ग्रीक पुराण कथाओं की भूमिका / कमल नसीम
प्रत्येक देश और काल का अपना एक सत्य होता है। समय बीतता है, स्थितियाँ बदलती हैं, सन्दर्भ बदल जाते हैं। युक्ति और बुद्धि की तुला पर पुराकथाएँ आज भले ही पूरी न हों किन्तु उनके सहज सौन्दर्य, कोमल कल्पना और तात्कालिक मानव-समाज द्वारा उनकी सहज स्वीकृति को झुठलाया नहीं जा सकता। ये कथाएँ निर्मल दर्पण हैं उस पुरातन मानव-मन की जो जीवन के तमाम तनावों और सुविधाओं से मुक्त, वन-पर्वतों पर स्वच्छन्द विचरता है, जिसकी आँखें उगते सूरज, बरसते पानी और कड़कती बिजली को देखकर कौतूहल से भर जाती थीं और जिसका मन, धर्म और दर्शन के पूर्वाग्रहों से स्वतन्त्र सोचने लगता था, यह धरती किसने बनायी? यह पानी कैसे बरसा? उजाला कैसे हुआ? फूल किसने खिलाये। जिज्ञासा की कोई भौगोलिक सीमा नहीं होती। भारत और मिस्र की भाँति ग्रीस और रोम में पुराण-कथाओं को इस जिज्ञासा ने ही अखण्ड यौवन और अनन्त जीवन का वरदान दिया है। श्रीमन रोज़ के शब्दों में कहें तो उनके ‘विज्ञान और कला’ ने, जो इन कथाओं में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है।
पानी बरसता है। यह एक प्राकृतिक घटना है। प्रश्न उठता है-पानी क्यों बरसता है? वैज्ञानिक उत्तर है - “वातावरण में अमुक दबावों के कारण।” पुराण-कथाएँ कहती हैं, ‘ज़्यूस आकाश से पानी गिरा रहा है’, ‘इन्द्र की कृपा है’, ‘येहोवा ने अन्तरिक्ष की खिड़की खोल दी है’ अथवा ‘फ़रिश्तों ने आकाश में स्थित एक बहुत बड़े छेदों वाले टब में पानी भर दिया है।’ आज के वैज्ञानिक युग में, यह जानते हुए भी कि दिन और रात पृथ्वी की परिक्रमा के कारण हैं, न कि सूर्य की गति से, हम यही कहते हैं कि सूरज पूरब से ‘निकलता है’ पश्चिम में ‘डूबता’ है। क्या यह प्राचीन मानव के उसी विश्वास की प्रतिध्वनि नहीं है कि देवता प्रतिदिन प्रातःकाल अपने अलौकिक अश्वों से जुते रथ में बैठकर पूर्व से निकलता है और चार पहर की आकाश-यात्रा से थककर सन्ध्या समय स्नान के लिए समुद्र में उतर जाता है।
ऑक्सफोर्ड क्लासिकल डिक्शनरी ने पुराण-कथा (मिथ) की परिभाषा हुए देते लिखा है :
“इसकी परिभाषा विज्ञान के अभ्युदय से पूर्व के एक ऐसे कल्पनाशील प्रयास के रूप में की जा सकती है जो किसी घटित अथवा सम्भावित घटना की व्याख्या के लिए पुराख्यान-रचना के कौतूहल को उद्दीप्त करता है। ऐसी घटनाओं से मन में पैदा हुए विकल सम्भ्रम से निकलकर सन्तोष की स्थिति में पहुँचने का प्रयास ही इनके पीछे है।” और पुराकथा शास्त्र के विषय में :
“व्युत्पत्ति शास्त्र के अनुसार इस शब्द का अर्थ यद्यपि कथा कहना मात्र है किन्तु आधुनिक भाषाओं में इसका प्रयोग कुछ लोगों अथवा समस्त लोगों की परम्परागत कथाओं के व्यवस्थाबद्ध अध्ययन के लिए किया जाता है जिसका उद्देश्य यह समझना है कि ये कथाएँ किस तरह अस्तित्व में आयीं और किस सीमा तक उन पर विश्वास किया जाता था, या किया जाता है।”
