गोविंद मिश्र से बातचीत / लालित्य ललित

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लालित्य ललितः मिश्र जी आपने बहुत लिखा-पढ़ा जब लिखे हुए पर मित्रों व पाठकों की प्रतिक्रियाएं आती हैं तो आपको कैसा लगता है? क्या भीतर कोई हलचल, ताजगी या स्फूर्ति मिलती है?

गोविंद मिश्रः अब बहुत कुछ नहीं होता। क्योंकि इतना आदि हो गया हूं कि यह दिखाई दे जाता है कि यह प्रतिक्रिया उपर उपर की है, सतही है, बहुत थोड़ा सा पढ़े हुए है, या बहुत गहरे से उद्द्वेलित होने की है प्रतिक्रिया है। जो उद्द्वेलित कर के आई है वो चाहे आलोचना हो, चाहे प्रशंसा हो वो अच्छी लगती है।

लालित्य ललितः क्या अपना लिख हुआ संतुष्टि देता है?

गोविंद मिश्रः वो तो खैर किसी को नहीं होता। नहीं आदमी लिखना ही न बंद कर दे। संतंष्ट नहीं होता। दूसरे मेरा कुछ ऐसा रहा है कि एक चीज लिखने के बाद दूसरी चीज तत्काल खड़ी होती है। तो उसमें लग जाता हूं। मैंने ज्यादा तर उपन्यास ताम प्रकाशन को दिए। या दूसरा कोई उपन्यास आकर दस्तक देने लगता है तब मैं उसे हमारे यहां जाए। जो लिख हुआ है उससे थोड़ी दूरी भी महसूस होने लगती है। जैसे संतानों के बारे में होता है। मसलन बच्चों की दुनिया बस जाती है तब उनसे थोड़ी दूरी सी हो जाती है। उसी तरह मेजर रचनाएं है। चली गईं जहां जाना था जिसको।

लालित्य ललितः क्या पुरस्कारों की राजनीति जो ज्यादा बढ़ चुकी है। हर जगह पुरस्कार संबंधों और टंटा पर टिका है। इसपर क्या कहते हैं?

गोविंद मिश्रः केवल पुरस्कार ही क्यों राजनीति तो और चीजों की भी बढ़ी हैं। जैसे पत्रिकाएं जितनी निकल रही हैं लगभग सब थर्ड क्लास हैं। पेड़ों का इसमें कितना अपव्यय हो रहा है। हर विभाग हिन्दी के नाम पर पत्रिका निकालता है। जिसमें अधिकारियों की फोटे छापती रहती हैं। अधिकारियों का क्या मूल्य। इसी तरह पुरस्कारों का है। मसलन 2011 में मुझे जो पुरस्कार मिला उसकी महत्ता क्यों है? जब मैं विश्वविद्यालय में पढ़ता था 1955 में, तब इसका नाम था। महादेवी वर्मा को पहला वाला मिला था। हमारेे समय में राम कुमार वर्मा को मिला था। पुरस्कारांे का यह एक रोल होता था कि जिन बड़े लोगों के साथ आप बैठ रहे हैं पुरस्कारों में उनका थोड़ा सा प्रतिछाया पड़े कि आप उस परंपरा में है। वहीं कुछ लोग तो अपने को महत्व देने के लिए पुरस्कार स्थापित करते हैं। कि मैं किंग मेकर नाउं। पुरस्कार भी हास्यास्पद ढाई हजार, पांच हजार या दो हजार। भोपाल में ही देखो रोज ही यहां कोइ्र न कोई अलंकरण होता है। बिना पैसे के भी होते हैं। लोग प्रसन्न हैं। साहित्य जैसे गली गली में लेखक हो गए हैं। बटुक चतुर्वेदी मिले कहने लगे आप बड़े बड़े पुरस्कार पा चुके हैं। हम भी आपको पुरस्कृत करना चाहते हैं। लेकिन आप लेंगे नहीं क्योंकि राशि कम है। मैंने कहा राशि की उतनी बात नहीं है। आप सम्माननीय व्यक्ति से पुरस्कृत कराइए।

लालित्य ललितः मिश्र जी आपने किस उम्र में लिखना शुरू किया था और आपकी पहली कहानी कौन सी थी?

