गोरा / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / पृष्ठ 1
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वर्षाराज श्रावण मास की सुबह है, बादल बरसकर छँट चुके थे, निखरी चटक धूप से कलकत्ता का आकाश चमक उठा है। सड़कों पर घोड़ा-गाड़ियाँ लगातार दौड़ रही हैं, फेरी वाले रुक-रुककर पुकार रहे हैं। जिन्हें दफ्तर, कॉलेज और अदालत जाना है उनके लिए घर-घर मछली-भात-रोटी तैयार की जा रही है। रसोईघरों से अंगीठी जलाने का धुऑं उठ रहा है। किंतु तब भी इस इतने बड़े, पाषाण-हृदय, कामकाजी शहर कलकत्ता की सैकडों सड़कों-गलियों के भीतर स्वर्ण-रश्मियाँ आज मानो एक अपूर्व यौवन का प्रवाह लिए मचल रही है।
विनयभूषण ऐसे दिन फुरसत के समय अपने मकान की दूसरी मंज़िल के बरामदे में अकेला खड़ा नीचे राह चलने वालों को देख रहा था। उसकी कॉलेज की पढ़ाई बहुत दिन हुई पूरी हो चुकी थी, पर संसारी जीवन से अभी उसका परिचय नहीं हुआ था। सभा-समितियों के संचालन और समाचार-पत्रों में लिखने की ओर उसने मन लगाया था, किंतु उसका मन उसमें पूरा रम गया हो, ऐसा नहीं था। इसी कारण आज सबेरे 'क्या किया जाय' यह सोच न पाने से उसका मन बेचैन हो उठा था। पड़ोस के घर की छत पर न जाने क्या लिए तीन-चार कौए काँव-काँव कर रहे थे, और उसके बरामदे के एक कोने में घोंसला बनाने में व्यस्त चिड़ियों का जोड़ा चहचहाकर एक-दूसरे को उत्साह दे रहा था- ऐसे ही अनेक अस्फुट स्वर विनय के मन में एक मिश्रित भावावेग जगा रहे थे।
पास की एक दुकान के सामने गुदड़ी लपेटे हुए एक फकीर खड़ा होकर गाने लगा : खाँचार भितर अचिन् पाखि कमने आसे याय धारते पारले मनोबेड़ि दितेम पाखिर पाय।
विनय का मन हुआ, फकीर को बुलाकर अनपहचाने पाखी का यह गान लिख ले। किंतु बड़े तड़के जैसे जाड़ा लगते रहने पर भी चादर खींचकर ओढ़ लेने का होश नहीं रहता, वैसे ही एक अलस भाव के कारण न तो फकीर को बुलाया गया, न गान ही लिखा गया; केवल अनपहचाने पाखी का वह स्वर मन में गूँजता रह गया।
उसके घर के ठीक सामने अचानक ही एक बग्घी एक घोड़ागाड़ी से टकराकर उसका एक पहिया तोड़ती हुई, बिना रुककर तेज़ी से आगे निकल गई। घोड़ागाड़ी पलटी तो नहीं, पर एक ओर को लुढ़क गई।
तेज़ी से सड़क पर आकर विनय ने देखा, गाड़ी से सत्रह-अठारह वर्ष की एक लड़की उतर पड़ी है और भीतर से एक अधेड़ वय के भद्र-पुरुष को उतारने का प्रयत्न कर रही है।
सहारा देकर विनय ने भद्र-पुरुष को उतारा तथा उनके चेहरे का रंग उड़ा हुआ देखकर पूछा, चोट तो नहीं आई? नहीं-नहीं, कुछ नहीं हुआ, कहते हुए उन्होंने हँसने का प्रयत्न किया, पर वह हँसी तुरंत विलीन हो गई और वह मूर्च्छित होते-से जान पड़े। विनय ने उन्हें पकड़ लिया और घबराई हुई लड़की से कहा, यह सामने ही मेरा घर है, भीतर चलिए! वृध्द को बिछौने पर लिटा दिया गया। एक बार लड़की ने चारों ओर देखा कमरे के एक कोने में सुराही रखी थी- जल्दी से उसने सुराही से गिलास में पानी उँड़ेलकर वृध्द के मुँह पर छींटे दिए और ऑंचल से पंखा झलती हुई विनय से बोली, क्यों न किसी डॉक्टर को बुला लिया जाय?
