गोरिल्ला प्यार / गीताश्री

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यह सब कुछ उस वक्त हुआ जब शाम का धुंधलका घिर रहा था। दूर सड़क से ट्रैफिक की कुछ मद्धिम आवाजें रह-रह कर सुनाई देतीं। कारों, लाल बत्तियों, लोगों और इन दिनों शरीर को भिगो देने वाली उमस से भरे इस शहर में वे दोनों उस वक्त एक वातानुकूलित कमरे में थे जब यह वाकया किसी ट्रांसफॉर्मर के फट जाने की तरह जोरदार आवाज करता हुआ सामने आया। बिस्तर पर लेटी उद्दाम-उन्मत्त अर्पि उस वक्त प्रेम के उल्लास में थी। परकाया प्रवेश के लिए आतुर एक खिली हुई देह। यह आतुरता जिसने जगाई वह सामने खड़ा था... पूरी योजना से सारा कुछ करता हुआ... स्पर्शों, चुंबनों और...

तभी उसे एक स्वर सुनाई दिया... चटाक...! अदृश्य रूप से कहीं कुछ टूट गया था शायद... पर नहीं, यह कुछ टूटने की नहीं, शायद एक चांटे की आवाज थी। इंद्र ने चांटा तो नहीं मारा, लेकिन जो किया, वह किस चांटे से कम था! इंद्र औचक उसे चांटा मारकर चला गया। आदमकद चांटा। दोनों बेड पर थे। तत्पर स्पर्शों, चुंबनों और आलिंगनों से देह खिल उठी थी। खिला हो ज्यों बिजली का फूल। पर तभी बिना किसी भूमिका के अचानक इंद्र भड़क उठा, 'इट्ज नॉट फेयर, अर्पि। तुम्हें अपने बॉस के साथ बार में अकेले नहीं जाना चाहिए था।'

अर्पिता अवाक रह गई। चेतना के इस घनीभूत क्षण में ये शब्द क्योंकर फूट रहे हैं? क्या इंद्र अपने मन में कहीं तटस्थ और दूर था? अर्पिता ने उसे ध्यान से देखा, उसकी आंखों में एक घृणा सुलग रही थी...।

'वो भी ऐसे बार में जहां सिर्फ कपल्स की इंट्री होती है। कुछ तो है ना तुम्हारा उससे...'

इंद्र की आवाज में जानने का अनुरोध नहीं था, कुछ खोद लाने का अहंकारपूर्ण आवेश था।

'कैसे इनकार कर सकती हो... सार्वजनिक और प्राइवेट स्पेस में हम रिश्तों के हिसाब से जाते हैं ना... कि नहीं! तुमने मुझसे झूठ बोला... तुम वहां थीं उसके साथ और मुझे मेरा दोस्त एसएमएस करके बता रहा था और तुमसे मैंने पूछा तो तुमने कहा बॉस के पास हूं... केबिन में...।'

अब इंद्र मालिक की तरह कमरे में चहलकदमी कर रहा था। उसने तिपाई पर पड़ी सिगरेट उठाई और सुलगा ली। अर्पिता अब धीरे-धीरे खुद में लौट रही थी। उसने महसूस किया कि ये रोज वाला इंद्र नहीं है। ये कोई और है। किसी और वन से भाग आया गोरिल्ला है... मेरे उपवन का आदम नहीं है ये... प्रेमपूर्ण होने की जगह ये कैसा उद्दंड होता जा रहा है। अर्पिता बुझने लगी। क्या इंद्र भी मेरे बॉस का ही एक प्रतिरूप है?

जरा-सी बात... और ये भी कोई तरीका होता है! ये तो तय नहीं हुआ था कि हम हर छोटी-छोटी बात एक-दूसरे को बताएं। ये एकदम गैरजरूरी मामला है... ये सवाल पूछना और इस पर ऐसे बर्ताव करना ही इस रिश्ते की सीमा का उल्लंघन है... प्लीज... लीव इट यार... अर्पिता ने चाहा कि नजरअंदाज कर दे। इन क्षणों में दफ्तर की बातें। बेहद असंगत और असह्य।

'वह आदमी ठीक नहीं है... गोरिल्ला है...गोरिल्ला... खल्वाट...।'

अर्पिता के मन में आया कि कह दे कि मैं तुम्हारे पांव की जूती नहीं हूं... पति की तरह सामंत मत बनो... पर न कह सकी। आर्द्र क्षणों में ऐसी बातें!