गोविंद मिश्रः यही कोई तेरह चौदह साल की उम्र होगी जब इंटर में पढ़ते थे। वैसे बता दूं कि हिन्दी बस 12 दर्जे तक पढ़ा हूं। उसके बाद हिन्दी पढ़ने की कोई योग्यता है नहीं। जो पढ़ा है वो साहित्य में आने के बाद ही पढ़ा है। पहली कहानी तो उस वक्त लिखी थी। फिर विश्वविद्यालय की हॉस्टल में लिखी जो कॉलेज की मैंग्जीन में छपी। लेकिन पहली कहानी जो स्वीकृत हुई और छापी गई वो थी माध्यम पत्रिका जिसमें बाल कृष्ण राव आईसीएस, इलाहाबाद से निकालते थे। ’नए पुराने मां-बाप, चौरासा काल’ आया था उसमं जो मुझे खुशी हुई थी।

लालित्य ललितः आपकी दिनचर्या क्या रहती है?

गोविंद मिश्रः दिनचर्या क्या बस बर्बादी की। खूब वक्त बर्बाद करता हूं। सुबह पांच बजे उठ कर योग वगैरह कर चाय के साथ लिखने बैठता हूं। जहां भी अटका हुआ हूं करता हूं। फिर आठ के आस-पास क्लब जाता हूं खेलने वहां गम मारता हूं। तकरीबन 10,11 बजे वहां से लौटता हूं। नहा धोकर फिर खाना खाकर सो जाता हूं। उठने के बाद थोड़ पढ़ने का काम किया। शाम को किसी मंडला में जाना हुआ तो चले गए नहीं तो बरामदे में बैठकर शाम कर गुजरना देखते रहते हैं।

लालित्य ललितः आपको किस लेखक की रचना पसंद आई। कुछ नए लेखक जब आपसे मिलते हैं तो आपको कैसा लगता है? क्या कभी आप उनको सलाह देते हैं कि ऐसे लिखो व वैसा लिखो?

गोविंद मिश्रः सलाह न वो मांगते हैं और न उन्हें जरूरत है। देखिए लेखकों के साथ सम्पर्क अपने आप में उसे शब्द देने की जरूर नहीं पड़ती। कुछ ऐसे होते हैं जो गंभीर होते हैं। उनको कुछ मिलता होगा मुझसे।

लालित्य ललितः तो आप कह सकते हैं कि जीवन मे ऐसे कई तरह के प्रसंग होते हैं कि नई पीढ़ी मिलना नहीं चाहती। यानी क्या वह अपने आप में संपूर्ण है?

गोविंद मिश्रः नहीं ऐसा नहीं है। सभी मिश्रित होते हैं हर वक्त होते हैं। हमारी पीढ़ीयों में भी मिश्रित थे। अब आज की पीढ़ियों में जो दो चार लेखक जो बच गए। उस वक्त भी भीड़ थी। आज भी नई पीढ़ी में भीड़ है। कितने लेखक बचेंगे आगे यह कहना बड़ा मुश्किल है। ना तो हम लोग ही कोई अज्ञेय जी जैनेंद्र जी मटियानी जी से कोई सलाह मांगते थे। वो अपने आप कर दें तो अलग बात है। और न हम देते हैं। वो तो संपर्क होता है। जैसे मेरी बड़ी इच्छा होती थी कि जिस भी शहर में लेखक है उससे जाकर मिलने की इच्छा होती थी। यहां तक कि वो आदत अभी तक रही। रायपुर में साहित्य अकादमी का कार्यक्रम था तो मैंने पता लगाया कि विनोद कुमार शुक्ल कहा हैं। विश्वनाथ तिवारी जी को लेकर मिलने उनके घर गए। इस तरह की इच्छा हुआ करती थी। हर पीढ़ी में ढेर आते हैं। हर तरफ पत्रिकाओं, पुरस्कारों की भी ढेर ही ढेर है। आज सच्चे, अच्छे और जेंनविन राइटर के लिए अच्छा मौका भी है। अगर वो अच्छा लिखेगा तो उसे कोई नहीं रोक सकता। उसे पुरस्कार भी मिलेंगे। अगर नहीं लिख पाता तो भीड़ भाड़ में खो जाएगा।

लालित्य ललितः क्या आप मानते हैं कि लिखे हुए शब्द की महत्ता अब भी बरकरार है अंतरजाल के इस दौर में?

