकने जैसा काम हुआ।”
“उनके लड़ने, मरने और जूझने से हमें क्या मिला अब तक, जो भी मिला, उन्हें ही मिला? बड़ा ओहदा... बड़ा रुतबा... बड़ा नाम। आप जिसे एक दिन कह रहे हैं, वैसा एक दिन तो हम सालों से देते आ रहे हैं... अलग राज्य बनने के काफी पहले से लेकर अब तक दर्जनों बार दे चुके हैं। आपको नहीं मालूम कि जिसे आप एक दिन कहते हैं, उसके एवज में हमें कितना खोना-गवाना पड़ता है, हमारे अभाव की काँटेदार चादर में और कितने काँटे टँक जाते हैं।”
संथाली में ही दोनों ने मुँह चोथउअल किया।
“ठीक है हम चलते हैं। जो कहना था, कह चुके... आगे तुम्हारी मर्जी।” आविस का गुर्गा भभकी दिखाकर चला गया।
दोहारी के इनकार और दो टूक जवाब से उसके सारे साथी खुश हो गये। सबकी आँखें एक स्वर में बोल रही थीं कि जो कहा, बिल्कुल ठीक कहा। बोदा सेठ भी उसे गर्व से देख रहा था। एक अलसा था जो थोड़ा असहमत था। उसने कहा, “इनलोगों से पंगा लेना ठीक नहीं है। ये बहुत ही खतरनाक लोग हैं। निशाने पर ले लेते हैं तो घाव देने से जरा-सा भी नहीं हिचकते। नहीं जाना था तब भी ना नहीं करना था। बाद में पूछने पर कुछ कारण गढ़ लिया जाता।”
“अरे अलसा भाई, देखा जायेगा जो होगा। किस किस से कितना डरते रहें हम। पराये तो पराये अपने लोग भी डसने लगें तो भागकर कहाँ जायें? जिस तरह ये लोग हमें अपना गोड़पोछना बनाये हुए थे, एक न एक दिन तो इनके पाँव में चुभना ही था।”
रतनलाल बजाज की छत ढलाई के दिन सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था। सवा सौ रेजा और पच्चीस कुली काम में भिड़े हुए थे। दोहारी बीच-बीच में कभी चाय, कभी बीड़ी-खैनी, कभी माल-मेटेरियल का इंतजाम देखकर खुद भी मसाले की कड़ाही अपने सिर पर उठा लेती थी। दोपहर में सबने दम भरके मूढ़ी और आलूचाप खाया। शाम होते-होते तीन चौथाई काम पूरा हो गया और बचे हुए एक चौथाई के लिए दो-ढाई घंटा और लगना था। तार खींचकर बत्तियाँ जला दी गयी थीं। ढलाई के मुहाने पर एक साथ दो ढाई दर्जन मसाले की कड़ाही उढ़ेली जा रही थी, जिसे एक दर्जन राजमिस्त्री समतल करने में भिड़ा था। दोहारी ने काम खत्म होने के बाद सबको हड़िया और मच्छी खिलाने का न्योता दे रखा था।
सब भाग-भाग कर काम में खुद को झोंके हुए थे, तभी अचानक एक-डेढ़ हजार वर्ग फुट की शटरिंग भरभरा कर सातवें तल्ले की छत पर गिर गयी। उसके साथ ही वहाँ खड़े दस रेजा और तीन मिस्त्री चपेट में आ गये। वे एक दूसरे पर आड़े-तिरछे बुरी तरह पटका गये और उनके ऊपर ढेर सारा सीमेंट, बालू और गिट्टी मिश्रित मसाला गिरकर लद गया। साथ के अन्य सुरक्षित मजदूर बचाव में जुट गये। मसाला हटाकर उन्हें निकाला और बजाज की गाड़ी से अस्पताल पहुँचाया गया। मगर दो रेजा दबकर मौके पर ही दम तोड़ गयीं। बाकी बचे ग्यारह इस कदर घायल हुए कि किसी का पैर टूट गया, किसी का हाथ तो किसी के सिर पर चोटें आयीं।
कैसे हो गयी अचानक यह दुर्घटना, जबकि शटरिंग को मजबूत सपोर्ट लोहे के पाइपों द्वारा दिया गया था और उसके पुख्तेपन तथा अविचलन की देखरेख करने के लिए नीचे कारीगर आदमी बहाल था? कहते हैं कि शाम हो जाने के बाद हर जगह रोशनी पर्याप्त नहीं थी। कौन कहाँ क्या कर रहा था, पता नहीं चला। ढलाई निरंतरता (कंटिन्यूटी) में खत्म करने की जल्दबाजी थी। कयास लगाया जाने लगा कि संभव है कि कोई शरारती तत्व सपोर्ट सिस्टम से छेड़छाड़ कर गया हो। कहीं भीड़ जुटाऊ नेता ने तो करामात नहीं कर दिया?
अलसा ने सुना तो सिर पीट लिया। जिसका उसे डर था, आखिर वही हो गया। अब इन्साफ पाने के लिए अथवा मुआवजा दिलाने के लिए जाओ फिर उन्हीं नेताओं की शरण में। जो कसूरवार है उसी से मुंसिफ होने की उम्मीद। बजाज इतना शरीफ तो होने से रहा कि खुद ही उदारता दिखा दे।
दोहारी ने अपनी कोशिशें शुरू कर दीं। वह चाहती थी कि नेताओं के यहाँ गये बिना दो मृत रेजाओं के परिवार को उचित मुआवजा मिल जाये और जो जख्मी हुए हैं उनके इलाज का खर्च और काम पर लौटने तक नागावाले दिनों की मजदूरी की भरपाई हो जाये। मगर रतनलाल बजाज और उसका ठेकेदार टस से मस नहीं हुआ। अपने काम के नुकसान का रोना रोता रहा, उसे रेजा जैसे मामूली प्राणी की जान चले जाने का कोई अफसोस नहीं था। बाद में पता चला कि सस्ते में छूटने की दृष्टि से कुटिल व्यावसायिक बुद्धि का इस्तेमाल कर रतनलाल ने आविस सुप्रीमो की खिदमत में ही चढ़ावा चढ़ा आया और भयमुक्त हो गया।
रपचा ने कहा, “देखो, हमारे आँसू और कराह के सौदा कर लेनेवाले ये ही हैं हमारे शुभचिंतक और तारणहार। इन्हीं के भरोसे बदलेगी हम आदिवासियों की फटी फूटी तकदीर।”
अलसा भी बहुत गुस्से में था, “अगला चुनाव आने दो, हम खुलकर इनका भंडाफोड़ करेंगे। इनके दोमुँहापन को उजागर करना जरूरी है।”
“अभी तो चुनाव में बहुत देर है, इन्साफ के लिए तो हमें इसी समय कुछ करना होगा। आदिवासी विकास सभा के अलावा भी तो और पार्टी है और उनमें स्थानीय मूल के नेता हैं, क्या हम उन तक अपना दुखड़ा नहीं पहुँचा सकते? सेठ जी, क्या आप कोई उपाय नहीं बता सकते? अभी जिस पार्टी की सरकार है, उसके कार्यक्रमों में तो आपका भी आना-जाना लगा रहता है। आप भी खुद को उस पार्टी का सदस्य कहते हैं।” दोहारी ने सेठ जी का ध्यान आकृष्ट किया।
“पार्टी का सदस्य तो वह भी है और आना जाना तो मुझसे ज्यादा उसका ही लगा रहता है, जिसके खिलाफ तुम्हें शिकायत करनी है। शहर में प्रायः सभी को पता है कि रतनलाल मुख्यमंत्री का नंबर एक चाटुकार और जीहुजूर है। लोग उसे उसका फंड मैनेजर भी कहते हैं। सारी काली कमाई का गुमनाम शातिर निवेश वही करता है। तीन-चार साल पहले वह एक मामूली कबाड़ी था और आज उसकी एक इंडस्ट्री है। विधाता स्टील के लिए बहुत सारे उपकरणों का वह सप्लायर है। अभी वह करोड़ों की लागत से मॉल का निर्माण करा रहा है, जिसकी ढलाई करते हुए दुर्घटना हुई। संभव है कि मॉल का साइलेंट (गुपचुप) मालिक मुख्यमंत्री ही हो।”
दोहारी समझ गयी कि इस भ्रष्टतंत्र में गरीब आदमी का कोई माई-बाप नहीं है। रपचा ठीक ही कहता है कि हम सब गोड़पोछना हैं, बड़े लोगों के पैरों की धूल पोछनेवाले। उनके गुजरने के रास्ते में जमीन पर पड़े रहनेवाले।
रपचा ने एक निर्णय पर पहुँचते हुए कहा, “रतनलाल और उसके मॉल से मुख्यमंत्री का चाहे जो भी रिश्ता हो, उसकी परवाह न करते हुए हमें उससे मिलना चाहिए। देखें तो चलकर कि हमारे शुभचिंतक होने का उसका मुखौटा कितना असली और कितना नकली है।”
इस विचार पर सबकी सहमति बन गयी। अगले किसी एक दिन रपचा, दोहारी, माहो, अलसा तथा मृतकों व घायलों के परिवार जन इकट्ठे राजधानी पहुँच गये। मुख्यमंत्री आवास पर दरबान ने उन्हें बाहर ही रोक दिया। अलसा ने सबके नाम और आने का कारण लिखकर एक पर्ची भिजवायी। जवाब आया कि आज वे नहीं मिल सकते, कुछ विदेशी मेहमान आये हुए हैं, जिनके स्वागत में वे व्यस्त हैं। अब वे क्या करें, अपने शहर से चार घंटे की बस यात्रा करके यहाँ आये थे। अलसा ने सेठ जी को फोन किया। सेठ ने एक धर्मशाला में उनके ठहराने की व्यवस्था करवा दी। अगले दिन फिर वे मिलने पहुंचे। इस बार कहा गया कि मुख्यमंत्री अपने सूबे के एक प्रसिद्ध तीर्थधाम जा रहे हैं, जहाँ श्रद्धालुओं के ठहरने की एक नवनिर्मित धर्मशाला का उद्घाटन करना है।
तीसरे दिन कहा गया कि सूबे में कारखाने लगाकर पूँजी निवेश करनेवाले कुछ बड़े उद्योगपतियों से एमओयू हस्ताक्षर करने का आज दिन भर का कार्यक्रम है। वे किसी से मिल नहीं सकते। अब और भला कितना रुका जा सकता था। एक तो रोजी-मजूरी का हर्जा ऊपर से यहाँ खर्चा ही खर्चा। रपचा और अलसा ने आपस में मशविरा किया कि लगता है कि उनकी लुटी-पिटी शक्ल-सूरत और हुलिया देखकर साले बीचवाले लोग उन्हें टरकाये जा रहे हैं। जनता का सेवक कहानेवाला मुख्यमंत्री क्या इतना कमीना और निष्ठुर हो सकता है कि अपने ही घर-समाज के लोगों से जरा सा देखा-देखी करने में सौ बहाने बनाये?
