गौतम बुद्ध की डायरी / जया झा
ग्रीष्म ऋतु आ गई है। आज से अगले चार महीनों तक मैं अपने जलमहल में रहूँगा। मुझे यहाँ रहना बहुत पसंद है। इस महल में हर तरफ़ पानी के तालाब जो हैं। पानी से खेलते रहना मुझे बहुत अच्छा लगता है।
आज मैंने पिताजी को मेरे विवाह के बारे में मासी से बात करते सुना। कह रहे था कि यशोधरा बहुत सुंदर है। मुझे उत्साह भी हो रहा है किन्तु थोड़ा भय भी लग रहा है। विवाहित जीवन बहुत भिन्न होता है ना बाल्यावस्था से? नये कर्तव्य। पता नहीं यशोधरा को कैसी चीज़ें पसंद होंगी? मासी को तो मेरी पानी से खेलने की आदत बहुत बुरी लगता है। यशोधरा को कैसा लगेगा। और यदि उसे बुरा लगा तो वह मुझसे कहेगी या नहीं? कहीं बिना बताए रूठ कर न बैठ जाए। स्त्री-स्वभाव को समझना भी तो बड़ा कठिन होता है, ऐसा मैंने सुना है। गलत तो नहीं ही सुना है। मासी को ही देखो, किस बात पर क्रोधित हो जाएँ, किस बात पर प्रसन्न हो जाएँ और किस बात पर उनका वात्सल्य उमड़ पड़े, इसका पता लगाना कितना मुश्किल है। यशोधरा का प्रेम किस बात पर उमड़ेगा और कैसी बातें उसे क्रोधित करेंगी, इसका तो पता नहीं है।
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मुझे लगता था कि जीवन में कितनी प्रसन्नता है। किन्तु यशोधरा के मेरे जीवन में आने के बाद पता चला है कि वह प्रसन्नता तो कुछ भी नहीं थी। अब तो ऐसा लगता है कि एक-एक क्षण बस वहीं ठहर जाए। लेकिन ठहरने की क्या ज़रूरत है। अगला क्षण भी तो उतना ही मनोहर होता है। अब जीवन हमेशा ऐसा ही रहेगा। कितना मधुर, कितना मनोहर। यशोधरा की मधुर आवाज़, उसकी धीमी हँसी, उसको गहनों की मीठी रुनझुन और इन सबके बीच वसंत महल में चल रहे सुरीले गीत। जिसने भी जीवन बनाया है, उसका धन्यवाद कोई कैसे करे।
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मासी ने आज मुझे बताया कि मैं पिता बनने वाला हूँ। मेरा एक अंश इस संसार में आएगा। जिस तरह पिताजी ने अपना प्रेम मुझपर बरसाया है हमेशा, वैसे ही मैं भी उसपर अपना प्रेम न्यौछावर करूँगा।
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जब मैंने यशोधरा को पहली बार देखा था, तब अगर वह मुझे संसार की सबसे सुंदर स्त्री लगी थी तो राहुल के जन्म के पश्चात मातृत्व के तेज के साथ वह और भी अधिक सुंदर लगने लगी है। और राहुल? उसे तो सीने से हटाने का भी जी नहीं करता मेरा। वह मेरा अंश है। मासी उसके रंग-रूप और हाव-भाव को देखकर हमेशा कहती हैं कि मैं भी बचपन में ऐसा ही था। कितना सुखद है पिता बनना। जीवन अब और भी सुंदर हो गया है। और कल तो राहुल पहली बार अपने पैरों पर खड़ा हुआ था। कितना प्यारा लग रहा था।
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आज तक मैं किस छलावे में जी रहा था? पिताजी और मासी एक दिन नहीं रहेंगे हमारे साथ। यशोधरा एक दिन बूढ़ी होकर कुरूप हो जाएगी। मैं संभवतः रोगी होकर मर जाऊँगा। और राहुल? उसके साथ भी यही सब होगा। उस कोमल से शरीर को इतना दुःख देखना पड़ेगा। ये जीवन हमेशा इतना सुखद नहीं रहेगा। तो फिर आज के सुखों का क्या अर्थ है? हम क्यों हैं इस संसार में? क्यों आते हैं? कुछ दिन सुख के छलावे के बाद दुःख झेलने को। जिसने भी जीवन बनाया है उसने क्यों बनाया? क्यों दुःख भरे इसमें?