पुराण-कथाएँ पुरातन मानव की सक्रिय कल्पना का प्रमाण हैं। यह मिथ की परिभाषा से स्पष्ट किया गया है किन्तु साथ ही देवकथा शास्त्र सम्बन्धी उपर्युक्त कथन उस शास्त्र के व्यवस्थाबद्ध अध्ययन की अपेक्षा करता है जहाँ केवल मिथ को जान लेना पर्याप्त नहीं, धर्म और दर्शन से उसके सम्बन्ध, प्रासंगिक, सामाजिक प्रचलनों एवं धार्मिक अनुष्ठानों की विवेचना, मिथ की उत्पत्ति, उसकी सागा और मार्येन (इसी प्रस्तावना में इन दोनों विधाओं पर भी कहा गया है) से तुलना भी अपेक्षित है। पुराण-कथाओं की उत्पत्ति एवं उनकी व्याख्या को लेकर विभिन्न विचारधाराएँ हैं जिन पर यहाँ संक्षेप में विचार किया जाएगा।
एक बहुत पुरानी और प्रचलित धारणा है कि ये पुराण-कथाएँ रूपकात्मक हैं और अपने सुन्दर झिलमिल आवरण में कोई ‘गहरा, सन्मार्ग निर्देश करने वाला अर्थ’ छिपाये हैं। इस तरह इन कथाओं का केवल एक वही अर्थ नहीं जो सतह पर दीखता है बल्कि इनके माध्यम से एक सुसम्बद्ध दर्शन को पाठकों तक पहुँचाने का प्रयास किया गया है। उदाहरणार्थ, क्यूपिड और साइके की प्रेमकथा महज एक मनोहारी कथा ही नहीं, एक रूपक भी है। क्यूपिड यहाँ अनन्त, अनश्वर प्रेम का प्रतीक है और साइके वह आत्मा जो माया के जाल में फँसकर दुख सहती है। दुखों से आत्मा का परिमार्जन होता है और वह प्रिय से मिलन के योग्य हो जाती है। हेडीज द्वारा पर्सीफ़नी का अपहरण केवल एक देवता की आसक्ति की कहानी ही नहीं, ज़्यूस द्वारा पर्सीफ़नी का चार माह मृत्युलोक और आठ माह पृथ्वी पर बिताने का निर्णय ऋतु परिवर्तन से जोड़ा जाता है। पृथ्वी पर पर्सीफ़नी की उपस्थिति से माँ डिमीटर हर्षाती है। सो फसलें लहलहाती हैं, फूल खिलते हैं। किन्तु पर्सीफ़नी के मृत्युलोक लौटते ही डिमीटर शोकमग्न हो जाती है, हरियाली अदृश्य हो जाती है और सारी पृथ्वी बर्फ की चादर से ढँक जाती है। रीछ द्वारा एडॉनिस की हत्या और उसका मृत्यु लोक से हर वर्ष ऐफ़्रॉडायटी के लिए पृथ्वी पर आना भी एक ऐसा ही रूपक है। इओ चाँद है और सौ आँखों वाला आगू सितारों से भरा आकाश, जो रात-भर उसे देखा करता है। सेलेस्टियस के अनुसार देवियों की सौन्दर्य-प्रतियोगिता में पेरिस आत्मा है और सेब समष्टि। प्रतियोगी देवियाँ लालच देकर पेरिस को अपने पक्ष में करना चाहती हैं। ऐफ्ऱॉडायटी उसे पृथ्वी की सुन्दरतम स्त्री, पत्नी के रूप में देने का वचन देती है। माया-मोह में फँसी आत्मा केवल इन्द्रियों से बाह्य जगत् का साक्षात्कार करती है और ऐफ्रॉडायटी को विजयी घोषित करती हुई सेब उसे दे देती है।