रपचा कार्यालय खुलने के पहले सचिवालय के गेट पर आ गया। सोचा मुख्यमंत्री की कार ज्योंही आयेगी, वह हाथ हिलाकर उसका ध्यान आकृष्ट करने की कोशिश करेगा। राजनीति में आने के पहले जब वह छूटभैयागिरी कर रहा था और दो पैसा कमाने के लिए कभी हड़िया कभी देसी दारू बेचने में हाथ आजमा रहा था, रपचा के साथ उसका कई बार मिलना-बैठना हुआ था। दो-तीन बार तो वे मुर्गा लड़ाई में एक ही मुर्गा पर बाजी भी जीत चुके थे। जीतने के बाद साथ-साथ दारू और मुर्गा की पार्टी हुई थी। उसे विश्वास था कि अगर नजर मिल गयी तो जरूर वह उसे पहचान लेगा।
थोड़ी ही देर में कर्कश सीटी बजाती हुई कारों का एक लंबा काफिला गेट में घुसने लगा। गेट से 100 मीटर पहले रोड के दोनों तरफ सिक्युरिटी के जवान खड़े हो गये। रपचा से उनकी हुज्जत हो चुकी थी, शायद इसीलिए वे ज्यादा सतर्क हो गये थे कि पता नहीं यह जाहिल और गँवार हुलिए का आदमी क्या गुल खिला दे।
रपचा को कुछ पता नहीं चला कि मुख्यमंत्री किस कार में बैठा है। वह भौंचक था कि एक आदमी के लाने में इतनी-इतनी गाड़ियाँ और आदमी लगे हुए हैं। इतनी भारी सुरक्षा में रहनेवाला आदमी क्या आम जनता का प्रतिनिधि हो सकता है? जनता के प्रतिनिधि का क्या यही मतलब है कि वह जनता से अपनी जान को खतरा महसूस करने लगे और अपने को सबसे ऊपर व अलग समझने लगे?
स्साला अपने गाँव-घर की छोकरियों पर लार टपकानेवाला, महुआ और हड़िया मार्का चवन्नी आदमी आज शहंशाह बन गया... रपचा ढेर सारी गंदी गाली बुदबुदाते हुए गेट से ही लौटना चाह रहा था कि देखा रतनलाल की गाड़ी गेट के पास आयी। दरबान ने उसे रोका। खिड़की का शीशा हटाकर उसने बात की। दरबान ने सैल्यूट मारते हुए उसे अंदर जाने का रास्ता दे दिया। रपचा समझ गया कि यह मुख्यमंत्री कैसे लोगों का मुख्यमंत्री है और इसके दरबार में किस नस्ल के प्राणियों के घुसने की इजाजत है।
वह वापस धर्मशाला आ गया, जहाँ दोहारी, माहो, अलसा आदि उसका इंतजार कर रहे थे। अलसा ने उसके हताश चेहरे को देखकर भरोसा दिलाया, “कल सुबह हमलोग एक चढ़ाई और करेंगे। सेठ जी को हमने फोन किया है, उनका एक आदमी है यहाँ जो मुख्यमंत्री तक हमें पहुँचाने का जुगाड़ लगायेगा। यह जुगत भी फेल हो जायेगी तो कल हमलोग वापस लौट जायेंगे।”
अगली सुबह अखबार में बड़े-बड़े विश्वप्रसिद्ध उद्योगपतियों के साथ स्मार पत्र पर हस्ताक्षर करते हुए मुख्यमंत्री की तस्वीरें छायी हुई थीं। अलसा टटोलकर पढ़ लेता था हिन्दी। उसने पढ़कर सुनाया - एशिया के प्रसिद्ध उद्योगपति चतरथ गोयल के साथ राज्य में पाँच हजार करोड़ के निवेश करने का करार। मुख्यमंत्री ने इसे अपनी एक बड़ी उपलब्धि मानते हुए गोयल के साथ कई मुद्राओं में तस्वीरें खिंचवाकर 'समृद्धि में साझेदार' शीर्षक देकर अखबारों में एक-एक पृष्ठ का सरकारी विज्ञापन प्रकाशित करवा दिया था।
रपचा एक गहरे पेशोपेश में घिर गया। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि यह उपलब्धि किस तरह है? अपने अनुभव से उसने देखा था कि यहाँ पहले भी जो उद्योग लगे थे, उससे यहाँ के स्थानीय आदिवासियों का कोई खास भला नहीं हुआ। वे अपनी भूमि से उखाड़कर दूर खदेड़ दिये गये। जो जमीन के मालिक थे, वे अब मजदूर बन गये। सौ साल हो गये, लेकिन दस आदिवासी परिवार भी ऐसा नहीं होगा जो इन उद्योगों से अपनी कायापलट करके तरक्की करने में सफल हो गया हो। नया राज्य बनते ही एक बार फिर थोक मात्रा में नये-नये उद्योगपति यहाँ बुलाये जाने लगे हैं। वह बुरी तरह डर गया कि फिर हजारों आदिवासी उजाड़े जायेंगे। क्या पता उसे भी दोबारा न उजड़ना पड़े।
एक समय था कि रपचा ने मुख्यमंत्री से बहुत उम्मीद बाँध ली थी। उसे लगा था कि सत्ता की चोटी पर उसी की तरह के एक आदमी के पहुँच जाने से बिरादरी का जरूर कुछ कल्याण हो जायेगा। अपने हर भाषण में मुख्यमंत्री आदिवासियों के उत्थान की नयी-नयी योजनाओं की बातें करता था। वह कई सभाओं में उसे बोलते अपने कानों से सुन चुका था और उससे खासा प्रभावित था। उसे लगता था कि उसी की तरह की शक्लो-सूरत, काला, नकफुल्ला, ठोरमोटा, उसी की भाषा, 'हो', 'संथाली' बोलनेवाला, उसी के खानपान पानी-भात खानेवाला और हड़िया पीनेवाला, उसी की तरह मांदर की थाप और पिपिहा की तान पर लोट-पोट होकर नाचने-गानेवाला, उसी की तरह जंगल-पहाड़ और पशु-पक्षी से रिश्ता गाँठनेवाला, उसी की तरह टुसो, सरहुल, माघे, बाहा आदि पर्व-त्योहार मनानेवाला मुख्यमंत्री जरूर उसका कुछ भला करेगा।
चौथे दिन बोदा सेठ ने फोन कर दिया अपने एक रिश्तेदार को। वह एक स्टेशनरी सप्लायर था, जिसका सचिवालय में आना-जाना लगा रहता था। उसे हैरत हुई कि सचिवालय में प्रवेश करने में थोड़ी-सी औपचारिक पूछताछ तो होती है, लेकिन सख्ती से रोक-टोक तो बिल्कुल नहीं होती। वह समझ गया कि रपचा के मामले में कुछ विशेष कारण काम कर रहा है... शायद उसका हुलिया या शायद उसके बारे में कोई विशेष हिदायत। उसने रपचा के साथ दोहारी को भी साथ कर लिया। औरत के सवाल पर हर जगह थोड़ी नरमीवाली प्राथमिकता तो होती ही है। रपचा को रोक दिये जाने पर दोहारी के लिए वह प्रयास कर लेगा।
संयोग अच्छा था कि ड्यूटी पर तैनात गार्ड, डायरी, कैलेंडर और बोदा सेठ के रिश्तेदार की दुकान से बच्चों के लिए मुफ्त कॉपी-कलम लेकर उपकृत था, अतः वह दोनों को आराम से साथ लेकर अंदर चला गया। मुख्यमंत्री के कार्यालय में उसे पहुँचा दिया। मुख्यमंत्री कक्ष से लगा भव्य और सुसज्जित हॉल में अनेक कर्मचारी और अधिकारी कोई केबिन में, कोई बिना केबिन अपनी-अपनी कुर्सी पर विराजमान बहुकोणीय दायित्वों में व्यस्त थे। मुख्यमंत्री कक्ष में जाने के लिए उत्सुक लोगों को बिना अंदर गये काम हो जाने का झुनझुना थमानेवाला एक अधिकारी पारदर्शी पार्टीशनवाले कक्ष में बातों का जाल फैलाये बैठा था। रपचा और दोहारी अंदर गये तो एक बार फिर अचंभे में पड़ गये। रतनलाल बजाज वहाँ बेतकल्लुफ बैठकर मजे से चाय की चुस्कियाँ ले रहा था। वह पहले तो इन्हें एकटक हिकारत से देखता रहा, फिर कसैला-सा मुँह बनाकर व्यंग्योक्ति उच्चारने लगा, “तो तुमलोग यहाँ तक चले आये। जरा-सी भी झिझक नहीं हुई। क्या सोच कर आये कि तुम जो कहोगे, मुख्यमंत्री मान लेंगे? मुझे मुआवजा देने के लिए बाध्य कर देंगे? मुझे जेल भिजवा देंगे?”