जब जीवन का अंत होना ही है, जब जीवन में दुःख आने ही हैं, तो इस सुख के छलावे में रहकर क्या करना है? जीवन का सत्य क्या है, उद्देश्य क्या है? पिताजी ने जान-बूझ कर मुझे इतने दिनों तक इस झूठ के बीच रखा। वह अब भी मुझे सत्य की खोज नहीं करने देंगे। मुझे यहाँ से दूर जाना होगा। पता करना होगा कि सत्य क्या है।
यशोधरा और राहुल? नहीं, नहीं। मुझे पता नहीं है कि मैं कहाँ जा रहा हूँ। मैं उन्हें इस अनिश्चित पथ पर अपने साथ नहीं ले जा सकता। मेरे जाने से उन्हें दुःख होगा। किन्तु वह तो कभी न कभी होना ही है। तो आज हो जाए तो उसमें क्या अलग होगा। और जब मुझे सत्य के दर्शन हो जाएँगे, तो मैं वापस आकर इन्हें भी बताउँगा।
प्यारी यशोधरा।
किन्तु अब मुझे जाना ही होगा।
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जिस सत्य के लिए मैं इतना भटका, इतने तरीकों से समझने की, पाने की कोशिश की, वह इतनी सीधी-सी बात में छिपा हुआ है। हमारे अंदर है। फिर क्यों संसार में इतने लोग, इतना कष्ट पाते हैं? औरक्यों जन्म-मरण के इस चक्रव्यूह से आगे नहीं निकल पाते हैं?
नहीं। अब और ऐसा होने की ज़रूरत नहीं है। मेरे जीवन के इतने वर्ष गए इस साधारण सत्य को समझने में। लेकिन मैं इस ज्ञान को व्यर्थ नहीं जाने दूँगा। मैं सबको बताउँगा। लेकिन यह बेचैनी-सी क्यों लग रही है मुझे? क्यों ऐसा लग रहा है कि मैंने कुछ अधूरा छोड़ दिया है? क्या है जो मुझे इतना व्यथित कर रहा है?
यशोधरा! यशोधरा कैसी होगी? उसने इतने वर्ष शायद रो-रो कर काटे होंगे। लेकिन अब? अब उसे और दुखी रहने की आवश्यकता नहीं है। मैं उसके पास जाऊँगा। मैं उसे उस सत्य के दर्शन कराऊँगा, जो मैंने इतने कष्ट से पहचाना है। और मेरे इन कष्ट के दिनों में उसने भी तो कष्ट सहे हैं। हम दोनों ने अपनी अज्ञानता के कारण कष्ट सहे हैं। अब इन कष्टों का निवारण होगा। मैं कल ब्रह्म-मुहूर्त में ही प्रस्थान करूँगा।
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मैं आज कपिलवस्तु के लिए प्रस्थान करने की सोच कर उठा था। किन्तु ऐसा कर नहीं पाया। यशोधरा तो भोली है और मुझपर उसका अगाध विश्वास है। वह मेरी बातें अवश्य समझने का प्रयत्न करेगी और उन्हें मानेगी भी। किन्तु पिताजी। जिस पुत्र को उन्होंने तिल-तिल बढ़ते देखा है, उसके मुँह से सत्य-दर्शन की बातें उन्हें बचपना लगेंगी। वह मुझे अपने मार्ग पर कभी नहीं बढ़ने देंगे। ऐसा नहीं है कि वह मेरा बुरा चाहेंगे। लेकिन माता-पिता के लिए बच्चे हमेशा ही बच्चे रहते हैं। वह यह कभी नहीं मान पाएँगे कि उनके बच्चे कुछ ऐसा जान सकते हैं, जो उन्होंने नहीं जाना। मुझे क्षमा कर दीजिएगा पिताजी। मै ऐसे सोचकर आपका अनादर नहीं करना चाहता। ऐसा भी नहीं है कि मेरे अंदर बहुत गर्व भर गया है। किन्तु आदर-अनादर की सांसारिक परिभाषाओं ने कुछ बड़े सत्यों को अनदेखा कर दिया है।