गोविंद मिश्रः देखिए यह तो हमेशा ही रहेगी। मैं आपको बताउं कि मेरी कहानी पढ़ कर एक दो लोगों ने अपनी आत्महत्या रोक ली। जीवन संुदर लगने लगा। एक कहानी अगर किसी व्यक्ति में इस हद का बदलाव कर दे तो उसका आना सफल है। मुझे कोई पाठकों की भीड़ नहीं चाहिए। कोई मुझे सड़क पर चलते जानें कि गोविंद मिश्र जा रहे हैं। मैं कोई जॉनी वाकर हूं। मुझे तो ऐसे पाठक चाहिए जो अपने एकांत में जो भले मुझसे परिचित न हो। पढ़ते हैं और उनपर असर पड़ता है। यह तो हमेशा था और आगे रहेगा भी। आज जब मैं दोस्तवेस्की के वाक्य पढ़ता हूं कि अपने वक्त में जिन लोगों से संपर्क में आते हैं उनको अगर आप यह महसूस करें कि ये अस्पताल में भर्ती रोगी हैं देखने आए हैं। तो आप सब से मुहब्बत करने लगेंगे। इस लिए भी आपसे मुहब्बत की जा सकती है कि आप इस वक्त जीवत हैं। आप हमारे सहयात्री हैं। शब्द की महत्ता ये कहते रहें लोग वो हमेशा थी और रहेगी। इसी तरह चाहे इंटरनेट आ जाए या कुछ आए जाए। किताब की महत्ता रहेगी। किताब एक पर्सनालिटी है। वो आपके साथ रहती है। वो एक जीवित फैंड की तरह रहती है। उसके मार्फत उसका लेखक भी दूर कहीं जिससे आप मिले नहीं हैं या आप मिलने वाले हैं। वो भी आपके सिरहाने बैठा हुआ है।

लालित्य ललितः मिश्र जी जब हम किताब की बात करते हैं तो क्या आप मानते हैं कि ईपुस्तक सही विकल्प हो सकता है। लेकिन चूंकि कम्प्यूटर को जानने समझने वालों का प्रतिशत कम है?

गोविंद मिश्रः लाखों इंटरनेट कम्प्यूटर हो जाए लेकिन किताब का विकल्प नहीं हो सकता। इसलिए जैसा कि मैंने कहा कि जब आप नेट पर जाते हैं तो आप कुछ खींचने जाते हैं। उसका शोषण करने जाते हैं। जब आप किताब के पास जाते हैं तो आप एक भिक्षुक बन कर जाते हैं। जैसे भगवान के पास जाते हैं। मंदिर के पास जाते हैं। भवभय दारूणम् जो हम तुलसीदास का रोज गुनगुनाते हैं यह जो भव का भय है यही शब्द शक्तियां हैं। आज तक मुझे उस भव से त्राण दिलाने के लिए उसी शब्द के पास जाना पड़ता है।

लालित्य ललितः कौन सी ऐसी पांच या दस किताबें हो सकती हैं जो आप दूसरे नवजवानों को देना चाहेंगे?

गोविंद मिश्रः यदि नवजवान जानना ही चाहें तो पहले तो उन किताबों से प्रेम करना शुरू करें। हमें वे घर ही अजीब लगता है जहां किताबें न हों। वो भूतों का बंगला है जिसमें किताबें न हों। दूसरे उन सब को मालूम है कि पिछले सदियों में कौन कौन सा साहित्य अच्छा चला आ रहा है। कुछ तो बात है जो आज भी उनके नाम चले आ रहे हैं। रूसी साहित्य की बात आती है तो 19 वीं सदी की बाद के साहित्य के जिक्र नहीं होती। लास्ट में डॉक्टर जिवागो या बहुत बहुत सोजिग नित्सीन उसके बाद किसी रूसी साहित्य का बात नहीं। क्यांेकि उसके बाद सब फेक हो गए। इसी तरह जब हिन्दी की बात आती है। हिन्दी में हैं सब बैठे हुए। तुलसीदास से लगाकर देख लीजिए।