दोहारी ने उसे उँगली दिखाते हुए आँखें तरेर ली, “हमें आपसे कोई बात नहीं करनी है रतनलाल। आपको जो करना था, कर लिया। हमें जो करना है करेंगे।”
“ठीक है, देखते हैं कि तुमलोग क्या कर लेते हो। कुछ कर लेने का जो तुम्हारा भ्रम है, वह अभी दूर हो जायेगा।” रतनलाल सामने बैठे अधिकारी से मुखातिब हुआ, “तिवारी जी, यही वो औरत है जो खुद को मेठ कहती है और अपने अधीन रखकर दर्जनों रेजा-कुलियों को खटवाती है। उनके बदले ज्यादा मजूरी वसूल करती है और उन्हें काफी कम का भुगतान करती है। अनाड़ी लोगों को कारीगरीवाले काम में लगा देती है, जिसके चलते काम तो बिगड़ता ही है, जान पर भी खतरा आ जाता है। मेरे मॉल के अठतल्ले की छत ढलाई को इसने बर्बाद कर दिया। मेरा लगभग चार लाख रुपये का नुकसान हो गया। कुछ लोग दब कर मर गये, जिसके लिए सरासर यही औरत जिम्मेदार है। गुनाह करके अब सीएम से पुरस्कार लेने आयी है।”
“यह आदमी बकवास कर रहा है साहब। अपनी गर्दन बचाने के लिए हवा में कुल्हाड़ी चला रहा है। इससे पूछिए कि इसके पहले एक से लेकर सातवें तल्ले तक की ढलाई किसने की थी। हम गरीबों की लाश पर यह आदमी अपना महल खड़ा करना चाहता है। हमें मुख्यमंत्री से मिलने दीजिए, इसके इरादे हम कभी कामयाब नहीं होने देंगे।” रपचा अब सीधे मुठभेड़ की मुद्रा में आ गया।
“तुम्हारी मुलाकात मुख्यमंत्री से नहीं, पुलिस के डंडे से होगी। तिवारी जी, पुलिस को बुलाइए और इसे हवालात भेजिए। ये लोग अंदर कैसे आ गये?”
तिवारी ने अपने ऑफिस सहायक को जोर की आवाज लगायी, “मोतावर...।”
वह बाहर स्टूल पर इधर ही कान लगाकर बैठा था। भागकर आया।
“कंट्रोल रूम जाकर किसी हवलदार को कह दो - तीन चार जवान लेकर जल्दी आये।” तिवारी ने ऐसे कहा मानो रपचा और दोहारी कोई बेहद खतरनाक कांड करने जा रहे आतंकवादी हों।
रतनलाल अपने गोरे चेहरे पर एक कुटिल भाव लाकर मुस्करा रहा था, गोया बहुत बड़ा किला फतह कर लिया हो। रपचा हैरान रह गया। उसकी आँखों में गुस्से की ज्वालामुखी धधक उठी। ललकारते हुए उसने कहा, “जब हवालात ही भेज रहे हो तो गैरवाजिब कारण से क्यों, वाजिब कारण से भेजो। और ये रहा वाजिब कारण।” उसने फुर्ती बरतते हुए अपने बायें पैर से घिसी हुई पुरानी बदरंग चप्पल निकाली और तड़ातड़ उसकी मुंडी पर सात-आठ खींच दी। वहाँ कोहराम मच गया। पार्टीशन के बाहर से कुछ स्टाफकर्मी भागकर आये और उन दोनों को ठेलकर बाहर करने लगे। अब तक कोहराम सुनकर अपने कक्ष से सीएम भी निकलकर बाहर आ गया। उसके साथ आदिवासी विकास योजना पर इंटरव्यू कर रही एक प्रसिद्ध अंग्रेजी पाक्षिक की दो महिला पत्रकार भी बाहर निकल आयीं।
तिवारी उन्हें बताने लगा, “ये दोनों सनकी और बदमिजाज हैं। पता नहीं कैसे अंदर आ गये। आपके कक्ष में घुसने की जिद कर रहे थे। रतन जी ने समझाने की कोशिश की तो मारपीट करने लगे।”
रतनलाल अपना गाल सहला रहा था। सीएम उसके सर पर हाथ फेरते हुए हमदर्दी जताने लगा, “आप ठीक तो हैं रतन जी?”
