गोविंदा डेविड से खफा क्यों हैं? / जयप्रकाश चौकसे

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गोविंदा डेविड से खफा क्यों हैं?
प्रकाशन तिथि : 03 नवम्बर 2014


आजकल गोविंदा अपनी सत्रह फिल्मों के निर्देशक डेविड धवन से खफा हैं। उनकी शिकायत है कि उनके बुरे दिनों में डेविड धवन ने उनसे फोन तक पर बात नहीं की। इसका अर्थ यह भी है कि जब तक वह बिकाऊ सितारा था तब तक ही डेविड धवन ने उनसे संपर्क बनाए रखा। अब तो डेविड धवन का अपना बेटा ही सितारा है। गोविंदा आहत हैं परंतु डेविड धवन से कोई दुश्मनी नहीं करना चाहते। अभी हाल ही में गोविंदा को अक्षय कुमार अभिनीत 'हॉलिडे' में खूब सराहा गया है आैर 'किल-दिल' के प्रोमो में गोविंदा चमक रहे हैं। सफलता मनुष्य को वाचाल बना देती है, उसकी खामोशी टूट जाती है आैर दु:ख के दिनों में संचित दर्द की अभिव्यक्ति वह करता है।

गोविंदा स्वयं फिल्म परिवार की दूसरी पीढ़ी है आैर उनके पिता ने सफलता के बाद घोर असफलता देखी तथा श्रेष्ठि वर्ग की रिहाइश पॉली हिल छोड़कर उन्हें उपनगर विरार में बसना पड़ा। गोविंदा विरार की अभाव भरी हालात में ही जवान हुआ आैर परिश्रम तथा प्रतिभा से सफलता अर्जित करके पुन: श्रेष्ठि वर्ग की रिहाइश क्षेत्र जुहू में गया परंतु विरार की कड़वाहट वह कभी भूल नहीं पाया। डेविड धवन भी मध्यम वर्ग के हैं आैर उनके भाई को बाबूराम इशारा की सनसनीखेज 'चेतना' में अल्पकालिक ख्याति मिली थी। डेविड धवन पूना संस्थान संपादन में प्रशिक्षित होकर आए आैर उनके प्रारंभिक निर्देशकीय प्रयास असफल रहे। अगर गोविंदा गरीबी के दिनों से कड़वाहट लेकर आए थे तो डेविड धवन पूना में प्राप्त क्लासिक सिनेमा का अध्ययन पूना ही छोड़कर केवल मसाला फिल्म के लिए उद्योग से जुड़े। एक की अमिट स्मृति दूसरे को ज्ञान के अतिरिक्त बैगेज को त्यागने के बीच कहीं रिश्ता है, एक सम्मोहित है तो दूसरा बंधन मुक्त है। एक दुर्दिन की स्मृति की माला फेर रहा है तो दूसरा व्यवसायिकता के प्रति एकनिष्ठ है। उन दोनों के बीच लंबा अबोला इसी दृष्टिकोण के अंतर से जन्मा है।

गोविंदा जन्मजात प्रतिभाशाली कलाकार है परंतु धन के आते ही, वह स्वयं अपनी कला का दुश्मन हो गया। उसने अपने निर्माताआें को तंग किया, सेट पर देर से जाना आैर आउटडोर में अपने मालेशिया आैर कुक को ले जाना इत्यादि। वह यह कैसे भूल गया कि उसके तात्कालिक निर्माताआें का उसके पिता की असफलता या उसका आर्थिक तंगी में जवान होने में कोई दोष नहीं। दर्द को कोड़ा बनाकर निर्दोष की पीठ पर बरसानेे से विगत की किसी घटना की क्षतिपूर्ति नहीं होती। दरअसल यह मुद्दा एक व्यापक अर्थ रखता है कि अधिकांश लोग वर्तमान के क्षण में विगत की छाया या भविष्य की आशंका के हव्वे को पीटते रहते हैं आैर पलक झपकते ही वर्तमान का क्षण मुट्ठी से निकल जाता है। वर्तमान में बने रहना बड़ी सिद्धि है। अतीत एक सम्पत्ति है जिससे छोटी किश्तें निकाली जा सकती है परंतु सहानुभूति अर्जित करने के लिए उसका जाप नहीं करना चाहिए। अग्नि संस्कार या खाके सुपर्द करना केवल शरीर का मामला नहीं है, यह संकेत है विगत से मुक्त होकर वर्तमान में जीने का। उसे केवल स्वच्छता का अंग मत मानिए, वह वैचारिक सड़न से उबरने का संदेश है। आजकल स्वच्छता अभियान पर ऐसा जोर दिया जा रहा है मानो वह मौलिक पहल हो परंतु गंदगी की जड़ गरीबी है, साधनों का अभाव है, उसे दूर करने को अब नारा नहीं बनाया जा सकता क्योंकि वह नकल कहलाएगी। अज्ञान गरीबी मूल बीमारियों के निवारण के बदले लाक्षणिक इलाज हमारा राष्ट्रीय शगल है क्योंकि इन मूल बीमारियों का निवारण करते ही शोषण अर्जित भवन आैर व्यवस्था नष्ट हो जाएंगे।

बहरहाल गोविंदा की दूसरी पारी 'पार्टनर' से शुरू हुई थी परंतु गोविंदा की लेट-लतीफी लौट आई आैर अब तीसरी पारी प्रारंभ हो सकती है परंतु उनके सुधर जाने की संभावना कम है। यह अजीब है कि अच्छी आदतें छूट जाती है, बुरी लतें हमेशा कायम रहती है। डेविड धवन की एकमात्र आदत, एकमात्र मानदंड हमेशा बॉक्स ऑफिस रहा है आैर इस मामले में उसकी एकनिष्ठता की प्रशंसा करनी होगी। वह भूले से भी सार्थक फिल्म नहीं बनाना चाहता। गोविंदा आैर डेविड की अनबन इस बात से शुरू हुई कि गोविंदा ने उसे सुझाव दिया कि सई परांजपे की 'चश्मे-बद्दूर' को बनाए आैर डेविड ने उसमें सईद जाफरी वाली भूमिका गोविंदा को देकर ऋषिकपूर को दी क्योंकि उस समय ऋषिकपूर बाजार में दम रखता था। अगर गोविंदा कोई मौलिक कथा विचार देते तो बात अलग हो जाती परंतु रीमेक तो भारतीय सिनेमा के डीएनए में शामिल है।