गोष्ठी से गौशाला तक / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
शहर ज़िन्दा है या मरा हुआ, इसकी पहचान उस शहर में होने वाली गोष्ठियों से ही हो सकती है। जहाँ गाएँ एकत्र हों, रहें, चारा खाएँ, रँभाएँ उसे गोष्ठी कहना उचित ही है। वर्तमान अर्थ में पुराने अर्थ का पूरा प्रभाव झलकता है। इन गोष्ठियों में की गई जुगाली के समाचार प्रायः पत्रों में छपते रहते हैं। 'गगन मण्डल पै सेज पिया की' की तरह कुछ गोष्ठियाँ भी हवाई होती हैं। इनकी रपट इतनी प्रभावशाली होती है कि बड़े-बड़े समारोह भी पानी माँगने लगते हैं। यदि गोष्ठी में कविता-पाठ हो, तो फिर क्या कहने! कुछ हिनहिनाकर कविता-पाठ करेंगे तो कुछ नकियाकर गीत सुनाएगे, कुछ मिमियाकर ग़ज़ल पढ़ेंगे।
गोष्ठी में पहुँचने से पहले आसव का सेवन करना ज़रूरी है। आसव का विरोध करने वाले लोग पुराने विचारों के होते हैं। आसव के हल्के सुरूर में देश और समाज के उत्थान की बातें डटकर की जा सकती है। गरीबों की दुर्दशा पर हिचकियाँ लेकर और टेसुए बहाकर कविता-पाठ किया जा सकता है। टेसुए बहाने का अच्छा पारिश्रमिक मिलता है। कुछ धासू कवि जनता कि कमज़ोर नब्ज को पहचानते हैं। मट्ठा, गुड़, खीर, पंजीरी, बेसन के लड्डू और कढ़ी को कविता में घुसेड़ देंगे। बस बन गई लोकरुचि की कविता। अगर इन पदार्थों को उस कविता से निकाल दें, तो जो कुछ बचेगा, वह न गुड़ होगा न खीर; सिर्फ़ गोबर होगा।
साप्ताहिक गोष्ठियों में जाने वाले चालाक कवि देर से पहुँचते हैं और कविता का ठींकरा लोगों के सिर पर फोड़कर चुपचाप खिसक आते हैं। इन्हें बड़े लोगों में गिना जाता है। जो समय पर पहुँचकर कार्यक्रम के क्रिया-कर्म तक रुके रहते हैं, वे कभी विशिष्ट की श्रेणी में नहीं आ पाते। शुरू में दरी बिछाना और अन्त में दरी की धूल झाड़ना, शिष्ट कवियों के द्वारा थूककर चित्रित की गई दीवारों को पोंछना जैसे काम भी इन्हें ही करने पड़ते हैं। खिसक आए कवि के सामने जितनी वाह, वाह! की थी बाद में उतनी ही थू-थू करना भी इन्हीं के जिम्मे है।
'साझापन' प्रसिद्धि के लिए ज़रूरी है। कुछ की आदत होती है दस को अपना चेला बताना, तो दस की मजबूरी होती है-दस को अपना गुरु बताना। जिनके बल पर गोष्ठियों और सम्मेलनों में बुलाया जाए, उनको अपना गुरु मान लेना सबसे बड़ी समझदारी है। जब उनसे काम निकल जाए, तो गुरु तो क्या उन्हें अपना चेला बनाने योग्य भी मत मानों। कल तथाकथित गुरु मेरे मुहल्ले में अफीम खरीदने आए। उनके भूतपूर्व शिष्य उन्हें देखकर भी नहीं उठे। वे अपने इस शिष्य को राष्ट्रीय गीतकार का दर्जा दे चुके थे। आज वे इनको गीतकार मानने को भी तैयार नहीं। कल उन्हें आदमी मानना भी बन्द कर देंगे। परसों से मेरे मुहल्ले का यह कवि कितनी मानसिक यातना झेलेगा, इसका केवल अनुमान किया जा सकता है।
इन गोष्ठियों में अध्यक्ष नामक जीव सर्वाधिक अभिशप्त होता है, दो घण्टे के कार्यक्रम में एक घण्टा केवल माला पहनाने के लिए होता है। मालाओं के बोझ से अध्यक्षजी की गर्दन झुकी रहती है। गर्दन झुकाए अध्यक्षजी सारी मूर्खताएँ प्रसन्नतापूर्वक झेलते रहते हैं। गोष्ठी-समापन पर अध्यक्षजी को अनर्गल विचार प्रकट करने की पूरी छूट होती है। ये विचार प्रायः पूर्व वक्ताओं के विचारों की खुरचन उतारकर तैयार किए जाते हैं। कुछ अध्यक्ष अस्थायी होते हैं, तो कुछ स्थायी। दूसरी प्रकार के व्यक्ति को अगर अध्यक्ष न बनाया जाए, तो ये मुँह फुलाकर अपने चेलों-चाँटों समेत 'वाक आउट' कर जाते हैं।
