गौरा: भाग 2 / नदी के द्वीप / अज्ञेय
गौरा को कमरे में प्रवेश करते हुए भुवन ने न देखा था, न सुना था; उसकी उपस्थिति को उसने सहसा चौंक कर जाना तो बैठा-का-बैठा रह गया, गौरा ने उसके कोट के बटन-होल में नरगिस का एक डाँठा लगा दिया और उँगलियों के हलके स्पर्श से पल्ला सहलाती हट गयी तो भुवन ने पूछा, “ये कहाँ से-इस वक़्त?”
रात का भोजन करके भुवन अपने कमरे में आकर बैठा था। सहसा लम्बी यात्रा का अवसाद और दिन-भर के अनुभवों की थकान उस पर छा गयी थी तो कुरसी खिड़की की ओर खींचकर, बदली से घने हो रहे आकाश की पृष्ठिका पर खिंचे हुए पत्रहीन गुड़हल के आकार पर एक नज़र डाल कर उसने हथेलियों से आँखें ढँक ली थीं और स्पष्ट आकार-विहीन किसी विचार में डूब गया था। तनी हुई थकान ढीली पड़ कर मीठी-मीठी फैलने लगी थी।
सुकेत छोटा-सा अच्छा बँगला था; ढाल पर बना हुआ, दुमंजिला; निचली मंज़िल सामने को खुली थी, ऊपर की मंज़िल से सामने से सीढ़ी उतरती थी, पर पिछवाड़े भी उतरने का रास्ता था-ढाल के कारण पिछवाड़े दो-तीन सीढ़ियाँ ही उतरनी पड़ती थीं, फिर एक रास्ता धीरे-धीरे उतरता हुआ सामने की सड़क में आ मिलता था। ड्राइंग रूम और एक बड़ा बरामदा ऊपर था, उसके साथ गौरा के पिता का अध्ययन-कक्ष और फिर सोने का कमरा और एक छोटा कमरा; निचली मंज़िल में भी एक ड्राइंग-डाइनिंग रूम था और तीन सोने के कमरे, पर निचला ड्राइंग-रूम प्रायः काम में नहीं आता था-या किसी बहुत ही औपचारिक ढंग की भेंट के लिए ही सुरक्षित था; और भोजन भी प्रायः ऊपर के बरामदे में होता था। गौरा के माता-पिता ऊपर की ही मंज़िल में रहते थे और पिछवाड़े के रास्ते ही उतर कर टहलने जाते थे; सामने की सीढ़ी शायद ही कभी काम में आती थी-गौरा ही उससे आती-जाती थी। नीचे वाला एक शयनकक्ष उसका था, दूसरा प्रायः खाली रहता था और उसमें गौरा ने पुस्तकालय और वाद्य-यन्त्र रखने का स्थान बना रखा था, वहीं वह संगीत का अभ्यास करती थी। तीसरा कुछ अलग था और उसके बाहर एक बहुत छोटा-सा अलग बाड़ा भी था-यह मेहमान कमरा था और इसी में भुवन को ठहराया गया था।
“मैं अपने कमरे से लायी हूँ।”
भुवन ने लक्ष्य किया कि उसके पल्ले पर लगी हुई चार फूलों वाली एक डाँठी ही नहीं, गौरा एक गहरे ऊदे रंग का फूलदान लेकर आयी है जिसमें नरगिस भरे हैं। उसने ग्रीवा एक ओर को झुकाकर गहरी साँस से कोट में लगे वृन्त की सुवास लेते हुए कहा, “सारे ले आयीं-वहाँ नहीं रखे?”
गौरा ने उत्तर नहीं दिया। चुपचाप थोड़ी देर उसे देखती रही। एक बहुत हलकी मुस्कान-मुस्कान भी नहीं, एक खिलापन-उसके चेहरे पर था। फिर बोली, “आप को सर्दी तो नहीं लगेगी? रात को बारिश हुई थी-आज फिर हो सकती है।”
“नहीं, गौरा, इतनी ठण्ड तो नहीं है।”
गौरा ने चारों ओर नज़र डाली। “मैंने दो कम्बल और भी रख दिये हैं-और अँगीठी में लकड़ियाँ भी चिनी रखी हैं-कहिए तो आग जला दूँ-”
यह भुवन ने नहीं लक्ष्य किया था-क्योंकि कोर्निस के आगे लकड़ी की एक छोटी तिरस्करणी रखी थी जिससे अँगीठी छिपी हुई थी।
“और डोल में चीड़ की कुकड़ियाँ भी रखी हैं-जलती भी अच्छी हैं और सुगन्ध भी देती हैं-”
भुवन ने कुछ अधिक तत्परता से कहा, “नहीं गौरा, नहीं-मुझे आग जलाकर सोने की आदत नहीं-”
एक सन्नाटा-सा छा गया। गौरा कोर्निस के सहारे खड़ी हो गयी। दोनों अनमने से एक-दूसरे की ओर देखते रहे। फिर सहसा गौरा ने कहा, “आप थके हैं-मैं जानती हूँ-किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो आवाज़ दे दीजिएगा-”
भुवन ने भी मानो अपने को समेटते-से कहा, “नहीं, गौरा, तुमने किसी जरूरत की गुंजाइश कहाँ छोड़ी-”, फिर गौरा की पीठ को देखते हुए उसे मानो ध्यान आया कि वह उसकी कुछ अवज्ञा कर गया है-गौरा बात करने आयी थी-उसने कहा, “बैठो-अभी क्या वक़्त हुआ है?”
गौरा क्षण-भर ठिठकी। फिर मुड़े बिना ही उसने कहा, “नहीं, आप सो जाइये। सुबह-अगर आप बुलाएँगे तो घूमने चल सकती हूँ।”
भुवन ने कहा, “सुबह?” कुछ ऐसे ढंग से जो न प्रश्न था न उत्तर, न इनकार और न स्वीकृति; गौरा भी बात को वहीं छोड़ कर पीछे आहिस्ता से किवाड़ बन्द करती हुई चली गयी।
भुवन ने उठकर बत्ती बुझा दी, और फिर पूर्ववत् बैठ गया। उसका शिथिल हुआ मन धीरे-धीरे मानो एक-एक कदम बढ़ता हुआ प्रत्यवलोकन करने लगा।
गौरा के पिता ने सरल और खुले आनन्द से उस का स्वागत किया था; वह प्रणाम करके झुका था तो हाथ बढ़ा कर हाथ मिलाया था, दूसरे हाथ से भी कलाई पकड़ते हुए, फिर खींच कर गले-सा लगा लिया था। “तुम आ गये भुवन-गौरा तो चिन्ता करके सूख गयी थी!”
भुवन को पहुँच जाना चाहिए था बारह बजे, वह साढ़े चार बजे पहुँचा था; पर किसी ने उससे पूछा नहीं कि इतनी देर कहाँ लगी। बात यह हुई थी कि कलकत्ते से उसने दूसरा तार दिया था अपने पहुँचने के दिन का; देहरादून स्टेशन पर वह उतरा तो गौरा प्लेटफ़ार्म पर खड़ी थी-वह सुबह की सर्विस से चली आयी थी। भुवन को देखते ही वह लपकी हुई दोनों हाथ बढ़ा कर उसकी ओर दौड़ी थी, भुवन ने उसके दोनों हाथ अपने हाथों में पकड़ लिए थे और कुछ बोल नहीं सका था; थोड़ी देर बाद गौरा ने धीमे से कहा था, “आप आ गये...” और फिर धीरे-धीरे उसके हाथ छोड़ दिये थे। लेकिन जब सामान वग़ैरह सँभाल कर भुवन ने पूछा था, “अभी अड्डे पर चलना होगा-या मैं मुँह-हाथ धो लूँ वेटिंग रूम में?” तो गौरा स्वयं अपने को विस्मित करती कह गयी थी, “धो लीजिए-इस सर्विस से नहीं जाएँगे मसूरी!”
भुवन ने बिना कुछ कहे मान लिया था। मान ही नहीं लिया था, मानो उस क्षण से बागडोर गौरा को सौंप दी थी कि जैसा वह कहेगी वैसा ही चलता जाएगा। केवल जब मुँह-हाथ धोकर वह निकला था और गौरा ने पूछा था, “नाश्ता करेंगे?” तो उसने पहले पूछा था, “तुम्हारा क्या हुक्म है?” लेकिन फिर गौरा के कुछ कहने से पहले ही कहा था, “नहीं, चलो स्टेशन से बाहर निकलें।”
ताँगा लेकर वे मैदान तक गये थे, वहाँ से पैदल टहलते हुए डालनवाला की ओर निकलकर रिसपना के किनारे पहुँच गये थे; नीचे सूखी नदी के पाट में उतर कर पत्थरों में वे चलते रहे थे; फिर एक ऊँचे कगारे पर एक पेड़ देखकर उसके नीचे बैठ गये थे। चलते हुए दोनों बहुत थोड़ा बोले थे; गौरा ने छोटे-छोटे प्रश्न पूछे थे-कब चले, कैसे आये, कहाँ कितना ठहरे, यात्रा कैसे हुई, इत्यादि-और भुवन ने वैसे ही छोटे-छोटे जवाब दे दिये थे; पर बैठकर दोनों बिलकुल ही चुप हो गये। भुवन सामने पड़े हुए कंकड़ों में से एक-एक उठाकर निरुद्देश्य-सा नीचे फेंकने लगा; गौरा देखती रही। थोड़ी देर बाद वह भी यन्त्रवत् एक-एक कंकड़ उठाकर भुवन को देने लगी; भुवन अन्यमनस्क-सा कंकड़ ले लेता और मानो पहले फेंके हुए पत्थर का निशाना बाँधता हुआ-सा फेंक देता। इस प्रकार एक-एक कंकड़ से समय का एक-एक अन्तराल लाँघते हुए वे काल की या अस्तित्व की ही किसी अज्ञात दिशा में बढ़ते रहे।
सहसा गौरा ने कहा, “चलें अब।”
इतनी देर तक नीरवता अलक्षित थी, अब इन शब्दों से वह मानो दोनों की चेतना में घनी उभर आयी। भुवन ने कहा, “गौरा, तुम्हें कुछ कहना नहीं है?”
“और तुम्हें?” सहसा गौरा कह गयी। फिर कुछ सकपका कर सँभलती हुई, “आप ने तो लिखा था बहुत कुछ बताना है-सलाह करनी है-” वह खड़ी हो गयी।
भुवन ने हाथ बढ़ा कर उसका हाथ सहारे के लिए पकड़ कर उठते हुए कहा, “और तुम्हें तो और भी अधिक सलाह करनी थी।”
गौरा हँस पड़ी। “चलिए, मसूरी चलकर सलाह ही सलाह होगी-अभी थोड़ी देर में आप तो बुज़ुर्ग हो जाएँगे-बुज़ुर्गी आने से पहले-मैं-थोड़ी देर चुप-चाप आपके पास बैठना चाहती थी।”
भुवन ने मुस्करा कर कहा, “बुज़ुर्गी तो गयी गौरा, सदा के लिए।” फिर सहसा गम्भीर होकर, “लेकिन हम सीधे तुरत मसूरी नहीं गये-इसके लिए तुम्हारा कृतज्ञ हूँ। मुझे डर था-”
“क्या डर था?”
“कि कहीं-कहीं हम अजनबी न हों-कहीं मुझे बेयरिंग्स न खोजनी पड़ें”
गौरा ने उमड़ कर हाथ उसकी ओर बढ़ाया और कुछ घनी आवाज़ में कहा, “भुवन दा?” फिर तुरत संयत होती हुई बोली, “तो आप साल-भर से कम में इतने साहब हो गये कि देश की बेयरिंग्स भूल गये? और जावा तो ऐसा साहब भी नहीं है-”
भुवन हँस दिया।
धीरे-धीरे वे लौटे थे और अगली सर्विस उन्होंने पकड़ ली थी। रास्ते में फिर बहुत कम बात हुई थी, गौरा सुकेत का नक्शा उसे समझाती रही थी, बस। बीच-बीच में भुवन उसकी ओर देखता था; वह मुस्करा देती थी और वह भी मुस्करा देता था। किनक्रेग उतर कर वे पैदल चढ़ाई चढ़ने लगे तो बात हो ही नहीं सकती थी; बँगले पर पहुँचकर गेट के भीतर घुसकर गौरा दौड़ती हुई छोटे रास्ते से ऊपर चढ़ गयी थी पुकारती हुई कि “पापा, पापा, भुवन दा आ गये!” भुवन जब तक गेट से प्रविष्ट होकर भीतर पहुँचे, तब तक पापा बाहर आकर सामने की सीढ़ी से उतरने लगे थे, सीढ़ी के नीचे ही दोनों की भेंट हुई थी। गौरा कहीं अदृश्य हो गयी थी, और फिर लगभग घंटे भर बाद तक नज़र नहीं आयी थी; आयी थी तो सूचना देने कि चाय तैयार है। पिता ने पूछा था, “बेटी, चाय ही है कि कुछ खाने को भी?” और मुड़कर भुवन से, “खाना खाकर चले थे?”
भुवन ने कहा था, “जी, मोटर-यात्रा से पहले कम ही खाता हूँ-” और गौरा ने साथ ही उत्तर दिया था, “जी खाने को भी रखा है पर ये तो कुछ खाते ही नहीं, और अब तो जावा से पूरे साहब होकर आये होंगे-”
भुवन ने आँख बचाकर इशारे से ही उसे घुड़क दिया था।
तीसरे पहर थोड़ी देर उसने आराम किया था, फिर चाय पी थी और फिर गौरा के पिता के साथ घूमने गया था; इस बीच गौरा ने उसका कमरा सजा दिया था। लेकिन शाम को भी गौरा से विशेष बात नहीं हुई थी, खाने पर तो होती ही क्या।
और अब...भुवन ने फिर अपने को हिलाया। इस समय निस्सन्देह गौरा बात करने आयी थी-और फूल लेकर...और उसने पूछा ही नहीं...कदाचित् वह आहत होकर चली गयी। क्यों नहीं उसे ध्यान आया? बाद में उसने कहा था, अवश्य; पर बाद में कहने से क्या फ़ायदा।
सवेरे? शायद। गौरा ने तो स्पष्ट घूमने का निमन्त्रण दिया था। शायद वही अच्छा है; सवेरे टहलते हुए बात होगी तो और ढंग की होगी, रात को कमरे में बैठे-बैठे शायद बहुत उदास हो जाती...यह नहीं कि वह वैसा चाहता...पर मन जैसा है सो तो है ही, फिर रात का अपना असर होता है...और सवेरे का अपना, टहलने का अपना...
भुवन उठकर अँधेरे में ही कपड़े बदलने लगा। बदल चुका, तो क्षण भर जाकर खिड़की पर खड़ा रहा; बदली अभी थी, कहीं-कहीं एक-आध तारा दीखता था; यहाँ की रात, यहाँ की हवा, यहाँ की नीरवता में जावा की रात और हवा और नीरवता से कितनी भिन्नता थी-मात्रा की नहीं, प्रकार की, स्वभाव की...
वह धीरे-धीरे जाकर लेट गया। थोड़ी देर बाद सहसा उठा, कोट टटोलकर उसने उसमें लगा हुआ नरगिस का डाँठा निकाला और सिरहाने रखकर फिर लेट गया। फूलदान के नरगिसों की भारी, सालस, स्तब्ध गन्ध सारे कमरे में फैल गयी थी, सिरहाने रखे एक वृन्त की गन्ध अलग नहीं पहचानी जाती-पर वह एक वृन्त उपयोगिता के विचार से थोड़े ही वहाँ रखा गया है...क्या यह वृन्त भी बात करना चाहता है? अच्छा तो अब की उससे चूक नहीं होगी, वह सुनेगा, और वृन्त को कान के पास रखकर सुनेगा निहोरे करके-उसके तन्द्रिल मन में एक अधूरा पद तैर आया : 'लपिंतु किमपि श्रुतिमूले'-श्रुतिमूल में कुछ धीरे से कहने को-कौन? क्या वह ऊँघ गया...
× × ×
गौरा जाग कर उठ बैठी। किसी अनवरत शब्द ने उसे जगाया था। उसने सुना : पैरों की चाप, पाँच-सात पगों के बाद एक अन्तराल, फिर पाँच-सात पद। भुवन के कमरे से आ रही है आवाज़, तो भुवन कमरे में चक्कर काट रहा है-लेकिन चाल भी समान नहीं है; क्या गौरा कल्पना कर रही है, कि सचमुच वह पद-चाप उद्वेग की सूचक है? उसने घड़ी देखी : साढ़े-बारह; फिर उसने एक चादर कन्धों पर और अपने खुले बालों पर डाली और दबे पाँव कमरे से बाहर हो गयी।
भुवन के द्वार पर वह ठिठकी। पैरों की चाप और भी असम हुई, फिर सहसा रुक गयी।
गौरा ने सावधानी से किवाड़ खोला; वह ज़रा-सा चरमराया और फिर चुपचाप खुल गया। भीतर होकर किवाड़ फिर धीरे से उढ़का कर गौरा वहीं खड़ी रही, आगे नहीं बढ़ी; इधर-उधर सटे हुए पर्दों में से एक को हाथ से पकड़े हुए, आधी पर्तों की ओट। कमरे के फीके अन्धकार में खोजती हुई उसकी आँखों ने देखा, भुवन खिड़की के पास फ़र्श पर बिछे गलीचे पर बैठ गया है, कुछ वैसी मुद्रा में जैसी चित्रों पर धनुष पर चिल्ला चढ़ाते हुए कुमार राम की होती है-लेकिन वैसी कसी हुई नहीं, परास्त; एक घुटना भूमि पर, दूसरे पर कोहनी टिकी हुई; उठा हुआ हाथ धीरे-धीरे माथे पर आ टिका और माथे को पकड़े रहा...
कहाँ है भुवन? किस चिन्ता में है-नहीं, चिन्ता तो निरी विचार की अवस्था होती है, किस गहरी अनुभूति में है?
लेकिन-यह भुवन का निजी क्षण है, निजी अनुभूति है; ऐसे उसे देखते रहना चोरी है। बड़े कोमल स्वर में गौरा ने कहा, “भुवन दा, क्या बात है, नींद नहीं आती? बत्ती जला दूँ?”
भुवन बड़े जोर से चौंका। खड़ा हो गया। थोड़ी देर बाद हक्का-बक्का-सा उसे देखता रहा। “गौरा, तुम-तुम!”
गौरा ने फिर कहा, “थोड़ी देर आपके पास बैठूँ? आप कुरसी पर बैठिए।” और वह स्वयं अँगीठी के आगे से तिरस्करिणी हटाकर, अँगीठी के लकड़ी के चौखट पर बैठ गयी, कुरसी के सामने।
भुवन कुछ अतत्पर भाव से बैठ गया। फिर जैसे शून्य को भरने के लिए कुछ कहना ही है, ऐसे बोला, “मैं सो गया था, फिर-चौंक गया।”
“क्यों-कोई सपना देखा था?”
“शायद। नहीं-कोई रोया था!”
“रोया था? नहीं भुवन दा-रोने की आवाज़ कहाँ से आ सकती है-”
“हाँ,” भुवन ने साग्रह कहा, “चिड़िया का बच्चा रोया था।”
गौरा ने विस्मय को दबाकर क्षण-भर बाद फिर कहा, “बत्ती जला दूँ?”
“न। अच्छा, जला दो।”
गौरा ने टेबल लैम्प जला दी। लचकीले तार के स्टैण्ड वाली लैम्प थी, उसे दबाकर उसने नीचा कर दिया, प्रकाश दीवार पर पड़ने लगा और वहाँ से प्रतिबिम्बित होकर कमरे में फैला।
भुवन ने हाथों से आँखें ढँक ली, जैसे चौंध लगती हो। उसका शरीर एक बार सिहर गया।
गौरा ने कहा, “मैं आग जला देती हूँ, सर्दी बहुत है! और आप कुछ ओढ़ लीजिए।”
भुवन ने तड़प कर कहा, “नहीं गौरा, आग नहीं!”
