ग्रीन कार्ड / तेजेन्द्र शर्मा
'क्या है यह देश? यहाँ मनुष्य, मनुष्य को मनुष्य नहीं समझता। स्कूटर ड्राइवर हो या बस कंडक्टर, अध्यापक हो या नेता, किसी को भी बात करने की तमीज नहीं है। हर काम में धक्का-मुक्की, अव्यवस्था और राजनीति। हम हैं क्या? - एक अनपढ़, गँवार, गंदे और गलीज लोगों का रेवड़! अनुशासन के तो हमें मायने ही नहीं मालूम। हमारा चरित्र क्या है? हमारी कीमत क्या है-पाँच रुपये की रिश्वत!' अभय धाराप्रवाह बोले जा रहा था। "ऊपर से आपकी यह दिल्ली कैसा वाहियात और बेतुका शहर है! गर्मी में मोटरसाइकल पर लू लगती है और धूल खानी पड़ती है। वर्षा ऋतु का तो कोई अर्थ ही नहीं।' अभय एक पल को यह भी भूल गया था कि वह अस्पताल में अपने मित्र राज का हाल पूछने आया है, किसी सभा में भाषण देने नहीं। शारदा राज को दवा देने आयी थी। उसे लगा कि अभय का यों जोर-जोर से बोलना अस्पताल की शांति को भंग कर रहा है, किंतु अभय की धाराप्रवाह अंगेजी और विषय पर अधिकार! शारदा भी मंत्रमुग्ध-सी सब कुछ सुनती रही। अभय बैंक में काम करता था। महत्वाकांक्षा तो उसमें कूट-कूटकर भरी थी। किसी भी तरह विेदेश जाकर बसने का उसका एक सपना था। हर रविवार को वह 'हिंदुस्तान टाइम्स' का 'मैट्रिमोनियल' कॉलम बहुत दिल लगाकर पढ़ता था कि कहीं कोई विदेश में बसा परिवार संभवत: उसे भी वहीं बुला ले। वह किसी से भी जल्दी घुलता-मिलता नहीं था। उसके व्यक्तित्व में कुछ ऐसा आकर्षण था कि सामने वाला उससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह पाता था। कल ही राज ने उसे बताया था कि शारदा का अमेरिका जाना लगभग निश्चित है। अभय को शारदा देखने में सुंदर नहीं लगी, पर उसे सुंदरता से क्या मतलब? उसे तो विदेश जाने का टिकट चाहिए था और शारदा में उसे अपना सपना पूरा होता दिखायी दिया। उसने आज शारदा को अपनी तशक्ति का पहला नमूना दिखाया था। बेचारी शारदा! उसे क्या मालूम कि अभय की तशक्ति के आगे कितनी लड़कियाँ पहले भी विवश हो चुकी हैं। वह बेचारी सीधी-सादी दक्षिण भारतीय परिवार की एक लड़की अभय की रौ में बह गयी, और अभय अपनी सफलता पर मन-ही-मन मुस्करा रहा था। शारदा अपने होस्टल पहुँची तो जैसे नशे की हालत में थी। अभय उसके जीवन में पहला पुरुष था और सिनेमा हॉल के ऍंधेरे में जब अभय ने उसका पहला स्पर्श किया तो उसका शरीर रोमांचित हो उठा था। ऍंधेरे में भी जैसे वह लजा गयी थी। चाहकर भी मना नहीं कर पायी शारदा। संभवत: उसे भी यह सब कुछ बहुत अच्छा लग रहा था। पिक्चर में क्या हुआ, कब खत्म हो गयी-उन्हें पता नहीं चला। इसके बाद शारदा की कई शामें अभय के साथ रेस्तराओं के कोनों में बीततीं। उसे अभय का सान्निध्य बहुत अच्छा लगता था। अब तक जैसे उसका जीवन रेगिस्तान-सा सुनसान और नीरस था। होस्टल का अकेला कमरा, वह पहचाने चेहरे, सहयोगी, साथी, अस्पताल और मरीजों के मुरझाये चेहरे। अभय के आने के बाद उसे लगा, जैसे उसके जीवन का भी कोई अर्थ है, कुछ मायने हैं। और अब वह जीवन के हर क्षण को जी लेना चाहती थी। अब शारदा को हमेशा अभय की प्रतीक्षा रहती। उसका अमेरिका जाने का कार्यक्रम पक्का ही था, पर अब अभय को छोड़कर अमेरिका जाने को उसका मन नहीं हो रहा