लालित्य ललितः लेकिन मुझे यह बात समझ नहीं आता कि जब हम हिन्दी साहित्य की बात करते हैं, हिन्दी लेखक की बात करते हैं तो प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, चंद्रकांता संतति आदि से आगे बढ़ ही नहीं पाते।

गोविंद मिश्रः पढ़ाते नहीं हैं। हमारे वक्त में प्रोफसर को अधिकार होता था किसी को देखा पढ़ने लिखने वाला है तो उसे लेक्चरर बना देगा था। आज यूपी में अभी मैं गया था जहां किसी ने हिन्दी विकास परिषद् का उदघाटन करने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एक भी प्रोफेसर लेक्चचर ऐसे नहीं थे जिन्हें कुछ करने आ रहा हो। हमने कहा ये स्तर कैसे हुआ। साहब अब लेक्चचर शीप है यहां पैसे से मिलती है। जब पैसे से मिलने लगे तो क्या बनेगा। पूणा विश्वविद्यालय में 18 उन्नीस साल से जा रहा था तब प्रो आनंद प्रसाद दीक्षित वहां पर हेड थे से लेकर उपाध्याय जी तक। उपाध्याय जी के बाद मैंने जाना बंद कर दिया। जब मैंने वहां देखा सब वहां डंब बैठे हैं। न लेक्चरर कुछ एक्सर ले रहा है। न छात्र कुछ बोल रहे हैं। अभी मेरी मित्र वहां गईं हैं शशि कला राय पढ़ने-लिखने वाली उसको दूसरे डिस्करेज करते हैं। उसे हास्यास्पद बना देते हैं। बड़ी बौद्धिक बनी फिरती है। इसलिए कि वो आधुनिक साहित्य पढ़ती है। ऐसा नहीं कि लोग जानते नहीं हैं। लेकिन हमारे विश्वविद्यालय और कॉलेज की दुर्दशा है।

लालित्य ललितः क्या आप आलोचना का भविष्य अंधेरे में है, ऐसा मानते हैं?

गोविंद मिश्रः अंधकार में देखिए कुछ नहीं है। ऐसा तो नहीं है कि आलोचनाएं लिखी नहीं जा रही हैं। आलोचना का जहां चूक हो जाती है।

लालित्य ललितः असगर वजाहत ने मुंबई में आलोचना को कहा था कि आलू चना।

गोविंद मिश्रः ज्यादातर कहानी का मतलब भी को हानी कहा जाता है। कोई हानि नहीं है लिख डालो। मुझे पर जितना लिख गया है उनमें से काफी लोगों ने अच्छा लिखा। मुझे तो संतोष है।

लालित्य ललितः मिश्र जी कभी ऐसा भी हुआ कि कोई आपकी कहानी कहीं से लौटकर आई हो व अस्वीकृत हुई हो। कया ऐसा कभी हुआ है जीवन में?

गोविंद मिश्रः शुरू के वक्त में तो वही हुआ। लगातार पांच छ साल यही हुआ। मैंने सन 65 का जिक्र किया बाल कृष्ण राव जी ने छापी थी, उसके पहले सब सधन्यवाद वापस आती थीं। कोई पत्रिका ऐसी नहीं थी जहां वापस न आई हो। हिन्दुस्तान, सारिका, नवयुग से वापस आईं। लेकिन ऐ जो कुछ पत्रिकाएं थीं। इनमें सब साहित्यकार बैठे थे। जैसे कहानी श्रीपत राय छाप रहे हैं। इनमें जो छप जाए तो फिर साप्ताहिक हिन्दुस्तान, धर्मयुग पिकअप कर लेते थे। स्टेजेज बनी हुई थी। एक बार छपना शुरू हुआ तो फिर ऐसा अनुभव नहीं हुआ। शैलेश मटियानी ने हमारी कहानी वापस की थी। उस वक्त वो विशेषांक निकाल रहे थे। मैंने कहानी भेजी। लेकिन उन्होंने वापस कर दिया कि यह सामान्य अंक के लिए तो है विशेषांक के लिए नहीं है। पर एक दो कहानी और भेजो। मैंने एक कहानी और भेजी वो उन्हें पसंद आई और छापी भी।