ग्रीक पुराण-कथाओं में से कुछ एक की व्याख्या रूपक अथवा अन्योक्ति के रूप में की गयी है किन्तु सभी आख्यानों पर कोई गूढ़ रहस्यात्मक अर्थ आरोपित करना मोतियों को छोड़ घोंघे तलाश करने जैसा होगा। इन कथाओं का सौन्दर्य उनकी सहजता में है। इनके माध्यम से हमारा साक्षात्कार उन देवताओं से है जो शक्ति में भले ही मानव से श्रेष्ठतर हैं किन्तु मूलतः रूप-गुण में मानव की ही प्रतिकृति हैं। वे भी प्रेम में अन्धे होकर उचित-अनुचित का विचार खो बैठते हैं और प्रिय को पाने के लिए भाँति-भाँति के रूप भरते हैं। इन प्रेमकथाओं में कहीं भी रूपकात्मकता नहीं। ये उनकी भावनाओं का सीधा-सादा चित्रण है। ज़्यूस-हेरा के प्रणय और विवाह-सम्बन्ध में कहीं कोई अन्योक्ति नहीं। देव-सम्राज्ञी होने पर भी हेरा किसी भी साधारण मानवी की भाँति अपने पति की कामुक-प्रकृति के प्रति शंकालु है। इसी प्रकार एरीज़, हेफ़ास्टस, हेमीज़, आर्टेमिस, हेस्टिया आदि प्रमुख दैवी शक्तियों के जीवन से सम्बद्ध किसी घटना का रूपक के रूप में विवेचन करना, निर्दोष पर बल-प्रयोग करने जैसा है।
एच.जे. रोज़ ने बड़े ही स्पष्ट शब्दों में इस धारणा को निराधार बताते हुए अपनी पुस्तक ‘ए हैण्ड बुक टू मायथॉलॉजी’ की प्रस्तावना में लिखा है कि इस मत को भले ही कुछ समय पूर्व मान्यता प्राप्त रही हो, किन्तु अपने ग्रीस और रोम के इतिहास के आज के ज्ञान के आधार पर हम निश्चित रूप से यह कह सकते हैं कि पुराख्यानों का सृजन करने वालों के पास ब्रह्माण्ड और उसकी दृश्य-अदृश्य शक्तियों से सम्बद्ध कोई व्यवस्थाबद्ध दर्शन नहीं था और न ही उनकी नैतिक चेतना इतनी विकसित थी। यदि वे कोई आधार दे पाते तो सदियों बाद आने वाले उनके महान दार्शनिकों को क-ख-ग से न आरम्भ करना पड़ता। वस्तुतः रूपक नाम की किसी रचनाविधा से उनका परिचय नहीं था। वे तो केवल अपने सन्तोष के लिए सृजन कर रहे थे और ये रचनाएँ शताब्दियों बाद के कवियों ने कलमबद्ध कीं। इस मत की लोकप्रियता का कारण बताते हुए रोज़ लिखते हैं कि ग्रीसवासियों में अपने पूर्वजों के लिए असीम श्रद्धा थी और सम्भवतः इसी कारण वे अपने अन्वेषणों का श्रेय भी उन्हें दे देते थे। रूपक ग्रीस में लोकप्रिय रहा है। देवस्थलों पर भविष्यवाणी भी बड़े श्लिष्ट शब्दों में की जाती थी। शायद इसी कारण एक वक्तव्य के कई अर्थ निकालने का रिवाज-सा चल पड़ा और हर आख्यान में एक से अधिक अर्थ देखने की कोशिश की जाने लगी।
पुराण-कथाओं की उत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रचलित एक अन्य मत यह है कि इन आख्यानों के नायक देवी-देवता किसी प्राचीन सम्राट्-सम्राज्ञी अथवा किसी वीर योद्धा का दैवीकरण हैं। ये यदि पूर्णतया नहीं तो पाक्षिक रूप से अवश्य ही ऐतिहासिक अथवा अर्ध-ऐतिहासिक व्यक्तित्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह धारणा अव्यवस्थित रूप में बहुत पहले से विद्यमान थी; किन्तु इसको सुसम्बद्ध रूप सिकन्दर महान् के कुछ ही समय बाद के यूमेरॉस ने दिया। उसके अनुसार ज़्यूस प्राचीन क्रीट का एक शक्तिशाली सम्राट् था। यूमेरॉस को पूर्णतया गलत नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि महान एवं प्रभुत्वशाली व्यक्तित्वों