ग्राम्य-जीवन / बालकृष्ण भट्ट
मनुष्य के लिये ग्राम-जीवन मानो प्रकृति देवी की शुद्ध प्राकृतिक अवस्था का आदर्श स्वरूप है। अर्थात (नेचर) प्रकृति के साथ (आर्ट) बनावट ने जब तक बिलकुल छेड़-छाड़ नहीं किया उस दशा में प्रकृति देवी का कैसा स्वरूप रहता है ग्राम्य-जीवन में यह हमारे सामने आइना-सा रख दिया गया है। अपने लेखों में हम इसे कई बार सिद्ध कर चुके हैं कि हमारे प्राचीन आर्य प्रकृति के बड़े भक्त थे, वे प्रकृति के स्वाभाविक रूप को अपनी हिकमत अमली के द्वारा कुरूप या उसे बदलना नहीं चाहते थे। इस आधुनिक पश्चिमी सभ्यता से उनकी पुरानी सभ्यता बिलकुल निराले ढंग की थी। यह हम कभी न मानेंगे कि यूरोप के बड़े नामी विद्धान दार्शनिक और वैज्ञानिकों की भाँति भाप और बिजली तथा अनेक रासायनिक परिवर्तन में क्या-क्या शक्तियाँ हैं, जिन्हें काम में लाय मिट्टी का पुतला आदमी कहाँ तक तरक्की कर सकता है, जिस तरक्की को साधारण बुद्धि वाले हम लोग दैवी शक्ति या दैवी घटना कहेंगे उन पुराने आर्यों को न सूझी हो। किन्तु उन्होंने जानबूझ इसे बरकाया कि ऐसा होने से हमारी मानवीय प्रकृति (पाल्यूटेड) दूषित हो प्रत्यवाय में जितना उस प्राकृतिक परिवर्तन से लाभ उठाने की संभावना हम रखते हैं उससे दो चंद हमारी हानि प्रत्यक्ष है।
हमारी मंद बुद्धि में कुछ ऐसा ही स्थिर हो गया है कि वह प्लेग, हैजा, चेचक आदि का भयंकर उपद्रव जो प्रतिवर्ष किसी-न-किसी रूप में नदी के प्रवाह के समान फैल देश के देश को उजाड़ डालता है, दूसरे जलवायु की स्वच्छता और शुद्धता संकुचित होती जाती है, यह सब उसी के छेड़ने का परिणाम है। बड़े-बड़े शहरों की घनी बस्ती के दूषित जलवायु का बुरा असर जो भाँति-भाँति के रोग पैदा करने का मानो चश्मा या प्रसव भूमि है हमारे दृढ़ांग देहाती उससे सर्वथा बचे रहते हैं। म्यूनिसिपैलिटी की असह वेदना कैसे सहना होता है कभी उन्होंने जाना ही नहीं।
विष या स्वाद में पगे हुए ऐयाशी करते-करते पीले आम-से जर्द, जिनके तन की तन्दुरुस्ती हरियाली को तरुनी-वार-विलासिनी हरिनी बन चर गई, ऐसे इन नगर निवासियों को हमारी ग्रामीण मंडली सुचित बैठ अपनी घरेलू बातचीत में डाँट उड़ाते हुए कहकहे मार रही थी कि अचानक कोई शहर का रहने वाला कपट नाटक की प्रस्तावना सदृश शहरीयत के बर्ताव से ऊबा हुआ वहाँ पहुँच बोला - क्यों भइया आप लोगों ने कौन-सी ऐसी तपस्या किस पुण्य भूमि में कर रखा है जो विषय लंपट, मदोंमत्त, नगर के नामी धनियों का मुख तुम्हें नहीं देखना पड़ता। न जाहिरदारी और गर्व में सने उनके वचन तुम्हें सुनना पड़ता है। न हमारे समान तुम उनकी प्रत्याशा में दौड़ा करते हो, शांत चित्त दिन भर मेहनत करने के उपरांत समय से जो कुछ मिला भोजन कर टाँग फैलाय सुख की नींद सोये न ऊधो के देने न माधों के लेने, तनजेब, आबरोवाँ से तम्हें कोई सरोकार नहीं। गाजीगाढ़ा जो कुछ अपने देश में निज की मेहनत से तैयार कर सके उसे जब तुम पहनते हो तब विलायत के नये फैशन के चटकीले कपड़े तुम्हें फीके जँचते हैं। ऐसी ही लीपी-पोती, झक्क, साफ और सुथरी, निर्मल स्वच्छ वायु का निर्गम जहाँ कहीं से प्रतिहत नहीं है, फूल की छाई तुम्हारी झोपड़ी तुम्हें वह सुख देती है जो हवा से बात करते भ्रमंलिह गगनस्पृक् किंतु शहर की गंदी मैली दुर्वायु दूषित अमीरों के सतखंडे महलों में दुर्लभ है। शहर की गंदी गलियों की दुर्गंध तुम्हारे नासारंध्र में काहे को कभी प्रवेश पाया होगा। भाई तुम धन्य हो। अनेक चिंता जर्जरित बड़े से बड़े प्रभुवरों और राजा महाराजों को कीमती दस्तरखान और उम्दा लजीज जियाफतों में कदाचित् वह स्वाद न मिलता होगा जो तुम्हें टटके ताजे घी, खेत के तुरंत के कटे ज्वार बाजरे, जव और बेर्रे की ताजी रोटी में मिलता है।
कहा भी है-
"तरुणं सर्शपाशाको नवनीत घृतं पिच्छलानि दधीनि।
अल्पव्ययेन सुंदरि ग्रामीण जनो मिष्ट मश्नाति।"
हरा-भरा सरसों का साग तुरंत का मथा मक्खन, हींग और जीरा में बघारी हुई भैंस की पनीली दही से जैसा गाँव के रहने वालों को मधुर स्वादिष्ट भोजन सब भाँति सुगम है वैसा नगर के धनियों को भी बहुत-सा खर्च करने पर मयस्सर नहीं है। इससे भैया तुम्हारा जीवन सफल है। संसार का सच्चा सुख तुम्हारे ही बाट में आ पड़ा है। नई सभ्यता का नाम तक आपने न सुना होगा? न नई सभ्यता का विपाक, प्लेग और हैजा के कारण खानाबदोशों की भाँति घर छोड़ दर-दर तुम घूमते फिरे होगे? यमराज सहोदर कोट पैंट-धारी डाक्टरों का मुख भी आप को कभी देखना नहीं पड़ता। मलेरिया ज्वरजनित पीड़ा निवारणार्थ कुनइन कभी तुम्हें नहीं ढूँढना पड़ता। न हर महीने दवा खाने की बिल आपको अदा करना पड़ता है। टटके स्वच्छ खाद्य वा पेय-पदार्थों का भोग पहले आप लगा लेते हो तब महीनों के उपरांत नीरस पदार्थ हमें मिलते हैं। हे अग्ररस भोक्ता तुम्हें नमस्कार है। गौरांग महा प्रभुओं का कभी साल भर में भी एक बार तुम्हें मुख नहीं देखना पड़ता । हम नित्य उनका चपेटाघात सहा करते हैं। हे अन्नपूर्णा देवी के अनन्य भक्त, हे शांति के सहकारी जन, हे स्वास्थ्य के सहोदर, आप न होते तो महामारी के विकराल अजगर के मुख से हमें कौन छुड़ा लाता। तुम्हारी ग्राम्य युवतियों की स्वाभाविक लज्जा नागरिक ललनाओं के बनावटी परदों में कहीं ढूँढने पर मिले या न मिले। तुम्हारी समग्र संपत्ति का सार भूत पदार्थ गोधन अर्थात् गाय, बैल, भैंस, छेरी, भेड़ी इत्यादि है। गोधन-संपन्न किसान छोटे-मोटे जमींदारों को भी कुछ माल नहीं समझता।
कवि-कुल-मुकुट भट्टि ने भी लिखा है-
"वियोगदु:खानुभवानभिज्ञै: काले नृपाशं विहितं ददद्भि:।
अहार्यशोभार हितैरमायैरैक्षिष्ठ पुंभि: प्रचितांसगोष्ठान्।।
स्त्री भूषणं चेष्टितमप्रगल्भं चारुण्यवक्राण्यभिवीक्षितानि।
ऋजूंश्चविश्वासकृत: स्वभावान् गोपांगना नां मुमुदे विलोक्य।।
विवृत्तपार्श्व रुचिरांगहारं समुद्वहच्च्यामुनितंजबविंबम्।
आमंद्र मन्थध्वनिदत्ततालं गोपांगनानृत्यमनन्दयत्तम्।।
श्री रामचंद्र विश्वामित्र के साथ धनुष-यज्ञ में जाते समय मार्ग में जो ग्राम देखे हैं उन्हीं के वर्णन में ये श्लोक हैं। भारवि और माघ ने कहीं-कहीं ग्राम्य शोभा का वर्णन किया है पर भट्टि का यह वर्णन सर्वोत्कृष्ट और बहुत ही प्राकृतिक है।