ग्राम आक्या का पेड़ बचाओ आंदोलन / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 19 जनवरी 2021
भारत में सबसे स्वच्छ नगर का खिताब जीतने वाले नगर इंदौर से मात्र कुछ मील दूर बसे आक्या ग्राम के किसान 30 वृक्षों को बचाने के लिए 8 महीने से संघर्ष कर रहे हैं। एनएच 59ए मार्ग बनाते समय इन वृक्षों को काटने का निर्णय सड़क बनाने के लिए नियुक्त ठेकेदार ने लिया था। किसानों का कहना है कि एक छोटा सा मोड़ देने पर मार्ग बन सकता है और वृक्ष भी बच सकते हैं। आजकल व्यवस्थाएं अपने गैर व्यवहारिक अड़ियलपन को अपनी सख्ती मानती हैं। क्या अजब दौर है कि देश के सारे किसान संघर्ष कर रहे हैं। बहरी व्यवस्था का बुल्डोज़र रौंदने के लिए संकेत का इंतजार कर रहा है। एक कविता का अंश है, ‘इस शहर के अंदाज़ निराले हैं, होठों पर लतीफे और आवाज़ में घाले हैं।’
आक्या गांव के किसानों का कहना है कि नीम के वृक्ष उनके दादाओं ने लगाए थे। इन वृक्षों को काटने का अर्थ है उनके दादाओं की आत्मा को रौंदना। वृक्षों को काटने को हत्या जैसा अपराध मानकर अदालत में मुकदमा होना चाहिए। सारे क्षेत्रों में ऐसे मोहरे बैठाए गए हैं कि उनकी आंख पर काली पट्टी बंधी है। वृक्ष की पूजा की जाती है, उनके तनों पर धागा बांधकर मन्नत मानी जाती है। कहा जाता है कि कुंडली में सर्प दोष होने पर युवा के विवाह के पश्चात मृत्यु का योग हटाने के लिए उसका पहला विवाह वृक्ष से किया जाता है ताकि सर्प दोष से वृक्ष मर जाए और युवा का विवाह किया जा सके। वृक्ष पर कुल्हाड़ी द्वारा प्रहार करने पर वृक्ष से द्रव्य बहता है जो दरअसल वृक्ष का रक्त है। इसे वृक्ष का आंसू भी कह सकते हैं। वृक्ष पर फल आने को वृक्ष की मुस्कान माना जा सकता है। मनुष्य वृक्ष की मुस्कान खा जाता है। उसके आंसू पी जाता है। भूख है कि मिटती नहीं, प्यास है कि कम नहीं होती। दरअसल हमने संवेदना ही खो दी है। देश में चल रहे किसान आंदोलन पर अवाम की आंखों में नमी तक नहीं है। अब हम शर्मसार नहीं होते। एक दौर में वृक्ष बचाने के लिए चिपको आंदोलन हुआ था। वृक्ष काटने आए लोग लौट जाते थे क्योंकि किसान वृक्ष से चिपक जाते थे। आज ऐसा करें तो वृक्ष काटने के लिए आया अधिकारी चिपकने वालों को ही काट देगा।
कहते हैं कि वृक्ष पर यक्ष का वास होता है। वृक्ष काटने से यक्ष का निवास स्थान नष्ट हो जाता है। यह बेचारे बिना घर बार के आवारा हो जाएंगे। व्यवस्था मुतमईन है कि यक्ष को मताधिकार नहीं है। अतः उसका कोई मोल नहीं। सरकारें और समाज की सेवा करने वाली संस्थाएं नए रोपे हुए पौधों के गिर्द लोहे का ट्री-गार्ड लगा देते हैं। लोग लोहे का ट्री-गार्ड उखाड़ कर उसे भी बेच आते हैं। लोहे के दाम मिलते हैं। खबर है कि समय-समय पर रेल विभाग पुरानी लाइन के लोहे को बदल देते हैं ताकि ट्रेन दुर्घटना न हो। इस तरह निकाला हुआ लोहा कौन बेचता है और पैसा सरकारी खजाने में जमा किया जाता है या नहीं इस घपले की कभी जांच नहीं होती। यह एक तरह से अच्छी बात है क्योंकि घपलों पर बैठाई गई जांच कमेटी की कोई रपट कभी प्रकाशित ही नहीं की गई। विगत समय में विभिन्न कमेटियों की रपटों से एक कागज़ी पहाड़ खड़ा किया जा सकता है। हिमालय पर चढ़ जाने वाले लोग भी इस पहाड़ पर चढ़ नहीं पाएंगे। इन कागज़ी पहाड़ों पर शाम का डेरा है। श्रवण गर्ग की कविता है, ‘वह जो पहाड़ खड़ा किया था तुमने पत्थर के टुकड़ों को अपनी लगातार जख्मी होती हुई पीठ पर, आज भी वैसा ही खड़ा है कुछ नहीं बदला, बादलों का टुकड़ा जो तुम्हारे फटे हुए छाते के जैसा दिखता था, आज भी आकाश में वैसा ही लटका हुआ है। हर युग में ऐसा ही होता है कि हर पुत्र ढूंढता रहता है पिता को अपने जीवन भर और पाता है अंत में अपने ही पुत्र में।’ आज पंजाब और इंदौर के निकट ग्राम आक्या के किसान संघर्ष कर रहे हैं, उनके पुत्र भी इस असमान युद्ध में खप जाएंगे क्योंकि अहंकार के पहाड़ पर कैसे कोई विजय पा सकता है?