'अभी ये सब नहीं इंद्र... प्लीज।' अर्पि ने उठकर इंद्र की पीठ पर सिर टिका दिया, '...हम इस पर बात करेंगे... पर अभी नहीं... क्यों?' अर्पि ने आगे आकर इंद्र की आंखों में आंखें डालकर कहा।

पर यह क्या! कहां है इंद्र! वह उठा, पतलून पहनी, फिर टी-शर्ट। कलाई में घड़ी बांधी और बेफीता जूतों में पांव डाल अर्पिता के फ्लैट से बाहर निकल गया। कुछ भी नहीं कहा... एक शब्द भी नहीं। प्रेम क्या इतना निष्ठुर भी हो सकता है? अर्पिता के लिए आंखें खोलना कठिन था और उन्हें बंद करना और भी मुश्किल। प्रत्यंचा-सी तनी देह निढाल हो चुकी थी। बिजली का अपने पूरे आकार में खिला हुआ फूल बेबसी में मुरझा चुका था। बेड पर अधखुली किताब की तरह अर्पि को आतुर, अतृप्त और फड़फड़ाती छोड़कर इंद्र जा चुका था।

यह एक अजीब रात थी। और रातों-सी होकर भी काफी अलग। अर्पिता इस रात को शायद कभी नहीं भूल पाएगी। हर रोज सांझ की दहलीज से रात आती थी। इंद्रजीत का साथ जिस रात को सुरमई बना जाता था, वही उसके इस व्यवहार से यकबयक चारकोल-सी काली लगने लगी है। एयरकंडीशनर ऑन था, लेकिन अर्पिता की देह पसीने में नहाई हुई थी। पसीना सुखाने के लिए उसने छत के पंखे को पांच की फुल स्पीड पर कर दिया। मगर पसीना था कि बंद होने का नाम नहीं ले रहा था। देह की हर पोर से वह किसी पुराने दुख की तरह रिसता रहा। लगा मानो तमाम रंध्रों से पसीने का सैलाब फूट पड़ा है। ऐसा पहले तो कभी नहीं हुआ था।

सिवाय तड़फड़ाने के वह कुछ नहीं कर सकती थी। वो जो कर गया वह एक अचूक वार था। महाआनंद के पल में बींध दी गई देह। पर वह त्रेता युग की मृगिणी नहीं थी कि देह को ऐसी मर्मांतक पीड़ा देने वाले पांडु को शापित कर पाती। शरीर सुन्न होकर सन्नाटे में था और मन अधमरा। अपने दोनों हाथों से वह देह को समेटना चाहती है और अपनी ही देह समा नहीं पाती अपनी ही बांहों में। कातर देह को सुलाने की बेबस कोशिश में अर्पि रो पड़ी। भीतर कुछ बह रहा था... टप... टप... टप...। उसने ध्यान से सुना... वातावरण की नमी बूंद-बूंद कर एयरकंडीशनर से टपक रही थी।

एक लंबा अरसा इंद्रजीत के साथ गुजर चुका था। उसने जिंदगी में कभी चीजों का हिसाब-किताब नहीं रखा। अनुभूति को भी क्या कभी गिना जाता है? क्या अश्रु और स्वेद की गणना मुमकिन है? आलिंगन और स्पर्श के सुख को क्या मापा जा सकता है? कितने दिन और कितनी रातें! लटों की तरह परस्पर गुंथे हुए दो शरीर। एक पुरुष-एक स्त्री, एक अर्पिता - एक इंद्रजीत। दोनों भिन्न होकर भी अभिन्न। हिसाब-किताब से तो चीजें रस खो देती हैं।

कितनी बार रस बरसा है। न जाने कितनी बार। इंद्रजीत के साथ वह अनगिनत बार रस में सराबोर हुई है। रस की बारिश में वे दोनों भीगते रहे हैं। आपादमस्तक। इंद्रजीत कवि है। अलग-अलग मौके पर अलग-अलग उपमाएं। स्त्री-देह न हुई एक समूची कायनात हुई। एक बार इंद्रजीत ने कहा था, 'अर्पि, जानती हो, अभिसार के लिए प्रस्तुत तुम्हारी देह कैसी लगती है?'

उसके वक्षों पर उंगलियां फिराते हुए अर्पिता ने कुछ ज्यादा मासूम बनते हुए कहा था, 'हूं... नहीं तो...'