के दैवीकरण की प्रवृत्ति मनुष्य में सदा से रही है किन्तु जैसा कि श्रीमान रोज़ ने कहा है, मनुष्य के दैवीकरण के लिए मानव-मस्तिष्क में देवत्व की पूर्व-अवधारणा होना आवश्यक है। और फिर इस मत को भी कुछ एक आख्यानों पर ही लागू किया जा सकता है, सब पर नहीं। ट्रॉय के युद्ध का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य है, यह श्लीमन का प्रयास आज से सौ वर्ष पूर्व सिद्ध कर चुका है। ग्रीक सभ्यता के दीवाने इस जर्मन ने न कवेल ट्रॉय के नगर को खोद निकाला, बल्कि उससे भी सैकड़ों वर्ष पुरानी क्रीट की सभ्यता के अवशेष, मायनॉस के महल, ढेरों स्वर्णाभूषण और एक के ऊपर एक बसी नौ नगरियों को भूगर्भ से निकालकर संसार को आश्चर्य में डाल दिया। हेराक्लीज़ अवश्य ही प्राचीन ग्रीस का कोई अतुलनीय योद्धा रहा होगा। सम्भवतः ऑडिसियस जैसे नाम के किसी व्यक्ति ने समुद्र से एक बहुत लम्बी यात्रा की होगी। जिसके आधार पर होमर ने ‘ओडिसी’ महाकाव्य रचा।
संस्कृत के विद्वान श्री मैक्स मूलर के अनुसार पुराण-कथाओं का जन्म भौतिक शक्तियों के कल्पनाशील निरूपण से हुआ। आकाश का कोई देवता नहीं, आकाश ही देवता है। सूर्य का कोई देवता नहीं, सूर्य ही देवता है। इसी प्रकार नदी का देवता अथवा देवी स्वयं नदी है। इस प्रकार आदि मानव ने अपनी सीमित शब्दावली में प्राकृतिक शक्तियों का मानवीकरण किया। किन्तु यहाँ यह विचारणीय है कि ज़्यूस आकाश नहीं, आकाश उसका निवास है। पॉसायडन समुद्र नहीं, समुद्र उसका महल है। इसी तरह हेडीज़ भूगर्भ नहीं, भूगर्भ में उसका शासन है। अतः ये देवता प्राकृतिक शक्तियों का मानवीकरण नहीं माने जा सकते। और हम यह पहले कह चुके हैं कि भाषा के अलंकारों से आदि मानव का परिचय नहीं था। देव-जगत् के सृजन में उसकी बुद्धि की अपेक्षा कल्पना अधिक सक्रिय थी।
मानव-मन की कल्पना मनोविज्ञान का क्षेत्र है, अतः फ्रॉयड और युंग के शिष्यों ने भी इस आधार पर पुराण-कथाओं की उत्पत्ति पर प्रकाश डालने का प्रयास किया है। उनके अनुसार “पुराण-कथाएँ पूर्व-चेतन मन का मौलिक रहस्योद्घाटन हैं, अचेतन मन की घटनाओं का असंकल्पित वक्तव्य।” लेकिन ग्रीक पुराख्यानों में कुछ भी रहस्यात्मक और सन्दिग्ध नहीं। एक तरह की स्पष्टता ग्रीसवासियों का वैशिष्ट्य है। भावनाओं का दमन सिखाने वाले नैतिक मूल्य तक विकसित नहीं थे।
रॉबर्ट ग्रेव्ज़ ने ‘द ग्रीक मिथ्स’ की भूमिका में कहा है कि “सामूहिक पर्वों पर किये जाने वाले प्रहसन-अनुष्ठानों के आशुलिपि में प्राप्त वर्णनों को सच्ची पुराण-कथा (मिथ) के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। बहुधा इनको ही चित्रों के रूप में मन्दिरों की दीवारों, फूलदानों, कटोरों, आईनों, बक्सों, कवचों और चित्र-यवनिकाओं पर उतारा गया।” इस प्रकार ग्रेव्ज़ के अनुसार पुराण-कथाओं की उत्पत्ति उन सामूहिक अनुष्ठानों और नाटकीय प्रदर्शनों से हुई जो