गोल्डन बैल्ट / ख़लील जिब्रान / सुकेश साहनी

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[अनुवाद : सुकेश साहनी]

सालामिस शहर की ओर जाते हुए दो आदमियों का साथ हो गया। दोपहर तक वे एक नदी तक आ गए, जिस पर कोई पुल नहीं था। अब उनके पास दो विकल्प थे–तैरकर नदी पार कर लें या कोई दूसरी सड़क तलाश करें।

“तैरकर ही पार चलते हैं,” वे एक दूसरे से बोले, “नदी का पाट कोई बहुत चौड़ा तो नहीं है।”

उनमें से एक आदमी, जो अच्छा तैराक था, बीच धारा में खुद पर नियंत्रण खो बैठा और तेज बहाव की ओर खिंचने लगा। दूसरा आदमी, जिसे तैरने का अभ्यास नहीं था, आराम से तैरता हुआ दूसरे किनारे पर पहुंच गया। वहाँ पहुँचकर उसने अपने साथी को बचाव के लिए हाथ पैर मारते हुए देखा तो फिर नदी में कूद पड़ा और उसे भी सुरक्षित किनारे तक ले आया।

” तुम तो कहते थे कि तुम्हें तैरने का अभ्यास नहीं है, फिर तुम इतनी आसानी से नदी कैसे पार गए? ‘ पहले व्यक्ति ने पूछा।

“दोस्त,” दूसरा आदमी बोला, “मेरी कमर पर बँधी यह बैल्ट देखते हो, यह सोने के सिक्कों से भरी हुई है, जिसे मैंने साल भर मेहनत कर अपनी पत्नी और बच्चों के लिए कमाया है। इसी कारण मैं आसानी से नदी पार कर गया। तैरते समय मैं अपने पत्नी और बच्चों को अपने कन्धे पर महसूस कर रहा था।”

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