ग्राम्य जीवन का यह कैमरामैन / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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जिस चित्रकार की तूलिका कल्पना की अनुगामिनी होगी, वही कलाकार हर रेखा, रेखाओं के उभार से जीवन्त कलाकृति रच सकता है। कैमरामैन एक क्लिक से सुन्दर दृश्याकृति को बाँध लेता है। एक सफल हाइकुकार वह है, जो अपनी कल्पना एवं दृश्य पर टिकी दृष्टि को तदनुरूप शब्दों से चित्रित करता है। डॉ भीकम सिंह वही हाइकुकार है, जिसके पास चित्रकार की कल्पना, कैमरामैन की सटीक दृश्य को क्लिक करने की सूझबूझ और कवि के शब्द-चित्रांकन की क्षमता मौजूद है। ग्राम्य जीवन का यह कैमरामैन भाव-विचार और कल्पना की त्रिवेणी में स्नात शब्दों को मन्त्रपूत करके गाँव के शब्दचित्र खींचता चलता है। कल्पना के लिए यह मन-मस्तिष्क पर ज़ोर नहीं देता, भाषा के लिए मशक्कत नहीं करता, बल्कि यह इनका सहजात गुण है। ओलों का हँसना फसलों के लिए कितना जानलेवा है उसका अनुमान कण्ठ में फँसे बयान से लगाया जा सकता है-

ओले जो हँसे / फसलों के बयान / कंठ में फँसे। (1)

किसान समय की मार को अपनी नष्ट होती फसलों के रूप में देखता आया है। दूब उसकी सबसे बड़ी साक्षी है। कहते हैं कि अकाल में भी दूब नष्ट नहीं होती है। यही वह शक्ति है जो दुर्भिक्ष में भी किसान की आस्था को बचाए रखती है-

दूब ने देखे / बैठ के सिरहाने / कई ज़माने। (9)

भीकम सिंह शब्दों के नब्ज़िया हकीम हैं। अर्थ की धड़कन नापने के लिए शब्दों को छूकर अहसास करा देते हैं। तन्हाई अटेरना, मेघ का मुकरना की गहन अर्थ-व्यंजना के साथ गल्ला मण्डी में तुला के डोरे टूटना गहरा कटाक्ष है-

सूत-कपास / तन्हाई अटेरती / काकी उदास। (13)

मेघ मुकरा / खेतों के हृदय में / दंश उभरा। (14)

गल्ला मंडी में / तुला के डोरे टूटे / गड़े हैं खूँटे। (28)

शहरीकरण आपपास के गाँव की ज़मीन को घेरता जा रहा है। ऊँचे दामों पर गाँवों की ज़मीन बिक रही है, तो उससे बिचौलिए मालामाल हो रहे हैं। उधर गरीबी प्रश्न कुटुम्ब को सबसे अधिक झुलसाता है-

शहर बढ़े / अगवानी में गाँव / खेत ले खड़े। (38)

मिट्टी का चूल्हा / प्रश्नों की आग झहे / कुटुंब सहे। (49)

जिस कोल्हू में गुड़ बनता है, खोई सुखाई जाती है, तो उसकी खोई भी विशेष गन्ध में धुली हुई होती है-

गन्ने की खोई / गुड़ कोल्हू सुखाता / गंध में धोई। (54)

कोलतारी सड़कों ने कैसे स्वप्नों को भटकाया! खेतों में घुसने का आशय है कि सड़क का अस्तित्व बनाए रखने के लिए खेतों की बलि दे दी गई-

खेतों में घुसी / कोलतारी सड़कें / स्वप्न भटके। (55)

बिटोड़े की गाँव के कूबड़ के दृश्य बिम्ब में प्रस्तुति अद्भुत है। हाइकु में इसी सूक्ष्म पर्यवेक्षण दृष्टि का होना ज़रूरी है। शब्दों की दरिद्रता हाइकु कवि को विशिष्ट नहीं बना सकती-

बिटोड़े उगे / गाँवों का कूबड़ ज्यों / भादों से दिखे। (57)

यदि ईंधन गीला होगा, तो माँ ऐसे अन्धे चूल्हे में धौंकनी से आग को फूँककर प्रज्वलित करने में कितना प्रयास करती है। उस फूँकने में भी जीवन-राग है-रोटी के सेंकने का। चूल्हे को अन्धा इसलिए कहा कि चूल्हे के धुँए में माँ की आँखें अन्धेपन का शिकार हो सकती हैं। चूल्हे के अन्धेपन का यह चित्र विशेषण विपर्यय का उत्कृष्ट उदाहरण है-

फूँकती है माँ / अंधे चूल्हे में आग / छेड़ते राग। (59)

भीकम सिंह शब्द -प्रयोग करते हुए भी चित्र खींचते चलते हैं। गन्ने के कल्ले निकलने का चित्रण बहुत चित्ताकर्षक हैं-

निकले कल्ले / खेत की हथेली पे / गन्ने के बल्ले। (77)

गाँव तक गैस पहुँची, तो लिपे-पुते चूल्हे भुला दिए गए-

गाँव के चूल्हे / गैस के इर्द-गिर्द / लीप के भूले। (97)