और यशोधरा? उसे कष्ट सहना होगा। विश्व-कल्याण हेतु।
इसलिए मैं बोधगया से कपिलवस्तु जाने के बदले उससे उलटी दिशा में बढ़ गया आज। मुझे एक नए जीवन का प्रारंभ करना है।
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आज वाराणसी के पास, सारनाथ नाम की जगह पर, पाँच भद्रजनों को मैंने अपने अनुभव और उस सत्य के बारे में समझाने का प्रयत्न किया जिसे मैंने देखा है। यह बात तो निश्चित है कि उनकी मेरे प्रति श्रद्धा है। किन्तु इस श्रद्धा का कारण यह नहीं है कि वे मेरी बात समझ गए। मैंने जो वर्षों कष्ट सहे हैं, एक राजसी जीवन छोड़ कर, सत्य की खोज के लिए; उसके कारण ये लोग मुझ पर श्रद्धा रखते हैं। मुझे लगा था कि यह सत्य इतना साधारण है कि सबको समझाना बहुत आसान होगा। किन्तु ऐसा नहीं हुआ। अनुभव को शब्दों में रखना बहुत कठिन था। नहीं समझ पाने का भाव उनके चेहरे पर साफ दिख रहा था। मैंने कल फिर उनसे बात करने वाला हूँ। किन्तु उससे पहले मुझे सोचना होगा कि अपने अनुभव को, सत्य को, साधारण शब्दों में कैसे रखूँ ताकि सब लोग उसे समझ पाएँ।
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आज मुझे थोड़ी सफलता मिली। कुछ साधारण शब्दों में मैं उन्हें अपना सत्य समझा पाया। मैंने तीन साधारण वाक्यों में उन्हें अपना अनुभव समझाया: संसार में कष्ट है। कष्ट का कारण इच्छा और तृष्णा है। इसलिए इच्छा और तृष्णा को मिटा देने से कष्ट भी मिट जाएँगे।
और इन पाँच लोगों को इस सत्य पर विश्वास हुआ। उन्होंने कहा कि वे मेरे साथ चलेंगे और इस सत्य का प्रचार-प्रसार पूरे विश्व में करने में मेरी सहायता करेंगे। विश्वास नहीं होता। इतनी शीघ्र हम एक से छह लोग हो गए। अगर इसी तरह से लोग जुड़ते गए तो संसार से कष्ट का निवारण होने में अधिक समय नहीं लगेगा।
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संघ से जुड़े लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है। आजकल जहाँ भी जाता हूँ वहाँ मेरी चर्चा मुझसे पहले पहुँच जाती है। लोग भिक्षा देने के लिए आतुर रहते हैं और सत्य के बारे में जानने को बेचैन। ऐसा लगता है कि पूरे संसार को ही इस सत्य की प्रतीक्षा थी।
पिताजी तक भी मेरी चर्चा पहुँच गई है। आज उनका संदेश लेकर कपिलवस्तु से लोग आए हैं। फिलहाल तो मैंने उन्हें टाल दिया है। कल वे भी मेरे प्रवचन में बैठेंगे। उसके बाद वह वापस जाकर पिताजी से क्या कहेंगे? क्या मेरा वहाँ जाना उचित होगा? कम-से-कम यशोधरा के लिए। ना जाने किस हाल में होगी। और राहुल? अब तो बड़ा हो गया होगा। शायद अपने पिताजी के बारे में पूछता होगा। क्या बताती होगी यशोधरा उसे?
