ग्रामीण सर्वहारा जागरण / महारुद्र का महातांडव / सहजानन्द सरस्वती
राष्ट्रीय महाभारत का पाँचवाँ पर्व किसान सभा प्रभृति की शक्ल में क्रांतिकारी शक्तियों का यह प्रादुर्भाव ही है। नियमानुसार ये शक्तियाँ बाबुओं की प्रतिगामी शक्तियों के साथ घोर-संघर्ष करती हुई आगे बढ़ती ही जा रही हैं। यदि माता की उत्तराधिकारिणी पुत्री या पिता का उत्तराधिकारी पुत्र होता ही है , तो कांग्रेस और उसके जनांदोलन से उत्पन्न किसान-आंदोलन तथा किसान सभा प्रभृति को अनिवार्य रूप से कांग्रेस का उत्तराधिकारी बनके उसकी गद्दी है। इसे कोई शक्ति रोक नहीं सकती। तभी वास्तविक राष्ट्रीय आजादी की स्थापना भी होगी।
महाभारत का पंचमपर्व 1949 तक ही पूरा हो गया। 1927-28 से शुरू हो कर प्राय: पंद्रह साल तक किसान-आंदोलन सर्वाधिक शोषित-पीड़ित किसान जनता के उच्च-स्तर तक ही सीमित था। फलत: यह भी एक प्रकार से मध्यमवर्गीय आंदोलन ही था। खाते-पीते या साधारण किसान ही इसमें अधिकांश भाग लेते थे और यही स्वाभाविक भी था। मगर 1942 के बाद तो किसान सभा में गाँवों के एक प्रकार के सर्वहारा लोग ही प्रधानत: आने लगे। अब वहाँ उन्हीं की प्रधानता पाई जाती है , उन्हीं की आवाज सुनी जाती है और यही छठा पर्व है और यही अंतिम भी होना चाहिए , अंतिम है। समाज के सबसे ऊपर के तबके या स्तर से शुरू कर के आजादी की यह आग , उसकी यह लगन और तन्मूलक जागरण धीरे-धीरे सबसे नीचे के स्तर में घुस रहा है और घुस गया है। उनके भीतर बेकली पहुँच चुकी है। गाँवों के अर्ध सर्वहारा जाग रहे और अपने हकों तथा कर्तव्यों को , तत्संबंधी कर्तव्यों को पहचान रहे हैं , पहचान चुके हैं। शहरों और कारखानों के पूर्ण सर्वहारा लोगों के साथ उनका सम्मिलित-सम्मेलन होना अभी बहुत हद तक बाकी है। उसमें थोड़ा समय लग सकता है। हो सकता है , 15 वर्ष की अवधि इसमें भी लगे , जिसमें छह-सात साल तो गुजर चुके हैं। उतने ही वर्ष , संभव है , और लगें और 1957 का समय इसे पूरा होने में आ जाए। ठीक है , 1757, 1857 और 1957 अपना महत्व इस संबंध में रखते भी हैं। वह सम्मेलन पूर्ण हुआ और बेड़ा पार।