गोरखधन्धा, रोने को न मिला कन्धा / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :16 मार्च 2018
एक धनवान व्यक्ति भारतीय संस्कृति की रक्षा और उसके ग्रन्थों के प्रचार प्रसार के महान उद्देश्य की खातिर गोरखपुर में एक प्रकाशन संस्था की स्थापना करता है। यह प्रकाशन संस्था पुरातन आख्यानों का संस्कृत से हिन्दी में अनुवाद करने के लिए कुछ लोगों की सेवा लेती है और उन्हें हर माह वेतन भी देती है। वह व्यक्ति प्रकाशन संस्था के लिए उस दौर की श्रेष्ठतम मशीनों का आयात करता है। इस तरह गोरखपुर में ऐसी प्रकाशन संस्था कार्य करती है जो न्यूनतम मूल्य पर किताबें उपलब्ध कराती है। वह एक मासिक पत्रिका का भी प्रकाशन करती है। मासिक वेतन पर काम करने वाले अनुवादकों को सतही ज्ञान था, अत: अनुवाद की प्रक्रिया में मूल कार्य का अर्थ कहीं खो गया। ज्ञातव्य है कि 'लॉस्ट इन ट्रान्सलेशन' फिल्म भी बनी है। इसी प्रकाशन संस्था की रचनाओं में आख्यानों की दोषपूर्ण व्याख्या भी हुई। इस तरह नेक इरादे से किए गए कार्य के बुरे परिणाम सामने आए।
ज्ञातव्य है कि जर्मन संस्था मैक्समुलर ने भी भारत के प्राचीन ग्रन्थों का अनुवाद जर्मन भाषा में कराया था। उनके अनुवाद दोनों ही भाषाओं के परम ज्ञानी व्यक्ति थे। इस तरह हमारे प्राचीन ग्रन्थ अपने सच्चे स्वरूप में जर्मनी में सुरक्षित हैं। बर्लिन और गोरखपुर में जितना फासला है, उससे अधिक अंतर दोनों जगह के ग्रन्थों में भी है। मुगल शहनशाह अकबर ने भी मकतबखाने की स्थापना की थी और भारतीय प्राचीन ग्रन्थों का संस्कृत से फारसी में अनुवाद कराया था। अनुवाद का यही स्वरूप यूरोप भी पहुंचा और अन्य भाषाओं में अनुवाद हुए। औरंगजेब के भाई दारा शिकोह ने भी भारत के प्राचीन ग्रन्थों को समझने के प्रयास किए और अकबर द्वारा प्रारंभ किए मकतबखाने को बनाए रखा। मुगल साम्राज्य का सच्चा उत्तराधिकारी दारा शिकोह था परन्तु औरंगजेब ने कब्जा जमा लिया।
अकबर एकमात्र बादशाह हुआ है जिसने अपने खर्च के लिए सरकारी कोष से धन नहीं लिया। वह चटाई बुनता और अपनी मेहनत की कमाई की रोटी खाता था। उसने कभी शहनशाओं के भड़कीले वस्त्र नहीं पहने और सादगी का जीवन जिया। उसके पहले सभी मुगल बादशाहों ने तीर्थयात्रियों से धन लिया परन्तु पंडित और मौलवी इस जज़िया कर से मुक्त थे। औरंगजेब ने मौलवी और पंडित से भी जजिया कर वसूला और इसीलिए उसे बदनाम भी कर दिया गया। वह अच्छा प्रशासक रहा होगा, इसीलिए इतने लंबे समय तक राज कर पाया परन्तु इतिहासकारों ने उसकी छवि धूमिल कर दी है। देश के विभाजन के बाद अकबर पर हिन्दुस्तान इतराता रहा तो प्रतिक्रिया स्वरूप पाकिस्तान ने औरंगजेब को आदर्श माना। नोबल प्राइज़ प्राप्त अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन के औरंगजेब पर प्रस्तुत विचार ही इस लेख के स्रोत हैं। विश्व इतिहास पर टॉयनबी की लिखी किताब और नेहरू की 'ग्लिमसेस ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री' को सराहा गया है और कुछ विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में भी शामिल किया गया है।
कुछ दिन पहले ही मुंबई में महाराष्ट्र के किसान आए थे और अरसे बाद जुलूस में लाल टोपियां नजर आईं। इसी के बाद गोरखपुर चुनाव में समाजवादी दल विजयी हुआ। क्या साम्यवाद की प्रतीक लाल टोपियों के इस तरह देखे जाने को भारतीय राजनीति में साम्यवाद के प्रवेश का संकेत माना जा सकता है? कार्ल मार्क्स को उम्मीद थी कि चीन में साम्यवाद स्थापित होने के बाद भारत भी साम्यवादी हो जाएगा। बाजार की सार्वभौम सत्ता यह संभव नहीं होने देगी। भारत की सड़कों पर लाल टोपी पहने लोगों की भीड़ केवल वर्तमान में व्यवस्था के पूरी तरह खंडित होने को ही सिद्ध करती है। यह अच्छा प्रशासन देने के नारे के खोखलेपन को ही उजागर कर रहा है।
भारत की राजनीति का केन्द्र कोई राजनैतिक आदर्श से प्रेरित नहीं है। वह केवल सत्ता प्राप्त करने का अखाड़ा मात्र ही रह गया है। अवाम के कष्ट जस के तस बने रहते हैं। गोरखपुर धार्मिक आख्यानों के प्रकाशन के लिए जाना जाता रहा है परन्तु अवाम ने साम्यवादी नेता को चुनाव में विजयी बनाकर यह संकेत दिया है कि अवाम की प्राथमिकता रोटी, कपड़ा, मकान और रोजगार है। यह मौजूदा तंत्र की विफलता के खिलाफ आक्रोश का प्रदर्शन है।
आगामी आम चुनाव के लिए नया तमाशा इजाद करना होगा। रथयात्राएं अब मदद नहीं कर सकतीं। हुक्मरान तमाशे रचने में प्रवीण है। वह जरूर ही कुछ सनसनीखेज करेगा? तमाशबीन अवाम को इन्तजार रहेगा। इन्तजार को नया आयाम दिया था शैलेन्द्र ने फिल्म 'यहूदी' के गीत में, 'वह आए या ना आए, हम करेंगे इन्तजार, ये मेरा दीवानापन है या मोहब्बत का सुरूर, लोग माने या ना माने यह मेरा दीवानापन है...'।