गौरा बिस्तर पर से कम्बल उठाने मुड़ी थी, ठिठक गयी। फिर उसने कम्बल उठाकर धीरे से भुवन के कन्धों पर डालते हुए कहा, “क्या बात है भुवन दा-चीड़ की आग तो बड़ी स्निग्ध होती है-आप को अच्छी लगेगी-”
“नहीं, नहीं, मुझे आग में चेहरे दीखते हैं!”
गौरा ने पीछे खड़े-खड़े ही दोनों हाथ भुवन के कन्धों पर रखते हुए कोमल स्वर से पूछा, “किसके चेहरे, भुवन दा?”
“चेहरे-मृत चेहरे-बच्चों के चेहरे।” गौरा के हाथों के नीचे उसका शरीर एक बार फिर सिहर गया।
गौरा क्षण-भर अनिश्चित खड़ी रही। फिर उसने सहसा भुवन के सामने जाकर कहा, “भुवन दा, अब और नहीं मानूँगी। बताइये क्या बात है।” जैसे साहस बटोर कर उसने दोनों हाथ-भुवन के कानों पर रखे, उनके हलके दबाव से भुवन का मुँह ऊपर उठाते हुए कहा, “देखिए मेरी तरफ़ देखिए-आपको बताना होगा!”
उनकी आँखें मिलीं, दोनों स्थिर एक-दूसरे को देखते रहे। गौरा ने लगभग अश्रव्य स्वर में कहा, “मैं पूछती हूँ, भुवन, नहीं बताओगे तुम?”
भुवन ने उत्तर नहीं दिया; दोनों वैसे ही देखते रहे। फिर गौरा के हाथ धीरे-धीरे शिथिल होने लगे-वह हार गयी है-और भुवन नहीं बोलेगा, कि भुवन ने कहा, “अच्छा गौरा, बताता हूँ। अच्छा, तुम बैठ जाओ।”
गौरा उसके सामने की ओर, अँगीठी के सामने बिछे गलीचे पर बैठने लगी। अधबैठी ही थी कि भुवन ने जल्दी से और एक अजब रुखाई के साथ कहा, “रेखा को तुम जानती हो-आइ लव्ड हर।”1
गौरा बैठती-बैठती रुक गयी। धीरे से बोली, “जानती हूँ।” थोड़ा-सा रुककर, “आइ लव हर टू।”2
भुवन ने चकित भाव से कहा, “गौरा!” फिर रुकते-से, “लेकिन तुमने तो उसे देखा ही नहीं-”
“मैं-मिली थी। लेकिन-यह-मिलने से अलग बात भी है।”
भुवन ने बात काटते हुए पूछा था, “कब?” पर वह प्रश्न बीच ही में डूब गया, दोनों चुप बैठे रह गये।
कई मिनट बाद भुवन ने कहा, “कहानी लम्बी है गौरा। पर-बहुत छोटी भी है।” सहसा एक कठोर, निष्करुण भाव से, “आइ लव्ड हर। वी वेयर टु हैव ए चाइल्ड। आइ किल्ड हिम।”3
1. मैं उसे प्रेम करता था।
2. मैं भी उसे प्रेम करती हूँ।
3. मैं उसे प्रेम करता था। हमारी सन्तान होने वाली थी। मैंने उसे मार दिया।
“अ-” गौरा के मुँह से निकला; दोनों की आँखें मिलीं तो भुवन ने देखा, गौरा की आँखों में व्यथा है, विमूढ़ता है, और-अविश्वास है। गौरा धीरे-धीरे बोली, “झूठ मत बोलिए, भुवन दा; अपने को ऐसे क्यों कोस रहे हैं?”
भुवन ने सहसा उबलकर कहा, “कोसूँ भी नहीं गौरा-तुम नहीं जानती कि मैंने क्या किया है!”
“एक रूखी बात कहूँ, भुवन दा? आप कहना चाहते हों तो-बात कहें, जजमेण्ट आप मुझे न दें-वह करना होगा तो मैं स्वयं करूँगी।” सायास मुस्करा कर गौरा बोली, “उतनी कठोर भी हो सकती हूँ-आप की शिष्या हूँ आख़िर!”
फिर एक लम्बा सन्नाटा रहा। फिर भुवन ने कहा, “अच्छा गौरा, आग जला दो। मैं कहता हूँ।”
गौरा ने कहा, “सच, भुवन दा? आप नहीं चाहते तो कोई जरूरत तो नहीं है”
“नहीं, जला दो। अगर दीखेगा ही तो देखता जाऊँगा और कहता जाऊँगा।”
गौरा ने आग जला दी। क्षण ही भर में चीड़ की कुकड़ियों ने आग पकड़ ली, प्रकाश जहाँ-तहाँ नाचने लगा, चीड़ के सोंधे, उदार, हृद्य गन्ध-धूम ने वातावरण को छा लिया, जैसे खुले वनाकाश की साँस वहाँ आकर बस गयी हो।
“गौरा, मैं भाग गया था-तुम से भागा था-पर तुमसे भागने के लिए ही नहीं-एक बोझ मुझे दबाता लिए जा रहा था-मेरे कन्धों पर सवार सागर का बूढ़ा-” भुवन कुरसी से उतर कर नीचे गलीचे पर बैठ गया, आग के निकट आकर आगे झुका हुआ बड़ी-बड़ी अपलक आँखों से आग की लपटों को देखता हुआ। गौरा भी अपलक उसे देखने लगी; भुवन की आँखों में ऐसा आविष्ट, मन्त्र-मुग्ध भाव उसने कभी देखा नहीं था-मानो भुवन उसे भूल गया है, देश-काल-परिस्थिति सब भूल गया है, केवल लपटों में ही उसका अस्तित्व केन्द्रित हो गया है, उसी में से वह प्राण खींच रहा है...
एक अद्भुत भाव गौरा के भीतर उमड़ आया : कुछ डर, कुछ आशंका, कुछ जुगुप्सा, कुछ श्रद्धा, और सबके ऊपर एक आप्लवनकारी स्नेह...कुछ बहुत निजी, बहुत पवित्र, जिसे उघड़ा नहीं देखते, बहुत निकट से नहीं देखते-ऐसे भाव भर कर वह उठी और भुवन के पीछे जाकर कुरसी पर बैठ गयी। भुवन मानो अकेला होकर, कुछ और भी आगे झुककर, धीरे-धीरे बोलने लगा।
“तुम उसके बारे में बुरा नहीं सोचोगी, गौरा; वह-वैसे लोग दुर्लभ होते हैं दुनिया में-और-उसने मुझे बहुत प्यार किया था, जितना-” वह तनिक रुका और फिर कह गया, “जितना किसी ने नहीं किया। और अब भी करती है। और...”
गौरा सुनती रही। भुवन का स्वर पहले असम था, धीरे-धीरे सम, सधा हुआ होने लगा; और उसी अनुपात में दूर, निर्वैयिक्तक, रागमुक्त, असम्पृक्त; मानो गौरा के आगे एक सजीव व्यक्ति नहीं, शब्द का एक झरना हो, जो अजस्र भाव से बहता जा रहा हो; कौन पास है, कौन उसके झरझर बहते हुए अभिप्रायों को सुनता है या नहीं सुनता, उसकी संवेदना की झिलमिल छायित-द्योतित पन-चादर को देखता है या नहीं देखता, इस से सर्वथा असंलग्न...
और कमरे में चीड़ की आग के आलोक की शिखाएँ नाचती रहीं, लकड़ी की और चीड़ की कुकड़ियों की हलकी चटपट और विस्फूर्जित वाष्पों की फुरफुराहट जैसे स्वर-पृष्ठिका बनकर भुवन की बात को अतिरिक्त बल देती रही...
“...मैं उसे वहीं छोड़ कर चला आया; चलते वक़्त उसने एक कापी और अपनी नीली साड़ी पैकेट बना कर मुझे दी थी जो मैंने बाद में देखी; कापी में बहुत-सी बातें थीं बाइबल के 'सांग आफ़ सांग्स' के बहुत-से अंश-'माइ बिलवेड स्पेक एण्ड सेड अंटु मी, राइज़ अप, माइ लव, माइ फेयर वन, एण्ड कम अवे; फ़ार लो,द विंटर इज़ पास्ट, द रेन इज़ ओवर एण्ड गान, द फ्लावर्स एपीयर,' वग़ैरह, फिर मैं श्रीनगर चला गया-”
गौरा ने दबे-पाँव उठकर आग में चीड़ की कुकड़ियाँ और डाल दी, भुवन की और एक बार भी नहीं देखा; फिर पूर्ववत् उसके पीछे आकर बैठ गयी।
“...तुलियन में हम चार दिन रहे; फिर मैं उसे पहुँचाने पहलगाँव आया; रास्ते में नदी के आर-पार पड़े एक तख्ते के बीच में खड़े होकर उसने कहा-उसने मुझे कहा-मुझ से पूछा कि जीवन में मेरी आकांक्षा क्या थी? मैंने बताया, सर्जन होने की; वह स्वयं बीनकार होना चाहती थी-फिर उसने कहा, 'उसे मैं वीणा भी सिखाऊँगी, और सर्जन भी बनाऊँगी'-फिर वह चली गयी मैं तुलियन लौट गया काम करने...”
आग लपकती और गिरती; कभी एक अध-जली लकड़ी बीच में से टूटकर गिरती और आग का एक भाग दबकर अँधेरा या नीलाभ हो जाता, फिर फुरफुराकर एक छोटी-सी शिखा उसमें से उमग आती और बढ़ जाती। उसी प्रकार भुवन का स्वर कभी मद्धिम पड़ जाता, कभी धीरे-धीरे ऊँचा उठ जाता, कभी उसकी वाणी क्षणभर अटक कर फिर कई-एक द्रुत चिनगारियाँ फेंक देती-यद्यपि साधारण रूप से उसकी बात फुलझड़ी-सी नहीं थी, न उसमें तारा-फूलों की लड़ियाँ थीं, न घटती-बढ़ती कलाओं का आकर्षण, न वह चटचटाहट जो स्फूर्ति देती है, न वह रंग-बिरंग चमक जो लुभा लेती है...वह थी महताबी की तरह, जिसके भीतर के अंगारे बूँद-बूँद टपकते हैं, पिघली हुई आग के आँसुओं की तरह, जो हवा में भी झरते हैं, पानी के नीचे भी झरते हैं, चुप-चाप, बेरोक झरते जाते हैं, जलते जाते हैं...
“...लेकिन दुबारा जब मैं गया तब-वह बदल गयी थी-मेरी सात-आठ दिन की अनुपस्थिति में उसे ऐसी चिट्ठियाँ आयी थीं कि-मेरी बात उसे आश्वस्त नहीं रख सकी थी और उसने-उसने आपरेशन करा लिया था। यह बात मेरे ध्यान में भी न आयी थी-पर मुझे उसे छोड़कर नहीं जाना चाहिए था क्योंकि तब शायद उसका विश्वास न टूट जाता-मैं...”
भुवन का स्वर धीरे-धीरे बदलने लगा। गला भर्रा आया; क्रमशः वाक्तन्त्रों की झंकृति कम, और केवल वायु का स्वर बढ़ता चला, यहाँ तक कि बात केवल एक तीखी फुसफुसाहट हो गयी जो कभी-कभी टूट कर स्वनित हो जाती थी, बस...गौरा के रोंगटे खड़े हो गये-वह आवाज़ मानो मानवीय ही नहीं थी, मानो वातावरण में भटकती हुई कोई प्रेत-व्यथा वहाँ पूँजीभूत होकर स्वरित हो रही हो। वह निश्चल सुनती न रह सकी, पर भुवन को रोक भी न सकी; दबे-पाँव उठकर उसने टेबल लैम्प बुझा दी और फिर वहीं आकर बैठ गयी; भुवन आग को देख रहा था, उसे मालूम ही नहीं हुआ कि पीछे प्रकाश कम हो गया है, वह वैसे ही अमानुषी ढंग से बोलता रहा...
“वह कलकत्ते चली गयी। दिल्ली तक मैं साथ आया था, यहाँ रेल में बिठाया था। रेल में एक और सवारी ने उससे पूछा था, ये कौन है? तो उसने कह दिया मेरे-हज़बैंड, सात साल हुए शादी हुई थी। पड़ोसिन उसे बधाई देने लगी-”
सहसा स्वर बन्द हो गया।
निस्तब्ध निश्चलता-आग की जीभें भी उठ रही थीं तो मानो इसीलिए कि पहले से उठ गयी हैं और अब रुकना ही गति होना, उठते रहना तो अगति है; वैसी हो साँसें-उठतीं और गिरतीं क्योंकि सदा से गिरती आयी हैं, वैसी ही क्षणों की धारा बहती क्योंकि अजस्र बहती आयी है...
न जाने कितनी देर बाद, भुवन की एक शब्द-हीन विरस हँसी-”यह सब मैं क्या कह रहा हूँ।” फिर एक लम्बा मौन; फिर भुवन का रुकता-सा, सोचता-सा स्वर : “यही है मेरी कहानी गौरा-और तब से मैं आग में देखता हूँ चेहरे-मृत बच्चों के चेहरे-स्वयं अपना चेहरा क्योंकि मैं भी तो मर गया हूँ उसके साथ।”
फिर मौन। फिर भुवन सहसा सिहरता है, एक काला बादल-सा उसके सिर-माथे पर छा गया है और चारों ओर से बहता हुआ-सा उसे डुबाये जा रहा है-वह लड़खड़ा जाएगा और धँस जाएगा-आँखों के आगे अँधेरा हो रहा है-टटोलते से हाथ वह अपने सिर की ओर, सिर के ऊपर उठाता है-
ऊपर गौरा का झुका हुआ सिर है; उसके खुले बाल आगे ढरक आये हैं और भुवन के चेहरे पर छा गये हैं-भुवन का हाथ स्तब्ध रुका रह जाता है, वह बादल भी स्थिर रुका रह जाता है-फिर टप से एक बूँद उसके माथे पर बरस जाती है-
भुवन के दोनों हाथों की उँगलियों ने ढरके हुए बालों की एक-एक लट पकड़ ली। फिर एक हाथ उसने छोड़ दिया, हाथ बढ़ाकर गौरा के माथे को धीरे-धीरे थपकने लगा।...
“राह चलते जिस दिन बैठे-बैठे जानूँगा कि मेरे पीछे कोई है और मुड़कर नहीं देखूँगा, और वह झुककर अपने खुले बाल मेरी आँखों के आगे डाल देगी, उस दिन मैं जान लूँगा कि मेरी खोज-मेरे लिए खोज समाप्त हो गयी और पड़ाव आ गया।”
यह किसने कहा था? मानो किसी पुस्तक में पढ़ी हुई भविष्यवाणी है यह-
सहसा भुवन ने कहा, “गौरा, अब तुम इस सारी बात को भूल जाओ-शायद मुझे तुम्हें कहनी ही न चाहिए थी, व्यर्थ...”
गौरा ने दोनों हाथ भुवन के कन्धों पर रख दिये, और धीरे-धीरे सीधी खड़ी हो गयी। पीछे खड़ी-खड़ी ही बहुत धीमे, खोये-से स्वर में बोली, “तुम-तुम कभी पछताओगे तो नहीं मुझे यह सब बता देने पर? मैं-”
भुवन ने कहा, “नहीं गौरा, यह तो नहीं लगता। मुझे तो लगता है, कि वह जो बोझ मुझ पर था-वह सागर का बूढ़ा जो मेरे कन्धों पर सवार था, वह उतर गया। सोचता हूँ, पहले ही तुम से कहा होता...पर-शायद कहने का समय नहीं आया था”
“अब-तुम भागोगे तो नहीं? बोझ उतर गया तो-बताओ, फिर चले तो नहीं जाओगे?”
भुवन थोड़ी देर नहीं बोला। फिर उसने एकाएक कहा, “गौरा, बत्ती कैसे बुझ गयी?”
गौरा ने हटते हुए सिर जोर से झटक कर बाल पीछे कर लिए; मेज़ की ओर बढ़कर टेबल लैम्प उसने जला दी, कुछ बोली नहीं। भुवन भी नीचे से उठकर अँगीठी के जंगले पर बैठ गया, ढेर-सी कुकड़ियाँ उसने आग में डाल दीं। आग भड़क उठी तो उसने पूछा, “गौरा, कुछ कहोगी नहीं?”
गौरा चुपचाप उसके पास नीचे बैठ गयी। भुवन का एक हाथ नीचे लटक रहा था, उसे अपने हाथों में लेकर धीरे-धीरे सहलाने लगी।
भुवन ने फिर कहा, “गौरा, तुम्हें कुछ कहना नहीं?”
गौरा फिर भी चुप रही।
भुवन ने अपना हाथ खींचते हुए धीमे, कुछ हताश स्वर से कहा, “समझ गया, गौरा। लेकिन एक बार मुँह उठाकर वैसा ही कह दो-”
गौरा ने मुँह उठाकर थरथराते मर्माहत स्वर में कहा, “आप इतने-तुम इतने अबूझ कैसे हो सकते हो? फिर तत्काल संयत, “आप-रेखा दीदी से नहीं मिलेंगे?”
भुवन ने कुछ विस्मित स्वर से कहा, “मैं कलकत्ते मिलता आया हूँ।”
तीन बजे के लगभग गौरा अपने कमरे में चली गयी।
रेखा से भेंट की बात बताते हुए भुवन खड़ा हो गया था, फिर धीरे-धीरे न जाने कैसे दोनों खिड़की के पास जा खड़े हुए थे। भुवन रेखा की बात कहकर चुप हो गया; फिर थोड़ी देर बाद उसने हठात् पूछा, “गौरा, तुम रेखा से कब मिली थी, यह तो तुमने बताया नहीं?”
“वह मिलने आयी थीं-पिछली गर्मियों में।” कुछ रुककर, “तुलियन से लौटने के बाद। चन्द्रमाधव जी मिलाने लाये थे।”
“ओह।” कहकर भुवन चुप हो गया। आगे कुछ पूछने का उसका मन नहीं हुआ।
“आप चन्द्रमाधव जी से नाराज़ हैं, भुवन दा?”
भुवन सहसा कुछ नहीं बोला, बाहर रात की ओर देखता रहा।
“क्यों नाराज़ हैं, भुवन दा? वह आपके मित्र रहे-”
“मित्र!” भुवन ने कड़ुवे स्वर से कहा। फिर, जैसे इस प्रसंग को यहीं छोड़ देना चाहिए, वह चुप लगा गया।
गौरा ने उसके बात काटने की उपेक्षा करते हुए अपना वाक्य पूरा किया, “और-इतने बड़े भी नहीं हैं कि आप उनके ऊपर गुस्से का भार ढोते चलें-छोड़िए गुस्सा!”
भुवन थोड़ा-सा मुस्करा दिया। फिर धीरे-धीरे बोला, “तुम ठीक कहती हो-उस पर गुस्सा व्यर्थ है। और अब है भी नहीं। पर मैंने चिट्ठी-पत्री बन्द कर दी थी”- फिर सहसा नये विचार से, “तुम्हें उसकी चिट्ठी-विट्ठी आती है? कहाँ है?”
“नियमित आती हो, ऐसा तो नहीं, हाँ, बन्द नहीं हुई। पिछले महीने आयी थी। एक बम्बई से। आप क्यों नहीं उन्हें एक चिट्ठी लिख देते-यहीं से?” तनिक रुककर वह फिर बोली, “सुना है, वह फिर शादी कर रहे हैं-”
“अच्छा?”
