गोवा में फिल्म समारोह और दूरदर्शन / जयप्रकाश चौकसे

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गोवा में फिल्म समारोह और दूरदर्शन
प्रकाशन तिथि : 17 नवम्बर 2014


आज से गोवा में देश-विदेश के फिल्मकार और फिल्म प्रेमी जमा होना शुरू होंगे क्योंकि बीस तारीख से अंतरराष्ट्रीय समारोह प्रारंभ होने जा रहा है। विगत कुछ वर्षों से गोवा में ही ये समारोह आयोजित होता है। इसके पूर्व एक वर्ष दिल्ली और दूसरे वर्ष किसी अन्य शहर में समारोह होता था परंतु पेरिस में स्थित अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह को नियंत्रित करने वाले संगठन का आग्रह था कि अन्य देशों की तरह भारत में एक ही शहर में आयोजन किया जाए। ज्ञातव्य है कि भारत में कथा फिल्म निर्माण के अड़तीस वर्ष पश्चात नेहरू की पहल पर पहला अंतरराष्ट्रीय समारोह 1951 में मुंबई में आयोजित हुआ।

नेहरू ने इंग्लैंड और पेरिस में अनेक देशों की फिल्में देखी थीं और वे चाहते थे कि भारतीय फिल्मकार अपने हॉलीवुड मोह से मुक्त होकर पूरे विश्व की चुनिंदा फिल्में देखें। पहले समारोह में डी सिका की नव यथार्थवादी इतालवी फिल्मों ने हमारे फिल्मकारों को बहुत प्रभावित किया। बिमल राय ने 'दो बीघा जमीन', ख्वाजा अहमद ने 'जिन्ना', जिया सरहदी ने 'हमलोग' और राजकपूर ने 'बूट पॉलिश' इसी प्रभाव के कारण रची और आज तक नव यथार्थवाद के प्रभाव में कुछ फिल्में समय-समय पर बनती रही। स्वयं सत्यजीत राय ने इन फिल्मों को लंदन में देखा था और उन्होंने 1955 में 'पाथेर पांचाली' प्रदर्शित करके विश्व सिनेमा में अपना स्थान बनाया और उन्होंने अपने कॅरिअर में जितने अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त किए उतने कई देशों के सारे फिल्मकारों ने मिल कर नहीं जीते। यूरोप के जिस सिनेमा घर में पाथेर पांचाली का पहला प्रदर्शन हुआ था उसने आज तक फिल्म के सम्मान में एक पोस्टर लगाए रखा है।

फिल्म समारोह के आयोजन पर करोड़ों रुपयों का खर्च आता है और चंद दर्शक ही इन्हें देख पाते हैं। अत: दूरदर्शन को उत्सव में प्रदर्शित प्रमुख फिल्मों के अधिकार खरीद कर सारे देश के दर्शकों के लिए उनका प्रदर्शन करना चाहिए। हमारे देश में प्राय: सरकारी खर्च का लाभ चुनिंदा वर्ग को ही मिलता है और अवाम उनसे वंचित रह जाता है। दूरदर्शन को अधिक सक्षम बनाना देश के हित में है क्योंकि आज भी उसकी पहुंच प्राइवेट चैनलों से अधिक है। प्रांतीय सरकारें भी केबल को निर्देश दे सकती है कि दूरदर्शन को महत्व दें। दूरदर्शन पर प्रस्तुत 'गालिब' तो डीवीडी पर उपलब्ध है परंतु अन्नू कपूर अभिनीत 'कबीर' और शरद जोशी का लिखा 'यह जो जिंदगी है' उपलब्ध नहीं है। इनका दूरदर्शन पर पुन: प्रसारण आवश्यक है।

इस वर्ष के समारोह में ख्वाजा अहमद अब्बास जिनका यह जन्म शताब्दी अवसर भी है तथा सर रिचर्ड एटनबरो पर आदरांजलि का विशेष सेक्शन भी रखा गया है। ज्ञातव्य है कि सर रिचर्ड एटनबरो का इस वर्ष निधन हुआ है। उनकी 'गांधी' फिल्म इतिहास में मील का पत्थर है और 'गांधी' के पहले या 'गांधी' के बाद वे उतनी महान कोई फिल्म नहीं बना पाए।

कुछ विषय पारस की तरह अपने छूने वाले को सोना बना देते हैं। भारत की राजनीति में सभी दल आज तक गांधी के नाम का इस्तेमाल करके उनकी विरासत पर अपना एकाधिकार घोषित करने के लिए लालायित हैं क्योंकि वे आज भी वोट दिलाते हैं। दरअसल गांधी जी की छवि भारत में नेता से अधिक एक संत की है और हमारी परम्परा संत को पूजने की रही है।

गांधी जी के सबसे अधिक प्रिय नेहरू जिन्हें वे अपना उत्तराधिकारी भी मानते थे पर कई लोग विवाद करते हैं क्योंकि परम बुद्धिजीवी महान लेखक, विशेषकर वामपंथी झुकाव वाले लेखक की छवि पर कीचड़ उछाला जा सकता है जो हम किसी संत के साथ नहीं करते। हमारा अवाम धार्मिक एवं भावना प्रधान है, इसलिए तर्क को महत्व देना यहां कभी लोकप्रिय नहीं हो सकता। विज्ञान का छात्र भी परीक्षा के समय मंदिर में प्रार्थना करता है और बिल्ली के रास्ता काटने पर ठिठक जाता है। हमने जीवन को-स्वतंत्र जीवन को अनेक खांचों में बांट दिया और अधिकांश व्यक्तियों का अधिकांश समय और ऊर्जा स्वयं से लड़ने में ही नष्ट होती है क्योंकि हमें मनपसंद काम नहीं चुनने दिया जाता।