इंद्र हंसने लगा था... एक भेदभरी याकि कहें चुहलभरी हंसी।

'चलो छोड़ो...। इंद्र ने उसका जूड़ा खोल दिया था। स्याह सघन केश उसके शाने पर बिखर गए।'

'नहीं बताओ ना...।' उसने जिद पकड़ ली थी।

उसकी उत्कंठा को काफी बढ़ा देने के बाद उसने कहा था, 'तुम बिजली के फूल-सी लगती हो अर्पि, खिला हो ज्यों बिजली का फूल...।'

इस उपमा से अर्पि इंद्र पर एक बार फिर निसार हो गई थी।

बिजली का फूल... वाह... क्या बात है! सचमुच बेड पर वह बिजली का फूल ही तो हो जाती है... चमकती हुई... रोशन... उत्तेजना से लबरेज। देह देह नहीं मानो धधकती हुई भट्ठी हो। उत्तप्त शरीर को इंद्र प्रेम की बारिश से नहलाकर शीतल कर देता। प्रेम की आग को बुझाने के लिए प्रेम की बारिश। कैसा विरोधाभास है। रिमझिम-रिमझिम फुहारें... पुलक भरे अनिर्वचनीय क्षण...।

ऐसे क्षणों को अर्पिता ने एक नहीं अनेक बार जिया है। यह वह पुलक है जो फिर-फिर जिए जाने पर भी फिर-फिर जिए जाने की ललक जगाती है।

पर आज की घटना... अतीत से वर्तमान में आते ही अर्पिता को फिर एक झटका सा लगा। वह तो सोच भी नहीं सकती थी। वह यानी अर्पिता... एक वर्किंग वूमन... छोटे शहर में पैदा हुई महानगरीय सोच की स्त्री। कोई मुलम्मा नहीं, वर्जनाएं नहीं, टैबू नहीं... बस जिंदगी को जिंदगी-सा जीने में गहरा यकीन।

अर्पिता को जड़ता नहीं सुहाती। रूटीन जिंदगी से उसे बचपन से ही चिढ़ है। रिश्ते ऐसे हों कि उनमें रोमांच बचा रहे। कॉलेज में लड़कियां कहतीं, अर्पि को तो अलग तरह का कोई रिश्ता चाहिए।

उसकी सबसे प्यारी सहेली मीनाक्षी इस बारे में पूछती तो अर्पिता कहती, 'समथिंग थ्रिलिंग...!'

आखिर जीवन में सनसनी, उत्तेजना, रोमांच न हो तो जीवन कैसा! हॉस्टल के कमरे में रात बत्तियां बुझाकर अर्पिता कैसेट लगा आंखें मूंद लेती और फकत कानों से नहीं सारी देह से 'प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो' जैसा कुछ सुनती रहती। यह सिलसिला अभी तक जारी है, भले अर्पिता अब कॉलेज गर्ल नहीं, वर्किंग वूमन विद ए लॉट ऑफ एक्सपीरियंस है। अनुभव से ही तो अनुभूतियां उपजती हैं, अन्यथा सब कल्पना है, खामखयाली।

उसे मीनाक्षी का कहा याद आया, 'लेकिन तुम्हारे ऐसे रिश्ते में भी कुछ दिन में कोई जवाबदेही पैदा हो जाएगी, कुछ दिन बाद कुछ उम्मीदें जगेंगी।' उसने हंसते हुए कहा था, 'सोच लेना अर्पिता... हर रिश्ता कुछ वक्त के बाद एकनिष्ठता मांगने लगता है।'

'मेरा इसमें कोई विश्वास नहीं। जिंदगी एक ही बार मिलती है। हम उसे दूसरों के हिसाब से जीने में खर्च कर देते हैं। फिर सब मर जाते हैं एक दिन। हम भी और वो भी। ...मेरे इस जीने के तरीके में स्पष्टता रहेगी, कोई छिपाव नहीं, कोई कालातीत प्रतिबद्धता नहीं... प्रतिबद्धता और चीजों के लिए अच्छी है।'

एक ही सांस में सब कह गई अर्पिता। मीनाक्षी का मुंह खुला का खुला रह गया - 'यह क्या अधर्म करने का इरादा बनाए हुए है अर्पिता!' लेकिन अर्पिता के निश्चयात्मक भाव के सामने कुछ कह न सकी।

