गोदना के फूल / उर्मिला शुक्ल
आज की ये पंचायत मामूली नहीं है। इस गांव की ही नहीं समूचे देश की ऐतिहासिक पंचायत है ये। यह वही गांव है जहां ऐसा मामला कभी उठता ही नहीं था कि पंचायत की नौबत आती। छोटे छोटे मसले जरूर थे, जिसे गांव के बड़े बूढ़े 'भात' से निपटा लेते थे। इसीलिए पंचायत की बात पर सारे गांव का ही एक स्वर था-हमें पंचायत की क्या जरूरत, हमें नहीं चाहिए पंचायत। मगर लोगों के चाहने न चाहने से क्या होता है। पंचायत बनी और राजधानी से हजारों मील दूर वनवासी गांव मुख्य धारा से कुछ ऐसा जुड़ा कि सब कुछ बदल गया। आज तो उसे हिसाब देना है अपनी जि़न्दगी का। उसे बताना है कि वह कौन है? उसका धर्म और उसकी जाति क्या है? हैरान है वह! उसने आज से पहले कभी सोचा ही नहीं था कि ये बातें तो कभी उभरी ही नहीं कि वह कौन है? हिन्दू या मुसलमान?...
उसके डेरे में हिंदू रीति-रिवाज भी माने जाते थे। इसीलिए वह हिन्दू है और करीम का साथ होने के कारण वह मुसलमान भी कही जाती है। मगर वह खुद क्या है? केंवरा झांकती है अपने भीतर और अतीत की सीढिय़ां उतरती चली जाती हैं...
गांव में हर साल आता था डेरा, देवारों का डेरा। वे घुमक्कड़ थे, उनका स्थाई निवास नहीं था। जिस गांव में डेरा डालते वही उनका अपना हो जाता। रातों रात उनकी बस्ती बस जाती और पलभर में डेरा सिमट भी जाता था और वे चल देते थे। डेरे के पुरुष बंदर, भालू नचाते थे। तरह तरह के करतब से मन मोहकर भालू के बाल की ताबीज भी बनाते थे।
उनकी औरतें गोदना गोदती और सिल टांका करती थीं। गांव की संस्कृति में ये दोनों ही चीजें रची बसी थी। सिल रसोई का आधार थी तो गोदना जीवन का। डेरे वाले देवार-देवारिन के नाम से जाने जाते थे।
ऐसे ही किसी डेरे के साथ आई थी वह। सांवली सलोनी केंवरा (केवड़ा) और केवड़ा सी महकने लगी थी सारे गांव में। अपने स्वर के जादू के बीच वह गोदना के फूल काढ़ती चली जाती थी। उसके होठों से फिसलता गीत -
गोदना गोदवा ले मोर रानी,
ये गोदना तो पिया के निशानी।
मन में पिरीत अऊ,
आंखी में पानी।
गोदना गोदवा ले...
ये गोदना तो निसैनी सुरग के,
सुफल हो जाय जनम जिन्गानी
गीत के बीच उठती सिसकियां और आंखों से बहते आंसुओं के बीच ललनाओं के हाथ फूलों से भर जाते थे। उस पीड़ा में भी एक मिठास थी, प्रेम की मिठास। फिर पुरौनी गोदना भी जरूरी था। केंवरा बड़े मनुहार से कहा करती-एक टिपका मोर डहर ले। ऊं...पईसा-वईसा झन देवे। सैंया के चुम्मा मोर डहर ले बिन पईसा के। कहते हुए एक शरारत उसकी आंखों में खेलने लगती थी। और लजाती, सकुचाती ललनाएं अपना चिबुक सामने कर देती थीं, जिस पर केंवरा उकेर देती थी एक नीला तिल।
अबकी बार यह डेरा कुछ ज्यादा ही ठहर गया था। कारण देवपुर की मड़ई थी। कुछ ही दिन बचे थे इस मड़ई में। गांव व शहर दोनों में समान रूप से लोकप्रिय यह मड़ई अपने आपमें अनुपम थी। जहां शहरवासी इस मड़ई में वनवासी सौन्दर्य में डूबते उतराते वहीं ग्रामवासी अपनी तमाम जरूरतों की पूर्ति भी करते थे। इसलिए यह मड़ई गांवों से लेकर राजधानी तक लोकप्रिय हो गई थी। चूड़ी बिंदी से लेकर गाय-बैल, तीतर-बटेर तक का सौदा होता था मड़ई में। प्रेमिका को कंघी देना ही उनके प्रेम का इजहार था। इसलिए मड़ई तरह तरह की रंग बिरंगी कंघियों से भरी रहती थी। डेरे को भी इस मड़ई ने बांध लिया था-गांव गांव भटकने से तो मड़ई में तमाशा दिखाना ज्यादा अच्छा था।