था। अभय के सामने उसने अपने मन की बात कही तो उसे कुछ अच्छा नहीं लगा, 'शारदा डार्लिंग, केवल भावुकता जीवन नहीं है, जीवन है एक ठोस सच्चाई। और हमें भावना में बहकर सच्चाई को नकारना नहीं चाहिए। यह तुम्हारे कैरियर का प्रश्न है। और तुम चली भी गयीं तो क्या हुआ? मैं भी बाद में वहीं आ जाऊंगा। हम कोई अलग थोड़े ही हो जायेंगे। हो सकता है, तुम्हें वहाँ 'सेटल' होने में और मुझे वहाँ बुलाने में समय लग जाये, पर इसके लिए तुम्हें इतना अच्छा मौका हाथ से नहीं खोना चाहिए। तुम अमेरिका अवश्य जाओ और ग्रीन कार्ड हासिल करने का प्रयत्न करो-अपने लिए भी और मेरे लिए भी...तुम क्या समझती हो, तुम्हारे बिना मैं यहाँ चैन से रह पाऊँगा? पर नहीं, अपने स्वार्थ के लिए तुम्हें अमेरिका जाने से रोह्लाूँगा नहीं।' और शारदा को भी लगा, अभय ठीक कह रहा है। अभय से मिलने से पहले तो वह स्वयं भी अमेरिका जाने के लिए काफी उत्सुक थी, फिर थोड़े ही समय की बात है, फिर तो अभय भी उसके पास ही रहेगा, उसका अपना अभय! उसका पति! अभय के दोस्तों में केवल राज ही अभय और शारदा के प्रेम से परिचित था। वह यह भी जानता था कि प्रेम तो केवल शारदा की ओर से है, अभय तो केवल अमेरिका जाने की फिराक में है। शाम के समय दोनों पीटर स्कॉच की चुस्कियाँ ले रहे थे। "राज, मेरा रंग कुछ काला तो नहीं होता जा रहा है?' "यह क्या बात हुई भाई? ऐसा सवाल क्यों?' "नहीं, आजकल शारदा के साथ अधिक समय बिता रहा हूँ न! कहीं उसका रंग छूटता हुआ तो अपना तो वेड़ा ग ही समझो।' "अभय, यह उपहास का विषय नहीं है। इस सारे संबंध के विषय में तुम्हें गंभीरता से सोचना चाहिए। तुम्हारे माता-पिता तुम्हें इस विवाह की अनुमति नहीं देंगे। और बिना विवाह किये तुम अमेरिका जाओगे कैसे? शारदा जैसी शरीफ और अच्छी लड़की के साथ ऐसा भट्ठा खेल मत खेलो।' "अरे, अगर डरने का कोई नोबल प्राइज होता न, तो वह तुम्हें ही मिलता। बच्चे, जीवन में अब तक 'एडवेंचर' की भावना नहीं, तो कुछ भी नहीं। माँ-बाप तो कभी भी हमारी पसंद नहीं समझेंगे। अगले सोमवार हम शादी कर रहे हैं-कोर्ट में। तुम्हें बतौर गवाह के चलना होगा। बाकी तो खन्ना कर लेगा। जज का पी.ए. है।' "अभय, एक बार फिर सोच लो! मैं तुम्हारे पिताजी का गुस्सा अच्छी तरह जानता हूँ। वे तुम्हें कभी भी इस बात के लिए माफ नहीं करेंगे।' "टु हेल विद हिम...शादी मेरी हो रही है या उनकी? जीवन तो मेरा बनना है अमेरिका जाकर। यहाँ बैंक में तो क्ल से अफसर बनने में ही सारा जीवन निकल जायेगा। और फिर सोचो, यदि शारदा बिना मुझसे विवाह किये अमेरिका चली गयी तो हो सकता है, उसे कोई गोरी चमड़ीवाला वहीं पसंद आ जाये। अपनी तो हो गयी छुट्टी! मैं ऐसा खतरा मोल नहीं ले सकता।' "तुम्हें अपनी शारदा पर इतना ही विश्वास है?' "भोले मियाँ, तुम नहीं समझोगे इन बातों को। तुम बस कोर्ट पहुँच जाना।' शारदा को इस तरह के विवाह में कोई दिलचस्पी नहीं थी। वह तो लाल रंग का जोड़ा पहनकर ब्राह्मण के मंत्रोच्चारण में सारे संसार के सामने अपने अभय को अपनाना चाहती थी। किंतु अभय के लगभग अकाटय तर्कों से सामने लाचार बनी बैठी थी शारदा। केवल राज ही शादा की मन:स्थिति को समझ पा रहा था। वह अंतिम