स्टाफ द्वारा बाहर ठेलाते हुए रपचा ने सीएम को पहचान लिया। अपनी भाषा संथाली में कहने लगा, “तुम्हारा यह पालतू चौकीदार तिवारी जिंदा गाय खा रहा है। पार्थो, मैं रपचा बेसरा हूँ, चीन्ह तो रहे हो न! कभी हम महुआ चुआने से लेकर मुर्गा लड़ाने तक में साथ हुआ करते थे। आज तुम बहुत बड़े हाकिम हो गये हो। हम न्याय की गुहार लेकर तुमसे मिलने आये हैं। रतनलाल ने हमारे साथ ज्यादती की है... अगर इसे तुमने दोस्त बना रखा है तो सावधान हो जाओ... यह आदमी हम आदिवासियों का दुश्मन है और एक दिन तुम्हें भी चूना लगाकर रहेगा।” रपचा धक्का खाते हुए भी कहता जा रहा था। अब तक हवलदार तीन जवान को लेकर आ चुका था। वे दोनों को साथ लेकर चले गये। सीएम उन्हें जाते हुए देखता रहा और रतनलाल की पीठ पर हाथ फेरता रहा।
कंट्रोल रूम में ले जाकर हवलदार ने जब उसकी पूरी बात सुनीं तो उसे सब कुछ साफ-साफ समझ में आ गया। वह भी उसी की माटी-पानी का एक स्थानीय मोहताज आदमी था। उसने रपचा और दोहारी को समझाते हुए कहा, “तुम्हारी हिम्मत की मैं दाद देता हूँ। बदले में मैं यही इनाम दे सकता हूँ कि तमाम जोखिम उठाकर तुम्हें घर जाने के लिए आजाद कर दूँ। जाओ दादा। रतनलाल का ज्यादा कुछ बिगाड़ पाना मुमकिन नहीं है। सीएम और रतनलाल दो मुँह से खाते हैं और एक ही मलद्वार से निकालते हैं। अपने काम से काम रखो और जितना मुमकिन हो इन भेड़ियों से बचकर रहो।”
रपचा बेसरा विधाता स्टील कारखाने में एक ठेकेदार मजदूर था। कंपनी ने अपना बहुत सारा काम ठेकेदारों को आउटसोर्स कर दिया था। रपचा ने वर्षों तक कुली-खलासी रहते हुए वेल्डिंग का काम सीख लिया और वेल्डर के तौर पर ठेकेदार का एक विश्वसनीय कारीगर बन गया। तन्ख्वाह उसकी थोड़ी सी ठीक-ठाक स्किल्ड मजदूरवाली हो गयी। एक दिन अचानक उसके सुपरवाइजर ने उसे फरमान सुनाया कि कल से उसे ब्लास्ट फर्नेस विभाग में जाकर काम करना है। उसने हैरत प्रकट करते हुए पूछा, “मुझे वहाँ जाकर क्या करना है, वेल्डिंग का काम तो उस विभाग में नहीं होता।”
उसने कहा, “मुझे भी नहीं मालूम कि तुम्हारा वहाँ क्या काम है। बस मुझे जो कहा गया वो मैंने तुम्हें बता दिया।”
रपचा समझ गया कि उसे जान-बूझकर तंग करने का इरादा लिये कोई तुगलक ऊपर बैठा हुआ है, जिसकी डोर बहुत संभव है उसके चप्पल कांड से जुड़ी हो। वह दिलेर आदमी था। चलो, कहीं भी काम करना है, ब्लास्ट फर्नेस विभाग ही सही, आखिर वहाँ भी तो काम आदमी ही करता है।
ब्लास्ट फर्नेस विभाग में वह हाजिरी बजाने लगा। उसे उस जगह लगा दिया गया, जहाँ ठेकेदार का एक अनुभवी आदमी काम कर रहा था। उसका काम था हीट पूरा हो जाने के बाद हॉट मेटल फर्नेस का टैप होल खोलना, जहाँ से तेज गति से पिघला हुआ मेटल निकलकर बनी हुई नाली से बहता हुआ प्लैटफार्म के नीचे रेल ट्रैक पर रखे लैडल में गिरकर जमा होता है। हरेक हीट के बाद रेत से बनी नाली की मरम्मत और सफाई में भी हाथ बँटाना उसके काम में शामिल था। सारा का सारा बहुत ही जोखिम से भरा काम। हॉट मेटल का तापमान 1600 डिग्री सेंटीग्रेड। एक छींटा भी पड़ जाये शरीर पर तो गोली लगने की तरह का पीड़ादायक घाव। यहाँ काम करनेवाले सारे लोग प्रशिक्षित और अनुभवी एक रपचा को छोड़कर। रपचा सख्त मिट्टी का बना बलिष्ठ, जीवट और निडर आदमी था। उसे जोखिम से चुनौती लेने में मजा आने लगा। यहीं गलती हो गयी। वह मौके पर उपयोग में लाये जानेवाले सुरक्षा उपकरण और बरती जानेवाली सावधानियों का बहुत ध्यान नहीं रख पाया और एक दिन फँस गया।
टैप होल ज्योंही खुला पूरे दबाव के साथ फव्वारे के रूप में पिघला हुआ गर्म लोहा शायद किसी अवरोध के कारण सीधे न निकलकर आड़े-तिरछे अनार छूटने की तरह छिटकने लगा। पास ही खड़े रपचा की देह पर इस तरह बरसने लगा जैसे पंप से पानी का बौछार किया जा रहा हो। बुरी तरह झुलस गया वह... अफरा-तफरी सी मच गयी और उसे तुरंत अस्पताल के बर्न वार्ड में पहुँचाया गया। एकाध घंटे उसकी साँसें ऊब-डूब होती रहीं और अंततः उसने दम तोड़ दिया। जैसे एक विशाल पेड़ अचानक धराशायी हो गया। इस विभाग के लिए यह कोई नयी बात नहीं थी। पहले भी इस तरह की दुर्घटनायें होती रही थीं और लोग मरते रहे थे। लेकिन रपचा के मामले में यह अलग इसलिए था कि वह प्रशिक्षित नहीं था, सुरक्षा उपकरणों से लैस नहीं था, इस काम के लिए वह उपयुक्त नहीं था और यह काम अस्थायी प्रकृतिवाले ठेकेदार मजदूर के करने की श्रेणी में भी नहीं आता था।
दोहारी की तो जैसे किस्मत में ही आग लग गयी। वह उसे जी-जान से प्यार करनेवाला और हर पल निछावर रहनेवाला बेहद दिलदार-वफादार और असाधारण पति था। वह कुछ कर लेती थी तो इसलिए कि कदम दर कदम पीठ पर वह अवलंब बन कर खड़ा रहता था। जब से रतनलाल का ढलाई प्रकरण हुआ, उसका काम बेपटरी हो गया। टीम भी बिखर गयी और काम में भी काफी कमी आ गयी। फिर भी पीड़ित परिवारों के लिए राशन पानी जुटाने का जिम्मा उसने अपने ऊपर ले लिया था। रपचा अपनी पूरी पगार लाकर उसके पल्लू में बाँध दिया करता था। अब कैसे क्या करेगी वह?
अलसा टुडू और चरबोदा सेठ ने उसके धीरज के टूटे बाँध को दुरुस्त करने की कोशिश की। अलसा ने कहा, “पस्त होने से काम नहीं चलेगा दोहारी। तुम्हारे सिर कई लोगों की उम्मीदें लदी हैं। तुम खुद को तैयार करो। विधाता स्टील प्रबंधन से मिलना है। उन्हें मुआवजा देना होगा, साथ ही तुम्हें स्थायी नौकरी भी।”
“जब हम रतनलाल जैसे एक अकेले बाजारू आदमी से एक कौड़ी वसूल नहीं सके तो विधाता स्टील तो बहुत बड़ी कंपनी है।”
“बहुत बड़ी कंपनी है इसीलिए वहाँ कुछ कानून-कायदा है। कंपनी ऐसे मामलों में, जहाँ नियम की अनदेखी हुई हो, तुरंत अगर समाधान नहीं दे देगी तो आगे उसे और भी फँसना पड़ सकता है। स्थायी और प्रशिक्षित प्रकृति के काम में एक ठेका मजदूर को कतई नहीं लगाना चाहिए था।” सेठ ने कहा।
“वह ठेका मजदूर था, इसलिए कंपनी के खाते में तो उसका कोई नामोनिशान न होगा। प्रबंधन से हम कहेंगे तो क्या वह ठेकेदार की तरफ उँगली नहीं कर देगा?” दोहारी ने अपने संशय को दोहराया।
“खाते में नाम हो न हो, दुर्घटना से मौत हुई, इसे कोई झुठला नहीं सकता। पहले ही मन में दुविधा को जगह क्यों देती हो। मन में ठान लो कि यह करना है, चाहे जैसे भी। साथ देने के लिए अलसा है, मैं हूँ, तुम्हारी टोली के दर्जनों संगी-साथी हैं।”
दोहारी ने खुद को जगाया और मिशन में लग गयी। विधाता स्टील के अधिकारियों तक आग्रह पहुँचाने का अभियान शुरू। सक्षम... सक्षमतर... सक्षमतम तक... एक बार... दो बार... दर्जनों बार। सिर्फ आश्वासन... गोल-मटोल फिर टाल-मटोल। अंततः ठेकेदार मजदूर यूनियन के नेता के दरबार में हाजिरी। दोहारी का माथा गरम। फिर नेता के रहमोकरम पर टकटकी। विडंबना फिर पुरानी कि यह नेता भी ठहरा आदिवासी विकास सभा पार्टी की बिसात का मोहरा। आकंठ कीचड़ में सना और घूस की मलाई से औकात की बेनामी चिकनाई में इजाफा दर इजाफा करता हुआ। किसी पीड़ित, शोषित और जरूरतमंद के हितों की कीमत पर हर पल बिकने के लिए तैयार।
कुछ मुलाकातों के बाद ही लग गया दोहारी को कि उसके आँसुओं का भी सौदा होना सुनिश्चित है। और यही हुआ... प्रबंधन और ठेकेदार ने घूस के टाँके लगाकर उस नेता के होंठ सिल दिये। अब चहबच्चे में खुद डुबकी लगाकर उसने दोहारी को प्यास बुझाने के लिए ओस चाटने की हिदायत थमा दी, “बहुत मुश्किल से ठेकेदार ने पचास हजार मुआवजा देने पर सहमति व्यक्त की है। तुम यह रकम ले लो और अपना काम फिर शुरू कर दो या ठेकेदार के यहाँ नौकरी कर लो।”
दोहारी को लगा कि उसे एक खाई पार करना है और उससे कहा जा रहा है कि तुम्हारे लिए पुल उपलब्ध नहीं है। एक पतली-सी रस्सी है जिस पर चलकर तुम्हें पार करना है? उसे फिर अपने मरद रपचा की चप्पल याद आ गयी। शुक्र था कि उसके पाँव में चप्पल नहीं थी और इन दिनों वह खाली पैर ही कहीं भी आना-जाना कर रही थी।
अब क्या किया जाये?