फिर थोड़ी देर मौन रहा, दोनों सूनी रात को देखते रहे। लोग एक ही आकाश को, एक ही बादल को, एक ही टिमकते तारे को देखते हैं, और उनके विचार बिलकुल अलग लीकों पर चलते जाते हैं, पर ऐसा भी होता है कि वे लीकें समान्तर हों, और कभी ऐसा भी होता है कि थोड़ी देर के लिए वे मिलकर एक हो जायें; एक विचार, एक स्पन्दन जिस में साझेपन की अनुभूति भी मिली हो। असम्भव यह नहीं है, और यह भी आवश्यक नहीं है कि जब ऐसा हो तो उसे अचरज मान कर स्पष्ट किया ही जाये, प्रचारित किया ही जाये-यह भी हो सकता हैं कि वह स्पन्दन फिर द्विभाजित हो जाये, विचार फिर समान्तर लीकें पकड़ लें...
गौरा ने कहा, “यह बड़ा दिन है, भुवन दा। 'आल पीस आन अर्थ, गुडविल टु मेन।' सोचती हूँ, तो ख्याल आता है कि कितनी सुन्दर भावना है यह-और लगता है कि सचमुच इसे कोई सम्पूर्णतया अनुभव कर सके तो-शिशु ईशा के साथ उसका भी नया जन्म हो जाता होगा।”
भुवन ने सोचते हुए-से कहा, “बिना पीड़ा के जन्म नहीं होता, गौरा-देव-शिशु का भी नहीं। शान्ति की भावना से शान्ति नहीं मिलती-”
“मैं कब कहती हूँ? बल्कि बिना पीड़ा के यह व्यापक कल्याण-भावना भी तो नहीं जागती-'आल पीस आन अर्थ' कह ही वह सकता है जो पीड़ा से गुज़रा है, नहीं तो इस भावना के ही कोई अर्थ नहीं होते।”
फिर एक मौन हो गया। भुवन ने पूछा, “क्या सोच रही हो, गौरा?”
“बहुत कुछ।”
“क्या?”
“पर कह नहीं सकती।”
“नहीं सकती, या नहीं चाहती?”
“ठीक चाहती ही नहीं, ऐसा तो नहीं कह सकती-पर-सकती नहीं।”
“मेरे गुरु कहा करते थे, 'जो विचार स्पष्ट कहना नहीं आता, वह असल में मन में ही स्पष्ट नहीं है। स्पष्ट चिन्तन हो तो स्पष्ट कथन अनिवार्य है'।” भुवन ने कुछ गम्भीरता से, कुछ चिढ़ाते हुए कहा।
“चिढ़ा लीजिए। पर मैं जो सोच रही हूँ, वह मेरे आगे बिलकुल स्पष्ट है। कह नहीं सकती तो-इसलिए कि सोचना चित्रों से, प्रतीकों से होता है, कहना शब्दों से; और-शब्द-अधूरे हैं।”
“ऊँहुक्! विचार शब्दों के साथ हैं-शब्द अधूरे हैं तो विचार ही अधूरा है!” भुवन ने ज़िद की।
गौरा ने सहसा घूमकर, दोनों कोहनियाँ खिड़की पर टेककर उसकी ओर मुँह करके कहा, “आप-मुझे चैलेंज कर रहे हैं?”
“वैसा समझो तो-” गौरा एकदम गम्भीर हो गयी है, यह उसने लक्ष्य किया, वह खिलवाड़ कर रहा है ऐसा उसे नहीं लगा, उसका ढंग चिढ़ाने का था पर नीचे गम्भीरता थी। “तो-अच्छा, वही सही।”
“तो सुनिए। शब्द अधूरे हैं-क्योंकि उच्चारण माँगते हैं। मैं कह नहीं सकती थी, पर लिख सकती थी चाहती तो। लेकिन आप कहलाना चाहते हैं-लीजिए : मैं सोच रही थी-किसी तरह, कुछ भी करके, अपने को उत्सर्ग करके आपके ये घाव भर सकती-तो अपने जीवन को सफल मानती-”
भुवन ने स्तब्ध भाव से कहा, “यह मत कहो गौरा-मैं और नहीं सुन सकता, और अब आगे-हल्का ही चलना चाहता हूँ”-
“मैं-तुम्हें कुछ दे नहीं रही; वह मेरी ही साधना होती, मैंने इससे बढ़कर कभी कुछ नहीं माँगा कि तुम्हारे काम आ सकूँ और आज भी नहीं माँगती।”
भुवन उसके और पास आ गया। क्षण-भर उसकी उठी हुई ठोड़ी के नीचे कण्ठ की नाड़ी का स्पन्दन देखता रहा, फिर उसकी ओर सिर झुकाता हुआ बोला, “तुम मेरी कृतज्ञता लो, गौरा; तुम जो कह रही हो-जो मैंने कहला लिया वही बहुत है-और-आइ एम आल्रेडी हील्ड, नहीं तो तुमसे कह पाता?”
गौरा ने एक हाथ से उसके बाल उलझाते हुए कहा, “न-भुवन-मुझे कृतज्ञता से डर लगता है-उसकी ओट में तुम-फिर दूर चले जाओगे न?”
भुवन सीधा हो गया। “क्या करूँगा, गौरा, यह तो नहीं जानता; यह जानता हूँ कि विधि ने मुझे मेरी पात्रता से अधिक दिया है। और यह अच्छा नहीं लगता। लोगों से-अपने स्नेहियों से-अधिक ले सकता हूँ, उनका कृतज्ञ हो सकता हूँ; विधि से नहीं, क्योंकि उसके प्रति कृतज्ञता का कोई मतलब नहीं होता।”
गौरा के सामने से हटकर वह कमरे में टहलने लगा। गौरा वहीं खड़ी उसे देखती रही।
“गौरा, रात बहुत हो गयी-बल्कि यह तो भोर है-जाओ, सोओ अब। सबेरे उठोगी?”
“हाँ-घूमने चलोगे? पर अभी जाने को जी नहीं है। आग बड़ी सुन्दर जल रही है।”
“तुम तो इतनी दूर खड़ी हो आग से-” भुवन ने सहसा कोर्निस को देखकर कहा, “और ये तुम्हारे नरगिस तो इस गर्मी में मुरझा गये-मैंने पहले ध्यान नहीं दिया-” उसने बढ़कर कोर्निस से फूलदान उठाया और कमरे के पार मेज की ओर ले चला। गौरा ने रास्ते में आगे बढ़ कर उससे फूलदान ले लिया, बोली, “सूँघिए इनको।” भुवन ने फूलों में मुँह छिपा कर लम्बी साँस खींची।
“बस, अब मुरझा जायें!” कहती हुई गौरा ने फूलदान मेज पर रख दिया। “और बहुत हैं-रोज लाऊँगी।”
भुवन ने स्नेहपूर्ण आग्रह से कहा, “अच्छा, अब सोने जाओ।”
“मैं तो सोयी ही थी। तुम्हीं तो नहीं सो पाये-अकेले डर लगता है!” गौरा ने चिढ़ाया।
भुवन ने मुस्करा कर स्वीकार किया कि वह दोषी है।
“अच्छा, अब तो नहीं डरोगे?” कुछ रुककर, कोमलतर स्वर से, “आग से तो नहीं डरोगे अब-”
“नहीं। अब नहीं। यह आग तो तुम्हारी आग है।”
गौरा ने एक क्षण चारों ओर देखा। फिर आगे जाकर बहुत-सी कुकड़ियाँ आग में डाल दी। बोली, “हाँ, यह मामूली आग थोड़े ही है-आपकी नींद के लिए खास सुगन्धित आग जलायी गयी है-हाँ।”
भुवन खड़ा मुस्कराता रहा। गौरा ने पास आकर आँख भरकर उसे देखा, फिर बोली, “अच्छा मैं जाती हूँ-तुम सो जाना अभी, हाँ?”
भुवन ने धीरे से सिर हिलाया, “हाँ।”
गौरा ने सहसा खिलकर कहा, “बच्चे हो तुम भी-बिलकुल शिशु! अच्छा, अब से तुम्हें यही कहूँगी-बड़े-बड़े वैज्ञानिक नामों से डर लगता है।”
वह चल पड़ी। किवाड़ खोलकर आधी बाहर जाते-जाते मुड़कर शरारत से बोली, “शिशु?” और चली गयी, पीछे उसने भुवन का स्वर सुना, “जुगनू।”
भुवन सोकर देर से उठा, नींद खुलने के साथ ही एक वाक्य उसके मन में गूँज गया : “शब्द अधूरे हैं-क्योंकि उच्चारण माँगते हैं, मैं कह नहीं सकती थी, पर लिख सकती थी चाहती तो।” और सहसा उसकी सब इन्द्रियों की चेतना सजग हो आयी, सबसे दीर्घ-सूची घ्राणेन्द्रिय की भी, उसके नासा-पुटों में चीड़ के धुएँ और नरगिस के फूलों की मिश्रित गन्ध भर गयी और उसने जैसे उसमें दोनों गन्धों को अलग-अलग पहचान लिया।
“यह आग तो तुम्हारी आग है।” और यह गन्ध? यह गन्ध? भुवन अकुलाया-सा उठा, जल्दी से उसने मुँह-हाथ धोया और ड्रेसिंग गाउन लपेटकर फिर पलंग के सिरे पर बैठ गया।
क्यों उसने गौरा को बाध्य किया था बोलने को? अपनी बात वह कहना चाहता था, उसे कहनी चाहिए थी, उससे वह भार-मुक्त भी हुआ, वह ठीक था-पर गौरा से क्यों उसने कहलवाया जो कहला कर छोड़ नहीं दिया जा सकता-कुछ कर्म माँगता है?
यह नहीं कि गौरा ने कहा नहीं था। जब वह अपनी कहानी कह रहा था तब गौरा जिस प्रकार से अदृश्यप्राय हो गयी थी-फिर सहसा उसने अपने केशों से उसे छा लिया था-उसे जिसने गौरा को कहा था कि जब वैसा होगा तब वह जान लेगा कि खोज पूरी हो गयी-फिर उसका अधिकार-पूर्वक चन्द्रमाधव की ओर से पैरवी करना; ये सब क्या हैं अगर नहीं हैं एक आत्म-विश्वास के सूचक, ऐसे आत्म-विश्वास के, जो किसी गहरे भावैक्य से, सम्पर्क से पैदा होता है? शब्द अधूरे हैं-उच्चारण माँगते हैं; गौरा अनुच्चारित सम्पूर्ण बात कह गयी है।
भुवन खड़ा होकर इधर-उधर टहलने लगा। नहीं यह असम्भव स्थिति है, ऐसा नहीं चल सकता! वह भी अधूरा है, बल्कि पंगु है, क्या हुआ वह पंगुता घाव नहीं है तो-सम्पूर्ण को वह कैसे स्वीकार कर सकता है? कुछ भी कैसे स्वीकार कर सकता है जो केवल स्वीकार है, दान नहीं है? 'दो, दो, दो, जब तक कि तुम्हारा हृदय मुक्त न हो जाये!'-देने में ही मुक्ति है-स्वास्थ्य है-यह तो किसी ने नहीं कहा कि ले लो, सब स्वीकार करते चलो-दुर्भाग्य हो, व्यथा हो, हाँ, तब स्वीकार है : 'आमार भार लाघव करि नाई वा दिले सान्त्वना, वहन जेन करिते पारि';*-पर यह...यहाँ स्वीकार से पहले बहुत सोचने की ज़रूरत है...उसे याद आयी रेखा की बात, “और भी बातें सोचने की हैं न, इसीलिए यह बात सोचने की नहीं रही-यह तभी सोची जा सकती है जब एक और अद्वितीय हो, दूसरी किसी बात से असम्बद्ध हो।...” वह प्रसंग दूसरा था, और तब वह झल्लाया था, पर रेखा की बात ठीक थी-रेखा की सब बातें ठीक थीं, क्या हुआ वह फिर भी हारी तो-बल्कि इसीलिए तो हारी वह; मानव का विवेक सम्पूर्ण नहीं है, पर या तो वह बिलकुल अमान्य है, या वह अनिवार्यतः सर्वदा मान्य है...नहीं, वह गौरा से कह देगा, आज ही कह देगा।
वह उद्विग्न-सा बाहर जाने लगा। किवाड़ उसने खोले, फिर क्षण-भर वहीं ठिठका रहा; दिन तो बहुत चढ़ गया है, क्या इसी रूप में बाहर घूमना उचित होगा, या वह कपड़े पहन ले?
दूसरी ओर किवाड़ खुला। उनींदी आँखों को झपकती हुई गौरा निकली। उसे किवाड़ में खड़ा देखकर बोली, “अरे, तो आप अभी उठे हैं-मैं समझी अकेले घूमने चले गये होंगे-मैं तो घबरा गयी थी-मैं अभी मुँह-हाथ धोकर आयी, आज तो बड़ा दिन है-मेरा बड़ा दिन-” सहसा रुककर उसने आँखें बड़ी करके देखा, क्योंकि भुवन तब तक कुछ बोला ही नहीं था; भुवन के चेहरे का गूढ़ भाव देखकर फिर बोली, “क्या सोच रहे हो सबेरे-सबेरे, शिशु?” उसकी मुस्कराहट के उत्तर में भुवन भी सायास मुस्कराया; वह लौटकर फिर कमरे में चली गयी।
भुवन भी किवाड़ खुला छोड़कर कमरे में लौट गया, और मेज़ के पास लगी कुरसी पर बैठ गया, एकाएक असहाय। वह कहेगा-कह देगा; पर अभी नहीं, आज के बड़े दिन नहीं...
सामने मेज़ पर पड़े नरगिस अपनी आँखों से उसकी ओर देखते हुए फीके-से मुस्करा दिये।
हाँ, यह गन्ध भी तुम्हारी गन्ध है-आग की भी, फूल की भी...
(* मेरा भार हलका करके सान्त्वना चाहे न भी देना, उस भार को वहन कर सकूँ (ऐसा ही हो)।
-रवीन्द्रनाथ ठाकुर)
× × ×
गौरा अपने कमरे में जाकर तुरन्त सोयी नहीं।
उसके कमरे की दो खिड़कियों में से छोटी खुली थी, बड़ी नहीं, क्योंकि उस ओर हवा का रुख था; अब उसने बड़ी खिड़की भी खोल दी। हवा के झोंके ने एक हल्की सिहरन उसकी देह में दौड़ा दी; वह उसे अच्छा लगा। वह खिड़की में जाकर खड़ी हो गयी। इस खिड़की के नीचे गेंदे के चार-पाँच बड़े-बड़े पौधे थे; बिजली की रोशनी में उनके बड़े-बड़े पीले और कत्थई फूल चमक गये। क्या बेतुका फूल है गेंदे का भी; यूरोपियन मेमों को जब भारत आते ही एकाएक साड़ी पहनने का शौक सवार होता है तब वे जो, जैसी, जिन चटक रंगों की साड़ियाँ-और जैसे!-पहनती हैं, उस पर मानो नीरव अन्योक्ति है गेंदे का फूल! इस तुलना पर गौरा तनिक-सी मुस्करा दी, फिर वह बत्ती बुझाने को मुड़ी कि इन फूहड़ मेम साहबों की उपस्थिति से छुट्टी पा जाये पर इरादा बदल कर वहीं लौट आयी। गेंदों की ओर उसने फिर देखा, स्थिर दृष्टि से; कल्पना की जा सकती है कि ये झाड़ियाँ जल रही हैं-झाड़ियों के भीतर छिपायी गयी आग फूट कर बाहर निकल रही है...भुवन के कमरे से बड़ी स्निग्ध गरमाई थी-भुवन शीघ्र सो जाये शायद, उसे अभी नींद नहीं आ रही है और इस कमरे में आकर तो और भी नहीं, यह ठण्ड शरीर को नयी स्फूर्ति दे रही है।
उसने कल्पना की भुवन की उस मुद्रा की, जिसमें वह उसे छोड़ आयी थी कमरे के बीच में खड़ा हुआ; और भुवन की आवाज़ उसके कानों में गूँज गयी, “जुगनू!” न जाने बचपन में वह इस नाम से इतना क्यों चिढ़ती थी; अब भी भुवन ने उसे चिढ़ाने या पुरानी चिढ़ की याद दिलाने के लिए ही इस नाम से पुकारा था, पर वह उसे अच्छा लगा था, और लग रहा था : वह नाम मानो एक सेतु था इतने दिनों के व्यवधान और दुराव के पार उसके बचपन के सुखमय दिनों तक, जब वे एक-दूसरे की बात नहीं सोचते थे पर एक-दूसरे को जानते थे, सहज भाव से...सहज भाव अब नहीं है, अब वे सोचते हैं, कहते हैं, दूर हटते हैं और फिर दूरी को उलाँघते हैं : बचपन के साथी पास होते हैं, यौवन के साथी पास आते हैं-लेकिन आने की अवस्था ही क्या होने की श्रेष्ठ अनुभूति नहीं है?
वह भुवन से क्या कह आयी है-कितना कह आयी है? कुछ भी कह आयी है, वह कुछ भी कह नहीं पायी है यह वह जानती है, और भुवन सुनकर भी क्या सुनता है वह नहीं जानती।
“आप मुझे चैलेंज कर रहे हैं! तो सुनिये-” किस दुस्साहस से वह कह गयी थी...लेकिन उसे अच्छा लगा कि वहाँ वह साहस कर आयी-सचमुच वह भुवन का दर्द धो देने के लिए कुछ भी कर सके तो सहर्ष तैयार है। भुवन के लिए नहीं, अपने लिए, क्योंकि सुखी भुवन उसके जीवन के लिए आवश्यक है-उसके आधार पर उसने अपने जीवन का दर्शन खड़ा किया है...”मैं कह नहीं सकती थी अगर चाहती तो,”-अगर भुवन उसे फिर चुनौती देता कि अच्छा देखूँ, लिखो-तो...क्या वह लिखती? शब्द अधूरे हैं, उच्चारण माँगते हैं; लेकिन शब्दों के अन्तराल, पदों-वाक्यांशों की यति में, उस यति के मौन में एक शक्ति है जो उच्चारण के अधूरेपन को ढँक देती है, सम्पूर्णता देती है; और लिखने में वह नहीं है, लिखना बहुत पड़ता है...जैसे स्पर्श में-हलके-से-हलके स्पर्श में-कहने की जो शक्ति है वह किसी दूसरी इन्द्रिय में नहीं है-स्पर्श-संवेदना सबसे पुरानी संवेदना जो है, और बाकी सब उसके विस्तार...
गौरा धीरे-धीरे खिड़की से हटकर बिछौने पर बैठ गयी, पास की छोटी मेज़ के निचले ताक से उसने पैड और कलम उठाया और गोद में रख लिया। नहीं, वह कुछ लिखना नहीं चाहती है, लिखकर कहना तो और भी नहीं; पर केवल एक आत्मानुशासन के रूप में-केवल अपने को स्थिर-चित्त करने के लिए वह दो-चार वाक्य लिखेगी-और नहीं तो इस प्रकार अपना प्रतिबिम्ब देखने के लिए-उसके भीतर जो है वह कितना खरा है? कितना अच्छा? कितना गहरा, सच्चा, अर्थाविष्ट है? या नहीं है...
वह रुक-रुक कर बारीक अक्षरों में एक-एक दो-दो पंक्ति लिखने लगी।
“सचमुच मेरे जीवन का सबसे बड़ा इष्ट यही है कि तुम्हें सुखी देख सकूँ-तुम्हारा व्रण ठीक कर सकूँ। मेरे स्नेह-शिशु, मैं तुम्हारे ही लिए जीती हूँ, क्योंकि तुम में जीती हूँ...
“मेरा सहज बोध मुझे बताता था-पर तुम दूर थे, तुम और दूर भागते रहे; और मैं विश्वास नहीं जुटा पाती थी-मैं अन्तर्यामी तो नहीं हूँ। मैंने मान लिया, भक्त कवि ही ठीक कहते हैं, प्रिय को पाना ही निष्पत्ति नहीं है, विरह का भी रस है, और वह रस भी एक मार्ग है...