क्या इसका अर्थ इतना है? कदापि नहीं। लिपे-पुते चूल्हे भुला दिए जाने का अर्थ है-रोटी की वह मिठास भी चली गई, जो चूल्हे के भीतर सेंकने और गुब्बारे की तरह फुलाने में मिलती थी। चूल्हे पर मिट्टी की हँडिया में धीमी-धीमी आँच में जो दाल पकती थी या कण्डों (उपलों) की धीमी आँच में जो कढ़ी बनती थी, वह भी बीते दिनों की बात हो गई।

गाँव में बढ़ई, लुहार, धुनिया, जुलाहा, कुम्हार सभी अपने-अपने काम से गुज़ारा कर लेते थे। आज गाँव के ये हस्तशिल्प गुम हो गए। खेती का मशीनों पर निर्भर होना भी एक कारण है-

जाल-पूरते / गाँव के हस्त शिल्प / बैठे घूरते। (103)

नगरों के विस्तार ने गाँवों के जीवन को बाधित किया है। वे न तो शहरी बन पाए, न गाँव का सौन्दर्य ही बचा पाए। शहर के तन्त्र से जूझना उनकी नियति बन गई है-

शहरी गाँव / योजना के विरुद्ध / करते युद्ध। (107)

गाँव आ गए / शहरों के रस्ते में / कटे सस्ते में। (127)

अर्थात् सस्ते में किसान के खेत खरीदकर गगनचुम्बी भवन बनाकर करोड़ों रुपये कमाने वाले धनपशु प्रभावी हो गए। यह लड़ाई वैसी ही है, जैसे काँधों पर पानी के घड़े लादकर लड़ना अर्थात् संघर्ष में घड़ों का फूटना या किसानों का हारना तय है-

किसान लडें / कंधों पर लादके / पानी के घड़े। (121)

इन हाइकु में गाँव की व्यथा भरी है। कवि को गाँवों का आकर्षण उल्लसित करता है, कभी व्यथित करता है। उसने पंचों से भरी चौपाल पर व्यंग्य भी करता है-

चौपाल कैसे / पंचों से भर गई / ज्यों गाय-भैंसे। (111)

जुताई के बाद बनी पतली नाली यानी खूड़ (कूँड) का लू में तपने का चित्रण देखिए-

खूडों की पंक्ति / करवटें ले रही / लू में तपती। (114)

नून-तेल के जुगाड़ ने गाँवों को थका दिया है। वे धूल फाँकते गाँव थककर हाँफने लगे हैं

नून-तेल में / धूल धुआँ फाँकते / गाँव हाँफते। (122)

इसका कारण है खेत की जमीन का बँटवारे के कारण कम होते जाना-

कटा समूचा / खेत बँटवारे में / दर्द अनूठा। (138)

अब गाँव के नाम पर केवल 'बूढ़ी चौपालें' बची हैं, जिसका लाक्षणिक अर्थ है कि गाँव में केवल बूढ़े बचे हैं। युवा पीढ़ी गाँव छोड़कर जा चुकी है। यह आज के गाँव की नियति बन गई है-

बूढ़ी चौपालें / बस पंच पड़े हैं / खटिया डाले। (144)

खेत में जुताई का काम ट्रैक्टरों के हवाले हो गया है। अब न बैल हैं, न हल और न बैलों के काँधे पर बँधने वाला जुआ। प्रगति के नाम पर टूटी सड़कें गाँव के हिस्से में आई हैं-

खेत से बैल / दूर का रिश्ता हुआ / ताख पर जुआ। (130)

भाषा के सम्बन्ध में एक बात महत्त्वपूर्ण है कि कवि हर समय कैमरे से लैस रहता है। ज़रा गुप्तचर सियार का एक बिम्ब भी देखते चलें। इस तरह का चित्रण हाइकु में दुर्लभ है-

गुप्तचर-सा / ईख में है सियार / झाँके बाहर। (74)

मैं आशा करता हूँ कि हम अपनी क्षेत्रीय भाषाओं और बोलियों को जिन्दा रखने के लिए सजग हो जाएँ, अन्यथा अपनी सांस्कृतिक विरासत का मूल भाषा-स्रोत खो देंगे।

भीकम सिंह के हाइकु में उस गाँव के खो जाने की व्यथा है, जहाँ ठहाकों से भरी चौपालें हुआ करती थीं। किस्से कहानियों का रस बरसता था। कवि ने जिस गाँव को अपनी आत्मा में जिया है, उसे सफलतापूर्व 'सिवानों पे गाँव' में चित्रित किया है। गाँव पर केन्द्रित हाइकु का यह संग्रह हाइकु-जगत् में मील का पत्थर साबित होगा।

सिवानों पे गाँव: ( हाइकु-संग्रह): डॉ.भीकम सिंह, पृष्ठ: 116, मूल्य: 260रुपये (सजिल्द), प्रथम संस्करण:2021, प्रकाशक: अयन प्रकाशन-जे-19/39, राजापुरी, उत्तम नगर, नई दिल्ली-110059

-0- 3 सितम्बर 2021