इंद्रजीत से उसकी मुलाकात एक गोष्ठी में हुई थी। ऊंचा पूरा कद, सपनीली आंखें, कविता में, बातों में गजब का सलीका... लेकिन सुलूक में कठोर इंद्र सचमुच यथानाम तथागुण था। गोष्ठी में इंद्र के वक्तव्य ने उसे मोह लिया था। वह बोल रहा था... 'ईश्वर हमारी अपूर्ण दुनिया का पूर्ण चेहरा है...' तो अर्पि को लगा इंद्र उसके प्रेम, उसकी सोच का पूर्ण चेहरा है। अर्पि की तारीफ ने इंद्र को बांध लिया और अर्पि को इंद्र के खुले विचारों ने, जो दुनिया को घिसे-पिटे ढर्रे पर चलने के लिए फटकार रहा था। वह समझ गई थी कि यह इंद्र ही उसकी उम्मीदों का शख्स है, जिसे वो इतने अरसे से ढूंढ़ रही थी... जो बगैर किसी दुनियावी बंधन के उससे कोई रिश्ता निभा सकता है।

बाद के दिनों में अक्सर वह सोचती कि क्या हर स्त्री को वैसा ही रति-सुख मिलता होगा, जैसा उसे इंद्र से मिलता है। या फिर उसकी मात्रा अलग-अलग होती है? उसने शादी नहीं की। कर सकती थी। वरों की कमी नहीं थी। और फिर अर्पिता के पास तो सबकुछ था। अच्छी शिक्षा, पक्की नौकरी, बैंक बैंलेंस, आकर्षक व्यक्तित्व, सुगठित देहयष्टि...।

अर्पिता ने प्रेम किया, पर शादी उसे मंजूर नहीं थी। कि शादी बंधन है और बंधना उसे स्वीकार नहीं। पत्नी के फ्रेम में तो वह छटपटाती रहती। घुट जाती। उसका प्रेमी दकियानूसी पति में बदल जाता। घड़ी के कांटों से दफ्तर जाना। सांझ को लौटना। कभी-कभी पिक्चर, पिकनिक और शॉपिंग। बच्चे-वच्चे, सास-ससुर, देवरानी-जेठानी, देवर और जेठ नहीं भी तो बंधी-बंधाई दिनचर्या। बंधा-बंधाया रिश्ता। कोई ऊष्मा नहीं, गर्माहट नहीं। सिर्फ औपचारिक प्रेम और किताबी रिश्ता - देह के स्तर पर भी, और दिमाग के स्तर पर भी।

सोच की धुरी है प्रेम। प्रेम है तो जीवन है। अंग-राग के पहले ही प्रसंग में अर्पिता ने कह दिया था - 'इंद्र, हम एक साथ नहीं रहेंगे... एक छत के नीचे नहीं रहेंगे। हम जीवन भर मिलेंगे। फिर-फिर मिलेंगे। हर बार हम प्रेमी और प्रेमिका की मानिंद मिलेंगे... हम जीवन एक संग जिएंगे, लेकिन विवाह नहीं... नो फेरे... नो बंधन... और तो और लिव-इन भी नहीं।'

लिव-इन भी नहीं, ताकि प्रेम बचा रहे। प्रेम ही तो स्पन्दन है। वह चला गया तो शेष क्या रहा? निस्पन्द शरीर! जड़-संबंध, आडंबर, ढोंग, रूटीनी जिंदगी... एक ऐसी जिंदगी जो ठीक वहां खत्म होती है, ऐन जहां से शुरू होता है रोमांच। अर्पिता ने न जाने कितने शादीशुदा जोड़ों को इसका शिकार होते देखा है। उसने शादी के बाद प्रेमी युगलों को कुम्हलाते देखा है। उसने व्यस्क होने के थोड़ा पहले ही तय कर लिया था कि वह जिंदगी में मर्द को उतनी ही जगह देगी, जितने में उसका अपना अस्तित्व बचा रहे, साथ ही बचा रहे प्रेम। मर्द को जैसे ही ज्यादा जगह दी, वह मित्र से तुरंत मालिक के अपने भेष में आ जाता है। अर्पिता को इसी से डर लगता है। वह मालिक सब कुछ को 'चीज' बना देता है... कमबख्त प्रेम को भी...।