यहीं इसी मड़ई में तो करीम मिला था। गोदना गोदती केंवरा और चूडिय़ां पहनाते करीम की आंखें मिली थीं फिर अक्सर मिलने लगी थी। करीम को देखते ही केंवरा की शरारती आंखें चमक उठती-तहुं गोदा ले न जी गोदना। कहती केंवरा अकारण खिलखिलाकर हंस देती। लजाना, झिझकना कहां जानती थी वह और वह कहां जानती थी कि जिस गोदना की बात वह इतनी सहजता से कह रही है, वही इंसान को इंसान नहीं हिंदू या मुसलमान बना देता है।
तब करीम भी ऐसा नहीं था। तभी तो उनके मन के तार जुड़ते चले गए थे। दूरियां मिट गई थीं और उस दिन दीन ईमान को ठेलकर करीम ने अपनी बाहें फैला दी थीं-ले न मेरे हाथ में भी गोदना गोद दे आज-कहते करीम की आंखों में प्रेम का सागर हिलोरें ले रहा था और उस सागर में डूबती केंवरा ने उकेरे थे फूल हाथ पर सुई से और हृदय पर अपनी सपनीली आंखों से न जाने कितने फूल। मड़ई का आखिरी दिन था और डेरे का भी। मगर केंवरा के सामने एक नहीं दो मंजिलें थीं। एक अनजानी और दूसरी जानी पहचानी। एक गतिशील तो दूसरी खूबसूरत मुकाम पर ठहरी हुई। फैसला उसे ही करना था। आज उसे चुननी थी अपनी मंजिल और फिर उसने अपनी मंजिल चुन ली थी।
उस शाम लौटने वालों के झुंड में केंवरा नहीं थी। सबकी अपनी थी। इसीलिए डेरे में अनेक आंखें नम होकर लौट रही थीं। फिर वहीं पीपल की छांव में बन गया था उनका घर। बिना शर्त, बिना बंधन बंध गए थे वे। फिर तो काया और छाया को चरितार्थ करती उनकी जोड़ी प्रेम की मिसाल ही बन गई थी। वह अब गोदना गोदने के साथ ही चूडिय़ां भी पहचानने लगी थी। अब दो संस्कृतियां साथ साथ बह रही थीं।
फिर न जाने कहां से करीम के रिश्ते नाते उग आए थे। न जाने कितने रिश्तेदार घेरने लगे थे उसे और रिश्तों में जकड़ता करीम भी बदलने लगा था। स्नेहिल बंधन के बाद निकाह क्यों जरूरी हो उठा, वह भी आज इतने वर्षों के बाद, अचानक? केंवरा तब समझ नहीं पाई थी। उसे यह भी समझ में नहीं आया था कि करीम ने चूड़ी पहनाने का पुश्तैनी कला क्यों छोड़ दिया। और एक दिन केंवरा ने देखा-करीम के हाथ पर फफोले उभर आए हैं। बड़े बड़े स्याह फफोले। पूछने पर बड़ा रुखा-सा जवाब मिला था-नाल गरम करते समय कलाई से छू गई। उस दिन वह समझ नहीं पाई कि नाल ने उसकी निशानी को ही क्यों छुआ। जब समझा तो लगा कि वह फफोला करीम के हाथ पर नहीं उसके हृदय पर उभरा है। अब उसे गोदना गोदने की इजाजत नहीं थी। लोगों के घर जाने की सख्त मनाही थी उसे। गांव से गोदने का बुलावा आता तो वह मन मारकर टाल जाती कि उसका जी ठीक नहीं है। मरती हुई कला के साथ मर रही थी वह। गोदना के वे फूल अब मुरझा गए थे। मर गया था वह गीत, बुझ गई थी वह मुस्कान जो उसकी पहचान हुआ करती थी और छीज गई थी केंवरा। उस दिन तो जैसे बावली सी हो गई थी। गौटिया की बेटी ने बुलाया था उसे। गौने से लौटी थी वह। किसलय से कोमल प्रेम से भरी भरी। केंवरा की प्यारी सखी थी वह। केंवरा ने कहा था उससे जब तुम्हार बिहाव हो ही, तब मैं तुम्हार हाथ में तोता-मइना गोदहूं। पुराने दिन जैसे लौट से आए थे।
टोकरी में सुई, भेलवा और जड़ी-बूटी सहेजता मन से आज मड़ई की ओर लौट रहा था कि एकाएक सहेजा हुआ सब बिखर गया था। करीम की ठोकर से टोकरी दूर छिटक गई थी।