प्राचीन ग्रीस के निवासी समय-समय पर आयोजित करते थे। ग्रेव्ज़ यूरोप के इतिहास, धर्म, पुरातत्त्व, राजनीति एवं मानव-विज्ञान के गहन अध्ययन के बाद इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि सुदूर उत्तर और पूर्व से आर्यों के आने से पहले यूरोप में धार्मिक विचारों की एक समरूप प्रणाली थी और इसका आधार थी ‘बहुत-सी उपाधियों वाली मातृ-देवी’ की अर्चना, जो सीरिया और लीबिया में भी प्रचलित थी। “प्राचीन यूरोप में देवता नहीं थे। एक देवी थी जिसे अनादि, अपरिवर्तनशील और सर्वव्यापी माना जाता था और पितृत्व की अवधारणा का धर्म-प्रणाली में समावेश नहीं था। वह प्रेमी चुनती थी, केवल सुख के लिए, न कि अपने बच्चों को पिता देने के लिए। पुरुष मातृदेवी से भय खाते थे, उसकी आराधना करते थे, और उसकी आज्ञा का पालन करते थे। जिस अग्निकुण्ड की वह गुहा या घर में देखभाल करती थी वह उनका सर्वप्रथम समाज-केन्द्र था, और मातृत्व उनका गहनतम रहस्य। इसी कारण ग्रीस-वासी जब सामूहिक रूप से बलि देते तो पहली भेंट सदा अग्निकुण्ड की रक्षिका हेस्टिया को दी जाती।” इस सिद्धान्त के अनुसार चन्द्रमा और सूर्य मातृदेवी के प्रतीक मात्र थे। कालान्तर में चन्द्रमा को सूर्य से अधिक मान्यता दी जाने लगी क्योंकि वह अपने रात्रि से सम्बन्ध तथा घटते-बढ़ते आकार के कारण अन्धविश्वासी भय उपजाता है और स्त्री-जीवन को निरूपित करता है। उसके नवीन, पूर्ण और गतवय रूप को मातृदेवी की तीन अवस्थाओं से जोड़ा गया-कन्या (मेडन), अप्सरा (निम्फ़) एवं खूसट बुढ़िया (क्रोन)। फिर मातृदेवी की इन अवस्थाओं का सम्बन्ध ऋतुओं से हुआ-वसन्त कन्या, ग्रीष्म अप्सरा और शीत वृद्धा, और फिर कन्या को आकाश, रूपसी युवती को पृथ्वी और समुद्र तथा वृद्धा को पाताल कहा गया और इनका प्रतिनिधित्व किया क्रमशः सीलीने, ऐफ्ऱॉडायटी तथा हेकटी ने। ये मूलतः एक ही देवी के तीन नाम थे और उस देवी की उपासना बहुत समय तक हेरा के नाम से हुई। कालान्तर में पुरुष की धार्मिक स्थिति सुधरी और प्रजनन में उसके महत्त्व को स्वीकार किया जाने लगा। कबीले की निम्फ़ अब भी कबीले के किसी युवक को अपने प्रेमी के रूप में चुनती थी और एक वर्ष बाद इस युवक की बलि देकर उसका रक्त खेतों में अच्छी फसल प्राप्त करने के लिए छिड़क दिया जाता। इस तरह प्रजनन से पुरुष का सम्बन्ध तो जुड़ा, लेकिन अब भी वह पूर्णरूपेण मातृदेवी के अधीन था। मातृसत्ता के क्षीण हो जाने पर भी यह परम्परा बहुत समय तक चली। यद्यपि विशेष अवसरों पर वह अब भी स्त्री-वस्त्र धारण करता, किन्तु धीरे-धीरे उसकी बलि की प्रथा समाप्त हो गयी और उसके स्थान पर पशु की बलि दी जाने लगी। परसियस के हाथों गॉरगन मेडुसा का वध हेलेनीज़ द्वारा मातृदेवी के प्रमुख मन्दिरों के नाश का प्रतीक है। बेलरफ़ेन किमेरा का वध कर डालता है जिसका अर्थ है कि हेलेनीज़ आक्रमणकारियों ने मेडुसा के पुराने