डॉक्टर पास ही रहते थे; उन्हें बुलाने के लिए विनय ने बैरे को भेज दिया। कमरे में एक ओर मेज़ पर आईना, तेल की शीशी और बाल सँवारने का सामान रखा थ। लड़की के पीछे खड़ा विनय स्तब्ध भाव से आईने की ओर देखता रहा। बचपन से ही विनय कलकत्ता में घर पर ही पढ़ता-लिखता रहा है। संसार से उसका जो कुछ परिचय है वह सब पुस्तकों के द्वारा ही है। पराई भद्र स्त्रियों से उसका कोई परिचय नहीं हुआ।
आईने की ओर टकटकी लगाए हुए ही उसने सोचा, जिस चेहरे का प्रतिबिंब उसमें पड़ रहा है वह कितना सुंदर है। चेहरे की प्रत्येक रेखा को अलग करके पहचाने, इतना अनुभव उसकी ऑंखों को नहीं था। केवल उद्विग्न स्नेह से झुके हुए तरुण चेहरे की कोमलता-मंडित स्निग्ध कांति, सृष्टि के एक सद्य:प्रकाशित विस्मय-सी विनय की ऑंखों में बस गई।
थोड़ी देर बाद ही धीरे-धीरे वृध्द ने ऑंखें खोलते हुए 'माँ' कहकर लंबी साँस ली। लड़की की ऑंखें डबडबा आईं। वृध्द के चेहरे के पास मुँह लाकर झुकते हुए उसने द्रवित स्वर से पूछा, बाबा, कहाँ चोट लगी है?
यह मैं कहाँ आ गया? कहते हुए उठ बैठने का प्रयत्न करते वृध्द के सामने आकर विनय ने कहा, उठिए नहीं.... आराम से लेटे रहिए, डॉक्टर आ रहा है।
तब सारी घटना उन्हें याद आ गई और उन्होंने कहा, सिर में यहाँ थोड़ा दर्द है.... ज्यादा कुछ नहीं है।
इतने में जूते चरमराते हुए डॉक्टर भी आ पहुँचे। उन्होंने भी कहा ऐसी कोई विशेष बात नहीं है। गर्म दूध में थोड़ी ब्रांडी मिलाकर देने का आदेश देकर डॉक्टर चलने लगे, तो वृध्द बड़े परेशान-से होकर उठने लगे। लड़की ने उनके मन की बात समझकर कहा, बाबा, आप क्यों परेशान होते हैं- डॉक्टर की फीस और दवा के दाम घर से भेज दिए जाएँगे। कहकर उसने विनय की ओर देख।
कैसी आश्चर्यमई ऑंखें! वे ऑंखें बड़ी हैं कि छोटी, काली कि भूरी, मानो यह ख्याल ही मन में नहीं उठता- पहली ही नज़र में जान पड़ता है, इन ऑंखों में एक अनिंदित प्रभाव है। उनमें संकोच नहीं है, दुविधा नहीं है, एक स्थिर शक्ति से वे भरी है।
विनय ने कहना चाहा, फीस बहुत ही मामूली है.... उसके लिए.... उसकी आप.... वह मैं....
लड़की की ऑंखें उसी पर टिकी थीं, इसलिए अपनी बात वह ठीक से पूरी नहीं कर पाया। किंतु फीस के पैसे उसे लेने ही होंगे, इस बारे में कोई संदेह उसे नहीं रहा।
वृध्द ने कहा, देखिए, मेरे लिए ब्रांडी की ज़रूरत नहीं है....।
कन्या ने उन्हें टोकते हुए कहा, क्यों बाबा, डॉक्टर साहब कह जो गए हैं।
वृध्द बोले, डॉक्टर लोग तो ऐसा कहते ही रहते हैं। वह उनकी केवल एक बुरी आदत है। जो थोड़ी-सी कमज़ोरी मुझे जान पड़ती है वह गरम दूध से ही ठीक हो जाएगी।
दूध पीकर कुछ सँभलकर वृध्द ने विनय से कहा, अब हम लोग चलें। आपको बड़ा कष्ट दिया।
विनय की ओर देखकर कन्या ने कहा, जरा एक गाड़ी....
सकुचाते हुए वृध्द ने कहा, फिर क्यों उन्हें कहती हो? हमारा घर तो पास ही है, इतना तो पैदल चले जाएँगे।
लड़की ने कहा, नहीं बाबा; ऐसा नहीं हो सकता।
वृध्द ने उसकी बात का विरोध नहीं किया, और विनय स्वयं जाकर घोड़ागाड़ी बुला लाया। गाड़ी पर सवार होने से पहले वृध्द ने उससे पूछा, आपका नाम क्या है?