“मेरे शिशु, स्नेह-शिशु। भक्तों ने जो कृष्ण के बाल-रूप की कल्पना की है, वह बहुत बड़ी कल्पना है...जिसे मैं गोद खिलाती हूँ, वह अवतार भी है, भगवान् भी है-यशोदा जिसे पालने डुलाती है, वात्सल्य देती है, उसी को अपार श्रद्धा भी देती हैं, राधा जिस दही-चोर को धमकती है, उसी के पैर भी पूजती है-कोई भी प्यार नहीं है जो वत्सल नहीं है; कोई भी दान नहीं है जो विनीत नहीं है...
“तुम मेरा भविष्य हो, इसलिए मैं तुम्हें बनाती हूँ।
“तुमने मुझे विश्वास दिया है; मैं तुम्हारी बहुत कृतज्ञ हूँ। मुझे लगता है, मैंने बहुत बड़ी निधि पायी है, ऐश्वर्य पाया है। और तुमसे। मेरे जीवन के सारे तन्तु तुम्हारे चारों ओर लिपट गये हैं। वे बहुत सूक्ष्म हैं, तुम्हें बाँधेंगे नहीं, पर तुम उन्हें छुड़ा नहीं सकोगे, तोड़ ही सकोगे-और सब नष्ट करके ही। उनका कोई बोझ तुम पर नहीं होगा...
“आग से तुम नहीं डरोगे अब-किसी चीज़ से नहीं डरोगे! आग को मैं सुगन्धित कर दूँगी, शिशु; ज़रूरत होगी तो स्वयं उसमें होम हो जाऊँगी पर तुम नहीं डरोगे, मुझे वचन दो; अपने को नहीं सताओगे-डर से नहीं, परिताप से नहीं...और हाँ, प्यार से भी नहीं-वह तुम्हें क्लेश दे तो उसे भी हटा देना! तुम देवत्व की साँस हो, देवत्व की शिखा हो जिसे मैं अन्तःकरण में पालूँगी...”
पन्ना उलट कर गौरा रुक गयी। पिछले तीन घंटों का दृश्य उसके मन में फिर उभर आया। उसे ध्यान आया, उसने जब-जब पूछा था कि तुम भाग तो नहीं जाओगे, तब-तब भुवन ने बात पलट दी थी, उत्तर नहीं दिया था। तो क्या वह उसे छोड़कर चला जाएगा-क्या वैसा इरादा उसने कर रखा है?
गौरा...अभी नहीं सोचेगी। वैसा ही है, तो वैसा ही हो। वह साँस, वह शिखा, छोड़कर चली जाये तो चली जाये। उस साँस से वंशी वंशी है, जिसमें समूचे वन-प्रान्तर की आकांक्षा बोलती है, नहीं तो केवल बाँस की एक पोर; फिर भी...
फिर उसने लिखना आरम्भ किया :
“वचन दो कि तुम अपने को अनावश्यक संकट में नहीं डालोगे...जो आवश्यक है, उससे मेरी होड़ नहीं, वह तुम्हें पुकारे, उसे तुम वरो; पर जो अनावश्यक है, उसे तुम नहीं पुकारोगे!”
पैड को थोड़ा परे सरका कर, उसने निस्वन ओठों से पुकारा, “भुवन...” फिर वैसे ही दुबारा, “भुवन...”
“मैं तुम्हें पुकारती हूँ। बार-बार पुकारती हूँ, यहाँ तक कि मेरी पुकार ही सम्मोहिनी बनकर मुझे शान्त कर देती है, मेरी माँग को सुला देती है।”
उठकर उस ने दो-तीन चक्कर लगाये। फिर धीरे से बाहर निकल कर वह भुवन के कमरे तक गयी; किवाड़ से कान लगा कर उसने सुना, कोई शब्द नहीं था। किवाड़ों के बीच की दरार से झाँका, भीतर अँधेरा था; आग की बहुत हलकी-सी लोहित आभा थी, बस। लौटती हुई क्षण-भर वह बीच के कमरे के आगे ठिठकी, उसका मन हुआ कि भीतर से सितार निकालकर बजाने बैठे; पर फिर आगे बढ़कर अपने कमरे में चली गयी। किवाड़ बन्दकर के बत्ती बुझाकर लेट गयी।
दूर बहुत हलके चार खड़के, पर गौरा ने नहीं सुना।
बड़ा दिन...गौरा भुवन को नाश्ते के लिए ऊपर ले गयी; नाश्ते के बाद सब लोग टहलने निकले। अधिक नहीं घूमे, शाम को दुबारा घूमने जाने की ठहरी। लौटकर गौरा के पिता बरामदे में आराम-कुरसी पर लेट गये और भुवन उनके पास बैठा बातें करता रहा। दोपहर का भोजन हुआ, उसके बाद पिता फिर उसी कुरसी पर बैठकर तिपाई पर पैर फैला कर ऊँघते रहे; गौरा से यह संकेत पाकर कि 'लंच के बाद पापा आराम करेंगे', भुवन अपने कमरे में चला गया। बड़े दिन को कभी विशेष महत्त्व उसने नहीं दिया था, पर गौरा की बात का असर उस पर था, बैठकर उसने चन्द्रमाधव को एक छोटी-सी चिट्ठी लिख डाली; फिर रेखा को भी एक, और अपने कालेज को भी दो-एक; फिर रात के जागरण के कारण उसे भी ऊँघ आने लगी और वह सो गया। दो-ढाई घंटे की नींद के बाद कोई पाँच बजे जब वह उठा, तो गौरा के कमरे से सितार के बहुत हलके स्वर आ रहे थे। उसका मन हुआ, अगर वह गा सकता...पर नहीं, गाता तो शायद कुछ उदास गान ही गाता, और गान को उदास होना हो तो मौन ही क्या बुरा है? वह अलसाया-सा लेटा सुनता रहा; सितार के तार झनझना भी देते हैं, पर विचलित भी नहीं करते, जैसे किसी सोये को कोई थपकी दे-देकर उद्बोधन करे...
सितार बन्द हो गया, उसके दो-चार मिनट बाद गौरा चाय का ट्रे लिए उसके कमरे में प्रविष्ट हुई। ट्रे रखते हुए बोली, “सोये?”
“हाँ, खूब। तुम?”
“थोड़ा। दिन में सो नहीं पाती-जाड़ों में।”
“रात तो सोयी थीं-जाकर क्या करती रहीं?”
“और रतजगा थोड़े ही करती?” गौरा ने टाला।
भुवन ने ताड़ते हुए पूछा, “क्या करती रही?”
“आवृत्ति।”
“क्या-काहे की?”
गौरा ने एक बार नकली झल्लाहट की अर्थ-भरी दृष्टि से उसकी ओर देखा, और मुस्करा कर बोली, “शिशु, शिशु, शिशु।”
भुवन ने भी मुस्करा कर उसकी नकल करते हुए कहा, “जुगनू, जुगनू,” और क्षण-भर की अविध देकर, खिलकर, “हिडिम्बा!”
चाय पीते-पीते भुवन ने पूछा, “घूमने की पक्की है न-मैं तैयार हो जाऊँ”
“आप को शर्म नहीं आएगी माल पर एक हिडिम्बा के साथ घूमते?”
भुवन ने अप्रस्तुत भाव से कहा, “धत्!” फिर सँभलकर, “पर मैं तो पिताजी के साथ जाऊँगा न-”
“वह तो चले गये पहले-आप सो रहे थे तब। ज्यादा ठण्ड में वह नहीं रहना चाहते न!”
गौरा जब तैयार होकर आयी तो भुवन ने कहा, “ओ, यह हिडिम्बा का माया-रूप है न, इतना सुन्दर!”
गौरा तनिक-सी झेंप गयी, पर उसके चेहरे की कान्ति ढलती धूप में और भी दमक उठी। भुवन अचम्भे में भरा देखता रहा, जैसे पहले-पहल उसे देखा हो।
× × ×
सप्ताह बहुत छोटा होता है-बहुत जल्दी बीत गया। उसमें कुछ लम्बा था तो उनकी बहसें, लेकिन वे भी किसी परिणाम पर नहीं पहुँचीं; प्रायः ही बात-चीत के बाद परिणाम निकलता कि घूम आया जाये-या कभी-कभी गौरा सितार बजाने बैठ जाती, कभी भुवन अकेला सुनता, कभी गौरा के माता-पिता भी रहते।
नये साल के दिन भुवन भी सवेरे जाकर बहुत से फूल खरीद कर लाया, गौरा भी। गौरा पहले लौटी थी और फूल सजा रही थी जब भुवन पहुँचा; भुवन की 'अरे!' सुनकर वह उठी, भुवन के हाथों में वही-वही फूल देखकर 'अरे' का अर्थ तुरत समझती हुई उसने भुवन के हाथ से सारे फूल ले लिए और बोली, “ये सब मैं अपने कमरे में रखूँगी। आप चलकर सजा दीजिए न-”
भुवन ने कहा, “गौरा, नया वर्ष शुभ हो तुम्हारे लिए-”
“और आपके-”
गौरा के कमरे में पहुँच कर भुवन ने एक नज़र चारों तरफ डाली; गौरा ने फूल उसे पकड़ाते हुए कहा, “ज़रा इन्हें लीजिए, मैं फूलदान ले आऊँ।” पानी-भरे फूलदान लाकर उसने खिड़की में रख दिये और बोली, “लीजिए, अब अपने मन से इन्हें सजा दीजिए।”
भुवन सजाने लगा। गौरा ने कहा, “मैं अभी आयी,” और बाहर चली गयी; भुवन के कमरे में फूल रखकर वह लौटी तो वह एकाग्रचित्त से फूल सजा रहा था, एक फूलदान उसने पलंग के सिरहाने रख दिया था, दो और सजा रहा था। गौरा का आना उसने लक्ष्य नहीं किया। वह क्षण-भर उसे निहारती रही, फिर एकाएक आगे बढ़कर उसने भुवन के पैरों में झुकते हुए धीरे-से कहा “मेरा प्रणाम लो, शिशु-”
भुवन ने बिलकुल अचकचा कर कहा, “यह क्या गौरा-शिशुओं को प्रणाम करते हैं?” उसके हाथ का फूल छूटकर गौरा की पीठ पर गिरा।
“हाँ-देव-शिशु को प्रणाम ही करते हैं।” गौरा धीरे-धीरे उठी, उठते-उठते उसने एक हाथ पीछे मोड़कर पीठ पर गिरा फूल पकड़ लिया कि नीचे न गिरे, फिर उसे बालों में खोंस लिया।
तीसरे पहर की सर्विस से, पूर्व-निश्चय के अनुसार, भुवन नीचे चला गया, दूसरी तारीख को उसे कालेज पहुँचना था।
× × ×
संगीत-शिक्षित गौरा अपने कालेज में सर्वप्रिय थी; पर मसूरी से लौटकर कालेज जाने पर मानो लोगों ने उसे नयी दृष्टि से देखा। “मसूरी आपको बहुत माफ़िक आयी है।” “मिस नाथ, आप कोई कम्प्लेक्शन क्रीम लगाती हैं-हमें भी बता दीजिए!” “मसूरी की हवा में कुछ जादू मालूम होता है।” इस प्रकार के बीसियों वाक्य उसे रोज़ सुनने पड़ते-अन्य अध्यापिकाओं से भी, छात्राओं से भी; कभी वह मन-ही-मन झल्ला उठती पर चेहरे पर एक सूक्ष्म अन्तर्मुखीन मुस्कराहट लिए वह अपने काम में लीन घूमती रहती, कुछ कहती नहीं; कभी इन बातों से वह थोड़ा-सा झेंप जाती और धीरे-धीरे कुछ गुनगुनाने लगती; कभी एकान्त में बैठकर देर तक सितार या तबला भी बजाती रहती, उसकी यों ही ढीली रहने वाली कबरी खुल जाती और बाल कन्धे पर झूल जाते, एक-आध उड़कर माथे पर आ जाता या आँखों के नीचे कुण्डल बना देता और उसकी छवि और भी मनोहारिणी हो आती...अध्यापिकाओं में गौरा का कबरी-बन्धन पहले ही एक मज़ाक था : अध्यापिका, फिर युक्त प्रान्त की-बालों को कसकर, चिपका कर बाँधने का उनके निकट बहुत महत्त्व था और गौरा की इस महत्त्वपूर्ण विषय में इतनी उपेक्षा को वे सहज भाव से न ले पाती थीं। दो-एक मलाबारिनें भी ढीले बाल बाँधती थीं, पर वह दूर द्राविड़ देश है, और रामायण पढ़ने वाली महिलाओं के मन में अब चेतन रूप से यह बात तो रहती ही है कि विन्ध्य के पार सब जंगल है-और दूर दक्षिण में तो वनौकस रहते हैं, जानी बात है। लेकिन गौरा दक्षिणी नहीं है...पर छात्राओं को यह प्रकृत रूप अच्छा लगता, वे कभी मज़ाक भी करतीं तो प्रीति-भाव से।
महीने के अन्त में-जनवरी 1942-गौरा और भुवन के एक-दूसरे को लिखे गये पत्र दोनों को लगभग साथ-साथ मिले। भुवन ने गौरा को वसन्त की शुभकामनाएँ भेजी थीं और यह सूचना दी थी कि वह फिर बाहर जा रहा है-ठीक विदेश नहीं, पर सागर-पार; हिन्द महासागर में कहीं-कदाचित् अण्डमान में-रेडियो के नये प्रयोग के लिए एक छोटा-सा केन्द्र बन रहा है, उसी में। केन्द्र सैनिक नियन्त्रण में होगा और इस अन्वेषण का इस समय सामरिक महत्त्व ही अधिक है यद्यपि आगे वह अत्यन्त उपयोग होनेवाला है। अधिक दिन के लिए नहीं जा रहा है; नये सेशन से पहले ही लौट आएगा शायद। गर्मियों की छुट्टियों में गौरा तो दक्षिण होगी शायद, हो सकता है कि लौटकर वह उधर आये...अन्त में एक वाक्य और था, “मैं असुखी नहीं हूँ गौरा, न-उन पिछली बातों से तप रहा हूँ; तुम चिन्ता न करना, और अपनी देख-भाल करना।”
गौरा की चिट्ठी भी मुख्यतया सूचना के लिए थी। गर्मियों का अवकाश वह दक्षिण में ही बिताएगी-मद्रास या बंगलौर में किसी संगीताचार्य के पास-और तभी वहीं निश्चय कर लेगी कि और एक वर्ष भी उधर ही रह जाये या वापस बनारस आवे। पत्र के साथ उसने बम्बई के अख़बार की कतरन भेजी थी : “इस कटिंग में अवश्य तुम्हें दिलचस्पी होगी : मैं तो अवाक् होकर सोचती हूँ कि चन्द्रमाधव कैसे कम्युनिस्ट हो सकते हैं-मनसा भी, और उनके इधर के काम तो बिल्कुल इसके विरुद्ध जाते हैं, और यह विवाह...फिर भी आशा है तुम उन्हें शुभ कामनाओं का एक पत्र लिख दोगे। मैं भी लिख रही हूँ। बधाई का भाव तो मन में नहीें उठता-झूठ क्यों बोलूँगी-पर सत्कामनाएँ भेजूँगी।” अन्त में उसने भी अधिक निजीपन से लिखा था, “मैं 'तुम' लिख गयी हूँ-बिना इजाजत लिए ही-बुरा तो न मानोगे? बोलने में, लगता है अब भी मिलूँगी तो 'आप' ही कहूँगी, पर चिट्ठी में 'तुम' लिखना ही आसान और ठीक भी जान पड़ रहा है, बल्कि सोचती हूँ, 'आप' अब कैसे लिखूँ? आप नाराज़ तो न हो जाइयेगा, देव-शिशु?”
इसके साथ जो कतरन थी उसमें चन्द्रमाधव के विवाह का समाचार और विवरण था। उसका सारांश यह था कि बम्बई में 27 जनवरी सन् 1942 को सुप्रसिद्ध जर्नलिस्ट कामरेड चन्द्रमाधव का विवाह आर्य-समाजी पद्धति से मिस चन्द्रलेखा से हुआ। मिस चन्द्रलेखा प्रसिद्ध अभिनेत्री हैं। विवाह के पूर्व शुद्धि-संस्कार का उल्लेख था जिससे विदित होता था कि मिस चन्द्रलेखा अहिन्दू रहीं। विवाह के बाद पार्टी हुई जिसमें सिनेमा जगत् के अनेक सितारे उपस्थित थे, और बम्बई के भद्र-समाज के कई अग्रणी व्यक्ति-इनकी सूची भी थी। कामरेड चन्द्रमाधव स्थानीय 'प्रोग्रेसिव जर्नलिस्ट बिरादरी' के उप-प्रधान और प्रमुख प्रोग्रेसिव बौद्धिक और लेखक थे; अनेक जर्नलिस्ट और प्रोग्रेसिव लेखकों तथा कम्युनिस्ट केन्द्रीय समिति के कुछ सदस्यों ने भी उत्सव में भाग लिया था और कामरेड चन्द्रमाधव को बधाई दी थी।
भुवन का उत्तर गौरा को एक महीने बाद मिला। किसी सैनिक डाकघर की उस पर मुहर थी; गौरा ने अनुमान से जान लिया कि अण्डमान से आया होगा। चन्द्रमाधव को भुवन ने शुभ कामनाएँ भेज दी थीं; गौरा के दक्षिण जाने का निश्चय पक्का हो गया यह जान कर उसे प्रसन्नता हुई थी और आशा थी कि वह उसे शीघ्र मिलेगा-जहाँ वह था वहाँ काम तो बहुत था पर इसकी सम्भावना कम थी कि अधिक दिन रहना पड़े। (इससे गौरा ने अनुमान लगाया कि कदाचित् वहाँ संकट आने की सम्भावना है।) और चन्द्रमाधव के विषय में गौरा ने पूछा था, उसका उत्तर देते हुए लिखा था : “राजनीति के बारे में मेरा कुछ कहना अनधिकार है-मेरा वह क्षेत्र बिलकुल नहीं है। पर जैसा मैं देखता हूँ, हमारे देश में कम्युनिस्ट दो प्रकार के हैं-एक तो जो वास्तव में मज़दूर हैं, दूसरे मध्य या उच्च वर्ग के कुछ लोग जो अपनी परिस्थितियों के उत्तरदायित्व से भागते हैं-या भाग गये हैं। यह तुम्हारा प्रश्न ठीक है कि ऐसे आदमी कैसे कम्युनिस्ट हो सकते हैं; मेरा ख्याल है कि ऐसे सम्पन्न साम्यवादी, साम्यवादी क्षेत्र में भी उतने ही अविश्वसनीय होते हैं जितने उस क्षेत्र में जिससे वे भागते हैं-यानी जिसके उत्तरदायित्व से भागते हैं पर जिसकी सहूलियतों और विशेषाधिकार को नहीं छोड़ना चाहते। और मैं समझता हूँ कि वे तब तक अविश्वसनीय रहते हैं, जब तक कि कोई बड़ी कुण्ठा उन्हें सदा के लिए पंगु नहीं बना देती-कुण्ठित व्यक्ति ही विश्वास्य वर्गवादी बन सकता है...मज़दूर वर्ग के जो हैं, उन्हें तो सामाजिक वर्गीकरण का और वर्ग-स्वार्थों का उत्पीड़न कुण्ठित किये ही रहता है, जो वर्ग-समाज में ऊँचे पर होते हैं वे किसी दूसरे प्रकार से कुण्ठित होकर पक्के हो जाते हैं। चन्द्रमाधव भी अत्यन्त कुण्ठित व्यक्ति है-जब तक नहीं था, तब तक उसमें असन्तोष बहुत था पर यह रूप उसने नहीं लिया था : अब वह कुण्ठित हो चुका है और उसका असन्तोष युक्ति से परे हो गया है-कुण्ठित होना अब उसके जीवन की एक आवश्यकता बन गया है, उसकी कुण्ठा और उसका वाद परस्पर-पोषी हैं, और एक-दूसरे को और गहरा पहुँचाते हैं। किसी पर दया करना पाप है, नहीं तो मैं चन्द्र को दया का पात्र मान लेता। अब इतना ही कहूँ कि वह भी 'वन मोर ट्रायम्फ़ फ़ार डेविल्स एण्ड सारो फ़ार एंजेल्स* है...”
