गोपनीयता और लोकप्रियता का आकलन / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

गोपनीयता और लोकप्रियता का आकलन

प्रकाशन तिथि : 03 जुलाई 2012

भारत में प्रदर्शन के एक दिन पूर्व ‘द अमेजिंग स्पाइडरमैन’ का मुंबई में प्रेस शो आयोजित किया गया, जिसके निमंत्रण पत्र पर लिखा था कि सिनेमाघर में मोबाइल, कैमरा इत्यादि नहीं ले जा सकते और आपको शपथबद्ध होना होगा कि आप फिल्म पर अपने विचार किसी भी माध्यम से फिल्म के प्रदर्शन के पूर्व अभिव्यक्तनहीं करेंगे, अर्थात एसएमएस, ट्विटर, फेसबुक या अपने अखबार में भी नहीं लिख सकते। इसमें इस आशय की बात भी थी कि थिएटर में आने का अर्थ ही यह होगा कि आपको शर्ते कबूल हैं।

अगर इस तरह का शो महानगर की जगह किसी छोटे शहर में आयोजित करते, तो संभव था कि अनेक पत्रकार अपनी व्यक्तिगत स्वतंत्रता की शर्त पर प्रेस शो में नहीं जाते। मुंबई जैसे अंग्रेजियत की नुमाइंदगी करने वाले शहर के पत्रकारों के लिए ‘स्पाइडरमैन’ की ताजा कड़ी देखने की उत्कंठा हो सकती है। भारत में एक बड़ा वर्ग है, जिसे हॉलीवुड से प्रेम है और अमेरिका की राजनीति और सामाजिक व्यवहार में जिसकी गहरी रुचि है। ये लोग मानसिक रूप से अमेरिका में बसे हैं और इन्हें डॉलर स्वप्न आते हैं।

इस तरह ‘शपथबद्ध’ पत्रकार फिल्म देखकर अपने मित्र से बात करता या एसएमएस भेजता, क्योंकि इस तरह की ‘शपथ’ का ऐसा निर्वाह संभव है। भीष्म की तरह पत्रकार नहीं होते। यह भी गौरतलब है कि फिल्म पर अभिव्यक्त प्रतिक्रिया से कोई दर्शक प्रभावित नहीं होता। हमारे दर्शक अपने स्वयं के विचारों से ही फिल्म देखने का निश्चय करते हैं। हमारे यहां समालोचना को मजे लेकर पढ़ा जाता है और उसे मनोरंजन की स्वतंत्र इकाई मानते हैं। हमारे दर्शकों के फिल्म चयन या नेता चयन के अपने तौर-तरीके हैं। विदेशों में समालोचना वहां के दर्शक को प्रभावित करती है, वहां अखबारों के संपादकीय चुनाव पर भी असर डालते हैं।

अमेरिका में कुछ निर्माता प्रदर्शन के तीन माह पूर्व फिल्म का प्रदर्शन कम आबादी वाले शहरों में करते हैं और दर्शक प्रतिक्रिया का अध्ययन करके फिल्म में कुछ परिवर्तन भी करते हैं। विधु विनोद चोपड़ा की संस्था अपनी फिल्म को लगभग ३क्क् लोगों को दिखाती है और उनकी प्रतिक्रिया को समझने का प्रयास करती है। इन तीन सौ लोगों में कोई भी व्यक्तिफिल्म उद्योग से जुड़ा नहीं होता।

मुंबई फिल्म उद्योग में प्राय: प्रदर्शन के दो दिन पूर्व अनेक स्थानों पर ट्रायल रखे जाते हैं और निर्माता के परिचित फिल्म देखते हैं। यह प्रथा उस समय प्रारंभ हुई, जब प्रदर्शन के एक दिन पूर्व आयोजित भव्य प्रीमियर की परंपरा सुरक्षा के भय से बंद कर दी गई। एक ही जगह सारे सितारों की मौजूदगी आतंकवादियों के लिए सुनहरा अवसर हो सकता था। आज हर संस्था, शहर और व्यक्तिको अपनी सुरक्षा के प्रति सजग रहना होता है। सरकार के काम व्यक्तिको करने पड़ते हैं। बहरहाल, प्रदर्शन के पूर्व विशेष शो आयोजित करते ही उसे देखने वाला दर्शक स्वयं को विशिष्ट मानने लगता है और अब उसकी प्रतिक्रिया को आम आदमी की प्रतिक्रिया नहीं माना जा सकता।

वह तीन घंटे के लिए आम नहीं, खास व्यक्तिहै। दरअसल करोड़ों दर्शकों की पसंद की रचना बनाने का काम तराजू पर मेंढक तौलने की तरह कठिन है। भारत में अमेरिका या जापान की तरह एक भाषा नहीं बोली जाती और अनेक धर्मो को मानने वाले लोग यहां बसते हैं। इस वजह से भारत के फिल्मकार का काम अन्य देशों के फिल्मकारों की तुलना में कठिन है। इस विषय में महान लेखक राजिंदर सिंह बेदी का कथन महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा था कि जिन कारणों से भारत में एक फिल्म सफल होती है, कुछ समय बाद या उसी समय उन्हीं कारणों से कोई और फिल्म विफल हो जाती है।

हमारे सामूहिक अवचेतन के रहस्य समझना कठिन है। शायद इसीलिए समर्पित फिल्मकार अपने अनुभव और अंतस की प्रेरणा से विषय चुनते हैं और ऐसी फिल्म रचते हैं, जो वे स्वयं भी टिकट खरीदकर देखते और अन्य फिल्मकार द्वारा बनाई होने पर भी देखते। यही एकमात्र रास्ता है। राजनीति में स्नैप पोल के नतीजे या परिणाम आने के पहले के सारे आकलन प्राय: गलत निकलते हैं। यह अनेक क्षेत्रों में देखा गया है कि किसी योग्यता के कारण सफलता पाने वाला व्यक्तिसफल लोगों की जमात में बैठते ही अपना विवेक खो देता या स्वार्थवश ‘दरबारी’ हो जाता है।