आज भर जाने दे। फेर कभू नई जॉब। तोर किरिया। कहती केंवरा के स्वर में मनुहार था और थी प्रेम की सौगंध।
मगर करीम के कानों में वह शक्ति कहां थी कि वह उन मनुहार भरे शब्दों को सुन पाता। साली काफिरों के घर जाएगी खसम करने। जी भर गया है न मुझसे तो करीम को खा रही है कि जल्दी मर जाऊं मैं। और तू आजाद घूमे। गली गली गोदना गोदने, गाना गाने के लिए, वेश्या कहीं की। कथन के साथ ही इतनी जोरदार ठोकर पड़ी कि केंवरा बहुत दूर तक छिटक गई थी। साली तू समझती क्या है? तेरी औकात क्या है? तू तो इस्तिंजा का ढेला है ढेला। इस्ंितजा किया और फेंक दिया। समझ गई न तू। और शब्दों में भरी यह हिकारत केंवरा को मथ गई थी। पुरुष का यह रूप! उफ! भाषा से अनजान रहकर भी वह अर्थ से अनजान तो नहीं थी।
आज महसूसा था उसने, आज जाना था अपना महत्व। करीम तो जा चुका था, मगर उसके शब्द ठहर गए थे। बार बार पैरों को जकड़ा। मगर वह रुकी नहीं। पीछे देखना अब संभव नहीं था।
सखी के हाथ में खूब मन लगाकर बनाई थी जोड़ी, तोता मैना की जोड़ी और नीचे लिखा था उनका नाम मोहन राधा। आज गोदना गोदती आंखों के सामने बार बार उभर रही थी वह कलाई जो कभी गोदना के फूल उकेरे थे। सखी प्रसन्न थी, प्रसन्न थे गौटिया भी। वे पिता जो थे। उन्होंने दस का नोट बढ़ाते हुए कहा था-यह तुम्हारी मेहनत की कीमत है, प्रेम की नहीं। नईं बाबू जी पइसा देके हमार अपमान झन करो। पइसा नहीं आज तो तुम्हार आसरा चाही। कहती केंवरा के आंसुओं ने उसकी व्यथा कह डाली थी। गौटिया ने सोचा विचारा और अपनी बखरी के पीछे की कोठरी उसे दे दी।
दिन बीतते रहे, मगर करीम नहीं आया। क्यों आए वह, दोहरी शक्ति थी उसके पास। अब गांव बदलने लगा था इधर गौटिया भी बदलने लगे थे। उनके घर पर अब रोज रोज लोग जुटने लगे थे। रंग बिरंगे गमछाधारी लोग। कभी कभी उसकी कोठरी की ओर इशारा भी करते। ठहाके लगाते और चले जाते। केंवरा जानना चाहती थी वह सब, मगर कौन बताता?
फिर एक दिन पंचायत ने बुलावा भेजा था। करीम ने दावा किया था उस पर कि वह उसकी पत्नी है, इस नाते से उसे किसी और के घर नहीं उसके घर में रहना चाहिए। वह समझ में नहीं पाई कि जिसके इंतजार में वह आज भी पलकें बिछाए है, वह उसे घर ले जाने के बजाय पंचायत में क्यों बुलवा रहा है। अपनी नासमझी में वह गौटिया के पास दौड़ी गई थी-बाबू देखन ये कागद भला येकर का जरूरत है। मैं तो आज तक ओकरे नाव से चूड़ी पहने है। गला रुंध गया था। उसे विश्वास था कि गौटिया करीम को बुलाकर फटकार लगाएंगे और करीम उसे ले जाएगा। मगर गौटिया ने उस कागज को अपने पास रख लिया था। जैसे वह कोई अमूल्य निधि हो। पंचायत अब बार बार बैठने लगी थी। हर बार उसे अहसास दिलाता कि वह औरत है। औरत! जिसका अपना कोई वजूद ही नहीं है, जिसकी छाया उस पर पड़ जाती है वह उसी जाति, उसी धर्म में शामिल हो जाती है अपने आप। करीम के पक्ष ने पुख्ता प्रमाण दिया कि केंवरा हिंदू तो थी, मगर अब वह हिन्दू नहीं है। उसे मुसलमान बनाकर ही उससे निकाह किया गया था। इसलिए वह अब मुसलमान है। इस बात के गवाह थे कि मौलवी जिन्होंने केंवरा को करीमन बनाया था।