(* शैतान की एक और विजय, देवताओं का एक और दुःख -ब्राउनिंग)
पत्र में अन्तरंग बात कुछ नहीं थी। गौरा को कुछ निराशा तो हुई, पर अधिक नहीं; उसे इसी में स्वाभाविकता दीखी, कुछ यह भी लगा कि यही उसकी वर्तमान स्थिति को सहनीय बनाता है, नहीं तो वह व्याकुल हो उठती। पत्र में कुछ औपचारिक आत्मीयता की बात होती तो अधिक क्लेशकर होती, आत्मीयता की कोई बात ही न होना उदासीनता का नहीं, अनुशासन का द्योतक था; और आत्मानुशासन अगर भुवन के लिए सहज है तो उसके लिए और भी सहज होना चाहिए-सहज और हाँ, उपयोगी भी क्योंकि वह जीवन को माँजेगा और एक नयी कान्ति, नयी गहराई भी देगा...
गौरा के जीवन की एक लीक बनने लगी-न बहुत गहरी कि उससे उबरा न जा सके, न बहुत कड़ी कि उसे मिटा कर नयी लीक न डाली जा सके, फिर भी एक लीक। प्राणी जब शरीर को बाँधकर रखता है, तब उसका विद्रोह मिट्टी को खूँदने के रूप में प्रकट होता है, जब मन को बाँधता है, तब वह विद्रोह एक पटरी पर निरन्तर आती-जाती गति के रूप में प्रकट होता है-जब तक कि वह विद्रोह है; यह दूसरी बात है कि धीरे-धीरे भीतर वह विद्रोह मर जाये, पटरी क्रमशः फ़ौलादी लीक बन जाय जिससे इधर-उधर हटना मुक्ति नहीं, पटरी से गिर जाना हो, उलट जाना हो...
रेखा को भी उसने एक-आध पत्र लिखा; रेखा का उत्तर भी आया। उत्तर में अपनापा भी था, पर एक तटस्थता भी; कुछ यह भाव कि मेरी तरफ़ से कोई यन्त्र या सीमा नहीं बनायी गयी है, पर मैं स्वयं अपने भीतर अन्वेषण में खोयी हुई हूँ और बाहर से मेरा सम्बन्ध उदार दृष्टि का ही है, बाहर की ओर बहने का नहीं...इतना उसे ज्ञात हुआ कि रेखा फिर अस्वस्थ है, अस्वस्थ ही रहती है, और यत्न कर रही है कि उसका काम उसे विदेश ले जाये-कदाचित् पश्चिम की ओर वह चली भी जाएगी।
होली पर उसने भुवन को एक लिफ़ाफे में भरकर थोड़ा अबीर और अभ्रक का चूर भेजा; साथ यह आग्रह करके कि इसे वह गौरा की ओर से अपने मुँह पर मल ले; कुछ दिन बाद उत्तर आ गया, और अगली डाक से एक पैकेट में कुछ सूखे फूल। पत्र में भुवन ने लिखा था कि होली उसने खेल ली, दो-एक फ़ोटो भी रंगे मुँह के लिए गये थे जो वह शायद बाद में भेज सके; अलग डाक से वह कुछ फूल भेज रहा है जो स्थानीय श्रेष्ठ उपहार है-एक केवड़े का, और कुछ नाग-केशर के : केवड़ा तो खैर परिचित है, पर नाग-केशर उसने पहले नहीं देखा था और गौरा ने भी कदाचित् न देखा होगा-इसका भव्य वृक्ष और इकहरे सफ़ेद जंगली गुलाब-सा फूल दोनों ही दर्शनीय हैं। और गन्ध-गन्धमादन पर्वत जहाँ भी रहा हो, उसका नाम ज़रूर नाग-केशर की गन्ध के कारण ही पड़ा होगा...
फिर उसने लिखना आरम्भ किया था कि “ये फूल तुम पहन लेना”-लेकिन इस वाक्य को काट कर लिखा था “तुम तक पहुँचते फूल तो सूख जाएँगे-पर गन्ध शायद बनी रहे; उसे सूँघो तो स्मरण कर लेना कि मेरे स्नेह की साँसें भी तुम्हारी स्मृति को घेरे हैं।”
लेकिन जो सूखे फूल गौरा तक पहुँचे उनमें गन्ध भी नहीं थी। यह सूचना उसने भुवन को दे दी-”तुम्हारे भेजे हुए फूल मिले-पर उनकी गन्ध तो उड़ गयी। काश! मैं भी ऐसे ही उड़ जा सकती-उड़कर शून्य में विलीन होने नहीं, उन पेड़ों तक पहुँचने को, जिनके नीचे बैठकर तुम उनकी सुगन्ध नासा-पुटों में भरते होगे, जिनके नीचे तुम्हें मेरी याद आयी। तुम्हारी साँसें मेरी स्मृति को घेरती हैं-(?)-पर मुझे भुवन, मुझे? मुझ से तुम दूर-ही-दूर जाते हो और जाते रहे हो। अच्छा, जाओ, जहाँ भी जाओ, मुक्त रहो; जो दूर रहना चाहता है, उसके पास जाने की कोशिश क्यों-और तुम्हारी वैसी साधना है तो उसे मैं क्यों विफल करने लगी! मैंने सोचना चाहा था कि तुम जा नहीं सकोगे, पर नहीं सकी, और अब यत्न भी नहीं करती। तुम पहले भी चले गये थे; 'धागा-मनका तोड़कर' चले गये थे, फिर तुम वापस आये-पर कहाँ आये, मैंने ही समझ लिया क्योंकि वैसा ही मैं मानना चाहती थी! पर उन बातों को छोड़ो; प्रतीक्षा करना भी अच्छा है-आशापूर्वक भी, निराशापूर्वक भी क्योंकि आशा और निराशा दोनों प्रतीक्षा में ही सार्थक हैं।”
जिन अध्यापिकाओं और मुँह-लगी छात्राओं ने मिस नाथ के कम्प्लेक्शन और मसूरी के जलवायु के प्रताप की चर्चा की थी, वे अब जब-तब कहने लगी, “मिस नाथ, आपको यहाँ अच्छा नहीं लगता? आप फिर मसूरी हो आइये न-आपका चेहरा न जाने कैसा हो रहा है? नहीं, अस्वस्थ नहीं, पर न जाने कैसा एक कठोर भाव उस पर आता जाता है।” ऐसी बात सुनकर गौरा को सहसा स्वयं बोध हो आता, हाँ, उसके चेहरे पर एक तनाव है जो नहीं होना चाहिए, क्षण-भर आयासपूर्वक वह चेहरे के स्नायु-तन्तुओं को ढीलाकर के हँस कर कहती, “कुछ नहीं, शायद मास्टरनियों वाला चेहरा हुआ जा रहा होगा-मास्टरनी का चेहरा एक अलग किस्म का होता है-जिस तरह आदमी और सिख दो अलग-अलग जातियाँ होती हैं उस तरह औरत और मास्टरनी भी दो अलग जातियाँ होती हैं।” बात हँसी में उड़ जाती'; पर पीछे गौरा सोचने लगती, क्या सचमुच ऐसे उसका चेहरा कठोर हो जाएगा-क्यों? अनुशासन बाहर से आरोपित किया गया हो; जो भीतरी है, जो साधना है, और जो आनन्ददायिनी भी है, वह क्यों कठोर रेखाएँ लावे-उसकी रेखाएँ तो मृदु होनी चाहिए-पुस्तकों में तो यही लिखा है कि साधना से चेहरे पर एक कान्ति आती है, शरीर भले ही कृश हो जाये। उसे 'कुमार-सम्भव' की तपस्या-रत हिमालय-सुता की याद आ जाती, कालिदास की पंक्तियाँ वह धीरे-धीरे दुहरा जाती :
मुखेन सा पद्मसुगन्धिना निशि
प्रवेयमानाधरपत्रशोभिता।
तुषारवृष्टिक्षतपद्म सम्पदां
सरोजसन्धानमिवा करोदपाम्।।
फिर सहसा इसमें निहित तुलना की अहम्मन्यता पर वह लज्जित हो जाती और कोई वाद्य लेकर बजाने बैठ जाती कि उसमें लज्जा और उस समूची विचार-परम्परा को डुबा दे...और वास्तव में वह बजाते-बजाते विभोर हो उठती, तब वे सब रेखाएँ मिट जाती और सचमुच एक अद्भुत कान्ति उसके चेहरे पर छा जाती-मसूरी के जल-वायु से पायी कान्ति से भी अधिक आभायुत-लेकिन वह स्वयं उसे न जान पाती; वादन समाप्त करके वह उठती, तो उसके चेहरे पर एक मृदुल स्थिरता का भाव होता जैसा सद्यः सोकर उठे स्वस्थ शिशु के चेहरे पर होता है।
इसी प्रकार सेशन पूरा हो गया, छुट्टियाँ लगीं; गौरा तीन-चार दिन के लिए मसूरी होकर, भुवन को अपने दक्षिण जाने की सूचना देकर मद्रास चली गयी।
× × ×
6 अप्रैल सन् 1942 को भारत में पहला जापानी बम गिरा। गौरा उस दिन मसूरी में थी; समाचार मिलते ही उसने रेखा को पत्र लिखा; उसका कुशल-समाचार पूछा और यह सम्भावना प्रकट की कि रेखा का काम अब बहुत बढ़ जाएगा-क्या वह इतना परिश्रम कर सकेगी, और क्या उसका विदेश जाने का विचार अभी है कि बदल जाएगा? भुवन के बारे में भी उसने चिन्ता प्रकट की-भुवन न जाने कहाँ है, कैसी स्थिति में और कब लौटेगा या आगे क्या करेगा...पत्र उसने डाल दिया, फिर भुवन के बारे में चिन्ता ने सहसा उसे जकड़ लिया, उसने कुशल पूछने का तार लिखा और भेजने चली पर न जाने क्या सोचकर उसने तार नहीं दिया, एक-दो लाइन का पत्र ही लिखकर डाल दिया।
मद्रास पहुँच कर उसे मसूरी से लौटा हुआ भुवन का पत्र मिला। पत्र बहुत छोटा था, पर अभिप्राय-भरा, उसे पढ़कर गौरा बहुत देर तक सन्न बैठी रही, फिर उसने पत्र से ही आँखें ढँक कर दोनों हथेलियों से उसे आँखों और माथे पर दबा लिया।
भुवन ने सूचित किया था कि भारतीय भूमि पर जापानी बम पड़ने के बाद वह अपना कर्तव्य स्पष्ट देख रहा है : उसी दिन वह सेना में भरती हो रहा है। युद्ध घृण्य है, और कोरी देश-भक्ति भी उसके निकट कोई माने नहीं रखती बल्कि घृणा और युद्ध की जननी है, पर इस संकट से भारत की रक्षा करना देश-भक्ति से बड़े कर्तव्य की माँग है-वह मानव की बर्बरता से मानव के विवेक की रक्षा की माँग है; बर्बरता के सब साधन विज्ञान ने ही जुटाये हैं; अतः विज्ञान को यह सब बड़ी ललकार है : या तो वह अपनी शिवता, कल्याणमयता को प्रमाणित करे-या सदा के लिए नष्ट हो जाये। विज्ञान एक ओर ज्ञान-दर्शन है, दूसरी और यन्त्र-कौशल; बर्बरता ने दूसरे पक्ष को लिया है पहले का खण्डन करते हुए; सभ्यता अगर कुछ है तो वह पहले का उद्धार करने को बाध्य है-उद्धार करके उसी के द्वारा दूसरे को अनुशासित रखने को। “मैं नहीं सोच सकता कि मैं कैसे किसी भी प्रकार की हिंसा कर सकता हूँ, या उसमें योग दे सकता हूँ-पर अगर कोई काम मैं आवश्यक मानता हूँ, तो कैसे उसे इसलिए दूसरों पर छोड़ दूँ कि मेरे लिए वह घृण्य है? मुझे मानना चाहिए कि वह सभी के लिए-सभी सभ्य लोगों के लिए-एक-सा घृण्य है, और इसलिए सभी का समान कर्तव्य है...”
पत्र के अन्त में 'पुनश्च' करके दूसरे दिन जोड़ी हुई सूचना थी कि वह बर्मा भेजा जा रहा है।
इसके बाद तीन महीने तक गौरा को भुवन का कोई समाचार नहीं मिला। कालेज से उसने अवेतन छुट्टी ले ली और संगीत के अभ्यास में ही अपने को डुबा दिया। उसके चेहरे की रेखाएँ फिर कभी कठोर, कभी मृदु होने लगीं, और कभी संगीत के आप्लवन में बिल्कुल लुप्त; कभी उसके चेहरे की आत्म-विस्मृत मुग्ध स्थिरता को कँपाते हुए-से दो आँसू उसकी आँखों में चमक आते-आँसू वैसे ही अकारण, बेमेल, अपदस्थ, जैसे कमल के पत्ते पर पानी की बूँदें...फिर जब समाचार उसे मिला, तो भुवन के पत्र से नहीं, रेखा द्वारा भेजे एक तार से।
और अनन्तर भुवन की एक कापी से।
× × ×
रेखा को भुवन के सेना में भरती हो जाने की सूचना समाचार पत्र से ही मिली थी। फिर यह पता उसने स्वयं पूछ-ताछ करके लगाया था कि वह बर्मा में कहीं भेजा गया है। इस समाचार के बाद कुछ दिन तक तो उसने कुछ नहीं किया, फिर भुवन को एक पत्र लिखा :
भुवन,
मुझे पता लगा कि तुम सेना में भरती होकर बर्मा गये हो; यह भी पता लगा कि वहाँ भेजा जाना तुमने स्वयं चाहा था-नहीं तो तुम-से वैज्ञानिक को शायद पश्चिम भेजा जाता-या लंका में। कई दिन तक मैं इस समाचार को ग्रहण न कर सकी, पर अब मैंने उसे स्वीकार कर लिया है, तुम्हारे भीतर की अनिवार्य प्रेरणा को कुछ-कुछ समझ भी लिया है; और जैसे पाती हूँ कि इसमें मेरे लिए मार्ग का भी संकेत है। बीच में एक दिन तुम्हारी निकट उपस्थिति की एक तीव्र व्यथा मन में उठी थी; सम्भव है तुम उस दिन कलकत्ते रहे होगे या कलकत्ते से गुज़रे होओ-यद्यपि आये होते तो मुझे सूचना दी होती ऐसा मैं अब भी मानती रहना चाहती हूँ...फिर एक दिन स्वप्न में तुम्हें देखा था-देखा कि तुम हमारे घर आये हो-हमारे घर, मेरे माता-पिता और छोटे भाई सब की उपस्थिति में, और सबसे मिले हो, पिता तुम्हें बाहर नदी के किनारे की रौंस पर मेरे पास बिठा गये हैं; फिर हम लोग कागज़ की नावें बना कर नदी में डालते हैं और उनका बह जाना देखते हैं। नावें कभी दूर-दूर तक चली जाती हैं, कभी पास आ जाती हैं, कभी टकरा भी जाती हैं; कभी नदी में बहते हुए शैवाल से उलझ जाती हैं। सहसा देखती हूँ कि उन्हीं हमारी कागज़ की नावों में हम भी बैठे हैं-रौंस पर बैठे देख भी रहे हैं, पर नावों में भी हैं; फिर नावें एक बालू के द्वीप में जा लगती हैं जहाँ हम उतर कर नावों को खींचने लगते हैं-पर नावों में बैठे भी रहते हैं। अब हम रौंस पर से देखते भी हैं, नावों में बैठे भी हैं, नावों को खींच भी रहे हैं! फिर देखती हूँ, बहुत से द्वीप हैं, हर एक पर हम नाव में भी बैठे, नाव को खींच भी रहे हैं-और रौंस पर बैठे देख तो रहे ही हैं। सहसा नदी का पानी बहती हुई सूखी बालू हो जाती है, और तुम्हारा चेहरा तुम्हारा नहीं, कोई और चेहरा है; तुम मुस्कराते हो तो वह चेहरा तुम्हारा भी है, पर नहीं भी है; मैं कहती हूँ, यह सपना है, जागेंगे तो तुम्हारा चेहरा दूसरा हो जाएगा, तुम कहते हो, सपना थोड़ी देर और देखो न, फिर चेहरा बदल नहीं सकेगा। फिर मैं तुम्हारी मुस्कान देखती रही; थोड़ी देर में जाग गयी। सपनों के सिर-पैर नहीं होते-होते हों जैसा मनोविश्लेषक जताते हैं तो उनका अर्थ जानने की ज़रूरत नहीं होती-पर मैं जागी एक मधुर भाव लेकर, फिर ध्यान आया कि तुम तो बर्मा में कहीं होगे...
भुवन, तुम्हें एक समाचार देना चाहती हूँ। नहीं जानती कि तुम्हें कैसा लगेगा, पर-जानती हूँ तुम प्रसन्न ही होगे। मुझे आशीर्वाद दो, भुवन। डाक्टर रमेशचन्द्र ने मुझसे विवाह का प्रस्ताव किया था; मैंने उन्हें स्वीकृति दे दी है। इसी महीने के अन्तिम सप्ताह में विवाह हो जाएगा। सम्भव है कि विवाह के दो-एक महीने बाद वह 'मिडल ईस्ट' की तरफ़ कहीं जावें-मैं भी साथ ही जाऊँगी शायद। काम मैंने अभी नहीं छोड़ा है, पर आठ-दस दिन बाद छोड़ दूँगी।
विवाह के लिए हम दार्जिलिंग जावेंगे-रमेश का आग्रह है। कोई समारोह नहीं होगा-लेकिन क्योंकि 'कानूनी आधार' आवश्यक है-यह लीगैलिटी, भुवन!-इसलिए रजिस्ट्रेशन तो होगा ही।
यह क्या है, भुवन? बरसों मैं श्रीमती हेमेन्द्र कहलायी, उसके क्या अर्थ थे? अब अगले महीने से श्रीमती रमेशचन्द्र कहलाऊँगी-उसके भी क्या अर्थ हैं? कुछ अर्थ तो होंगे, अपने से कहती हूँ; पर क्या, यह नहीं सोच पाती...मैं इतना ही सोच पाती हूँ कि मेरे लिए यह समूचा श्रीमतीत्व मिथ्या है, कि मैं तुम्हारी हूँ, केवल तुम्हारी; तुम्हारी ही हुई हूँ, और किसी की कभी नहीं, न कभी हो सकूँगी...ये पार्थिवता के बन्धन, ये आकार, ये सूने कंकाल...महाराज, मेरे त्रिभुवन के महाराज, किस साज में तुम आये मेरे हृदय-पुर में-और कैसे तुम चले गये, मेरा गर्व तोड़कर, भूमि में लुटाकर-पर नहीं भुवन, तोड़कर नहीं, तुम्हीं मेरे गर्व हो, तुम्हारे ही स्पर्श से 'सकल मम देह-मन वीणा सम बाजे...