इंद्रजीत की सोच भी लगभग वैसी ही थी। तकरीबन एक-सी सोच। दो बंदे, एक ख्याल। एक मानुष, दूसरी मानुषी। जब खयालात साझा हुए तो दोनों की खुशी का पारावार न रहा। इसके बाद तो उन्होंने सब कुछ साझा किया। दोनों ने उल्लास के कितने ही क्षण एक साथ गुजारे और एक साथ चटकीले तारे गिने...।

फिर यह अचानक क्यों हुआ? क्यों कर बैठा इंद्र यह सब? अर्पिता सोच के बवंडर में दूर तक चक्कर खा रही थी, पर उसे कोई सूत्र न दिखाई दिया। क्यों जाग गया उसका पुरुष मन... अधिकारी दर्प। वह हताश दसों दिशाओं में दौड़ कर हार गई।

'हर रिश्ता कुछ वक्त के बाद एकनिष्ठ विश्वास मांगने लगता है... उम्मीदें जगेंगी...' सहसा अविश्वास के अंधेरे में मीनाक्षी का चेहरा चमका। ...तो क्या इंद्र भी उसे सिर्फ अपना बनाए रखना चाहता है? '...प्रेम क्या मुझे नहीं है उससे... बहुत है, पर मैं उसे अपनी बांहों में ऐसा नहीं कसना चाहती कि उसका दम घुटने लगे।'

अर्पिता के मन की वह अधखुली किताब कई रातों तक ऐसी ही खुली रही। इंद्र नहीं आया सो नहीं आया। न फोन किया न फोन उठाया। कई एसएमएस भी भेजे, पर कोई जवाब नहीं। दस दिनों के इंतजार ने अर्पि को भीतर ही भीतर बदल दिया। कितना सोच-समझ कर ऐसा रिश्ता बनाया जो सबसे अनोखा था। लिव-इन से भी आगे। कितना रोमांच, कितना नयापन और कितनी मस्ती थी। एक-दूसरे के प्रति केयर का भाव भी था। रिश्तों के बीच स्पेस की गुंजाइश भी थी। सबकुछ ठीकठाक तो चल रहा था। अचानक क्या हुआ इंद्र को... वह बड़बड़ाई। उसे यकीन नहीं हुआ कि उन दोनों के रिश्ते में कुछ ऐसा हो चुका है। झगड़े पहले भी हुए लेकिन वे अलग किस्म के थे। आम पति-पत्नी वाले नहीं... प्रेमी-प्रेमिका वाले नहीं। वे समझदार किस्म के दो सहयात्रियों की तरह लड़े, भिड़े और मिले। ...फिर अचानक क्या हुआ? इतना समझदार मर्द भी एक मामूली मर्द की तरह व्यवहार कर सकता है, तो फिर बाकी क्या बुरे हैं! सारी कविताई घुसड़ गई कवि जी की... स्त्री स्वातंत्र्य पर लंबा भाषण देने वाले बंदे का ये चेहरा! क्या करूं... क्या करूं... मुट्ठियां भींचे अर्पि का पारा चढ़ता चला जा रहा था। अब नहीं आएगा कभी इंद्र! उसे लगा उसने खो दिया उसे हमेशा-हमेशा के लिए... उसे महसूस हुआ कि उसके भीतर की टूट-फूट ने इस दिलचस्प रिश्ते में उसके भरोसा को भी तोड़ दिया है। औरत-मर्द के बीच कुछ अनोखा नहीं घट सकता... वे नर-मादा ही बने रहेंगे...। एक नए खेल का भाव उसके भीतर उठ रहा था। एक और स्त्री भीतर जन्म ले रही थी।

अर्पिता उठी। उठना पहली दफा उसे इतना कठिन और पीड़ादायी लगा। लैपटॉप लेकर वह बेड पर बैठ गई। फेसबुक ऑन किया। हमेशा स्टेटस को इनविजिबल रखने वाली अर्पि ने पहली बार उसे विजिबल कर दिया। हरी बत्ती जलते ही दिखने लगे अनगिन लोग, तरह-तरह के लोग, चैट के न्योते आने लगे, मानो वे कब से उसका ही इंतजार कर रहे थे। फेसबुक पर देर रात चैट को उतावले लोगों की संख्या देखकर एकबारगी अर्पि को हंसी आ गई। जिसे देखो वही पूछ रहा है... 'व्हाट आर यू डूइंग?' कुछ तो वीडियो चैट के लिए उकसा रहे हैं। 'नो... नो वीडियो चैट प्लीज... क्या कर रही हूं...? मर्द ढूंढ़ रही हूं... मिलेगा क्या?'

