गोरी है गंगा और सांवली यमुना... / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 31 जुलाई 2013
अभिनेत्री एवं फिल्मकार नंदिता दास ने गोरा रंग करने की सारी क्रीम और औषधियों के खिलाफ इंटरनेट पर मोर्चा खोल लिया है, जिसका वैकल्पिक संसार में जमकर स्वागत हुआ है। नंदिता दास का कहना है कि वे जानती हैं कि शाहरुख खान जैसे सितारे गोरा होने की क्रीम का विज्ञापन करते हैं, परंतु वे व्यावसायिक सितारा हैं तथा उन्हें अपना काम चुनने की स्वतंत्रता है।
उनका विरोध किसी व्यक्ति से नहीं है और किसी प्रचार या मुहिम को भी वे रोक नहीं सकतीं, परंतु उनका उद्देश्य है कि मनुष्य अपने सोच-विचार में परिवर्तन करे तथा गोरे रंग के प्रति अपने मोह से मुक्ति प्राप्त करे। सांवली दुल्हन के लिए अधिक दहेज मांगने की धारणा को बदला जाना चाहिए। दरअसल, दहेज मांगना ही गलत है। दास का कहना है कि शत्रु प्रचार या प्रोडक्ट नहीं वरन आपके भीतर बैठा है, जो व्यक्ति की सीरत के बदले उसकी सूरत देखता है।
ज्ञातव्य है कि नूतन के पति रजनीश बहल ने 'सूरत और सीरत' फिल्म बनाई थी, जिसकी थीम भी यही थी। अशोक कुमार अभिनीत 'मेरी सूरत तेरी आंखें' भी इसी थीम पर बनी थी और सचिन देव बर्मन तथा शैलेंद्र के गीत को मन्ना डे ने आत्मा से गाया था- 'पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई, एक जले दीपक, एक मन मेरा, फिर भी न जाए मेरे मन का अंधेरा...।'
'हंचबैक ऑफ नाट्रेडम' फिल्म में एक बदशक्ल इंसान को एक खूबसूरत नारी से प्यार हो जाता है। इस उपन्यास से प्रेरित फिल्म 'बादशाह' अमिय चक्रवर्ती ने बनाई थी। बिमल रॉय की 'सुजाता' की नायिका भी सांवली थी और ख्वाजा अहमद अब्बास की 'चार दिल चार राहें' में भी मीना कुमारी ने सांवली युवती की भूमिका निबाही थी। फिल्म उद्योग भी हमारे समाज की तरह गोरे रंग से मोहित है और नंदिता दास कहती हैं कि स्मिता पाटील को लंबे समय तक अपने सांवले रंग के कारण बहुत अन्याय सहना पड़ा। यह समस्या केवल नारी तक सीमित नहीं, सांवले रंग के पुरुषों और कलाकारों को भी रंग के आधार पर परखा जाता है। मिथुन चक्रवर्ती को भी गहरा संघर्ष करना पड़ा। आम जीवन में किसी व्यक्ति को 'कालू' कहकर संबोधित करना आम बात है। महमूद ने अपनी एक फिल्म में इस तरह का गीत भी रखा था कि 'हम काले हैं तो क्या हुआ दिलवाले हैं...'। भारत के विषय में एक प्रसिद्ध किताब में लेखक का विचार है कि भारतीय लोगों को गोरा रंग, नदियां और मेले-तमाशे बहुत पसंद हैं। अमेरिका के रंग-भेद और भारत के रंग-भेद में बहुत अंतर है, परंतु दोनों ही सामाजिक व्याधियां हैं। अमेरिका में यह मिथ भी है कि राजनीति में सुंदर, सुदर्शन व्यक्ति को अधिक मत मिलते हैं। हालांकि अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति बराक ओबामा ने इस मिथ को दो बार भंग किया है।
समाज में मौजूद दृष्टिकोण के कारण ही रंग गोरा करने की क्रीम का उद्योग इतना फला-फूला है। व्यापारी को दोष देना गलत है और दृष्टिकोण बदलने के अवसर कम ही लगते हैं, क्योंकि यह सदियों पुराना है। जो युवा वर्ग बाजार का केंद्र है और परिवर्तन की गुहार करता है, उसी पर सब कुछ निर्भर करता है। यह संभव है कि परिवर्तन का आग्रह चुनिंदा चीजों में ही है और उसकी सुख-सुविधा के परे वह कोई क्रांति चाहता भी नहीं है अन्यथा शादी के बाजार में भी परिवर्तन आ जाता है। आश्चर्य की बात यह है कि दक्षिण में भी गोरे रंग का प्रबल आग्रह है। स्पष्ट है कि इसकी जड़ें गहरी हैं और क्षेत्रवाद या जातिवाद इसकी सीमा नहीं है। यह हमारे अवचेतन में गहरी पैठी हुई ग्रंथि है। सांवली कन्याओं की माताएं भी गोरी बहुओं की कामना करती हैं। इसका सीधा संबंध वंश-बेल से जुड़ा है। हमारे आख्यानों और किवदंतियों में देवता और मनुष्य गोरे रंग के हैं और राक्षसों तथा जनजातियों को काले रंग का बताया गया है। बस्तर में कांकेर क्षेत्र की जनजाति के लोगों का रंग अंग्रेजों की तरह गोरा है। अमेरिका में भी काले रंग के कुछ दंपतियों के कुछ शिशु गोरे रंग के जन्म लेते हैं। हमने नारी ही नहीं वरन नदियों में भी यह भेद रखा है कि गंगा गौरवर्ण है तथा यमुना सांवली है। कथा है कि सांवरे कृष्ण के कालिया मर्दन के बाद यमुना सांवली हो गई