रमेश को मैं धोखा नहीं दे रही। मैंने उन्हें बताया है। पर क्या बताया है, क्या मैं बता सकती हूँ, भुवन? उनमें बड़ी उदारता है, गहरी संवेदना है, वह समझते हैं। तुम उन्हें जानते, तो बहुत अच्छा होता-तुम्हें निश्चय ही वह अच्छे लगते। मैं कल्पना करती हूँ, मैं तुम दोनों को समीप ला सकती-मिला सकती-दोनों को जिन से मैंने बहुत कुछ पाया है, जिन्हें मैंने बहुत कुछ दिया है...शायद भविष्य में वह कभी हो सके, मैं नहीं मानना चाहती कि यह सम्भव नहीं है क्योंकि वैसा मानना, मुझे लगता है, दोनों के प्रति विश्वासघात होगा...
भुवन, अपनी बात तो मैं कह चुकी। तुम्हारी बात जानना चाहती हूँ। तुम भटक रहे हो, भटक ही नहीं रहे, मुझे लगता है कि भाग रहे हो। पहले अपने को कोसती थी कि मुझसे-यद्यपि मेरे कारण तुम्हारे मन पर बोझ न आये इसकी पूरी कोशिश करती रही हूँ, देवता साक्षी हैं; सफल कहाँ तक हुई वह दूसरी बात है...पर अब नहीं कोसती; वह कोसना भी अहंकार ही था क्योंकि अब लगता है, नहीं मुझसे नहीं, कुछ और है जिससे तुम भागते हो, क्योंकि उससे तुम बँधे हो; जिससे तुम्हारी नियति गुँथी है, और यह भागना केवल अन्तःशक्तियों का वह कर्ष-विकर्ष है जो अन्ततोगत्वा अनुकूल स्थिति लाएगा...मैंने एक बार तुम से कहा था, हम जीवन की नदी के अलग-अलग द्वीप हैं-ऐसे द्वीप स्थिर नहीं होते, नदी निरन्तर उनका भाग्य गढ़ती चलती है; द्वीप अलग-अलग होकर भी निरन्तर घुलते और पुनः बनते रहते हैं-नया घोल, नये अणुओं का मिश्रण, नयी तल-छट, एक स्थान से मिटकर दूसरे स्थान पर जमते हुए नये द्वीप...
मेरी इन बातों को अनधिकार प्रवेश न समझना, भुवन, मुझसे पृथक् जो भी तुम्हारा निजी है, निज के लिए अर्थवान् है, उससे मुझे ईर्ष्या नहीं, न कोई अनुचित कौतूहल उसके विषय में है : वह अर्थवान् है तो और अधिक अर्थवान् हो, यही मेरी प्रार्थना है।
भुवन, तुम्हारे पत्र की, तुम्हारे आशीर्वाद की, तुम्हारे समाचार की उत्कट प्रतीक्षा करूँगी। तुम्हारी शुभ-कामनाएँ पाकर रमेश भी प्रसन्न होंगे।
तुम्हारी ही
रेखा
भुवन का उत्तर तार से आया : हार्दिक शुभ-कामनाएँ और आशीर्वाद, और पत्र वह लिख रहा है। एक सप्ताह बाद भी आया-एक पार्सल में बन्द, पार्सल में किसी प्राचीन बर्मी ग्रन्थ का चित्र-लिखित वेष्टन, और ताल-पत्र पर खिंचे हुए चित्र थे; ग्रन्थ पूरा नहीं था। “यह ग्रन्थ क्या है मैं नहीं जानता, लिपि भी मैं नहीं पढ़ सकता न तुम पढ़ सकोगी; पर चित्र सुन्दर हैं और वेष्टन भी मुझे सुन्दर लगा-मैंन सोचा कि ऐसे अवसर पर जो उपहार भेजूँ उसका सुन्दर होना ही आवश्यक है, बोधगम्य होना उतना नहीं-वैसे आज मेरी प्रार्थना है कि विधि का विधान सुन्दर हो, आज हम उसे जानें भले ही न, उसका क्रमिक प्रस्फुटन सुन्दर से सुन्दरतर दीखता चले...”
दार्जिलिंग से एक पत्र रेखा ने भुवन को और लिखा :
भुवन,
आज अभी थोड़ी देर पहले मैं रजिस्टर में पहले-पहल 'रेखा रमेशचन्द्र' नाम से हस्ताक्षर करके आयी हूँ। उसके बाद न जाने क्यों भीतर कुछ कहता है कि मेरा पहला काम होना चाहिए तुम्हें सूचना देना, तुम्हें पत्र लिखना। भुवन, कभी सौ वर्षों में भी मेरी कल्पना में यह बात न आती कि अन्त में मेरा ठिकाना यह होगा-इस घाट आकर मैं किनारे लगूँगी...जीवन की अजस्र तीव्र धारा कैसे सबको खींचती ठेलती बहाती लिए जाती है, कैसा भौंचक कर देने वाला है उसका प्रवाह-जिसमें तसल्ली के लिए यही है कि हमीें नहीं, दूसरे भी उतने ही भौंचक बहे जा रहे हैं। यह उद्यम की अवहेलना नहीं, उद्यम तो अपने स्थान पर है ही, पर कैसा दुर्निवार, बेरोक, विवशकारी है यह प्रवाह...
तुम्हारा पत्र मिला था, भुवन, तम्हारा वह दर्द-भरा, पर मधुर, सुन्दर आशीर्वाद; और तुम्हारा उपहार भी। उस आशीर्वाद के लिए मैं कितनी कृतज्ञ हूँ, भुवन, क्या मैं कह सकती हूँ कभी? और तुम्हारा उपहार भी सुन्दर है-हाँ, दुबोध तो है ही विधि, और शायद उसे जान लेना चाहना मानव की भी दुःस्पर्द्धा है, वह स्वतः स्फुट होती चले...लेकिन तुम्हें मैं जानती हूँ, भुवन, तुम्हें मैंने जाना है और तुम में जो जाना है वह जीवन-मरण से परे है-पाने और खोने से परे है।
इसके बाद दो महीने तक रेखा को भी भुवन की ओर से कोई समाचार नहीं मिला; जब मिला तो भुवन का पत्र नहीं, फौजी अस्पताल से एक नर्स का टेलीफ़ोन मिला कि वह अस्पताल आकर मेजर भुवन को देख जावे।
× × ×
क्षण-भर के लिए रेखा को लगा कि सारी स्थिति में कहीं कुछ विपर्यय है, कोई विरोधाभास-कि अस्पताल के लोहे के पलंग पर उस बरसाती दिन में लाल कम्बल ओढ़े भुवन नहीं, वही पड़ी है, और भुवन उसे देख रहा है, और वह असहाय भाव से धीरे-धीरे कह रही है, 'जान, प्राण, जान...' एक ज्वार-सा उसके भीतर उमड़ आया; इतनी व्यथा, इतने गहरे में पर इतनी सहज आह्वेय, उसमें संचित है, इसके तात्कालिक अनुभव से वह लड़खड़ा-सी गयी। फिर तुरन्त सँभलकर उसने धीरे से पुकारा, “भुवन।” लेकिन भुवन ने पहले ही उसे पहचान लिया था, उसके चेहरे पर एक मुस्कान थी और वह कोशिश कर रहा था कि कम्बल के भीतर से एक हाथ निकाल कर रेखा की ओर बढ़ाये।
रेखा ने दोनों हाथ उसके गालों पर रखकर आग्रह से पूछा, “यह क्या कर आये भुवन? तुम्हें मैं ऐसे देखूँगी, ऐसी सम्भावना ही कभी मन में न आयी थी।”
“कुछ नहीं, रेखा!” और भुवन के दुर्बल स्वर में एक नयी गहराई थी जो रेखा को दहला गयी-मानो कोई व्यक्ति नहीं, कोई दूर पहाड़ी जगह बोल रही हो-कोई कन्दरा, या किसी बड़ी-सी चट्टान के नीचे की छाया, “मलेरिया है। अण्डमान से शुरू हुआ था शायद-शायद बर्मा के जंगलों ने बढ़ा दिया, और पेचिश साथ जोड़ दी। वैसे मैं ठीक हूँ-बिलकुल ठीक।”
“जी हाँ, ठीक हैं, सो तो शक्ल ही बता रही है। दुष्ट मलेरिया और पेचिश, वैसे ठीक हैं-और क्या लाते वहाँ से?”
“क्यों-”
“रहने दीजिए, लगेंगे सम्भाव्य बीमारियों के नाम गिनाने, यही न! बताया भी नहीं।”
“जब बताने से कुछ फ़ायदा होता, तब बता तो दिया-”
रेखा बात करते-करते पलंग की बाहीं पर बैठ गयी थी। अब उठकर एक स्टूल पर बैठती हुई बोली, “लो अब बाक़ायदा विज़िट करूँगी। पहले तुम्हारे हाल पूछूँ।”
“फिर शुरू से बीमारी का इतिहास, फिर पथ्य, फिर-” भुवन मुस्कराया, फिर सहसा बात बदल कर बोला, “तुम अकेली आयी हो रेखा?”
प्रश्न समझ कर रेखा ने कहा, “हाँ, भुवन। रमेश यहाँ नहीं हैं। बम्बई गये हैं। हफ़्ते-भर में लौट आयेंगे, तब लाऊँगी। हम लोग जा रहे हैं विदेश-”
“अच्छा-कब? मैं हफ़्ता-भर यही रहूँगा शायद-हम सब दक्षिण भेजे जा रहे हैं-बंगलौर-स्वास्थ्य-लाभ के लिए। यहाँ तो प्रबन्ध के लिए रुके हैं-जहाज़ से आये थे, अब रेल से जाना होगा-”
रेखा ने कुछ उदास होकर कहा, “ओ।” फिर कुछ देर बाद, “बंगलौर-गौरा तो मद्रास में है, उसे ख़बर दे दूँ, वह बंगलौर ज़रूर जा सकेगी-”
भुवन ने संक्षिप्त भाव से कहा, “हाँ।” फिर काफ़ी देर बाद, “तुमसे उसका पत्र-व्यवहार रहा है?”
“हाँ-तुम जो नहीं लिखते; तो मैं गौरा से ही पत्र-व्यवहार कर लेती हूँ।”
भुवन ने फिर संक्षिप्त ढंग से ही कहा, “हूँ।” थोड़ी देर बाद बात को निश्चित रूप से नयी दिशा देने के लिए उसने कहा, “रेखा, विवाह करके-कैसा लगता है-हाउ डू यू फ़ील? या कि-न पूछूँ?”
“नहीं, पूछो! आइ डोंट फ़ील एट आल। वन डज़ंट फ़ील, वन जस्ट इज़। मैं भी हूँ, होना भी काफ़ी है, अनुभूति क्यों ज़रूरी है?” रेखा थोड़ी रुकी। “लेकिन-भुवन, रमेश में यथेष्ट अण्डरस्टैडिंग है, नहीं तो...”
भुवन ने कहा, “आइ एम सो ग्लैड, रेखा।' उसने हाथ रेखा की ओर बढ़ाया। रेखा ने उसका हाथ अपने दोनों हाथों में ले लिया और धीरे-धीरे सहलाने लगी।
“भुवन, मेरा तो हुआ, पर तुम? तुम भविष्य की ओर नहीं देखते? ज़रूर देखते होगे-बल्कि मैं चाहे न देखूँ, तुम तो रह नहीं सकते, तुम्हारे मन का संगठन ही ऐसा है-”
भुवन हँसा। अब की बार रेखा ने लक्ष्य किया, उसके स्वर में जो गहराई है, वह एक हद तक शायद इसलिए भी है कि कहीं कुछ खोखला है, शून्य है-ऐसी सूनी थी वह हँसी, जैसे उसके नीचे अनुभूति या आनन्द की कोई पेंदी न हो, अधर में ही वह फूट पड़ी हो। “मैं! शायद सोचता भी-पर अभी तो ज़रूरत ही नहीं मालूम होती। वहाँ-भविष्य का भरोसा लेकर कौन बैठता है जहाँ जीवन का ही भरोसा नहीं-”
“वह तो कहीं भी नहीं है-यहीं क्या भरोसा है? रोज़ सुबह होती है, सूरज निकलता है; हम आदी हो जाते हैं और मान लेते हैं कि न केवल सूरज कल निकलेगा बल्कि हम भी उसे कल देखेंगे। प्रकृति का स्थायित्व देखकर ही मानव अपने लिए स्थायित्व माँगता है, प्रकृति के रूपान्तर देखकर ही वह अपने रूपान्तर की कल्पना करता है या उनके द्वारा अमरत्व की आशा-”
“हाँ, लेकिन वह सब यहाँ होता है। वहाँ-वहाँ चीजें॓ उलट जाती हैं, आदमी अपने को देखकर ही प्रकृति के बारे में निर्णय करता है। और-मेरा क्या भरोसा, कल रहूँ या न रहूँ : यह सोचकर वह सब विचार स्थगित कर देता है। बल्कि इस विचार का सहारा आवश्यक भी हो जाता है।”
रेखा ने विरोध करते हुए कहा, “लेकिन यह तो पलायन है, भुवन!”
“पलायन!” भुवन वही खोखली हँसी हँसा, “तो फिर?”
रेखा अचकचायी-सी उसे देखती रही। भुवन कहता है कि “तो फिर?” पलायन है, तो फिर?...
भुवन ही फिर बोला, “सुनो रेखा; बात यह है कि युद्ध बुरी चीज़ है, घृण्य है, व्यक्तित्व के लिए घातक है-सब कुछ है। पर जब लड़ें ही, तब जो कुछ रक्षणीय है उसे बचाने के लिए आवश्यक है कि युद्ध की मशीन ठीक से चले, सब कल-पुर्जे ठीक काम करते रहें, हर व्यक्ति-हर पुर्ज़ा या जुज़ एक काम लेता है और आवश्यक है कि उसे वह ठीक से करे। और ठीक से काम करने के लिए आवश्यक होता है कि विचारों को स्थगित कर दिया जाये-चाहे जैसे भी। कोई शराब पीकर करते हैं, कोई और भी भयानक तरीकों से-कोई इतना ही मानकर कि जीवन कभी भी समाप्त हो सकता है और उसके बारे में सोचना व्यर्थ है-कम-से-कम अभी व्यर्थ है, अभी जो अनुभव-संचय हो जाये, उसके आधार पर बाद में भी सोचा जा सकता है।”
“पर भुवन, तुम-तुम? तुम्हारा तो सारा काम ही सोचने का है, तुम्हें तो मारकाट नहीं करनी-तुम कैसे सोच स्थगित कर सकते हो?”
“वह तो है, सोच तो नहीं स्थगित करता, पर सोचने की शक्ति की लीकें बाँधता हूँ-सिर्फ़ काम के बारे में सोचता हूँ-मशीन को चलाने के बारे में सोचता हूँ, मशीन के बाहर जो जीवन है, वह-वह तो जीवन है, इसलिए उसका भरोसा क्या? मेरी बात समझीं-?”
रेखा चुपचाप देखती रही। भुवन की युक्ति ठीक थी, पर कुछ था जो उसे स्वीकार्य नहीं हो रहा था, वह कुछ क्या है इसे वह पकड़ नहीं पा रही थी...
रात-भर यह असमंजस उसे कोंचता रहा। रात को उसने गौरा को एक छोटा-सा पत्र लिखकर भुवन के वहाँ होने की सूचना दी और यह भी लिखा कि उसके मन की दशा अजब है, रेखा की समझ में नहीं आ रही। वह और कुछ लिखने जा रही थी पर रुक गयी; फिर उसने लिखा कि भुवन कदाचित् बंगलौर जाएगा, गौरा उसे मिले और हो सके तो उसके पास रहे-उसका मनःस्वास्थ्य यह माँगता है कि गौरा उसकी देख-भाल करे। दूसरे दिन वह रजनीगन्धा के बीस-एक डाँठों का गुच्छा लेकर फिर अस्पताल पहुँची। फूल सजाकर वह थोड़ी देर भुवन की ओर देखती रही। फिर जैसे एक बड़ा दुस्साहस कर ही डालने का निश्चय करके बोली, “भुवन, मैंने एक डिस्कवरी की है। यू आर इन लव। और मैं जानती हूँ कि किससे।”
भुवन अपने चेहरे पर हँसी फैलाता हुआ बोला, “सच? हाउ इण्टरेस्ंिटग, लेकिन तुम्हें बड़ी निराशा होगी, रेखा मेरी कोई भी नर्स ऐसी रूपवती नहीं है।”
और भी दुस्साहस भर कर, लेकिन मुस्कराते हुए ही रेखा ने कहा, “टालो मत भुवन, मैं नर्सों की बात नहीं कर रही हालाँकि नर्सें सब रूपवती हैं या होंगी।” सहसा उसे बोध हुआ कि उसका दिल धक्-धक् कर रहा है, पर वह रुकी नहीं, “मेरा मतलब है गौरा।”
भुवन चमक गया। उसका चेहरा तमतमा आया, ओठों का धनु एक तीखी रेखा बन गया, वह बोला नहीं।
रेखा ने भी थोड़ी देर बाद कुछ सँभल कर कहा, “मैं माफ़ी चाहती हूँ, भुवन-है यह मेरा दुस्साहस, पर अगर उससे मेरा अपराध कुछ कम होता हो तो कहूँ, मैंने मज़ाक नहीं किया, बहुत सीरियसली कह रही हूँ, क्योंकि मुझे लगा कि तुम इसी बात से पलायन कर रहे हो और वह पलायन ग़लत है।”
भुवन ने सतर्क स्वर से, किसी तरफ़ से भी रेखा की बात को न मानते हुए, न काटते हुए, पूछा, “तुम क्या कहना चाहती हो?”
“गौरा से मैं मिली थी, भुवन; उससे मैंने एक वायदा भी किया था जो-पूरा न निभा सकी। गौरा के मन को मैं जानती हूँ।”
भुवन ने न कुछ कहा न कुछ पूछा, चुपचाप उसकी ओर देखता रहा मानो कहता हो, तुम कहती चलो, मैं सुन रहा हूँ।
रेखा ने फिर कहा, “और मैं कहती हूँ, वह पलायन ग़लत है, भुवन!” सहसा नये निश्चय के साथ, “ग़लत है, अकरुण है और व्यर्थ है।”
भुवन ने वैसे ही दूर, पकड़ाई न देते हुए कहा, “तुम मुझे क्या करने को कह रही हो?”
“मैं? करने को?” रेखा क्षण-भर सोचती रही। “कुछ नहीं। केवल यही : तुम में जो सत्य है, उसके प्रति अपने को बन्द मत करो-उसके प्रति खुलो। तुमने मुझे सुनाया था-भुवन, तुमने! 'द पेन आफ़ लविंग यू'-उस व्यथा के प्रति अपने को खोल दो-और मुझमें कुछ कहता है कि वह तुम्हारे लिए कल्याणप्रद होगा, भुवन! गौरा के मन को मैं जानती हूँ क्योंकि स्त्री हूँ; और तुम्हारे मन को बिलकुल न जानती होऊँ, ऐसा तो तुम नहीं मानोगे; आख़िर स्त्री हूँ।”
रेखा जैसे हाँफ गयी थी। चुप हो गयी, लम्बे-लम्बे साँस लेने लगी। थोड़ी देर बाद जैसे पहले के किसी अधूरे वाक्य को पूरा करते हुए, उसने फिर कहा, “वह वरदान है, भुवन; उसे स्वीकार करो, चाहे कल-चाहे कल जीवन न रहे, तुम न रहो, भुवन, फिर भी!”