'हाहाहाहा... सिली गर्ल... जोकिंग...।'

'नो... आय'म सीरियस...।'

'यू आर जोकिंग सीरियसली...।' किसी ने मजाक किया।

'क्यों... व्हाई... बिकाज आयम ए गर्ल, इसलिए आपको जोक लग रहा है। नीड ए मैन फॉर टुनाइट... फ्री ऑफ कॉस्ट... ओके...।'

स्त्री का इतना खुला आमंत्रण देख कर कुछ हरी बत्तियां लाल हो गईं और कुछ इनविजिबल।

'स्सालो... फट गई क्या? तुम औरतें ढूंढ़ो... जाल फेंको तो ठीक... और अगर कोई औरत वही करे तो जोक लगता है। मछली की तरह फंसने वाली औरतें चाहिए... शेरदिल औरत नहीं... ये पांच हजार दोस्त मेरे... फेसबुक पर दोस्त बनने के आग्रह भेज भेज कर खून पीते रहे... आज उन्हें लग रहा है मैं मजाक कर रही हूं। गो टु हेल्ल...।'

उफ्फ इतना वक्त हो गया... घड़ी के कांटों के लिहाज से मिडनाइट।

ओह, यह ठीक रहेगा। वह बुदबुदायी। तभी एक चैट चमकी।

वाउ... लुकिंग यंग एंड हैंडसम, नाम आकाश।

आकाश... उड़ान का शौकीन। उसका प्रोफाइल खोला। शानदार तस्वीरें। फ्लाइट के साथ, पायलट की ड्रेस में। स्वीमिंग पूल में नहाते हुए। स्टेटस सिंगल और इंटेरेस्टेड इन वीमेन वनलि। अर्पिता को पूरा प्रोफाइल भा गया। हां... ये बंदा ठीक रहेगा। इससे जमाती हूं। आज वह बिना घुमाए-फिराए बात करना चाहती थी। बहुत हो गया।

'हाय डियर, व्हाट्स अप...?' आकाश चहका।

'क्या तुम अभी आ सकते हो आकाश?' कोई लागलपेट नहीं, सीधा प्रस्ताव।

आकाश थोड़ी देर तक चुप रहा फिर पूछा, 'आर यू रियली सीरियस?'

'यस ड्यूड... ज्यादा सवाल नहीं... मिल कर करेंगे सारी बातें। ज्यादा मत पूछो। मेरे बारे में सबकुछ मेरे प्रोफाइल में लिखा है और मेरा ताजा अपडेट भी पढ़ लिया होगा... मैं इमोशनल ट्रॉमा में हूं... देखो, सबसे ज्यादा मर्दों ने इसे लाइक किया है...।' अर्पि का मन थोड़ा हल्का हुआ।

उसने फिर लिखा, 'मुझे कहीं भी दूर ले चलो, मैं तुम्हारे साथ एक रात बिताना चाहती हूं... यस तुम्हारे साथ। लेकिन अपने बेड पर नहीं, अपने फ्लैट पर नहीं... कहीं और...।'

आकाश ने आने में देर नहीं की। अर्पिता ने दरवाजा अधखुला छोड़ दिया था। बेल या दस्तक की कोई जरूरत नहीं।

'चले आओ आकाश। आई एम वेटिंग फॉर यू।' आकाश आया। वह तुंरत उसके साथ हो ली। आकाश ड्राइव करता रहा। इधर-उधर की बातें। लतीफे... कुछ मौसम... कुछ म्यूजिक की बातें। गुड़गांव पहुंचने में ज्यादा देर नहीं लगी। दोनों सेकेंड फ्लोर पर पहुंचे। आकाश ने बंद फ्लैट खोला। छोटा लेकिन साफ-सुथरा फ्लैट। डबल नहीं दो सिंगल बेड, क्या फर्क पड़ता है। आकाश ने स्कॉच के दो पैग बनाए। अर्पिता ने अपने लिए तगड़ा पैग बनाया। आज कोई सोडा नहीं, नो आइस, ऑन दी रॉक्स। कमरे में स्वर लहरियां तैरती रहीं। दोनो थिरकते रहे। आकाश के हाथ उसके कंधों से फिसल कर वक्ष... फिर कटि... और फिर नितंबों तक आ गए। कपड़े जिस्म से कब जुदा हुए दोनों को पता ही नहीं चला। देह प्रत्यंचा-सी फिर तन गई। आकाश पर बिजली के फूल का नशा छा गया। देह देर तक देह को मथती रही।