अलसा ने कहा, “एक ही उपाय बचता है - मुकदमा। लेकिन इसके लिए बहुत सारा धैर्य और बहुत सारा धन भी चाहिए। कंपनी सुप्रीम कोर्ट तक गये बिना अपने खिलाफ कोई फैसला कभी स्वीकार नहीं करेगी। साधारण आदमी अमूमन थककर मैदान छोड़ देता है। दोहारी के लिए तो यह बेहद मुश्किल होगा... एक तो लड़ने का साधन जुटाना और फिर लंबा इंतजार करना।”
“लड़ाई कितनी भी लंबी चले और फलाफल चाहे जो हो, लड़ाई लड़नी चाहिए। लड़ाई से हममें बचे रहने की इच्छा बची रहती है। साधन की चिंता मत करो, मैं वादा करता हूँ कि जहाँ तक भी जाना होगा, मैं साथ दूँगा।”
“आपकी बहुत मेहरबानी है सेठ जी। मुकदमा तो आखिरी औजार है, लेकिन उसके पहले कोई रास्ता निकल जाये, इस पर माथा लगाइए। मैं जानती हूँ कि आप भिड़ जायेंगे तो सुराग ढूँढ़ ही लेंगे।”
सेठ जब रास्ते का सिरा ढूँढ़ने निकला तो उसकी आँखें चुँधिया गयीं। हर रास्ता रतनलाल बजाज के घर की ओर मुड़ रहा था। रपचा का जो ठेकेदार था, वह रतनलाल का संबंधी था। ब्लास्ट फर्नेस विभाग का जो प्रमुख था वह रतनलाल के मूल गाँव बिहार में गया जिले के पिनकाहा का निवासी था। कंपनी के एचआरएम विभाग का जो जेनरल मैनेजर था, वह रतनलाल के दोस्त झारखंड के मुख्य सचिव का दामाद था। सीएम से नजदीकी के कारण कंपनी के एमडी के साथ क्लब में रतनलाल का खाना-पीना अक्सर चलता रहता था। बोदा सेठ समझ गया कि रपचा के काम बदलने से लेकर उसके मरने, मुआवजा देने तथा अनुकंपा बहाली न होने देने में कौन सा ग्रह आड़े आ रहा है। रपचा की चप्पल का निशान शायद उसके गालों के रास्ते कहीं गहरे में दर्ज हो गया था।
रतनलाल और बोदा सेठ काफी अर्से से एक-दूसरे को जानते थे। एक ही पार्टी में होने की वजह से कार्यक्रमों में अक्सर देखा-देखी हो जाती थी। व्यापारी समुदाय के सांगठनिक आयोजनों अथवा वैवाहिक समारोहों में भी उनका राम-सलाम हो जाया करता था। ज्यादा नजदीकी होने का कभी कोई प्रयोजन न रहा, इसलिए न हुए। फिर भी वह इतना आश्वस्त जरूर था कि मिलने जाने पर वह उसकी उपेक्षा नहीं कर पायेगा।
सेठ ने एक मध्यस्त की तरह दोहारी का मामला रखना शुरू कर दिया, कुछ इस अंदाज में कि दोहारी का भी भला हो और रतनलाल की चोट पर भी मरहम लगे। रतनलाल ने सेठ को अपना ही तरफदार समझ लिया, इसलिए कि वह उसी की तरह एक बाहरी आदमी था। यह दीगर बात थी कि वह बाहरी होकर भी एक स्थानीय सीएम का अव्वल पेल्हड़ बन गया था।
रतनलाल को लगा कि सूँड़ में घूसने की कोशिश करनेवाली चींटी अब उसके पैरों तले आनेवाली है। तीन-चार बार की बैठकी के बाद रतनलाल सेठ से खुल गया और नरमी की भंगिमा में आ गया। कहा, “ठीक है, दोहारी को मेरे पास भेज दो। अगर उसका रवैया मुझे ठीक-ठीक लगा तो हम उसे कंपनी में स्थायी नौकरी दिला देंगे और साथ ही मुआवजा भी।”
रवैया ठीक होने का तात्पर्य क्या निकाला जाये, सेठ ने टटोलने की कोशिश की तो यही समझ में आया कि चाहता होगा कि पहले जो कुछ हुआ, उस पर अफसोस जताये, कोर्ट कचहरी और मानवाधिकार आदि में न जाया जाये...।
दोहारी ने काफी गुणा-भाग किया। जाये या न जाये!
अलसा ने उसे असमंजस से निकालने में मदद की, “जाओ, जरूर जाओ। जाने से ही पता चलेगा कि उसका जाल कितना फैला हुआ है और वो कितना जानलेवा है। उससे हिसाब चुकता करना है तो दूर से नहीं, नजदीक जाकर उसी की बंदूक लेकर उसी पर चलाना होगा। चूँकि अपन लोगों के पास न बंदूक है, न गोली है। तुम्हें उससे डरने का अब कोई कारण नहीं है, जितना बिगाड़ना था, वह बिगाड़ चुका।”
रतनलाल के महल के द्वार से उसके ड्राइंग रूम तक जाने में दोहारी को कई दरवाजे और कई मुलाजिमों से गुजरना पड़ा। चिकने, चमकते और महंगी फर्श पर चलते हुए उसे लग रहा था जैसे कोई अपराध कर रही हो। रतन किसी शहंशाह की तरह एक आलीशान सोफा में धँसा हुआ था। दोहारी को सिर से पैर तक वह काफी देर नापता रहा फिर कहने लगा, “देर से ही सही, तुम्हें अपनी औकात समझ में आ गयी, यह अच्छी बात है। तुम्हारे हक में बेहतर होता अगर यह समझ तुममें पहले आ जाती।”
दोहारी को लगा कि उसके जले पर रतनलाल ने तेज मिर्च रख दिया है। उसे फिर रपचा की चप्पल याद आ गयी। बड़ी मुश्किल से उसने सँभाला खुद को। अपने गले से वह इतना ही निकाल सकी, “दुश्मनी अगर अब भी पूरी नहीं हुई हो तो बंदूक निकालिए और मुझे शूट कर दीजिए। ऐसे भी रपचा के मर जाने से आधा तो मैं मर ही गयी हूँ।”
“रपचा ने जो किया था वह भुलाने लायक नहीं है दोहारी। मेरे घर में डकैती कर लेता, मैं माफ कर देता उसे, लेकिन राज्य के सबसे बड़े आदमी सीएम के ऑफिस में सबके सामने मेरे चेहरे पर उसने अपनी सड़ी हुई चप्पल से एक नहीं तीन-तीन बार प्रहार कर दिए। एक इज्जदार आदमी के लिए यह बेइज्जती मौत से भी बढ़कर है। खैर, कहो क्या चाहती हो?”