क्षणों तक अभय को समझाता रहा कि वह अपनी जिद छोड़ दे, किंतु अभय अपने स्वर्णिम भविष्य को कैसे हाथ से निकल जाने देता? विवाह हो गया, शारदा और अभय के माता-पिता को बिना बताये। अब दोनों कानूनन पति-पत्नी बन गये थे। किंतु सुहागरात मनाये बिना अभय विवाह को पूरा कैसे मान लेता? इसलिए जनपथ होटल में दो रातों के लिए कमरा बुक करके हनीमून मनाया गया। तीन सप्ताह बाद शारदा एयर इंडिया की उड़ान से न्यूयॉ के लिए रवाना हो गयी। उस दिन अभय घंटों उसका हाथ थामें बैठा रहा, 'शारदा डार्लिंग, अमेरिका जाकर हमें भूल नहीं जाना। जल्दी-से-जल्दी मुझे भी अपने पास बुलवा लेना।' शारदा का मन तो अमेरिका जाने का वैसे ही नहीं हो रहा था, वह कह ही तो उठी, 'रोक लो न मुझे। जाने ही क्यों...' लेकिन अभय ने उसे आलिंगनबध्द कर चुप करा दिया। अभय के जीवन में एक अजीबसा खालीपन छोड़ गयी थी शारदा। अपने अमेरिका जाने के चक्कर में अभय ने सारा समय शारदा को देना शुरू कर दिया था। वह शारदा के वीसा इत्यादि कागजात पूरे करवाने में बहुत व्यस्त रहा। अपने तमाम मित्रों से वह लगभग कट ही गया था। उसने अपने पुराने मित्रों से एक बार फिर संबंध जोड़ने की सोची। यही सोचकर तिलोत्तमा को फोन किया था। 'हाय, अभय डियर, शादी मुबारक हो। बड़े छुपे रुस्तम निकले। हमें बुलाया तक नहीं?' अभय के पास इसका कोई जवाब नहीं था। हाँ, खबर जरूर फैल चुकी थी उसकी शादी की, जो उसे अच्छा नहीं लगा। अब वह कुछ परेशान व डरा-डरा-सा रहने लगा। उसकी तबीयत में भी थोड़ी तल्खी रहने लगी थी। उसे शारदा के पत्र की प्रतीक्षा बहुत बेचैनी से रहती। शारदा का पत्र आया। धड़कते दिल से अभय ने पत्र खोला। पत्र में कोई विशेष बात अभय को दिखायी नहीं दी। शारदा अमेरिका पहुँच गयी थी। पहली बार विमान में बैठने का रोमांच, मैनहटन की ऊँची-ऊँची इमारतें और उनकी भव्यता, न्यूयॉ शहर का ग्लैमर, उसके अपने अस्पताल की सफाई और बढ़ाई-इस सबमें अभय को कोई दिलचस्पी नहीं थी। उस लंबे पत्र के तीन पृष्ठ पढ़ने के बाद अभय को अपने काम का वाक्य दिखायी दिया: 'यहाँ के इमीग्रेशन नियमों के अनुसार मैं तुम्हें एक वर्ष तक स्पांसर नहीं कर सकती। तुम अपना बायोडाटा बनाकर भेज दो, तो तुम्हारे लिए भी किसी नौकरी की तलाश करूँ। इस तरह शायद तुम जल्दी अमेरिका आ पाओगे।' अभय के मन में ऊहापोह-सी मची थी। वह स्थिति को समझ नही पा रहा था। एक ओर उसकी अमेरिका जाने की व्यग्रता, तो दूसरी ओर अमेरिका के आप्रवासी नियम। वह जल्दी-से-जल्दी अमेरिका पहुँचना चाहता था। शारदा नियमित रूप से 'होम ऑफिस' के चक्कर लगाती रही और अभय को स्थिति की जानकारी देती रही। किंतु अभय की व्यग्रता केवल पत्रों से शांत नहीं हो पा रही थी। अमेरिका से आये पत्र व स्वयं अमेरिका में तो बहुत अंतर होता है न! इसी तरह एक वर्ष बीत गया। अभय को वहम-सा हो चला था कि वह अब अमेरिका कभी नहीं जा पायेगा। अब वह शारदा के पत्रों के लिए भी उतना उतावला नहीं रहता था, बल्कि अब तो वह उसे पत्र लिखने में उतनी दिलचस्पी भी नहीं लेता था। किंतु जब-जब अमेरिका जाने की आकांक्षा बलवती होती, वह फिर से शारदा को पत्र लिखने बैठ जाता। वह शारदा से कानूनन विवाहित था, किंतु उसने