किन्तु नहीं। अभी समय नहीं आया है। कई लोग संघ से जुड़े हैं। किन्तु मुझे नहीं लगता कि पिताजी अभी भी इसे मेरे बचपने से अधिक कुछ मानते हैं। अभी नहीं।
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कपिलवस्तु से आए संदेशवाहक भी आज संघ में सम्मिलित होने के लिए सम्मति लेने आए थे। बड़ा ही आनंद हुआ। यशोधरा और राजपरिवार के लोगों के पास तो मैं इस सत्य को लेकर नहीं जा पाया हूँ। किन्तु कम-से-कम राज्य के कुछ लोगों का कल्याण तो होगा।
किन्तु आजकल एक और समस्या आ रही है। जब तक मैंने इस सत्य का प्रचार मुख्यतः विद्वज्जनों के बीच किया, वह सत्य क्या है, इतना बताना पर्याप्त होता था। लेकिन जैसे-जैसे मैं आम लोगों के बीच आ रहा हूँ, ऐसा प्रतीत हो रहा है कि उन्हें मात्र इतना बताना पर्याप्त नहीं है। कुछ वैसी ही स्थिति हो रही है जैसी वर्षों पहले सारनाथ में हुई थी। लोगों की मेरे ऊपर श्रद्धा है। श्रद्धा का कारण यह है कि मुझसे मिलने के पूर्व ही वे मेरे बारे में, मेरे जीवन के बारे में बहुत कुछ सुन चुके हैं। इसलिए वे मेरी बातें सुनते हैं। इसलिए वे संघ से भी जुड़ते हैं। किन्तु सत्य को आत्मसात करना उनके लिए कठिन है। जो मैं समझ रहा हूँ, उसे लोगों को समझाने के लिए शब्दों में ढालने की आवश्यकता है। उन्हें यह बताने की आवश्यकता है कि वे इस सत्य को कैसे पा सकते हैं। मुझे और चिंतन करना होगा।
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आज मैंने एक रोगी बच्चे को देखा। उसका रोग असाध्य नहीं था। कुछ सुलभ जड़ी-बूटियों से ही मैंने उसे ठीक कर दिया। मुझे आश्चर्य हुआ कि किसी वैद्य ने उसे अब तक ठीक क्यों नहीं किया था। पता चला कि वह तथाकथित छोटी जाति का था और कोई भी ऊँची जाति का वैद्य उसके पास आने को, उसका निरीक्षण करने को तैयार नहीं हुआ। कैसा अन्याय है ये? ये जाति-प्रथा हमारे समाज को कितना खोखला कर रही है। और सबसे बड़ी दुख की बात तो यह है कि जिन लोगों के साथ अन्याय हो रहा है, उन्हें भी नहीं लगता कि उनके साथ अनुचित हो रहा है। तो अन्याय का विरोध भी कौन करे? आज से मैंने यह निर्णय लिया है कि मैं इन लोगों का संसार के सत्य से साक्षात्कार कराने हेतु और अधिक प्रयत्न करूँगा। इनमें से अधिक-से-अधिक लोगों को संघ से जोड़ने की आवश्यकता है।
किन्तु एक अच्छा समाचार भी है। अष्टांग को मार्ग जो मैंने सोचा था, आम जनों के सत्य के रास्ते पर चलवाने के लिए, उसे लोगों ने हार्दिक रूप से स्वीकार किया है। संघ से पहले से जुड़ चुके लोगों को अपना मार्ग अब अच्छी तरह से दिख रहा है। संघ से जुड़ने वाले लोगों की संख्या में भी बहुत तीव्र गति से वृद्धि हो रही है। अब मैंने अपने सत्य की व्याख्या में एक चौथा वाक्य जोड़ दिया है कि अष्टांग के मार्ग पर चलने से इच्छा और तृष्णा का अंत किया जा सकता है।
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पिताजी की ओर से अब तक सात संदेशे आ चुके हैं। संदेश ले कर आने वाले सभी लोगों ने संघ को अपना लिया है और वापस नहीं गए हैं। मुझे अभी भी कपिलवस्तु जाने का साहस नहीं हो रहा है।
और यशोधरा?