“मेरे चाहने से क्या होता है, आप कहिए, आप क्या चाहते हैं, मुझे जीना चाहिए या नहीं।”
“मैं चाहता हूँ कि तुम्हें कोर्ट-कचहरी और मानवाधिकार संघ वगैरह में जाने की कोई जरूरत नहीं है। तुम्हें कंपनी में स्थायी नौकरी और मुआवजा चाहिए, मिल जायेगा। कैसे, यह मुझ पर छोड़ दो। लेकिन तुम्हें मेरी कुछ शर्तें माननी होंगी।”
“मैं जानती हूँ कि आप बिना कीमत लिये कुछ भी नहीं देंगे।”
“तुम ठीक जानती हो, मैं एक व्यापारी आदमी हूँ। मुफ्त या घाटे का कोई काम नहीं करता। तुम्हारे कारण उस रोज मुझे ढलाई में चार लाख का घाटा उठाना पड़ा, इसे तुम्हें चुकाना होगा, भले ही तुम तीन या चार साल में चुकाओ। तुम्हें इतने पैसे मिलेंगे कि तुम चुका सकती हो आराम से। तुम कंपनी की स्थायी कर्मचारी बन जाओगी तो साल में तुम्हें घर भत्ता, चिकित्सा भत्ता, यात्रा भत्ता, वार्षिक बोनस आदि तमाम सुविधाओं के साथ लगभग ढाई लाख रुपया पगार भी मिलेगा।”
दोहारी का मन हो रहा था कि आसपास रखा कोई भी एक एंटीक पीस उठाये और उसकी खोपड़ी पर दे मारे। कई जानें गयीं, कई घायल हुए, जिसका भुगतान वह शायद ताउम्र करती रहेगी, फिर भी यह कमीना ढलाई खराब होने का जिम्मेदार उसे बता रहा है। जिनकी जान गयी उनकी कोई क्षति हुई, नहीं मानता और करोड़ों का मालिक होकर भी अपने मामूली नुकसान को चार लाख बताकर मरा जा रहा है।
“तुम्हें अगर यह शर्त मंजूर हो तो आगे कहूँ?” दोहारी की मानसिक अवस्था से बेपरवाह रतनलाल ने अपना बोलना जारी रखा।
दोहारी ने जब्त किया खुद को और आवाज में एक ठंढापन भरकर कहा, “हाँ बताइए, मुझे और क्या-क्या करना होगा।”
“कंपनी के एक बड़े अधिकारी हैं सुंदर चंद्र पाहवा। स्थानीय लड़कियाँ उन्हें बहुत अच्छी लगती हैं। महीने में एक दो बार तुम्हें उनके पास जाना होगा। तुम्हें वे बहुत सारा फायदा दिलाते रहेंगे।”
फनफनाकर पीछे मुड़ गयी दोहारी, “नहीं चाहिए मुझे नौकरी। मैं सीमेंट-गारा ढोकर जी लूँगी।” वह तेजी से बाहर की तरफ चल पड़ी।
रतनलाल सन्न रह गया। रस्सी जल गयी ऐंठन न गयी। उसने उसे रोका, “रुको दोहारी, रुको। गुस्से पर काबू करना सीखो। ठोकर लगने से आदमी चेतता है, तुम तो बिल्कुल चेतना नहीं चाहती।”
दोहारी ठिठक गयी। आँखें लाल हो गयीं उसकी। गुस्से में ही उसने कहा, “हम उतना भी मजबूर और असहाय नहीं हैं, जितना आप समझ रहे हैं। जब किसी के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं तो वह अपनी जान पर खेल जाता है। नरमी बरत कर हमने बहुत देख लिया, अब हम जान पर खेलकर लड़ाई लड़ेंगे। इस खेल में शिकार कौन कौन होगा, वक्त बतायेगा।”
पल भर के लिए रतनलाल को लगा जैसे दोहारी ने उसके सीने पर तीर-धनुष तान दिया हो। सँभलते हुए कहा, “तुम्हारे रास्ते बंद नहीं, खुले हैं दोहारी। तुम्हें जान पर खेलने की कोई जरूरत नहीं है। जाओ, तुम्हारा काम हो जायेगा। बस इतना ध्यान रखना कि मेरे नुकसान की भरपाई हो जाये।”
दोहारी की कंपनी में नियुक्ति हो गयी। सबसे निचला पद ऑफिस हैंड के रूप में। ऑफिस की सफाई करना... चाय-पानी पिलाना... चिट्ठी-पत्री, फाइल-फोल्डर लाना-ले जाना, कुर्सी-टेबुल का झाड़-पोंछ करना... साहब और ऑफिसकर्मियों की हर हाँक पर हाथ बाँधकर खड़ा हो जाना। तन्ख्वाह ठीक-ठाक हो गयी। इतना कि पीड़ित परिवारों में वह आराम से चावल-दाल पहुँचा सके। इस दायित्व को वह हमेशा अव्वल प्राथमिकता सूची में रखा करती थी। माहो मुर्मू को उसने अब अपने ग्रुप का मेठ बना दिया और ढलाई का काम फिर से पटरी पर लाने में मदद देने लगी।
विधाता स्टील प्रबंधन स्थानीय हितों के शुभचिंतक की छवि ओढ़े रखने के लिए समाज कल्याण की बहुत सारी गतिविधियाँ संचालित करता रहता था ताकि कोई स्थानीय विरोध का स्वर न उभरे। वह अपने कार्यक्रमों से बार-बार इसे प्रमाणित करने की पृष्ठभूमि तैयार करता रहता कि वह यहाँ से जो उपार्जन करता है, उसका एक बड़ा हिस्सा इसी क्षेत्र और यहाँ के लोगों के विकास में लगाता है। वह राष्ट्रीय स्तर पर कई ऐसे कार्यक्रमों का खुद को प्रणेता के तौर पर प्रचारित और विज्ञापित किया करता था। इन्हीं में एक शामिल हो गया महिला सशक्तिकरण का अभियान। उसने कंपनी में काम कर रही वैसी महिलाओं को, जो सबसे निचले पद पर थीं और उनकी अशिक्षा वगैरह को देखते हुए उनके ऊपर उठने की कोई गुंजाइश नहीं थी, तरक्की देने की एक योजना बनायी। इसके तहत उन्हें साक्षर बनाया जाने लगा और फिर ओवरहेड क्रेन ऑपरेटर, कोल्स क्रेन ऑपरेटर, लोको इंजन ऑपरेटर, डोजर ऑपरेटर, एक्सकेवेटर अथवा पोकलेन ऑपरेटर, मेकेनिक, फीटर आदि की ट्रेनिंग दी जाने लगी।
कंपनी को इस युक्ति से एक साथ दो फायदा दिखाई पड़ा - एक तो इन्हें तरक्की देने का अपने सिर पर सेहरा भी और दूसरा कम वेतन में उत्पादन से सीधे जुड़े जरूरी काम का निष्पादन भी। चूँकि न्यूनतम वेतनमान में दो या तीन मामूली वार्षिक वेतन वृद्धि का योग ही इनके इतरा उठने के लिए पर्याप्त था। इस युक्ति की जरूरत इसलिए भी महसूस की गयी कि ज्यादातर अनुकंपा के आधार पर बहाल इन महिलाओं के काम अप्रासंगिक हो गये। कंप्यूटर के आ जाने से फाइल-फोल्डर और चिट्ठी-पत्री इधर-उधर करने की जरूरत खत्म हो गयी। बाकी जो काम साफ-सफाई और चाय-पानी का रह गया, उनका निपटान ठेकेदारों को सौंपकर बहुत सस्ते में किया जाने लगा।
कंपनी के कई दर्जन अकुशल महिलाओं को लगा कि उसकी कायापलट हो रही है। इनमें ज्यादातर स्थानीय महिलायें ही थीं - सुरिया हेंब्रम, सलमा मरांडी, चैती हाँसदा, हरजा सोरेन, बुंदी एक्का, शकुंतला कुजूर... बहालेन लकड़ा, कुंती टेटे। उन्हें अच्छा लगा कि झाड़ू-पोछा लगाने, चाय-पानी पिलाने और जूठा कप-प्लेट धोने जैसे दाई-महरीवाले काम से मुक्ति मिल जायेगी और वेतन में भी वृद्धि हो जायेगी।
अधिकांश महिलाओं ने पढ़ना-लिखना सीख लिया और प्रशिक्षित होने में भी सफलता प्राप्त कर लीं। उन्हें अब पुरुषोंवाला पैंट-शर्ट पहनना अनिवार्य कर दिया गया। जो हमेशा साड़ी-ब्लाउज और सलवार-कुर्ता पहनती रहीं वे अब नये लिबास में एक विदूषकीय लुक देती सी लगने लगीं। फिर भी वे खुश थीं, अभिप्रेरित महसूस कर रही थीं और उन्हें यह बदलाव अच्छा लग रहा था।
इन महिलाओं को एक नयी उपाधि दी गयी - ओजस्विनी। नयी-नयी जगहों पर वे पदस्थापित कर दी गयीं। किसी की ड्यूटी लोको क्रेन में, किसी की ओवरहेड क्रेन में, कोई पोकलेन चलाने में, कोई अर्थ मूवर चलाने में, कोई ट्रक चलाने में, कोई फोरक्लिप्स चलाने में, कोई फीटर के तौर पर, कोई मेकेनिक के तौर पर, कोई वेल्डर के तौर पर।