मुझे विनयभूषण चट्टोपाध्या'य कहते हैं।
वृध्द बोले, मेरा नाम परेशबाबूचंद्र भट्टाचार्य है। पास ही 78 नंबर के मकान में रहता हूँ। फुरसत होने पर कभी हम लोगों के यहाँ आएँ तो हमें बड़ी खुशी होगी।
विनय के चेहरे की ओर ऑंखें उठाकर कन्या ने इस अनुरोध का मौन समर्थन किया।
विनय तभी उसी गाड़ी में उनके घर जाने को आतुर था, किंतु वह शिष्टाचार के अनुकूल होगा या नहीं, सोच न पाकर खड़ा रह गया। गाड़ी चलने पर लड़की ने विनय को एक छोटा-सा नमस्कार किया। इस अभिवादन के लिए विनय बिल्कुाल तैयार नहीं था, इसलिए हतबुध्दि-सा होकर वह प्रति-नमस्कार भी नहीं कर सका। घर के भीतर आकर वह बार-बार अपनी इतनी-सी चूक के लिए स्वयं को धिक्कारने लगा।
विनय इन लोगों के मिलने से लेकर विदा होने तक के अपने आचरण की आलोचना करके देखने लगा- उसे लगा, शुरू से अंत तक उसके सारे व्यवहार में असभ्यता झलकती रही है। कौन-कौन-से समय क्या-क्या करना उचित था, क्या कहना उचित था, वह मन-ही-मन इसी को लेकर व्यर्थ उधेड़-बुन करने लगा। कमरे में लौटकर उसने देखा, जिस रूमाल से लड़की ने अपने पिता का मुँह पोंछा था वह रूमाल बिस्तर पर पड़ा रह गया है। उसने लपककर उसे उठा लिया। फकीर के गाने के स्वर उसके मन में गूँज उठे : खाँसर भितर अचिन् पाखि कमने आसे याय।
दिन कुछ और चढ़ आया। बरसात बाद की धूप तेज़ हो उठी थी। गाड़ियों की कतार दफ्तरों की ओर और तेज़ी से दौड़ने लगी। विनय का मन उस दिन किसी काम में नहीं लगा। ऐसे अपूर्व आनंद के साथ ऐसी सघन वेदना का बोध उसे अपने जीवन में कभी नहीं हुआ था। उसका क्षुद्र घर और उसके आस-पास का कुत्सित कलकत्ता मायापुरी-सा हो उठा था। जिस राज्य में असंभव संभव हो जाता है, असाध्ये सिध्द होता है, जिसमें रूपातीत रूप लेकर सामने दिखाई देता है, मानो किसी ऐसे ही नियम-विहीन राज्य में विनय घूम रहा था। बरसात बाद की सुबह की धूप की दीप्त आभा उसके मन में बस गई थी, उसके रक्त में दौड़ रही थी, उसके अंत:करण के सम्मुख एक ज्योतिर्मय चादर-सी छाकर दैनिक जीवन की सारी तुच्छता को बिल्कुरल ओझल कर गई थी। विनय का मन चाह रहा था कि अपनी परिपूर्णता को किसी अचरज-भरे रूप में प्रकट कर दे, किंतु उसके लिए कोई उपाय न पाकर उसका चित्त पीड़ित हो उठा था। अपना परिचय उसने बहुत ही सामान्य लोगों-जैसा ही दिया- अत्यंत क्षुद्र घर, इधर-उधर बिखरा हुआ सामान, बिछौना भी साफ नहीं। किसी-किसी दिन अपने कमरे में यह गुलदस्ते में फूल सजाकर रखता किंतु उस दिन दुर्भाय से कमरे में फूल की एक पंखुड़ी भी नहीं थी। सभी कहते हैं कि सभाओं में विनय जैसी सुंदर वक्तृता जबानी ही दे देता है, उससे एक दिन बहुत बड़ा वक्ता हो जाएगा, किंतु उस दिन ऐसी एक भी बात उसने नहीं कही जिससे उसकी बुध्दि का कुछ भी प्रमाण मिले। बार-बार उसे केवल यही सूझता कि यदि कहीं ऐसा हो सकता, कि जब वह बग्घी गाड़ी से टकराने जा रही थी, उस समय बिजली की तेज़ी से सड़क के बीच पहुँचकर मैं अनायास उन मुँहजोर घोड़ों की जोड़ी की लगाम पकड़कर उन्हें रोक देता। अपने उस काल्पनिक पौरुष की छवि जब उसके मन में मूर्त हो उठी, तब आईने के सामने जाकर एक बार अपना चेहरा देखे बिना उससे रहा नहीं गया।