गोष्ठी का सक्रिय जीव संचालक होता है। यह बहुत ही मनोरंजक होता है। यह चिट पर लिखी उक्तियों को पढ़कर सुनाता है। लोग इसकी चालाकी पर हँसते हैं। लोगों की हँसी को प्रशंसा समझकर यह फूला नहीं समाता है। संचालन की तलवार चलाकर यह अपने दृश्य और अदृश्य विरोधियों को धराशायी करता जाता है। यह अपने को सृष्टि के संचालक से कम नहीं समझता है। जेबी संस्था के लिए दिए गए चन्दे के अनुसार इसे विशेषणों का दुरुपयोग बार-बार करना पड़ता है जैसे-साहित्य सागर मनीषी, रसावतार, काव्य-पोखर आदि-आदि। किशोरी दास वाजपेयी के हत्थे अगर कभी चढ़ गए होते, तो अपना सिर ज़रूर तुड़वा बैठते। माइक को ठोंक-पीटकर ठीक करना ही इन्हीं का कर्त्तव्य है। सभी विधाओं की भ्रूण-हत्या में इनका कार्य सराहनीय है। अपनी बारी आने पर ये कविता को कहानी तथा कहानी को कविता बनाकर आवश्यकतानुसार पढ़ सकते हैं। श्रोताओं का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए विभिन्न पालतू एवं जंगली जानवरों की बोलियाँ बोल लेते हैं। पैसे वाले लक्ष्मी वाहनों को संस्था का संरक्षक बनाकर उनका दोहन करने की ग्वाल-प्रक्रिया में ये पारंगत होते हैं।
मुख्य अतिथि वह जीव होता है, जो हमेशा हड़बड़ी में होता है। आँधी—सा आया, तूफ़ान-सा गया। कार्यक्रम के बीच में पहुँचकर यह मुख्य हो जाता है तथा सारा कार्यक्रम गौण। लगता है इस बेचारे के लिए ही आयोजन किया गया है। मुख्य अतिथि के साथ कुछ पूँछ वाले तथा कुछ मूँछ वाले भी आ धमकते हैं।
गोष्ठियों में फोटो खींचना एक ज़रूरी क्रिया है। फोटो कई प्रकार से खींची जाती है जैसे-कवि शिरोमणि अश्वमुख जी अध्यक्ष महोदय को माला पहना रहे हैं और कैमरे की ओर भी घूर रहे हैं। मानो कह रहे हों-कहो तो गर्दन दबा दूँ।
कुछ फोटो इस ढंग से खींचे जाते हैं कि उन्हें चाहे तो जानवरों वाले अलबम में लगा लीजिए, चाहे पड़ोसियों के बच्चों को डराने के लिए हमेशा जेब में रखे रहिए। जिनका फोटो नहीं खिंचता, वे हमेशा छाती पीटते रह जाते हैं कि हाय हुसैन हम न हुए। विरोधियों के चित्र रपट के साथ देखकर उन्हें नारकीय पीड़ा का अनुभव होने लगता है।
ठेके पर रपट लिखने वाले, बिना सुने भी बड़ी अच्छी रपट लिख लेते हैं। जो हुआ हो उसे छिपाना, जो न हुआ हो उसे छपवाना इनका परम पुनीत कर्त्तव्य है। जो आपके चहेते वक्ता कीे बचकानी बातों को काटे, आप उसको अपनी क़लम से काट देते हैं। जो अटपटी बात कहे, उसे चटपटी बनाकर छापा जाए।
इन गोष्ठियों का दूरगामी प्रभाव होता है। कुछ साँड साहित्यकार मरकर 'प्रेत' ज़रूर बनते हैं। प्रेत बनने के पीछे इनकी सोची-समझी योजना होती है। जो जीते जी इनके काबू में नहीं आते थे, प्रेत बनकर ये उनसे एक-एक बात का बदला लते हैं। मेरे एक मित्र कवि प्रेत बन गए हैं। दिल्ली के एक कवि को भटकाकर अपने ठिकाने पर ला चुके हैं। यद्यपि ये मित्र दिल्ली वाले कवि की रचनाओं से ज़्यादा परिचित नहीं हैं, फिर भी धारावाहिक रूप से नाश्ते से लेकर डिनर तक उनकी प्रशंसा करते रहे हैं। अब शीघ्र ही इनका चेहरा टी-वी-पर भी नज़र आएगा। इनके पास पर्याप्त सड़ी-गली कविताएँ हैं। उनका इससे अच्छा उपयोग और कहाँ होगा? टी-वी-पर कविता पढ़ने वाले को न हूटिंग का डर, न सड़े टमाटर का प्रहार झेलने की चिन्ता। ये अब प्रेत बनकर हमारे सिर पर सवार रहेंगे।