नहीं। मुझे उसके बारे में नहीं सोचना चाहिए। सांसारिक बंधनों से अब मेरा कोई नाता नहीं है। संघ में भी यही समस्या सबसे अधिक है। संघ के भिक्षुओं का स्त्रियों के प्रति झुकाव समस्या उत्पन्न करता है कई बार। संघ में अभी तक स्त्रियाँ सम्मिलित नहीं हुई हैं। मुझे लगता है कि इसे एक नियम ही बनाना पड़ेगा। ताकि आगे भी ऐसा ना हो। अन्यथा ये भिक्षु अपने पथ से भटक जाएँगे।
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आज दसवीं बार पिताजी का संदेश आया है। इस बार उनके पत्र की भाषा से ऐसा लगता है कि उन्होंने मेरे रास्ते को स्वीकार कर लिया है। हालांकि वह अभी भी इसमें विश्वास नहीं करते, किन्तु वह मुझे रोकने के लिए अधिक प्रयत्न भी नहीं करेंगे।
संभवतः अब कपिलवस्तु जाने का समय आ गया है।
किन्तु कुछ बातें सही नहीं चल रही हैं। आज मैंने एक ऐसे पुरुष को देखा जो कि एक असाध्य रोग से पीड़ित था। उसके घर वालों ने मुझसे उसे आशीर्वाद देने और उसे अपनी शक्ति से ठीक कर देने की प्रार्थना की। वैसे ही, जैसे मैंने अन्य लोगों को ठीक किया है। मैंने उन्हें समझाने का प्रयत्न किया कि यह रोग असाध्य है और मैने लोगों को किसी दैवीय शक्ति से नहीं वरन् औषधियों से ठीक किया है। और उसके रोग के लिए कोई भी औषधि अभी तक के चिकित्सा-विज्ञान में ज्ञात नहीं है। किन्तु उन्हें मेरी बात पर विश्वास नहीं हुआ। उन्हें लगा कि मेरे स्वागत में उनसे कोई कमी रह गई थी, इसलिए मेरा आशीर्वाद उस रोगी व्यक्ति को नहीं मिला। मैं उन्हें नहीं समझा पाया कि मैं आशीर्वाद देने वाला कौन होता हूँ।
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यशोधरा! उसका बुझा हुआ रूप देखने के लिए मैंने अपने आप को किंचित् तैयार नहीं किया था। कहाँ गया वह यौवन, चेहरे की लाली, भरे हुए गाल, लंबे केश, आँखों की चमक? यह तो कोई और स्त्री मेरे सम्मुख खड़ी थी। और इस परिवर्तन का कारण क्या मैं था?
लेकिन जब उसने अपना मुख खोला तो मुझे पता चला कि उसे मान में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। मुझे लग रहा था कि वह मुझे ताने देगी, कोसेगी, रोएगी। और तब मैं उसे उस सत्य के बारे में बता पाऊँगा जो मैंने पाया है। और उसके कष्ट भी दूर हो जाएँगे। किन्तु उसने मात्र इतना पूछा, “अगर विश्व में कोई एक सत्य है तो वह जंगल में ही क्यों पाया जा सकता है, महल में क्या समस्या है?”
जब मैं सत्य की खोज में गया था तब मुझे पता नहीं था कि सत्य क्या है। बस इतना जानता था कि जहाँ मैं रहा हूँ, वहाँ किसी ने मुझे सत्य नहीं जानने दिया। इसलिए मैं चला गया। किन्तु यह मैं उससे बोल नहीं पाया। क्योंकि मुझे पता था कि इसके कारण मेरा उसके प्रति व्यवहार सही नहीं हो जाता। जब मैं सत्य नहीं भी जानता था, तब भी मैं कुछ और बातें जानता था। पुरुष और पिता के कर्तव्य। जो मैं जानता था, उससे भी मैंने मुँह मोड़ लिया था।
मैने जब एक बार फिर यशोधरा के चेहरे को देखा तो उस बुझे हुए चेहरे में भी मुझे वह कांति दिखायी दी, जो मैंने संघ के सबसे विद्वान् भिक्षुओं में भी नहीं देखी है। और मुझे ऐसा लगा कि यशोधरा ने भी सत्य को जान लिया है। और उसने सत्य से अधिक भी कुछ जान लिया है। शायद उसने जो जाना है उससे संसार का अधिक भला हो। किन्तु अब मैं बहुत आगे निकल चुका हूँ। मेरे ही बनाए नियमों के अनुसार संघ में स्त्रियाँ नहीं सम्मिलित हो सकती हैं। हर बात जो मैं यशोधरा से करना चाहता था, हर अनुभव जो मैं बताना चाहता था, बेमानी हो गए थे उस क्षण में।
मुझे कुछ नहीं सूझा। मैंने बात बदल दी, “देवि! भिक्षुक द्वार पर भिक्षा प्राप्ति हेतु खड़ा है।”
“मेरे पास मेरे पुत्र के अलावा कुछ नहीं है। मैं इसे आपको दान करती हूँ। आशा करती हूँ इसे सत्य किसी भिन्न तरीके से मिलेगा और संसार में एक और यशोधरा नहीं जन्म लेगी।”
उसने मुझे ताना दिया। किन्तु वह एक पत्नी द्वारा पति को दिया गया ताना नहीं था। वह एक ज्ञानी द्वारा अज्ञानी को दिया गया ताना था। मुझे रुकने की, कुछ सीखने की आवश्यकता थी। किन्तु मैं बहुत आगे निकल गया हूँ। अब मैं पीछे नहीं हट सकता।
आज के प्रवचन के बाद कपिलवस्तु के कई लोगों ने संघ में दीक्षा ली।
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इतने वर्ष बीत गए हैं। इतने लोग संघ में आ चुके हैं। कितने लोगों ने चार मूल सत्य और अष्टांग को आत्मसात कर लिया है। किन्तु फिर भी मुझे संतुष्टि क्यों नहीं होती? ऐसा क्यों लगता है कि इन सिद्धांतों को अपनाने के बाद भी लोग सत्य को नहीं पा सके हैं?