तभी उसने देखा, सड़क पर खड़ा सात-आठ बरस का एक लड़का उसके घर का नंबर देख रहा है। विनय ने ऊपर से ही पुकारा, यही है, ठीक यही घर है। लड़का उसी के घर का नंबर ढूँढ रहा है, इस बारे में उसे थोड़ा भी संदेह नहीं था। सीढ़ियों पर चट्टियाँ चटकाता हुआ विनय तेज़ी से नीचे उतर गया। बड़े प्यार से लड़के को कमरे में लाकर उसके चेहरे की ओर ताकने लगा। वह बोला, दीदी ने मुझे भेजा है। कहते हुए उसने विनयभूषण के हाथ में एक पत्र दे दिया।
चिट्ठी लेकर पहले विनय ने लिफाफा बाहर से देखा। लड़कियों के हाथ की लिखावट में उसका नाम लिखा हुआ था। भीतर चिट्ठी-पत्री कुछ नहीं थी, केवल कुछ रुपए थे।
लड़का जाने को हुआ तो विनय ने उसे किसी तरह छोड़ा ही नहीं। उसका कंधा पकड़कर उसे दूसरी मंज़िल में ले गया। लड़के का रंग उसकी बहन से अधिक साँवला था, किंतु चेहरे की बनावट कुछ मिलती थी। उसे देखकर विनय के मन में गहरे स्नेह और आनंद का संचार हुआ।
लड़का काफी तेज़ था। कमरे में घुसते ही दीवार पर लगा हुआ चित्र देखकर बोला, यह किसकी तसवीर है?
विनय ने कहा, मेरे एक मित्र की है।
लड़के ने फिर पूछा, मित्र की तसवीर? कौन हैं आपके मित्र?
हँसकर विनय ने उत्तर दिया, तुम उन्हें नहीं जानते। मेरे मित्र गौर मोहन। उन्हें गोरा कहकर पुकारता हूँ। हम लोग बचपन से साथ पढ़े हैं।
अब भी पढ़ते हैं?
नहीं, अब और नहीं पढ़ते।
आपकी सऽब पढ़ाई हो गई है?
इस छोटे लड़के के सामने भी विनय गर्व करने का लोभ संवरण न कर सका। बोला, हाँ, सब पढ़ाई हो चुकी।
विस्मित होकर लड़के ने एक लंबी साँस ली। मानो वह सोच रहा था, वह इतनी विद्या कितने दिन में पूरी कर पाएगा?
तुम्हारा नाम क्या है?
मेरा नाम श्री सतीशचन्द्र मुखोपाध्यानय है।
विनय ने अचंभे से पूछा, मुखोपाध्यानय?
फिर थोड़ा-थोड़ा करके परिचय पूर्ण हुआ। परेशबाबू इनके पिता नहीं है, उन्होंने इन दोनों भाई-बहन को बचपन से पाला-पोसा है। दीदी का नाम पहले राधारानी था; परेशबाबू की स्त्री ने बदलकर 'सुचरिता' नाम रख दिया है।
देखते-देखते सतीश विनय के साथ खूब घुल-मिल गया। जब वह घर जाने के लिए उठा तब विनय ने पूछा, अकेले चले जाओगे? गर्व से उसने कहा, मैं तो अकेला ही जाता हूँ।
विनय ने कहा, चलो, मैं तुम्हें पहुँचा आता हूँ।
अपनी शक्ति पर विनय को अविश्वास करते देखकर सतीश ने खिन्न होकर कहा, क्यों, मैं तो अकेला जा सकता हूँ। अपने अकेले आने-जाने के अनेक विस्मयकारी उदाहरण उसने दे डाले। फिर भी उसके घर के द्वार तक विनय उसके साथ क्यों गया, उसका ठीक कारण वह बालक किसी तरह नहीं समझ सका।
घर पहुँचकर सतीश ने पूछा, 'अब आप भीतर नहीं आएँगे?
विनय ने अपनी इच्छा का दमन करते हुए कहा, फिर किसी दिन आऊँगा।
घर लौटकर विनय वही पता लिखा हुआ लिफाफा जेब से निकालकर बड़ी देर तक देखता रहा। प्रत्येक अक्षर की रेखाएँ और बनावट उसे याद हो आईं। फिर रुपयों समेत वह लिफाफा उसने जतन से बक्स में रख दिया। ये कुछ रुपए कभी हाथ तंग होने पर भी खर्च किए जाएँगे, इसकी जैसे कोई संभावना नहीं रही।
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