जीवन का एक नया अध्याय। ओल्ड चैप्टर इज ओवर... अर्पिता ने सोचा। उसने मान लिया था कि इंद्र अब कभी नहीं आएगा। इंद्र से नोकझोंक पहले भी हुई थी, लेकिन इस तरह वाक ओवर, ऐसा बहिर्गमन, वो भी बेबात पर। अर्पिता ने इंद्र को जेहन से झटक दिया। जिस प्रेम को बचाने के लिए अर्पिता ने सबकुछ किया। अलग तक रही। कभी पैसा दिया तो मांगा नहीं, देकर भूल गई। सब कुछ अर्पित कर दिया। नेह में पगी हुई देह वार दी। उसके बाद ऐसा सुलूक। वह शायद रिश्तों में बंधने के लिए नहीं बनी थी, या प्रेम उसे रास नहीं आता। धोखा... छल और उसके बाद अविश्वास की यह काली चादर उसे लपेट कर खाई में पटक गई थी। अर्पिता चाहती तो बॉस के साथ भी रिश्ता जोड़ सकती थी। लेकिन नहीं... वह बता नहीं पाई इंद्र को कि कैसे उसने बॉस के प्रेम प्रस्ताव को खारिज करके हमेशा के लिए दफ्तर में अपने लिए एक शक्तिशाली दुश्मन पैदा कर लिया। अपनी थ्योरी के उलट उसने इंद्र का साथ चुना। तो क्या वह खुद भी इंद्र के प्रेम में थी? वह बुदबुदाई, हम जो दुनिया अपने लिए बनाते हैं उसके नागरिक भी हमें खुद ही चुनने पड़ते हैं। इंद्र उसकी दुनिया के पहले ना सही, आखिरी नागरिक में तब्दील हो रहा था कि अचानक ये सब...।

अर्पिता आकाश के साथ उसके फ्लैट से निकल सीढ़ियां उतर रही थी। वे रात भर साथ रहे। कोई पर्सनल सवाल नहीं कि उन्हें पर्सनल नहीं होना था। यह पहली और आखिरी मुलाकात है। आकाश ड्राइविंग सीट पर बैठ गया। अचानक अर्पिता के मोबाइल पर फोन की घंटी घनघना उठी। उधर इंद्र था। भीगी हुई पश्चात्ताप से भरी आवाज।

'मैं वापस आ रहा हूं, अर्पि। मैं नहीं रह सकता तुम्हारे बिना... मुझे माफ कर दो... अब हम साथ-साथ रहेंगे... हमेशा-हमेशा के लिए... शादी भले ना करना, लिव-इन... अलग-अलग नहीं... सुन रही हो ना अर्पि।' उसका हर शब्द तरल होकर मानो बह रहा था।

अर्पिता के गले में कुछ अटक गया। कंठ रुंध गया। बमुश्किल उसने रुलाई रोकी। कहा, 'इट इज टू लेट, इंद्र...' और फोन काट दिया। उसे सुनाई दिया। इंद्र कह रहा था- 'इट इज नेवर टू लेट, अर्पि।'

वह आकाश के बगल की सीट पर बैठ गई। उसके होंठ कांप रहे थे। आकाश ने उसे देखा, गाड़ी स्टार्ट की और खाली सड़क पर बढ़ा दी। गुड़गांव-दिल्ली को जोड़ने वाली एक्सप्रेस हाइवे थोड़ी गीली थी। लगता है कि इस ओर कल रात जमकर बारिश हुई होगी। एफएम पर पुरुष आवाज में एक भाषण बज रहा था... 'आज सभ्यता का संकट सबसे ज्यादा है। यह सभ्यता शरीर का सुख खोजती है, इसलिए यह सभ्यता अधर्म है... मनुष्य की मुक्ति का रास्ता...' आकाश ने वाक्य पूरा होने से पहले रेडियो बंद कर दिया। अर्पिता की तरफ देखा। कुछ देर देखता रहा। उसके लिए मानसिक रूप से बिल्कुल अजनबी इस लड़की का चेहरा जलबुझ रहा था। उसने पूछा कुछ नहीं, क्योंकि पर्सनल नहीं होना था...।