कैलेण्डर (किमेरा साँप के सिर, बकरी के शरीर और साँप की पूँछ के कारण वर्ष का प्रतीक है) को समाप्त करके महीनों की गणना की नयी प्रणाली का प्रतिपादन किया। डेल्फ़ी में अपोलो द्वारा पायथन की हत्या सम्भवतः एकियन्स द्वारा क्रीट की पृथ्वी-देवी के मन्दिर को हस्तगत करने की घटना का कल्पनाशील विवरण है। डाफ़ने के सतीत्व भंग का अपोलो का प्रयास और हेरा द्वारा उसका लॉरेल-वृक्ष में परिवर्तन भी यही सम्प्रेषित करता है। तेरहवीं सदी ईसा पूर्व के एकियन्स और उसके बाद डोरियन्स के आक्रमण के साथ ही मातृ-सत्ता बिलकुल समाप्त हो गयी और अब स्त्री विवाह के बाद अपना घर छोड़कर पति के देश जाने लगी। हेस्टिया का स्थान ओलिम्पस पर डायनायसस ने ग्रहण कर लिया। ज़्यूस द्वारा मेटिस को निगलना, सिर से एथीनी को जन्म देना और एथीनी द्वारा पितृ-सत्ता को स्वीकार किया जाना, सभी इस विचारधारा को पुष्ट करते हैं।
पुराण-कथाएँ मूलतः ‘अनुभूत तथ्यों पर उद्दीप्त कल्पना का परिणाम हैं’ (रोज़)। इनमें आस-पास के वातावरण, प्राकृतिक घटनाओं और उनके प्रति मानव की प्रतिक्रिया है। कहीं-कहीं तात्कालिक राजनीतिक घटनाओं और अर्ध-ऐतिहासिक व्यक्तित्यों का भी समावेश है जो कि सागा (saga) का क्षेत्र है। अतः सागा से इनका सम्बन्ध स्पष्ट करना जरूरी है। मिथ, सागा और मार्येन तीन अलग शैलियाँ हैं। मुख्य रूप से सागा उन रचनाओं को कहा जाता है जिनके नायक मनुष्य हों। ये भूले-बिसरे ऐतिहासिक व्यक्तित्व भी हो सकते हैं। सागा इनकी शूरवीरता और साहसपूर्ण उद्यमों की गाथा है और मार्येन मुख्य रूप से मनोरंजन करने वाली कथा को कहते हैं। इन्हें अँग्रेजी में फ़ेयरी टेल्स (परियों की कहानियाँ) भी कहा जा सकता है। पुराख्यान जिस रूप में हमें प्राप्त हैं वहाँ बहुधा अनेक स्थलों पर यह तीनों शैलियाँ आपस में इतनी घुल-मिल गयी हैं कि केवल मिथ को अलग करना सम्भव नहीं रह गया है। हेराक्लीज़, ऑडिसियस और एगनॉट्स की यात्रा के विवरण में इन तीनों का मिश्रण है। पिरेमस थिज़बि तथा नारसिसस-ईको संवेदनशील प्रेम की कहानियाँ हैं, पिग-मेलियन-गेलेशिया मूलतः मनोरंजन के लिए। हास्य-विनोद के प्रसंग भी कहीं-कहीं उपलब्ध हैं, जैसे हेराक्लीज़, ऑम्फ़ेल और पैन की कहानी में। कुछ कथाएँ स्पष्ट रूप में उपदेशात्मक भी हैं। वास्तव में पुराण-कथाओं का जो रूप हमारे सामने है वह महान कवियों और लेखकों के कलम का चमत्कार है। उनका मूल रूप क्या रहा होगा, यह अनुमान लगाना सम्भव नहीं। इनका समय भी अनिश्चित है। सर्वप्रथम कब और कैसे कोई कथा मूल रूप में अस्तित्व में आयी और पीढ़ी-दर-पीढ़ी उसमें क्या-क्या परिवर्तन हुए, एक ने दूसरे से कथा कहते हुए क्या कुछ अपनी ओर से जोड़ा या घटाया, यह नहीं कहा जा सकता। ये पुराण-कथाएँ किसी एक समय के व्यक्ति या जाति की कल्पना का परिणाम नहीं। इनके ग्रीस कवियों तक पहुँचने में अनेक पीढ़ियों का योगदान है।