गोरे रंग पे इतना गुमाँ न कर / सुरेश कुमार मिश्रा
हमारे एक अविवाहित मित्र हैं। सुबह-शाम अपना चेहरा चमकाने में लगे रहते हैं। पता नहीं कहाँ से कोई फेयरनेस क्रीम उठा लाए कि हर घंटे चेहरे पर लीपा-पोती करते रहते हैं। फिर कुछ देर हवा में बैठते हैं। कभी सुखाते हैं और फुर्र से बाथरूम में घुस जाते हैं। वहाँ गुनगुने पानी से बार-बार चेहरा धोते हैं। बाहर आने के बाद टॉवेल लेकर रगड़-रगड़ कर चेहरा ऐसा पोंछते हैं मानो उनका चेहरा, चेहरा न हो कोई मर्सिडीज़ कार हो। यह इनका रोज़ का ड्रामा है। उनकी माँ उनसे कह-कह कर थक गयी। यह महाशय हैं कि अपनी हरकतों से बाज नहीं आ रहे हैं। एक दिन उनकी माँ ने मुझे समझाने के लिए कहा। मैं समझाने के लिए बैठा ही था कि मित्र ने टी.वीं। चला दिया। उस पर फेयरनेस क्रीम का एड आ रहा था। जिसमें एक युवक अपनी काली चमड़ी को लेकर बड़ा परेशान था। वह लाख कोशिश करता लेकिन गोरा न हो सका। तभी हीरो की एंट्री होती है, वह उसे एक फेयरनेस क्रीम देता है। फिर क्या था, युवक अपने चेहरे पर फेयरनेस क्रीम लगाकर एकदम गोरा चिट्टा बन जाता है। मानो उसका चेहरा-चेहरा न हो कोई दर्पण हो। एड की ख़ास बात यह थी कि गोरा न होने पर पैसा लौटाने वाली स्क्रोलिंग बरबस सबका ध्यान खींच रही थी। इससे पहले कि मैं अपने मित्र को कुछ समझाता वह मेरा ज्ञान गुरु बन बैठा। मुझे भी फेयरनेस क्रीम खरीदने पर ज़ोर देने लगा। अब मैं आपको क्या बताऊँ, बड़ी मुश्किल अपनी जान छुड़ा पाया।
कदाचित् वृंद जी इस बात को भली भांति जानते थे। इसीलिए उन्होंने सैकड़ों साल पहले ही कह दिया था-रोपै बिरवा आक को आम कहाँ ते होइ। अरे भाई! जब हमारा डी.एन.ए. ही हमें गोरा देखना नहीं चाहता है तो फिर फेयरनेस क्रीम किस खेत की मूली है। अगर सब ऐसे ही गोरे बन जाते तो वेस्टइंडीज़ में कोई भला काला क्यों होता? तेलुगु में एक कवि हुए हैं, जिनका नाम है-वेमना। वे गला फाड़-फाड़कर कह गए कि काली चमड़ी को जितना भी रगड़ो-धोओ, वह गोरी कभी नहीं हो सकती। अब आजकल के लोगों को कौन समझाए? आशावान होने की भी एक हद होती है। पता है कि प्रोब्लेम जड़ में है और एक हम हैं कि बस फूल, पत्ती ही नोंचे जा रहे हैं। वह तो शुक्र मनाइए कि अमेरिका में जॉर्ज फ़्लॉयड की मौत के बाद शुरू हुए 'ब्लैक लाइव्स मैटर' यानी कि काले लोगों की ज़िन्दगी का भी महत्त्व होता है, मुहिम के दौरान हाल के हफ़्तों में गोरा-चिकना बनाने वाली कंपनियों को ऐसे उत्पाद बेचने के लिए कड़ी आलोचना का सामना करना पड़ रहा है, जिनसे रंगभेद को बढ़ावा मिलता है। आज रंगभेद की आग में फेयर एंड लवली जैसी दिग्गज कंपनी का फेयर शब्द जलकर राख हो रहा है।
दरअसल, पूरे विश्व में गोरेपन के प्रोडक्ट्स का बाज़ार अरबों-खरबों का है। आप अपनी त्वचा को साफ़ रख सकते हैं, अच्छे खान-पान से चमका सकते हैं, लेकिन उसका रंग नहीं बदल सकते। यह सच्चाई जानते हुए भी अधिकतर शादी वाले विज्ञापन वही घिसे-पिटे शब्दों में होते हैं, जैसे-लड़की गोरी, पतली, लंबी होनी चाहिए फलाँ-फलाँ आदि। हमें चेहरे के रंग बदलने वाले लाखों प्रॉडक्ट्स मिल जाते हैं। उससे रंग बदलता है या नहीं वह रामजाने! काश एक ऐसा भी प्रॉडक्ट मिल जाता जो कभी जाति के नाम पर तो कभी धर्म के नाम पर, कभी भाषा के नाम पर तो कभी प्रांत के नाम पर, कभी ऊँच के नाम पर तो कभी नीच के नाम पर, कभी मत के नाम पर तो कभी संप्रदाय के नाम पर, कभी फलाँ के नाम पर तो कभी ढंका के नाम पर रंग बदलने वाले गिरगिट की पहचान करा पाता और एकता, भाईचारा, प्रेम, शांति का स्थाई रंग दे पाता। कितना अच्छा होता कि हर कोई बयाँ अहसनुल्लाह खान के शब्दों को समझ पाता तो यह बहस ही न होती-
सीरत के हम ग़ुलाम हैं, सूरत हुई तो क्या।
सुर्ख़ ओ सफ़ेद मिट्टी की, मूरत हुई तो क्या॥