पंचायत में ऐसी ही लंबी लंबी बहस होती थी। वह दोनों पक्षों की बात सुनती, प्रश्न पूछती मगर कुछ नहीं पूछा गया उससे, नहीं पूछा गया कि वह अपने को क्या मानती है। फैसला तो उसके जीवन का था फिर भी औरों से पूछा जाता रहा, उससे नहीं। उसके डेरे में तो ऐसा नहीं था। वहां तो औरतें पंचायत का फैसला दिया करती थीं। वह चाहती थी कि इस पंचायत की महिला पंच उसकी पीड़ा को समझकर उसकी बात कहें। मगर वे तो कुछ बोलती ही नहीं थी। बस हर बात पर मुंडी हिला देती थीं। केंवरा को उन पर क्रोध आता-क्या सिर्फ मुंडी हिलाने के लिए ही उसने उन्हें अपना वोट दिया था।
डेरे के समाज और इस समाज में बहुत अंतर था। उस अंतर को केंवरा समझने लगी थी। कोई बात नहीं, लड़ेगी वह अकेली ही। वैसे भी इस दुनिया में कौन लड़ता है किसी और की लड़ाई। न जाने कितनी जोड़ी आंखें उस पगडंडी पर टिकी थीं जिससे होकर आना था उसे।
और वह आ रही थी। सर से पैर तक चादर में लिपटी एक काया। पंचायत के बीच आकर ठहर गई थी। करीम के समर्थक गुट ने चादर देखी और खुश होकर टोहका लिया था। दूसरा वर्ग भी निराश नहीं था। चादर तो बाहरी आवरण था। मन जब चाहा ओढ़ लिया और जब चाहा उतार फेंका। बीच पंचायत में खड़ी केंवरा भी देख रही थी उन्हें। उनकी चमकती आंखों को। अब वह अनजान नहीं थी उस चमक से। वह अब केंवरा से रु-ब-रु थी—
तुम्हारा नाम? एक पंच ने पूछा था।
तुम्हारी जाति? तुम्हारा धर्म! क्या है? पंचायत जानना चाहती है कि केंवरा के मन में अंधड़ उठा, मगर वह खामोश ही रही।
भीड़ से कुछ शब्द उठे थे—हिन्दु-मुसलमान देवार। शब्द उछले और फिर खामोश हो गए। शायद केवरा की आंखों के ताप से डर गए थे।
बोलो केंवरा पंचायत तुमसे पूछ रही है। ये गौटिया थे। इन नागों के नागराज थे वे।
पंचायत केंवरा बाई का बयान चाहती थी ताकि दूध का दूध और पानी का पानी अलग किया जा सके। मगर केंवरा बाई की खामोशी ने पंचायत के इस काम में बाधा डाली है। केंवरा के मौखिक बयान के अलावा उसके पास एक बयान और भी है। उसके शरीर पर गुदा गुदना, जो यह प्रमाणित करता है कि केंवरा बाई हिन्दू है। पंचायत जानती है कि गोदना हिन्दू धर्म की निशानी है। वैसे हमारे देवार भाई हिन्दू ही हैं। इसलिए यह पंचायत केंवरा को हिन्दू मानते हुए करीम का दावा खारिज करती है। पंचायत अपने प्रमाण के तौर पर केंवरा के शरीर पर गुदे गोदने को सब पंचों के सामने बतौर गवाही रख रही है।
एक सदस्य ने सबसे आगे बढ़कर केंवरा की चादर खींच ली थी। मगर यह क्या?
पंचायत आवाक थी। सारे शरीर पर फफोले ही फफोले। केंवरा अब भी खामोश थी मगर फफोले बोल रहे थे। उस क्षण करीम का पौरुष और ऊंचा हो गया था।
तूने मेरी लाज रख ली, गर्व से भरा भरा स्वर उभरा था। उसे लगा था जैसे केंवरा ने गोदना के चिन्हों को उसके लिए ही मिटा दिया था। अगर ये न होती तो आज वह बिखर जाता, समाज को क्या मुंह दिखाता। कैसे सह पाता यह सब। कउन घर? केंवरा के इन शब्दों ने करीम को हिला दिया था। आज केंवरा की यह खामोशी जो बोल रही थी उसके सामने करीम के वे हिकारत भरे शब्द भी हार गए थे और वह सहमकर पीछे हट गया था।और वह लौट रही थी, उसने गोदना के फूलों को मरने से बचा लिया था। अब वे जिएंगे उसके साथ साथ और उसके बाद भी। वह जिन्दा रखेगी उन्हें। कभी मरने नहीं देगी। केंवरा के होठों पर आज फिर मचल उठा था वही गीत जो कभी उसकी अपनी पहचान था। मगर आज उस गीत में दर्द की लय बहुत ऊंची हो उठी थी।