गौरैया / रवीन्द्र कालिया / पृष्ठ 2
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देर रात तक दोनों गायब रहीं। मैं कुछ ऐसे परेशान हो रहा था जैसे पत्नी और बेटी घर से गायब हों। गौरैया की आवारागर्दी का तो मुझे एक रोज़ पहले ही आभास हो चुका था, उस नन्हीं गौरैया के व्यवहार से मैं बहुत क्षुब्ध था, जिसे पैदा हुए अभी जुम्मा–जुम्मा चार दिन भी न हुए थे।
'इसी को कहते हैं, पर निकलना। नए–नए पर निकले हैं न, इसी का गुमान है।' मैंने मन ही मन कहा। बाहर जाकर फिसड्डी गौरैया की भी खबर नहीं ली। गौरैया के पूरे खानदान से मेरी अनबन हो गई थी।
सुबह तक फिसड्डी गौरैया के भी पंख निकल आए थे। वह अपने अकेलेपन से एकदम अनभिज्ञ थी, बल्कि लग रहा था अपने अकेलेपन से प्रसन्न है। वह बार–बार घोंसले से उतरती और रबर के चौड़े पत्ते पर बैठने की कोशिश करती, मगर ज्योंही पत्ते पर बैठती, पत्ता झुक जाता और वह फिसल जाती। हर बार वह गिरते–गिरते रह जाती। कुछ देर घोंसले में विश्राम करती और दुबारा इसी खेल में लग जाती।
'मूर्खा, पत्ते पर नहीं, डाल पर बैठो।' मैंने उससे कहा। उसने मेरा परामर्श नहीं माना और फिसलने का अपना खेल जारी रखा। दोपहर तक वह गमलों के बीच फुदकने लगीं।
'लगता है इसके भी पर निकल आए हैं।' मैंने कहा।
वह जिस प्रकार निश्चिंततापूर्वक नीचे गमलों के बीच चहलकदमी कर रही थी, मुझे लगा, इसे बिल्ली का शिकार बनते देर न लगेगी। मैं देर तक उसकी रखवाली करता रहा। न उसे अपनी चिन्ता थी, न माँ–बहन को उसकी चिन्ता। इन चिड़ियों को मुफ्त का चौकीदार जो मिल गया था। मैं बुदबुदाया। जब तक वह घोंसले में नहीं लौट गई, मैं बगिया में बैठा रहा। मन ही मन मैंने तय कर लिया था, इन चिड़ियों पर और समय नष्ट नहीं करूँगा। नादानी और बेवफाई इनकी रग रग में भरी है। पहले ये अपनी आवाज़ से रिझाती हैं, हरकतों से सम्मोहित करती हैं, उसके बाद पर निकलते ही बेवफाई पर आमादा हो जाती है। मैंने तय किया आज दोपहर को बाहर नहीं जाऊँगा।
शाम को हस्बेमामूल जब मैं निकला तो देखा, घोंसला खाली पड़ा था। उसमें चिरई का पूत भी नहीं था। मैंने तमाम पेड़–पौधों पर नज़र दौड़ाई, पत्ता, बूटा बूटा छान मारा, गौरैया परिवार का नाम निशान नहीं था। मुझे ज्यादा आघात नहीं लगा, क्योंकि मैं मानसिक रूप से अपने को तैयार कर चुका था कि यह अन्तिम गौरैया भी मुझे धता बताकर गायब होने वाली है। मैंने राहत की सांस ली और फूलों पर मंडराती तितलियों का नृत्य देखने लगा। बीच–बीच में मैं गमलों के बीच भी निगाह दौड़ा लेता कि कहीं कोई गौरैया मुझसे लुकाछिपी न खेल रही हो। थोड़ी देर बाद मेरी दृष्टि मंदिर के कलश पर पड़ी तो मैं देखता रह गया। गौरैया का पूरा परिवार वहाँ बैठा था – निर्द्वंद्व! निश्चिन्त! प्रसन्न। थोड़ी थोड़ी देर में उनकी चोंच–से–चोंच मिलती और अलग हो जाती। उनकी आजादी से मुझे ईर्ष्या हो रही थी। तीनों अत्यंत मौज मस्ती में वहाँ बैठी पिकनिक मनाती रहीं।
पत्नी पास से गुजरी तो मैंने उसे रोक लिया, 'वह देखो, छोटा परिवार सुखी परिवार। तीनों आजाद पंछी की तरह इत्मीनान से मंदिर के कलश पर बैठी हैं।'
'कितना अच्छा लग रहा है, तीनों को एक साथ देखकर।' 'जानती हो, मंदिर के कलश पर क्यों बैठी हैं?' क्यों बैठी हैं?'
'क्योंकि इन्होंने एक हिन्दू के घर जन्म लिया है। कुछ संस्कार जन्मजात होते हैं। यह अकारण नहीं है कि विश्राम के लिए इन्होंने मन्दिर को चुना है।'
'फितूर भर लिया है तुम्हारे दिमाग में।' पत्नी बिफर गई, 'अभी थोड़ी देर पहले मैंने देखा था, तीनों मस्जिद के गुम्बद पर बैठी थीं। अज़ान के स्वर उठे तो मन्दिर पर जा बैठीं। लाउड–स्पीकर का कमाल है यह।'
मैं निरूत्तर हो गया। मन्दिर में आरती शुरू हुई तो तीनों अलग अलग दिशा में उड़ गईं। थोड़ी देर बाद तीनों बगिया में उतर आईं। उस दिन से आज दिन तक उन्होंने घोंसले की तरफ मुड़कर भी न देखा था।
बहरहाल, गौरैया मुझे भूली नहीं। दिन में एक–दो बार बगिया में दिखाई दे जातीं, कभी एक और कभी तीनों। मैं अक्सर सोचता हूँ, क्या जन्मभूमि का आकर्षण खींच लाता है इन्हें यहाँ? जन्मभूमि नाम से ही मुझे दहशत होने लगी। मगर मुझे विश्वास है, यहाँ फसाद की कोई आशंका नहीं हैं, क्योंकि यहाँ एक चिड़िया ने जन्म लिया था, भगवान ने नहीं।
(समाप्त)
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