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आजकल लोग मेरा स्वागत धूप, दीप और अन्य पूजा की सामग्रियों से करने लगे हैं। कई स्थानों पर मेरी प्रार्थना के गीत लिखे जाने लगे हैं। लोग मेरे चरण-स्पर्श करना चाहते हैं और उन्हें लगता है कि बस मेरे आशीर्वाद मात्र से उन्हें निर्वाण मिल जाएगा। बड़े-बड़े, धनी सेठ और व्यापारी हमारे भिक्षुओं को विहार और उद्यान दान कर के पुण्य और निर्वाण की प्राप्ति करने का प्रयत्न कर रहे हैं। यह सब क्या हो रहा है? मैं तो संसार में सत्य का संदेश देने के उद्देश्य से निकला था। फिर सत्य से अधिक महत्वपूर्ण मैं कैसे हो गया? यह सही नहीं हो रहा है।
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अब तो संघ इतना बड़ा हो गया है कि कई भिक्षु मुझसे अलग रह कर भी यात्रा करते हैं। मेरे नाम पर किन बातों का प्रचार किया जा रहा है इस पर अब मेरा वश नहीं रह गया है। सुना है कुछ स्थानों पर लोगों ने अष्टांग को लिखकर दीवारों पर चिपका लिया है और सुबह-शाम उसे पढ़ते हैं। क्या मैं कभी उन्हें समझा पाऊँगा कि उन्हें पढ़ने मात्र से किसी का कल्याण नहीं होगा। जब मैं लोगों को सत्य की महत्ता समझाने का प्रयत्न करता हूँ, ताकि वह मुझे सत्य और ईश्वर ना समझें, तो वे लोग इसे मेरा बड़प्पन समझते हैं।
ये मैंने क्या कर दिया है? विश्व को सत्य दिखाने के लिए निकला था मैं, लेकिन मैं तो लोगों को और भटका रहा हूँ। क्या कहा था उस नवयुवक ने, जो मुझसे कई वर्ष पहले जेतवन में मिला था। उसे पता था कि मैंने सत्य को पाया है। किन्तु हर किसी को अपना सत्य स्वयं ही ढूँढ़ना पड़ता है। इसलिए वह संघ की शरण नें नहीं आएगा। सत्य कहा था उसने। क्या उसे सत्य मिल गया?