इन ओजस्विनियों में दोहारी बेसरा भी शामिल थीं। उसने हैवी व्हेकिल ड्राइविंग सीखी, लाइसेंस बनवाया और फर्राटे से पोकलेन और ट्रक आदि चलाने लगी। यहाँ भी वह सबसे आगे थी और कहीं भी जाना हो उसका नाम पहले आता था।
एक दिन दुकान में सौदा तौलते हुए अलसा ने कहा, “मर्दाना ड्रेस में एकदम मर्द लग रही हो। देखना, जरा अपनी औरत को बचाकर रखना।”
बोदा सेठ ने दोहारी पर एक सरसरी नजर डालकर कहा, “क्या दिमाग लगाया है विधातावालों ने। देखना, अब कंपनी इसे कितना भुनायेगी और पूरी दुनिया को अपना कायल बना लेगी कि समाज कल्याण और कारपोरेट सामाजिक जवाबदेही के निर्वाह में उससे आगे कोई नहीं हो सकता। इससे उसका प्रचार भी होगा, जय-जयकार भी और बाजार में उसकी साख को भी एक नयी चमक मिल जायेगी।”
सच ही कहा सेठ ने, आखिर वह भी तो बाजार का ही एक खिलाड़ी था। इन ओजस्विनियों को लेकर कंपनी ने अपनी पीठ थपथपानी शुरू कर दी। कोई विजिटर आता, ओजस्विनियों से उनकी भेंट करवायी जाती - “देखिए इनके रूपांतरण को। कभी ये निरक्षर, अबोध और उपेक्षित श्रेणी में गिनी जाती थीं। आज कंपनी के सहयोग से परिश्रम करके एक समर्थ पुरुष की तरह खुद को सक्षम बना लिया और उनकी बराबरी में आकर एक कुशल (स्किल्ड) कर्मचारी के तौर पर अपनी सेवा दे रही हैं।”
शहर के होर्डिंगों में इनकी तस्वीरों के साथ यह इबारत - “विधाता स्टील द्वारा महिला सच्चक्तिकरण की दिशा में एक बड़ा कदम।” टेलीविजन के विभिन्न चैनलों और अखबारों में भी कंपनी के विज्ञापनों में प्रमुखता से यही संदेश। समय लेकर राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से इनकी मुलाकात कराना और वाहवाही लूटना। श्रमदेवी पुरस्कारों के लिए इनकी नामजदगी। कुछेक को यह पुरस्कार हासिल। गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस के मौकों पर कभी राँची, कभी दिल्ली, कभी भुवनेश्वर और कभी रायपुर की झाँकियों में खुले ट्रक पर खड़ा कर इनका प्रदर्शन। विभिन्न शहरों के व्यापार मेलों में लगायी जानेवाली प्रदर्शनियों में क्रेन, ट्रैक्टर, ट्रेलर, बुलडोजर आदि चलाती हुई इन ओजस्विनियों की बड़ी-बड़ी तस्वीरों का समावेश। कंपनी के संस्थापक दिवस पर इन्हें पोकलेन, ट्रक और कोल्स क्रेन आदि चलाते हुए दिखाया जाना और तालियों की गड़गड़ाहट से इनका उत्साहवर्धन करना।
छत्तीसगढ़ और ओडिसा में भी कंपनी नये स्टील प्लांट लगाने की तैयारी में जुटी थी। अतः वहाँ भी जमीन देनेवालों को प्रभावित करने के लिए ओजस्विनियों को भेजकर एक उदाहरण की तरह पेश किया जाने लगा कि यह है नमूना कंपनी की उदारता का... सामाजिक उत्तरदायित्व वहन करने का... वंचित तबकों को ऊपर उठाने की प्रतिबद्धता का। तात्पर्य यह कि जिनकी जमीन अधिग्रहीत होगी उनका भला ही भला होगा, क्योंकि उद्योग लगाने के पीछे कंपनी का मकसद स्थानीय लोगों के जीवन-स्तर को बेहतर बनाना भी है।
दोहारी को अच्छी तरह समझ में आने लगा कि कंपनी यह श्रेय इस तरह लूट रही है कि जो मिट्टी थी उसे उसने सोना बना दिया। मतलब जो किसी लायक नहीं थी उसे उसने बहुत लायक बना दिया। यही समझाने के लिए इन्हें मदारी के इशारे से संचालित होनेवाले करतबबाज की तरह पेश किया जाने लगा। कथित बड़े कुल-खानदान और आगे बढ़े घरों की उन औरतों की नुमाइश क्यों नहीं होती, जो पढ़-लिखकर बड़े पदों पर बहाल हो गयी हैं? इसलिए कि वे जन्म से ही सोना हैं और उन्हें सोना ही बना रहना है। कंपनी में ही तो दर्जनों औरतें बड़े पदों पर हैं, उनका प्रदर्शन क्यों नहीं किया जाता। उसका मन एकदम भन्ना गया। वह अब नहीं जायेगी कहीं भी।
कंपनी में दोहारी का अब लगभग दो साल पूरा होने जा रहा था। उसे वार्षिक बोनस के रूप में एक बड़ी रकम मिली। उसने सेठ से थोक मात्रा में राशन की खरीद कर ली, ताकि साल भर उसकी लाचार साथियों को दिक्कत न आये।
एक दिन उसे मानव संसाधन विभाग के जनरल मैनेजर कार्यालय में बुलाया गया। किस बड़े पद पर कौन अधिकारी है, यह जानने में उसकी कोई रुचि नहीं थी। जब वह जीएम के आलीशान कक्ष में पहुँची तो वहाँ रतनलाल बजाज भी बैठा था। उसे अचंभा हुआ। समझ गयी कि इसी दुष्ट ने उसे बुलवाया है। जीएम ने उसे बैठने का इशारा किया। उसे बड़ा संकोच होने लगा, फिर भी बैठ गयी।
जीएम ने उसे संबोधित किया, “तुम्हें इसलिए बुलाया है दोहारी कि मेरे साथ ओजस्विनी की एक पाँच सदस्यीय टीम को अमेरिका के वाशिंगटन में हो रही एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में भाग लेने के लिए जाना है। इस टीम में हमने तुम्हें भी रखा है।” जीएम ने रुककर उसके चेहरे को पढ़ने की कोशिश की। वह बिल्कुल भावहीन थी।
उसने आगे कहा, “तुम्हें इस टूर से बहुत फायदा होगा। टीए-डीए में हरेक को कम से कम एक से डेढ़ लाख की बचत होगी। रतनलाल कह रहे हैं कि उन्हें एक बड़ी रकम तुम्हें चुकानी है। तुम आराम से इन्हें चुका सकोगी।”
दोहारी ने काट खानेवाली नजरों से रतनलाल को देखा। रतनलाल जरा असहज हो उठा। कहने लगा, “इनके बारे में मैंने कहा था न दोहारी कि ये बहुत अच्छे आदमी हैं। इनका नाम तो जान ही गयी होगी तुम। यही हैं सुंदर चंद्र पाहवा। जाओ इनके साथ अमेरिका... इतना बड़ा मौका मिल रहा है तुम्हें। हवाई जहाज से जाओगी... तुम्हारे तो कुल-खानदान का नाम तर जायेगा। पाहवा साहब तुम्हारा पूरा खयाल रखेंगे। तुम घूम भी आओगी और हमारे नुकसान की भी कुछ भरपाई हो जायेगी।”
तमतमा कर उठ गयी दोहारी, “मुझे कहीं नहीं जाना है। मैं अपने माटी-पानी में ही खुश हूँ। मुझे नुमाइश की चीज बनना अब गवारा नहीं है।”
पाहवा के चेहरे का रंग विवर्ण हो गया। रतनलाल ने जब उसके इनकार की सूचना दी थी तभी से वह उसका मानमर्दन करने का संकल्प लिया हुआ था - मामूली-सी चवन्नी छोकरी और गज भर की हैकड़ी। देखते हैं कंपनी में रहकर कब तक चंगुल में नहीं फँसती। उसे लगा था कि यह जाल तो अचूक है... इतने बड़े आकर्षण को ठुकराना किसी के लिए भी संभव नहीं। मगर इसने तो इसे भी नकार दिया।
पाहवा अपने पावर में आ गया, “कंपनी का फैसला है दोहारी। तुम्हें कंपनी ने नौकरी दी, ओजस्विनी बनाया। तुम उसके फैसले को नहीं मानोगी तो इसका अंजाम बहुत बुरा होगा। तुम्हें सस्पेंड होना पड़ सकता है। तुम्हारी नौकरी भी जा सकती है। तुम आखिर खुद को समझती क्या हो? किस चीज का घमंड है तुम्हें...। रतनलाल जी के कारण तुम इस कंपनी में हो और इनके पैसे भी देने की तुम्हारी नीयत नहीं है?”