भुवन भी चुप पड़ा रहा। काफ़ी देर बाद बोला, “रेखा, मैं तो समझता था तुम्हारा औचित्य का ज्ञान बहुत बड़ा है, पर देखता हूँ तुम्हें इतना भी नहीं आता है कि बीमार से कैसी बातें करनी चाहिए। तुम स्वयं हाँफ गयी-और एक्साइटमेंट से रोगी का क्या होगा-और तुम तो नर्सिंग-”
“हाँ, एक श्लथ रोग होता है-रोगी का दिमाग नहीं चलता। उसका यही इलाज है, मैं जानती हूँ।”
फिर एक मौन रहा, उसमें न जाने क्यों अपने दुस्साहस पर रेखा स्वयं आतंकित हो आयी, क्या कह गयी वह, कैसे कह गयी वह; ऐसा हस्तक्षेप कैसे कर सकी वह...उसका मन हुआ, भुवन के पास से उठकर भाग जाये, और फिर कभी उसे मुँह न दिखाये-कैसे अब वह मुँह दिखा सकेगी...लेकिन वह उठ भी न सकी; उठना मानो फिर अपनी ओर ध्यान आकृष्ट करना है और वह वहीं धँस जाना चाहती है, लुप्त हो जाना चाहती है...एक झेंपी-सी हँसी हँस कर उसने कहा, “देखा, भुवन!-दिस इज़ ह्वट मैरेज़ डज़ टु ए वुमन-आज अपनी शादी हो, कल से सारी दुनिया के नर-नारियों की जीवन-व्यवस्था करने में लग जावें; यह स्त्री-स्वभाव ही है कि पुरुष के जीवन के लिए वह निरन्तर साँचे बनाती चले।”
भुवन का मन भटक रहा था। उसने खोये-से भाव से कहा, “हूँ।”
रेखा ने क्षण-भर उसकी ओर देखा फिर वह उठी, “अच्छा मैं जाती हूँ, भुवन, कल फिर आऊँगी। कुछ लाऊँ-कुछ मँगाना तो नहीं?”
“न,” भुवन ने रेखा का एक हाथ अपने हाथ में ले लिया और बोला, “नहीं रेखा, तुमने कह दिया, अच्छा ही किया। और यह भी समझता हूँ कि इसीलिए कह सकी कि-मैं तुम्हारा कृतज्ञ हूँ, रेखा; तुम्हारी बात ठीक है या ग़लत है, वह प्रश्न दूसरा है।”
रेखा ने कहा, “स्त्री की बात हमेशा ग़लत होती है भुवन, सिवा एक मामले के, और वहाँ वह हमेशा ठीक होती है।” वह हँस दी। सहसा उसने झुककर ओठों से भुवन का माथा छुआ। “जल्दी अच्छे हो जाओ-दक्खिन जाना है।” और मुस्कराती हुई ही वह बाहर चली गयी। ओट होने तक भुवन उसे देखता रहा, फिर उसने करवट ली और आँखें बन्द कर लीं।
पर अगले दिन जब रेखा उसे देखने गयी तब वह दक्खिन जा चुका था। मालूम हुआ कि वह अच्छा हो रहा था, और उसे कन्वेलेसेंट छुट्टी पर करके आगे भेज दिया गया था : दो दिन में अस्पताली गाड़ी बंगलौर पहुँच जाएगी।
लौट कर रेखा ने गौरा को तार दे दिया।
× × ×
कतार में लगी कैनवस की आराम-कुरसियों पर अस्पताली पाजामे और जाकेट पहने कई एक व्यक्ति लान में बैठे थे, पर गौरा को ढूँढ़ना नहीं पड़ा, बिना इधर-उधर देखे वह सीधे एक कुरसी की ओर बढ़ी चली गयी। पास पहुँचकर उसने धीमे, बहुत शान्त स्वर में कहा, “भुवन।”
भुवन पढ़ रहा था। सहसा चौंका और सिर उठाता हुआ पीछे मुड़ा।
“गौरा।”
गौरा ने धीरे-धीरे फिर कहा, “भुवन!” उसका स्वर भर्राया था। वह डेढ़ कदम आगे बढ़कर भुवन के पैरों के पास घास में बैठ गयी।
देर तक दोनों चुप रहे। फिर गौरा ने वैसे ही भर्राये, काँपते हुए स्वर में पूछा, “क्या पढ़ रहे हो?”
“कविता-लारेंस,” कहकर भुवन ने सहसा गोद में पड़ी खुली पुस्तक बन्द कर दी।
“क्यों-पढ़ो-”
भुवन के दोनों हाथ खोजते से बढ़े, गौरा ने यन्त्रवत् अपने दोनों हाथ उठाकर उनमें रख दिये। भुवन की मुट्ठियाँ उन पर कस गयीं; उनकी जकड़ मज़बूत थी पर एक कम्पन लिए हुए; गौरा थोड़ी देर वैसे बैठी रही, फिर उसने आगे झुककर अपनी आँखें मुट्ठियों पर रख दी। भुवन ने एक हाथ छोड़कर उसका सिर धीरे-धीरे थपक दिया; उसमें कुछ निर्देश था मानो-गौरा सीधी होकर बैठ गयी। भुवन ने पूछा, “तुम्हें कब पता लगा? तुम-”
और गौरा ने कहा, “तुम कब पहुँचे?”
भुवन भी यही कहने जा रहा था कि 'तुम कब पहुँची?' गौरा बात काट कर बीच में बोल उठी थी पर दोनों के वाक्य समाप्त एक साथ ही हुए। भुवन मुस्करा दिया, उसकी ओर देखकर गौरा मुस्करा दी, फिर सहसा हँस पड़ी, मानो कोई अवरोध हट गया, उमड़ती हुई बोली, “भुवन, मेरे भुवन दा-आप...भुवन, तुम आ गये, कहाँ खो गये थे तुम, मेरे शिशु...”
और भुवन के मन में भी एक साथ कई प्रश्न, कई वाक्य घूम गये जो उक्ति माँगते थे, पर जो कहा उसने गौरा का ही वाक्य था, “शब्द अधूरे हैं क्योंकि उच्चारण माँगते हैं...लेकिन अब भागूँगा नहीं, इतना कह दूँ...”
थोड़ी देर बाद गौरा ने सहसा उलाहने से कहा, “तुमने मुझे खबर भी नहीं दी-यहाँ आते और चले जाते?”
“नहीं गौरा, इतना बुरा तो नहीं हूँ। मैंने आज तुम्हें पत्र लिखा है-अभी चाहे गया न हो-मैंने सोचा था, खाट पर पड़े देखने न बुलाऊँगा, जिस दिन उठूँगा उसी दिन-”
“इतने बुरे हो तुम।” कहकर गौरा रुक गयी। “हो तुम-हैं आप निरे मास्टर साहब ही-जो सिखाते हैं, स्वयं नहीं सीखते-दूसरों की बात आप कभी नहीं सोचते”
भुवन ने सोचते-से कहा, “दूसरों की!” और धीरे-धीरे आवृत्ति की, “दूसरों की...” थोड़ी देर बाद बोला, “गौरा, अब तक दूसरा मैं अपने को ही मानता आया, तुम्हारी शिकायत असल में यही है कि तुम्हें पहला और अपने को दूसरा क्यों माना मैंने; और मेरी मुश्किल यह है कि मैं वैसा मानने को ग़लत नहीं समझ पाता-अब भी नहीं!”
गौरा ने कहा, “ऐसा नहीं हो सकता कि कोई बात-ग़लत न हो, लेकिन-” तनिक रुककर, “बुरा न मानना-लेकिन अहंकार हो? मैं जज़मेण्ट नहीं दे रही, पर बात कहने का साहस कर रही हूँ क्योंकि तुमने सिखाया है; यह भी तो एक पक्ष हो सकता है?”
भुवन सोचता-सा काफ़ी देर तक चुप रहा, फिर खोया-सा बोला, “शायद तुम ठीक कहती हो, गौरा : ग़लत नहीं है, पर अहंकार हो सकता है। मैंने तुम्हें बहुत कष्ट दिया है न, गौरा?”
गौरा बोली नहीं, भुवन के स्वर में सहसा जो कोमलता आ गयी थी उससे उसकी आँखों में कुछ चमका; उसने चेहरा भुवन की ओर उठाया और उसकी दृष्टि भुवन के चेहरे को दुलरा गयी।
× × ×
दिन छिप गया था, पर गौरा ज्यों-की-त्यों बैठी थी, बत्ती जलाने का उसे ध्यान नहीं आया। वह भी वैसी ही कैनवस की आराम-कुरसी पर बैठी थी जैसी पर भुवन को उसने देखा था, उसकी गोद में पुस्तक नहीं तो कापी पड़ी थी-भुवन की कापी। कैसा अद्भुत था यों बैठ कर दोहरा जीवन जीना : वह गौरा भी थी, जो अपने को भुवन के प्रतिबिम्ब के रूप में देख रही थी, भुवन की बातों को समझ रही थी, उन पर होने वाली अपनी मानसिक प्रतिक्रियाओं की सूक्ष्मतम छाप ले रही थी और लेकर मानो एक निधि में जमा करती जा रही थी, जो मसूरी में लिखे गये अपने उन विचारों को याद कर रही थी जो भुवन के प्रति निवेदित होकर भी भुवन को दिये नहीं गये; और वह भुवन भी थी-आराम-कुरसी पर बैठा हुआ भुवन, गोद में पुस्तक या कापी में एक-एक दो-दो वाक्य लिखता और लिखकर उन पर और उनके हेतु गौरा या विचार करता हुआ भुवन...
“स्नेह-शिशु, तुम्हें छोड़कर नहीं भागा। भागा ज़रूर, पर सच कहूँ कि जब भागा तो कुछ अगर साथ लिया तो तुम्हारी प्रतिच्छवि-और मेरे विक्षत मन के कसैले विराग को एकदम कटु हो जाने से बचाया तो उसी ने...अब पीछे देखता हूँ तो लगता है, मुझे यह पहले देखना चाहिए था-जिस उथल-पुथल ने मुझे पकड़ लिया, (जिसकी बात तुम से कर चुका) उससे पहले देखना चाहिए था...वह मुझे छोड़ कर चली गयी 'ए वाइज़र बट ए सैडर मैन'-उस दुःखमय विवेक ने मुझे बताया कि क्या चीज़ है जो अब भी जीवन में आस्था नहीं मिटने देती...फिर भी तुम से दूर क्यों गया-क्यों जाना चाहा? इसलिए कि सीखा, स्नेह में जब मोह भी होता है तब आघात मिलता है-मिलता ही नहीं, तब व्यक्ति स्वयं उसी को आहत करता है जिसके प्रति स्नेह है। इसीलिए सोचा, तुम जानो, उससे पहले ही दूर चला जाऊँ। स्नेह से दूर नहीं, स्नेह के लिए दूर...
“तुम ने मेरी बात नहीं समझी थी। तुम आहत हुईं। शायद अब भी न समझो। और शायद न समझना ही अच्छा है, समझना सब मानो मेघाच्छन्न होना है, और वह मुझ जैसों के लिए ही अच्छा है जो बीत गये हैं, जिनका जीवन आन्तरिक हो गया है, जो अपनी समझ की मेघ-छाया में रहने के आदी हो गये हैं। तुम्हारे लिए नहीं, जिसका भविष्य आगे है, भविष्य जो सुनहला हो, जिसमें हँसी हो, बालारुण की आभा हो, आलोक हो...मैं जैसे तमिस्रा का पोष्य पुत्र हूँ-इसीलिए आलोक को पूजता आया हूँ, कभी दूर से, जैसा कि ठीक है, कभी निकट से, जैसा कि विपज्जनक है; कभी छूने को ललचाया हूँ, जो महान् मूर्खता है, क्योंकि छूने से आलोक बुझ जाता है!”
“रवि ठाकुर ने कहीं लिखा है : “मैं उस विशाल मरु की तरह हूँ जो घास की एक हरी पत्ती को पकड़ लेने के लिए हाथ बढ़ाता है'-मैं कहूँ कि मैंने इसकी विडम्बना जान ली है, घास की पत्ती को निकट लाने के लिए मरु फैलता नहीं, सिमटता है; सिमट कर अकिंचन होकर ही वह पत्ती को पकड़ तो नहीं, लगभग छू सकता है।”
“स्नेह-शिशु तुम ने मुझे कहा था : मैं किसी तरह नहीं सोच पाता कि यह नाम मैंने नहीं ढूँढ़ा था, कि मैंने नहीं तुम्हें दिया था। तुम्हारी ही चीज तुम्हें लौटाता हूँ, लेकिन शतगुण स्नेह से, गौरा!”
“तुमने मुझसे वचन माँगा था, अपने को अनावश्यक संकट में न डालूँगा। क्या यह अनावश्यक संकट है? संकट भी है? या कि यहाँ न आना ही संकट होता-वहाँ रहना ही संकट होता है?”
“जंगल, घने बादल, तीन बजे दिन में अँधेरा-सा; हाथियों के झुण्ड-से बादल-गड्ड-मड्ड होते हुए हज़ारों हाथियों के महायूथ-से...एक आकृति दूसरी में घुल जाती है, लेकिन कलौंस ज़रा भी कम नहीं होती; भीतर न जाने क्या-क्या माँगें उठती हैं और उतनी ही नीरवता में, उतनी ही निष्पत्तिहीन विलीन हो जाती हैं...मैं सोच नहीं सकता, ध्यान केन्द्रित नहीं कर सकता; एक ही स्पन्दन जैसे हर बात में गूँज जाता है और उसको सुनने के सिवा चारा नहीं है...पर साथ ही उसे सुनकर भी काम नहीं चलता-उधर ध्यान दूँ तो वह ऐसा अभिभूत कर लेगा कि बस...”
“आज से छः महीने पहले तुम्हारे साथ आग के पास बैठा था-आग के डर से मुक्त होकर...और आज-! वह बड़ा दिन था। यों आज वास्तव में बड़ा दिन है-उत्तरायण के एक-आध दिन ही इधर-उधर-और वह दिन के हिसाब से तो छोटा ही दिन था! मैं देखता हूँ वह आग : हम दोनों से एक-दूसरे की ओर झरती हुई सान्त्वना और आश्वासन की धारा-यह मेरा अहंकार तो नहीं है कि 'एक-दूसरे की ओर' कह रहा हूँ?
“मैंने कहा था, यह तुम्हारी आग है। तुमने कहा था, आग से डरना मत। तब से मैं मानो उसे लिये-लिये कहाँ-कहाँ फिर रहा हूँ...”
“मैं लेटा था, किसी ने आकर पूछा, रेडियो सुनोगे? और लगाया : सहसा शून्य में से क्या आवाज़ आयी जानती हो? 'मोर वीणा उठे कौन सुरे बाजि-कौन नव चंचल छन्दे। ए अम्बर प्रांगण माझे निःस्वर मंजीर गुंजे'*-आकाश ही मेरा घर है, जिसमें वह छन्द गूँजता है...”
“मैंने तुम्हें ख़बर नहीं दी। अब कभी-कभी विचार उठता है-क्या भूल की? क्योंकि अब यह ज़रा-ज़रा-सा लिखना भी कठिन होता जाता है-मेजर भुवन मास्टर साहब का एक काला धुँधला खोल भर है, शक्ति-हीन, लगभग निर्जीव...लेकिन यही ठीक है गौरा-यही ठीक है जब तक मुझे होश रहेगा, तुम्हें आशीर्वाद देता रहूँगा-अगर न रहेगा-तो भी वह आशीर्वाद रह जाएगा! इस जीवन से आगे कुछ नहीं है गौरा, यही सम्पूर्ण है, यही अन्त है। लोग ऐसा मानने से डरते हैं, मुझे लगता है, यही तो जीवन को अर्थ देता है। इस जीवन का दर्द इसलिए मूल्यवान् नहीं है कि किसी दूसरे जीवन में उसका पुरस्कार मिलेगा; इसलिए मूल्यवान् है कि जीवन से आगे और कुछ नहीं है। क्योंकि मूल्य किसी पड़तालिये के लिए नहीं होता जो रोकड़ मिला कर तय करे कि क्या हाथ आया, मूल्य है तो उस व्यक्तित्व के लिए जो उस दर्द में से गुज़र रहा है और मूल्य उसी अवस्था में है...”
“भुवन केजुएल्टी हो गया। उसे देश वापस भेजा जा रहा है ठीक होने के लिए। क्यों जी, ठीक होगे तुम?
“अपने से ही मध्यम पुरुष में बात करने लगे कोई...सुना है, ज़ेलों में फाँसी के क़ैदी ऐसा करने लगते हैं। लेकिन अपने से उबरने के दूसरे भी तरीके हो सकने चाहिए।
“अपने से उबरने के। अपना क्या? क्या कोई अपनी भावनाओं से, अपने रागों से उबरना चाहता है? या कि केवल एकातिरिक्त सब रागों से ही? क्यों जी, तुम्हारी क्या राय है?”
“न, गौरा, लगता है यह तुम से विश्वासघात होगा-यद्यपि वचन मैंने नहीं दिया था। मैं ठीक हो जाऊँगा। ज़रूर हो जाऊँगा-और तुम से मिलूँगा भी...”
(* रवीन्द्रनाथ ठाकुर)
“देश का आकाश...तुम कहाँ हो, गौरा? मैं लिखना चाहता हूँ-”
“नहीं। मैं वापस ही जाऊँगा! आगे नहीं देखूँगा। भविष्य नहीं सोचूँगा, क्योंकि वह नहीं है, वह वर्तमान का ही स्फुरण है। सोचता हूँ, बीच में विचार क्यों बदल गये थे, तो रैबेल की बात याद आती है : शैतान बीमार हुआ तो उसने साधु होना चाहा :
द डेविल वाज़ सिक , द डेविल ए मंक वुड बी :
द डेविल ग्रू वेल , द डेविल ए मंक वाज़ ही!
पर यहाँ शायद साधु ही बीमार होकर शैतान होना चाह रहा है!”
“बहुत सुन्दर है लताओं-पत्तियों की झाँझरी यह
पर मुझे आकाश प्यारा है ...”
कापी गौरा पढ़ चुकी थी। उसके वाक्य आगे-पीछे उसके अन्तःक्षितिज से उठते और विलीन होते जाते थे। क्या भुवन का यह कहना ठीक है कि जो है, यही जीवन है, आगे कुछ नहीं है, परलोक नहीं है, पुनर्जन्म नहीं है? वह मान सकती है कि पुनर्जन्म नहीं है, परलोक भी नहीं है-इस जीवन का कर्म-फल भोगने के लिए पुनः जन्म लेने की कोई आवश्यकता उसे नहीं दीखती क्योंकि भोग सब इसी जीवन में भुगता दिये जाते हैं, देना-पावना सब राई-रत्ती यहीं चुक जाता है ऐसा वह मान ले सकती है। पर क्या यह जीवन ही सब कुछ है-यह हमारा हमारी चेतना की मर्यादाओं से मर्यादित देशकाल से बँधा जीवन? क्या हम एक के बाद एक नहीं, एक साथ ही एकाधिक जीवन नहीं जीते, एकाधिक लोकों में नहीं रहते-हाँ, एकाधिक चेतना द्वारा उसके या उनके प्रभावों को ग्रहण नहीं करते? सदा न करते रहते सही, जीवन-शक्ति की उत्तेजना के क्षणों में ही सही; पर कभी भी अगर हम दूसरे स्तर पर, दूसरे लोक में दूसरे जीवन में प्रविष्ट हो सकते हैं, तो वह है...वही अभी गौरा भी है, भुवन भी है, आज की गौरा भी है, पुरानी भी, आज का भुवन भी है, पुराना भी कापी पढ़नेवाली भी है, लिखनेवाला भी, लिखने वाले की अनुभूति के कई स्तर भी, कई काल भी-और सब परात्पर नहीं, सब एक साथ, एक क्षण में...
और नहीं, वह कहीं-वह कहीं पृष्ठभूमि में रेखा भी है, रेखा की व्यथा भी और विशालता भी, अकिंचनता भी और दानशीलता भी-वह व्यक्ति का जीवन नहीं, निरपेक्ष जीवन है, सर्वस्पर्शी, सर्वत्र स्पन्दित...