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आज जब राहुल को समाधि पर से उठते देखा तो मुझे उसके चेहरे पर वही कांति दिखाई दी जो मैंने यशोधरा के चेहरे पर अंतिम भेंट में देखी थी। राहुल ने मेरे चरण-स्पर्श किए और कहा,”भगवन्! आज मैंने अपना सत्य पा लिया है। और अब मुझे जाने की आवश्यकता है।”
मुझे उसकी बात पर एक बार में ही विश्वास हो गया। उसने सत्य पा लिया था। मैं पहली बार उसे लेकर एकांत में टहलने निकला। आज वह मेरा शिष्य या मेरा छोटा-सा बालक नहीं था। उससे मैं किसी बराबर वाले की तरह बात कर सकता था। मैंने उसे अपने मन की बात बताई। कि किस तरह मुझे लग रहा है कि मैने लोगों को सत्य के पास ले जाने के स्थान पर उन्हें और भटका दिया है। और किस तरह मुझे इन सबसे दूर चले जाने की इच्छा हो रही है।
राहुल के उत्तर में ऐसी गंभीरता थी, जिससे मैं आश्चर्यचकित हो गया, “भगवन्। मैं आपकी मनोदशा अच्छी तरह से समझ रहा हूँ। आपके साथ भेजने से पहले मुझसे माताजी ने कहा था ‘तुम्हें मैं तुम्हारे पिता के सुपुर्द कर रही हूँ। आशा करती हूँ कि तुम उनसे प्रेरित होगे और सत्य की खोज करोगे। किन्तु पुत्र! हर किसी को अपना सत्य स्वयं ही ढूँढ़ना पड़ता है। और सत्य जानने के बाद एक बात और जाननी होती है। कि उस सत्य को जानने के बाद जो सही लगे वह करो। किन्तु यह आशा मत रखो कि कोई और आसानी से वह सत्य तुम्हारे द्वारा पा लेगा।’ भगवन्, उनकी बातों को याद कर के मुझे आश्चर्य नहीं हो रहा आपके विचारों पर।”
यशोधरा जानती थी। यही वह बात थी जो वह जानती थी। मेरे सत्य के आगे की बात।
राहुल ने आगे कहा, “किन्तु एक और बात है जिसे आप अपनी निराश मनोदशा में अनदेखा कर रहे हैं।”
“वह क्या है?”
“भगवन्! मैं मानता हूँ कि आपका सत्य विश्व नहीं समझ पाया है। और आसानी से समझ पाएगा भी नहीं। किन्तु क्या आपने यह नहीं देखा कि कम-से-कम जाति प्रथा से प्रताड़ित लोगों में पहली बार एक आशा कि किरण जगी है। कर्मकांडों और कई अन्य सामाजिक बुराइयों के बारे में लोगों ने सोचना प्रारंभ तो किया है। मानता हूँ कि अगर लोग सत्य को समझ जाते तो ये सब बातें वैसे ही बेमानी हो जातीं। किन्तु जब तक पूरा विश्व सत्य को नहीं समझता, कम-से-कम कुछ तो पहले से अच्छा हो सकता है। यदि आज आप इन सबको बीच में छोड़ कर चले गए तो जो अविश्वास इनके मन में घर कर लेगा, उसके बाद तो सत्य की खोज के लिए कोई आशा ही नहीं बची रह जाएगी भगवन्।”
राहुल चला गया। वह दुनिया में सत्य के प्रचार का प्रयत्न नहीं करेगा। बस स्वयं सत्य के मार्ग पर चलेगा। और शायद उससे जिन थोड़े लोगों का कल्याण होगा, वह कम नहीं होगा। मेरे किए गए कार्य से अधिक सम्पूर्ण होगा।
यशोधरा! मैं उस दिन रुका क्यों नहीं? किन्तु अब तो और भी देर हो चुकी है। अब तो मैं और भी आगे निकल आया हूँ।
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मुझे निर्वाण मिले बहुत समय बीत गया है। लोगों ने सत्य से दूर जाने को जो काम मेरे रहते ही प्रारंभ कर दिया था, वह तो अब और भी अधिक गहरी जड़े ले चुका है। मेरे नाम पर मंदिर बनाए गए हैं। कई जगहों पर मुझे भगवान माना जाता हैं। चीन और जापान में तो मेरे कई अवतार भी माने जाते हैं। बौद्ध धर्म भी बन गया है, जिसके अपने ही नियम हैं। और उस धर्म का ‘संस्थापक’ मुझे माना जाता है।
किन्तु इतिहास बदलने की शक्ति मुझमें नहीं है। काश! मेरे अंदर वह दैवीय शक्ति सच में होती, जो लोग मानते हैं कि मेरे अंदर थी। तो मैं इतिहास में जाकर कुछ घटनाओं को बदल देता। महात्मा बुद्ध का पहला उपदेश - सारनाथ में - कभी नहीं होता।