रतनलाल ने भी अपनी फुफकार छोड़ दी, “इसे मालूम नहीं है पाहवा साहब कि मैं क्या-क्या कर सकता हूँ। इसका यही रवैया रहा तो सीधे इसके बैंक खाते से पैसे निकाल लूँगा। जितना मुरौव्वत कर रहा हूँ उतना ही यह सिर चढ़ती जा रही है।”
दोहारी दरवाजे की तरफ बढ़ गयी, “इस समय मेरा सिर चक्कर दे रहा साहब और कै करने का मन हो रहा है, मुझ जाने दीजिए।”
“ठीक है तुम जाओ। लेकिन यह समझ लो कि तुम्हें हर हाल में टीम के साथ जाना होगा, नहीं तो तुम सस्पेंड होने के लिए तैयार हो जाना।”
दोहारी रतनलाल और पाहवा की धमकियों को अपने दिमाग में दर्ज कर कमरे से बाहर निकल गयी। उसे आज फिर रपचा की चप्पल की बहुत याद आयी। अपनी जमीन पर जब उसकी गंदी मुराद पूरी नहीं हुई तो विदेशी जमीन पर ले जाकर शिकार करने की ठान ली कुत्ते ने ताकि वहाँ वह अपने गले से आवाज तक निकालने के लायक न रहे। इतना शातिर महाजाल! सिर्फ एक जिद कि कुचल देना है उस स्वाभिमान को जिसे एक मामूली आदिवासी लड़की दिखा रही है। अन्यथा यह सच है कि वह कोई हूर नहीं है। उससे बहुत अच्छी-अच्छी लड़कियाँ उसे सहजता से उपलब्ध हो सकती हैं... होती भी होंगी। यह सब रतनलाल का ही रचा-बुना जाल है। वह उसकी अस्मत को रौंदकर और उससे पैसे लेकर उसे हराना चाहता है, उसे नीचा दिखाना चाहता है, वरना उसके लिए दो चार लाख के क्या मायने हैं।
दोहारी के माथे में जैसे एक तूफान-सा खड़ा हो गया। वह सेठ की दुकान पर पहुँची तो वहाँ माहो मुर्मू अपनी पूरी टोली के साथ मौजूद थी। ढलाई का एक बड़ा काम मिला था जिसे वे पूरा करके अभी-अभी लौटे थे। दोहारी को थोड़ी तसल्ली मिली कि चलो टीम फिर से खड़ी हो गयी। उसने कहा, “कंपनी में मेरा मन नहीं लगता। मैं फिर से अपने इसी काम में वापस होना चाहती हूँ।”
अलसा, सेठ और माहो सभी हैरानी से दोहारी के मुँह देखने लगे।
दोहारी ने किसी को बिना कुछ कहने का अवसर दिये फिर कहा, “आज सबके लिए मेरी तरफ से पार्टी होगी। हम एक साथ हड़िया पियेंगे और नाचेंगे... गायेंगे। हमारा न्योता अलसा और सेठ जी को भी है।”
सेठ और अलसा के साथ दोहारी ने इस बारे में लंबी बातचीत की। पूरा माजरा सुनकर सेठ ने उसे इत्मीनान करते हुए कहा, “सिर्फ भभकी दे रहा है पाहवा। यह कोई कारण नहीं है कि इसके लिए किसी को सस्पेंड कर दिया जाये। तुम आराम से अपना काम करते रहो और इन्हें भौंकने दो।”
अलसा ने असहमति दिखायी, “निजी कंपनियों का नियम-कानून उनकी अपनी जेब में होता है। मेरा तो विचार है कि दोहारी हो आये अमेरिका से। वहाँ इसके साथ कई और लड़कियाँ होंगी। किसी के मुँह पर इनकार का थप्पड़ मारने के लिए धरती चाहे अपने देश की हो या कि विदेश की, कोई फर्क नहीं पड़ता।”
दोहारी ने उसे खारिज करते हुए कहा, “सवाल सस्पेंड होने का या थप्पड़ मारने का नहीं है। सवाल रतनलाल और पाहवा की मंशा का है कि वे आखिर क्यों पड़े हैं मेरे पीछे। खैर जो होगा, देखा जायेगा। न मैं इनसे डरती हूँ और न डरूँगी। इस बीच मैं अगर कुछ कर जाऊँ तो मदद के लिए आपलोग तैयार रहना। वक्त क्या करवायेगा, नहीं मालूम, लेकिन आप दोनों को और अपनी पूरी ढलाई टीम को अपने साथ देखती हूँ तो मेरी हिम्मत बढ़ जाती है।”
जिनका चयन हुआ था वे सभी ओजस्विनियाँ बहुत उत्साहित थीं और जाने की जोर-शोर से तैयारी कर रही थीं। दोहारी ने उन्हें दो टूक बता दिया कि उसे नहीं जाना है नुमाइश के लिए कहीं भी, चाहे वह अमेरिका ही क्यों न हो। वे उसे एक दुर्लभ मौका बताकर समझाने की कोशिश कर रही थीं और इसे किस्मत की एक बहुत बड़ी भेंट बता रही थीं। लेकिन दोहारी पर इसका कोई असर नहीं।
दोहारी को एक दिन बुलडोजर लेकर एक बस्ती उजाड़ने की ड्यूटी दी गयी। बस्ती कंपनी की लीज भूमि पर अवैध रूप से बस गयी थी, जिसमें सारे गरीब-गुरबा लोग थे। रिक्शा चलानेवाले, रेहड़ी लगानेवाले, कुली-कबाड़ी का काम करनेवाले, सब्जी व फल बेचनेवाले, गली-गली घूमकर जूता-छाता बनानेवाले। यह जमीन शहर के अंतिम छोर पर नदी के किनारे थी, जहाँ से कंपनी शहर के बाहर-बाहर एक सड़क निकाल रही थी ताकि उसके उत्पाद ढोनेवाले ट्रक और ट्रॉली-ट्रेलर को शहर की भीड़-भाड़ में न घुसना पड़े। बस्ती में विरोध की कमान ज्यादातर महिलाओं ने सँभाल रखी थी। इसलिए उनका सामना करने के लिए महिला चालित बुलडोजर भेजने की मंत्रणा की कंपनी और प्रशासन के अधिकारियों ने। पहले तो दोहारी इस नृशंस और बर्बर कार्रवाई के लिए तैयार नहीं हुई। लेकिन उसके ना करने पर फिर उसे करारी चेतावनियों का सामना करना पड़ा। इस बार तो ऐसा लगा कि निश्चय ही वह बच नहीं पायेगी। अंततः उसने मन ही मन कुछ तय करके जाने की हामी भर दी। उसके बेड़े में एक महिला चालित और एक पुरुष चालित दो बुलडोजर और भी शामिल कर दिये गये।
मौके पर पुलिस बल की भारी तैनाती मौजूद थी। कंपनी और पुलिस प्रशासन के कुछ अधिकारी और कंपनी के खैरख्वाह स्थानीय चापलूस नेता दूर से ही कार्रवाई का जायजा लेने के लिए अपनी अपनी कारों और जीपों में टिके हुए थे, ताकि वे विरोध में चलनेवाले रोड़े-पत्थर से बचे रहें। सारे आसन्न ध्वंस के सूत्रधार पाहवा और रतनलाल एक लंबी चमकती बुलेटप्रुफ कार में दुबके थे। ध्वंस के अन्य सरकारी-गैरसरकारी मोहरों से कार्रवाई की प्रगति या अवरोध की सूचना की आवाजाही के लिए वे अपने-अपने हाईटेक मोबाइल के ऑडियो प्लग कान में घुसेढ़े हुए थे। बुलडोजर चलाती हुई दोहारी वहाँ से बस्ती की तरफ बढ़ी तो दोनों ने उसे घूरकर देखा, जैसे चेता रहे हों कि आज तुम पर हमारी पैनी नजर टिकी रहेगी... जरा भी कोताही हुई तो बख्शी नहीं जाओगी। दोहारी ने उनके मंसूबे का जवाब अपने चेहरे पर एक हिकारत का भाव लाकर दे दिया।
दोहारी के पीछे आ रहे दो पोकलेन अभी दूर थे। उसने देखा कि सामने लगभग सौ गज आगे रास्ते पर धड़ाधड़ आकर पच्चीस-तीस महिलायें लेट गयीं। दोहारी ने ब्रेक लगा दिया। पीछे से पाहवा की आवाज आने लगी, “दोहारी तुम्हें रुकना नहीं है... आगे बढ़ो... किसी की भी परवाह मत करो... आज किसी भी कीमत पर कार्रवाई को आखिरी अंजाम तक पहुँचाना है।”
रतनलाल ने भी सुर में सुर मिलाकर उसे ललकारने की कोशिश की, “दोहारी, बढ़ाओ गाड़ी आगे। आज अगर तुम कहना टालोगी तो प्रबंधन और प्रशासन तुम्हारा जीना हराम कर देंगे।”
पुलिस की टुकड़ी रास्ते से अड़ंगियों (अड़ंगा डालनेवालों) को हटाने के लिए दौड़ पड़ी। दोहारी ने लीवर को बैक गियर में डालकर जोर से एक्सेलेटर पर पैर जमा दिया और स्टीयरिंग की दिशा पाहवा की कार की तरफ कर लिया। इसके पहले कि कोई कुछ समझ पाता बुलडोजर का पिछला हिस्सा कार से जा टकराया। कार अल्टी-पल्टी होते हुए बीस फीट नीचे बह रही नदी में चारों खाने चित्त हो गयी।
एक जोर की आवाज हुई, जैसे बस्ती की गर्दन पर कसा शिकंजा टूट गया। हाहाकार और गुहार मचा रहे बस्तीवालों की आँखों में एक खुशी कौंध गयी।