वह उत्तेजित होकर खड़ी हो गयी। कापी उसकी गोद से फिसल कर गिरी, उसके शब्द ने उसे चौंका दिया। गौरा ने आगे बढ़कर बत्ती जलायी, और रेखा को तार लिखने लगी कि भुवन वहाँ है, ठीक है, कि उसे बाहर निकलने की इजाज़त भी मिल रही है कल से।
× × ×
“गौरा, आज फिर मैं तुम्हारा अतिथि होकर तुम्हारे कमरे में बैठा हूँ।”
“ऐसा क्यों कहते हो, भुवन?” गौरा ने उसकी बात का अभिप्राय न समझते हुए कुछ आहत स्वर में कहा।
“मुझे याद आता है मसूरी का वह पहला दिन-वह रात जो चलते-चलते बड़ा दिन हो गयी थी-तब भी तो तुम्हारा मेहमान होकर बैठा था।”
“वह तो तुम्हारा कमरा था-मेहमान-कमरा ही था वह। मेरे कमरे में तो-मेरे कमरे में तुम कब आये थे तुम्हें याद है?”
भुवन ने उठकर एक कोने की ओर बढ़ते हुए कहा, “ख़ूब याद है-नये वर्ष के दिन मैं तुम्हारा कमरा सजाने लगा था-” उसने तिपाई पर रखे फूलदान से एक फूल निकाल लिया था, उसे लिए हुए गौरा की ओर मुड़ते हुए बोला, “और मेरे हाथ से एक फूल तुम्हारे ऊपर गिर गया था।” कहते-कहते उसने वह फूल गौरा के कबरी-बन्ध में अटका दिया।
“ऐसे नहीं गिरा था, ऐसे गिरा था-” कहते-कहते गौरा उसके पैरों की ओर झुक गयी। “मेरा प्रणाम लो, शिशु!”
भुवन ने जल्दी से झुककर उसके दोनों हाथ पकड़े और उसे खींचकर उठा लिया, हाथ छोड़े नहीं और एक-टक उसे देखता रहा।
देर बाद उसने धीरे-धीरे कहा, “गौरा, अब मैं फिर जल्दी ही चला जाऊँगा-पर अब भागूँगा नहीं। और-” कहते-कहते वह एक घुटने पर झुका, “प्रणाम मुझे करना चाहिए, क्योंकि तुम-”
हड़बड़ा कर गौरा ने कहा, “नहीं, नहीं भुवन, नहीं।” और उसके हाथ खींचने लगी, भुवन रुक गया पर उठा नहीं। उसे खींचने के लिए गौरा तनिक निकट बढ़ आयी थी, भुवन ने धीरे-से अपना सिर उसके पार्श्व में टेक दिया, गौरा ने एक-एक हाथ छुड़ा कर उसके सिर पर रखा और धीरे-धीरे बाल सहलाने लगी।
दो-चार दिन भुवन अस्पताल के अहाते में टहला था, फिर उसे बाहर जाने की अनुमति मिली तो गौरा उसे टैक्सी में घुमा लायी थी। दूसरे-तीसरे दिन एक संगीत-गोष्ठी में भी ले गयी थी। पर अपने यहाँ ले जाने की बात उसने तब तक नहीं की जब तक भुवन को अनुमति नहीं मिल गयी कि वह चाहे जहाँ जा सकता है, केवल अपने को थकाएगा नहीं, सावधानी से खाएगा, और रात के भोजन के समय वापस लौट जाएगा। तब गौरा फिर उसे लिवाने आयी, अस्पताल से वे टहलते हुए निकले; कुछ देर बाद गौरा ने पूछा, “भुवन, मेरे यहाँ चलोगे?”
भुवन ने एक बार उसकी ओर देखा और बिना उत्तर दिये ही उसके साथ मुड़ गया।
“मुड़ तो गये, यह भी जानते हो कि किधर जाना है?
भुवन ने भोलेपन से कहा, “न, तुम ले जा रही हो, मैं जा रहा हूँ। दैट इज़ आल आइ नो एंड आल आई नीड टु नो।” (इतना ही मैं जानता हूँ और इतना ही जानने की ज़रूरत है।)
“मेरा यहाँ तो क्या है, होटल का कमरा है एक। पहले भी वहाँ रह चुकी हूँ। पर थक तो नहीं जाओगे-टैक्सी लें?”
“बहुत दूर है? नहीं तो पैदल ही चलें-लौटते समय चाहे टैक्सी ले लूँगा। चलना अच्छा लगता है-नये सिरे से सीख रहा हूँ।”
कमरा साफ़-सुथरा था; होटल के कमरों से उसमें अन्तर इतना था कि फर्नीचर कम था, एक तरफ़ एक तख्त पड़ा था जिसे गौरा ने अपने ढंग से सजा रखा था। इसी पर गौरा ने भुवन को बिठाया था।
गौरा की उँगलियाँ भुवन के बालों में से तिरती हुई पार निकल जातीं और फिर लौट आतीं; फिर उसने सहसा बाल हिलाकर उलझा दिये और मधुर स्वर में पूछा, “भुवन, अब वचन दोगे?”
“हाँ, गौरा। अब वचन देता हूँ।”
गौरा फिर धीरे-धीरे बाल सहलाने लगी।
“अब नहीं भागूँगा। पहले बहुत भागा। पहले जानने से भागा; पिछली बार-मसूरी में जब वह सम्भव न रहा तो स्वीकृति से भागा। मसूरी में-मैंने सहसा देखा कि मेरे आगे एक मेघ है और वह तुम्हारे बालों का है-तो जान लिया-जान क्या लिया, तुम ने कह दिया और मुझे लगा कि जान कर ही तुम ने कहा है, नहीं तो तुम भी कैसे कह पाती? मैंने तुम्हें कहा था-कुछ हँसी में ही सही, कहा तो था-कि जिस दिन ऐसा होगा जान लूँगा कि कि मेरी खोज-मेरे लिए खोज-समाप्त हो गयी और पड़ाव आ गया। पर-” वह चुप हो गया। फिर सहसा उठकर उसने पूछा, “गौरा, तुम सोचा करोगी न कि मैं कितना बुद्धू हूँ?”
गौरा खोयी-सी मुस्करा दी। “सोचा करूँगी! क्यों, भविष्य की क्यों-शिशु तो तुम हो ही, अब भी हो, हमेशा ही थे-”
“और तू बड़ी सयानी आयी है कहीं से चल के!” भुवन ने हलका-सा चपत उसके गाल पर लगा दिया। फिर तख्त पर बैठते हुए, बदले स्वर में बोला, “गौरा, तुम्हारा संगीत तो मैंने सुना ही नहीं कभी-मसूरी में चोरी से ही सुना था सितार”
“सुनाऊँगी-”
“कब? अभी नहीं?”
“न! अभी गा सकती, पर तुम्हारे सामने गाऊँगी नहीं, और यहाँ पर तो नहीं ही। फिर एक दिन-”
“फिर एक दिन!” भुवन का स्वर थोड़ा उदास हो आया। “थोड़े-से तो दिन और हैं, फिर मैं वापस जो चला जाऊँगा-”
“थोड़े-से? ऐसा मत कहो, शिशु, देखो, मैं भी नहीं कहती-बहुत दिन आएँगे आगे। नहीं तो मैं यहीं बैठी रहूँगी, फ्रंट पर तुम जाओगे; दिनों की लघुता मैं जानती हूँ कि तुम!”
भुवन अचम्भे में उसे देखने लगा। देखता रहा। गौरा ने पूछा, “क्या ताक रहे हो?”
“मसूरी में तुम्हारे चेहरे पर एक कान्ति देखी थी, जो पहले नहीं देखी थी। वही देख रहा था। चाहता हूँ, हमेशा उसे देख सकूँ-”
गौरा ने रुकते-रुकते कहा, “मेरी कान्ति तो तुम हो, पगले!”
× × ×
बंगलौर से भुवन मद्रास गया; छुट्टी से लौटकर वहीं रिपोर्ट करने का आदेश उसे मिला था, वहीं से जहाज़ में वह फिर फ्रंट पर जाएगा। तीसरे पहर उसे बन्दर पर हाज़िर होना था; दोपहर को वह गौरा के साथ समुद्र की ओर गया-वहीं विदा लेकर वह चला जाएगा, गौरा बन्दर पर नहीं जाएगी...ऐसा ही उसने चाहा था, और गौरा ने उसकी बात समझ कर मान ली थी।
भुवन ने कहा, “गौरा, कुछ आदिम जातियों का विश्वास है कि आत्मा शरीर से अलग रखी जा सकती है-उनके वीर जब युद्ध करने जाते हैं तो आत्मा किसी चीज़ में घर रख जाते हैं-पोटली बाँधकर खूँटी पर भी टाँग जाते हैं।”
गौरा ने अविश्वास से कहा, “नहीं!”
“हाँ, सच! और अब की-मैं अपनी आत्मा तुम्हारे पास रखे जा रहा हूँ-उसे सँभाल रखोगी न?”
गौरा ने उसकी ओर देख-भर दिया। उसकी साँस जल्दी चलने लगी, वह बोल नहीं सकी।
“और पोटली बाँधकर नहीं रखूँगा-तुम्हीं में है वह-”
“मैं जानती हूँ भुवन, मेरी साँस है वह-”
“मैं लौटूँगा, गौरा। काम वहाँ बहुत है, बहुत कड़ा है; तुम्हारा भी काम है-पर-काम अपने-आप से टूट कर नहीं है-” वाक्य उसने अधूरा छोड़ दिया, मानो भूल गया कि वह क्या कह रहा है।
वर्दी की ज़ेब से एक पुस्तक उसने निकाल कर गौरा को दी।
“यह लो गौरा, कुछ कविताएँ हैं, लारेंस की। अस्पताल में तुम आयी थी तब यही पढ़ रहा था। एक कविता है-” कहते-कहते उसने पुस्तक खोली, 'ए मैनिफ़ेस्टो'। वही तब पढ़ रहा था। आज बता देता हूँ। तुम पढ़ना-तुम्हें अचम्भा होगा। पढ़ इसलिए रहा था कि उसके अंश मैं अपनी कापी में लिखना चाहता था, पर मेरे शब्द अधूरे थे, लारेंस कह गया था...” वह रुक गया। फिर बोला, “वह तो तुम अपने-आप पढ़ना; एक दूसरी है जिसकी तीन-चार पंक्तियाँ तुम्हें सुना देता हूँ-मुझे याद हैं।”
क्षण-भर वह सोचने को रुका, गौरा प्रतीक्षा में नीचे बालू की ओर देखने लगी।
“आइ एम नाट एट आल, एक्सेप्ट ए फ़्लेम-” भुवन ने सहसा रुककर कहा, “नहीं गौरा, मेरी ओर देखो-” और आँखों से उसकी आँखें पकड़े हुए वह बोलने लगा :
“आइ एम नाट एट आल, एक्सेप्ट ए फ़्लेम देट माउंट्स आफ़ यू-
ह्वेयर आइ टच यू , आइ फ्लेम इंटु बीइंग; बट इज़ इट मी, आर यू?
हाउ फुल एण्ड बिग लाइक ए रोबस्ट फ़्लेम
ह्वेन आइ एनफ़ोल्ड यू , एण्ड यू क्रीप इंटु मी,
एण्ड माइ लाइफ़ इज़ फ़ियर्स ऐट इट्स क्विक
ह्वेयर इट कम्स आफ़ यू !”
(मैं कुछ नहीं हूँ सिवा एक शिखा के जो तुम से उठती है ; जहाँ मैं तुम्हें छूता हूँ वहीं दीप्त हो उठता हूँ-किन्तु वह होना मैं हूँ या तुम?
पुष्ट अग्निशिखा-सा विशाल और सम्पूर्ण मैं तुम्हें घेरता हूँ और तुम मुझमें छिप जाती हो ; मैं और मेरे जीवन की प्रचण्डतम दीप्ति है उस जीवन्त बिन्दु पर जहाँ वह तुमसे उद्भूत होती है।)
सहसा आगे झुककर उसने गौरा का माथा सूँघा और बोला, “अच्छा, गौरा”
तीन-चार पग की दूरी से उसने मुड़कर देखा और कहा, “वह कान्ति, गौरा-मेरी जुगनू-”
और गौरा कोहनी से दोनों हाथ उठाये निःस्वर शब्दों में इतना कह पायी, “हाँ मेरे शिशु, हाँ, शिशु-”
× × ×
गौरा को एक पार्सल मिला।
उसमें रेखा का एक पत्र था, और एक छोटी-सी डिबिया; डिबिया उसने खोली, उसमें एक अँगूठी थी। गौरा ने अँगूठी पहचान ली, कुछ चकित-सी वह पत्र पढ़ने लगी :
गौरा,
यह मैं उसी दिन तुम्हें दे ही देती, पर तुमने कहा था कि मैं इसे तुम्हारी ओर से रख छोड़ूँ, तुम फिर कभी माँग लोगी। मैं अधिक आग्रह नहीं कर सकी थी-तुम ने पूछा था कि माँ ने यह मुझे कब दी थी, और उससे मुझे बहुत-सी बातें याद आ गयी थीं जिन्हें मैं याद नहीं करती और जिन की प्रतिध्वनियों से भरा हुआ मन लेकर नहीं देना चाहती थी...
गौरा, तुम तो कभी माँगोगी नहीं, पर अब मैं स्वयं भेज रही हूँ; मुझे बार-बार तुम्हारी याद आती है और भीतर कुछ कहता है कि यह जो तुमने मेरे पास रखी कि फिर कभी भेज दूँ, वह इसी समय के लिए था। मेरा आशीर्वाद लो, गौरा, और मेरा स्नेह; माँ ने आशीर्वाद के साथ वह अँगूठी मुझे दी थी, मुझे आशीर्वाद नहीं फला अपनी अपात्रता के कारण (पर जीवन के प्रति अकृतज्ञ मैं नहीं हूँ, न कभी हूँगी, गौरा; और इसके लिए ऋणी हूँ तुम्हारे 'मास्टर साहब' की); पर तुम पात्र हो, और मैं गर्व करके यह भी कह जाऊँ कि मेरा आशीर्वाद भी अधिक सार्थक है, क्योंकि उसके पीछे वह है जो माँ ने नहीं जाना था...
गौरा, जीवन में आनन्द सब कुछ नहीं है, पर बहुत बड़ी चीज़ है; और है वह सुखों में नहीं; है वह मन की एक प्रवृत्ति। मैं बहुत लालची थी, मैंने एक साथ ही सारे तारों-भरे आकाश को बाँहों में घेर लेना चाहा था। तुम में अधिक धैर्य है। तुम आकाश की छत को छू सकोगी। और एक-एक तारा तुम्हारी एक-एक सीढ़ी होगी...जीवन की चरम एक्स्टैसी तुम जानो, गौरा; उसे जाने बिना व्यक्ति अधूरा है; पर यह फिर कहूँ : आनन्द अनुभूति में नहीं है, किसी अनुभूति में नहीं, आनन्द मन की एक प्रवृत्ति है, जो सभी अनुभूतियों के बीच में भी बनी रह सकती है।
तुम्हें सीख नहीं दे रही, गौरा; हर व्यक्ति एक अद्वितीय इकाई है, और हर कोई जीवन का अन्तिम दर्शन अपने जीवन में पाता है, किसी की सीख में नहीं। पर दूसरों के अनुभव वह खाद हो सकते हैं, जिससे अपने अनुभव की भूमि उर्वरा हो...
उस समान आनन्द की कामना तुम्हारे लिए करती हूँ, गौरा-तुम्हारे लिए, और भुवन के लिए।
तुम्हारी
रेखा दीदी
गौरा ने अँगूठी हाथ में लेकर पत्र और डिबिया सँभाल कर रख दी, फिर अँगूठी को देखती हुई टहलने लगी। कटहला उसने कभी पहना नहीं था-और यही मानती आयी थी कि वह कुछ साँवले रंग पर सुहाता है। रेखा के हाथ पर वह अच्छा लगता था...एकाएक वह देख सकी : रेखा के दोनों हाथ वैसे बढ़े हुए जैसे उसे अँगूठी पहनाने के लिए दिल्ली में बढ़े थे-विशेष सुन्दर नहीं थे वे हाथ, पर अत्यन्त संवेदना-प्रवण, और अँगूठी बढ़ाये हुए उनकी वह मुद्रा स्वयं एक इतिहास थी...गौरा ने अँगूठी पहन ली, और एक विचित्र भाव उसके मन में उमड़ आया। आलमारी तक जाकर उसने एक पुस्तक निकाली-वही पुस्तक जो भुवन उसे जाते वक़्त दे गया था-और वह कविता पढ़ने लगी जो भुवन अस्पताल की पहली भेंट के समय पढ़ रहा था-'ए मैनिफ़ेस्टो'।
'ए वुमन हैज़ गिवन मी स्ट्रेंथ एण्ड एफ़्लुएंस-ऐडमिटेड!'
दो-चार पंक्तियाँ उसने और पढ़ीं, लेकिन फिर पहली पंक्ति की ओर लौट आयी-'ए वुमन हैज़ गिवन मी स्ट्रेंथ एण्ड एफ़्लुएंस-ऐडमिटेड!'-एक नारी ने मुझे शक्ति और ऋद्धि दी है...मैं स्वीकार करता हूँ!
गौरा ठिठक गयी। भुवन चाहे जैसे वह पुस्तक पढ़ता रहा हो, अस्पताल में बैठे-बैठे उसका चाहे जो अर्थ लगाता रहा हो, लेकिन वह पंक्ति ठीक कहती है : एक नारी ने-नारी ने ही...सहसा वह कागज़ लेने के लिए बढ़ी : वह रेखा को पत्र लिखेगी और यह पुस्तक रेखा को भेज देगी। पत्र में क्या लिखेगी, उसके वाक्य अभी भी उसके मन में स्पष्ट तिरने लगे थे...”तुम्हारी वह मूल्यवान भेंट लौटाऊँगी नहीं, रेखा दीदी; लौटायी तब भी नहीं थी। अँगूठी मैंने पहन ली है, तुम्हारे आशीर्वाद के आगे नत-मस्तक हूँ,-पात्रता की बात मैं नहीं जानती, पर आशीर्वाद के लिए पात्रता क्या, वह तो पात्रता के प्रश्न के परे जो स्नेह दिया जाता है वह है।...रेखा दीदी, भेंट के बदले में नहीं, अपने ट्रिब्यूट के रूप में एक चीज़ भेज रही हूँ। यह भुवन की पुस्तक है जो वह जाते समय मुझे दे गये हैं। मैंने उनसे पूछा नहीं, न पूछूँगी; वह अवश्य समझ सकेंगे।...इस पुस्तक में एक कविता है, 'ए मैनिफ़ेस्टो'-इसी कविता के लिए यह पुस्तक उन्होंने मुझे दी थी-उसकी पहली पंक्ति है : 'ए वुमन हैज़ गिवन मी स्ट्रेंथ एंड एफ़्लुएंस-ऐडमिटेड!' मेरा विश्वास है कि इस पंक्ति को वह आप से छिपाना न चाहेंगे, न मैं ही चाहूँगी; वह आप ही की है और इसीलिए यह पुस्तक भी।...रेखा दीदी, मेरे पास दर्शन अभी कुछ नहीं है, एक आस्था है, और कुछ श्रद्धा, और सीखने की, सहने की, और यत्किंचित् दे सकने की लगन है; इनके और आपके स्नेह के सहारे मुझे लगता है कि मैं चारों ओर बहते अजस्र प्रवाह में खड़ी रह सकूँगी; एक नगण्य व्यक्तिपुंज, अस्तित्व का एक छोटा-सा द्वीप, लेकिन जो फूलना चाहता है, फूल झरा कर नदी के बहते जल को सुवासित कर देना चाहता है-फिर नदी चाहे जो करे, उन फूलों की गन्ध ही पहुँच जाय दूर, दूर, दूर...”