लालित्य ललितः कुछ अलग सवाल एक मिनट में लेखक आपकी नजर में।

गोविंद मिश्रः शरद जोशी बहुत बड़े व्यंग्यकार, लेखक थे और उससे भी अच्छे इंसान थे। मैं तो जब वो हिन्दी एक्सप्रेस निकालते थे मुंबई में तो मैं तो उनके पास बैठ कर घूमा करता था। मैंने किसी को भी बताया नहीं था कि मैं क्या करता हूं। वैसे शरद जी ने मेरी रचनाएं छापी थी। एक दिन शरद जी ने पूछा यार गोविंद तुम मुंबई में करते क्या हो? क्या कोई फिल्म विलम के चक्कर में आए हो? मैंने कहा मैं सरकारी नौकर हूं। लेकिन मैंन कभी पते पर यह नहीं लिखा कि इस उस से जुड़ा हूं। ऐसा इसलिए भी किया था कि जिंदगी भर की साधना है भाई साहब। अगर आप लगे रहोगे जीवन भर तब तो कुद मिलेगा। जिसका फल आज मिल रहा है। मुझे जितने भी पुरस्कार मिले सब रिर्टायमेंट के बाद मिले। अब आप जैसे लोग किताबें मांगने आते हैं।

हरिशंकर परसाई तो बड़े व्यंग्यकार हैं। आप इसे नॉस्टेल्जिया कह लीजिए कि मैं उन्हें बुजूर्गांे के संपर्क में आया जो बड़े जेनविन कथाकार या लेखक थे। ये लोग लेखक के लिए कमिटेड थे। शरद को परसाई से मैं इसलिए ज्यादा मानता हूं क्यांेकि हालांकि मैं गलत हो सकता हूं लेकिन कुछ व्यक्तिगत कारण हैं, एक जो विचारधारा से अपने को सीमित कर देता है वो लेखक अपनी मौलिकता पर कुठाराघात करता है। परसाई जी ने यह किया। इस मामले में शरद जी अलग थे। उन्होंने जो लिखा यहां तक कि यह जो जिंदगी है, लिखी वो अपने आप में एक साहित्यिक कृति है। लेकिन ये लोग अपने लेखन के प्रति समर्पित लोग थे।

लालित्य ललितः आप जिस मुकाम पर हैं आपको क्या लगता है कि आपका जो लक्ष्य था वो पूरा हुआ या अभी भी कुछ सपने बाकी हैं?

गोविंद मिश्रः सपने तो मैंने देखे ही नहीं। सपने देखने लायक जीवन है कहां? अब आप यह बताएं कि हम लोग सौंदर्य-प्रेम के उपासक आज जिस कानूनी स्थिति की बात कर रहे हैं अब किसी को सुंदर भी नहीं कह सकते। क्या सपने देखेंगे आप? अब देखिए फारेन में एक मंत्री ने अपनी सेकरेटी को कह दिया कि आप तो पहले की सेकरेटी से भी ज्यादा संुदर हैं, आप बताएं यह कहां से यह भद्दापन हो गया। संुदर को सुंदर न कहो तो क्या कहोगे। वो सपने तो कोई नहीं देखे मैंने पर ये है कि सबसे बड़ी चीज जो इस उम्र में होती है वो यह कि आप स्वस्थ रहें। दूसरा हम लोगों का काम स्मृति पर आधारित रहता है। अब जब आपलोग उपन्यास लिखते हैं तब आपको आज का लिखते वक्त दो सौ तीन सौ पृष्ठों के बाद भी याद रखना होता है कि पहले क्या लिखा है। मान लीजिए कि लेखक, आलोचक की स्मृति खत्म हो गई तो बेचारे सब खत्म हो गई। यह दो चीजें ईश्वर बनाए रखे। मुझे इस चीज का गिला नहीं है कि मुझे ये नहीं मिला वो नहीं मिला। मुझे शायद जरूरत से ज्यादा मिला है।