कभी भी उस संबंध को बहुत गंभीरता से नहीं लिया था। वह हर किसी से कटकर रह गया था। इन दिनों वह शराब भी कुछ अधिक पीने लगा था। एक अजीब-सा खालीपन भर गया था उसके जीवन में। जब कभी अभय इस तरह परेशान होता था, वह अपने पुराने प्राध्यापक डॉ. सोमदेव के पास चला जाता। डॉ. सोमदेव का सान्निध्य शराब से कहीं अधिक काम करता था और अभय एक बार फिर तरोताजा हो जाता। एक दिन अभय की मोटरसाइकल डॉ. सोमदेव के घर के सामने रुकी तो वहाँ काफी चहल-पहल दिखायी दी। अभय को मालूम नहीं था कि उस दिन डॉ. सोमदेव के विवाह की पंद्रहवीं वर्षगाँठ थी। घर में कई मेहमान बैठे थे। अभय थोड़े समय के लिए सकपका-सा गया। डॉ. सोमदेव ने उसे देखा तो दूर से ही चिल्ला उठे, 'आओ, मेरे मिट्टी के शेर! अरी प्रीति, देखो, हमारी शादी को पक्का करने के लिए पंडित भी आ गया है। अबे गधे, यह रोनी सूरत क्यों बना रखी है? खुशी मनाओ! आज से पंद्रह साल पहले, आज ही के दिन प्रीतिजी के भाग्य खुले थे जो उनकी शादी हमसे हुई। जब आयी थीं तो हड्डियाँ दिखायी देती थीं, और आज देखो, माशा अल्लाह! क्या खाते-पीते घर की लगती हैं!' डॉ. सोमदेव को भी अभय से बहुत लगाव था। वह उनका प्रिय विद्यार्थी रह चुका था। शेक्सपियर के नाटक 'ओथेलो' पर जो काम अभय ने किया था, उससे डॉ. सोमदेव बहुत प्रभावित हुए थे। उन्हें लगा कि अभय ही एक ऐसा विद्यार्थी है जिसने रूढ़िवादी विचारधारा को छोड़कर एक नये दृष्टिकोण से शेक्सपियर की समीक्षा की है। उधर तो डॉ. सोमदेव के व्यक्तित्व से पूरी तरह अभिभूत था ही। उसके आदर्श थे डॉ. सोमदेव। अभय ने थोड़े ही समय में अपने-आपको व्यवस्थित कर लिया और कमरे में चारों ओर निगाह दौड़ायी। टेलिविजन केबिनेट का सहारा लिये एक लडकी खड़ी थी, अकेली। अभय ने संभवत: अपने संपूर्ण जीवन में उतनी सुंदर लड़की कभी नहीं देखी थी। वह वहाँ अपने ही विचारों में मग्न थी। उसके आकर्षण में अभय स्वयं ही उसकी ओर बँधा चला गया, 'आप कुछ ले नहीं रही हैं? आपके लिए कोक या फेंटा या कुछ और लाऊँ?' "जी नहीं, मुझे किसी भी चीज की आवश्यकता नहीं है।' "बाइ द वे, मेरा नाम अभय है। बैंक में काम करता हूँ। डॉ. सोमदेव का विद्यार्थी था, बी.ए. ऑनर्स फाइनल में। आप...' "जी, मैं भी डॉ. सोमदेव की विद्यार्थी हूँ। बी.ए. ऑनर्स फाइनल में हूँ। नाम है सुगंधा।' वह लड़की औपचारिकता निभाते हुए बोली। "आपको किस लेखक ने सबसे अधिक प्रभावित किया है?' अभय ने बात को आगे बढ़ाया। सुगंधा की ऑंखों में थोड़ी अनिश्चितता थी, बोली, 'वैसे तो सभी लेखक अच्छे हैं, पर जो बात शेक्सपियर में है, वह कहीं नहीं।' "ओथेलो के विषय में आपकी क्या राय है?' "जी, एक अच्छी-खासी ट्रेजेडी है। शेक्सपियर की बेहतरीन पोयट्री है इस नाटक में, और...' "क्या आपको नहीं लगता कि ओथेलो एक बहुत बड़ा हिपोक्रेट है? मैं तो ऐसे इन्सान को कभी माफ नहीं कर सकता जो औरत पर हाथ उठाये। और ओथेलो तो अपनी पत्नी डेस्डिमोना की हत्या कर देता है, एयागो की बातों में आकर। औरत प्यार करने की, सराहने की चीज होती है। 'ओथेलो' में शेक्सपियर के बाकी नाटकोंवाली नोबिलटी तो है ही नहीं...' और अभय का धाराप्रवाह प्रवचन शुरू हो गया। थोड़े ही समय में अभय ने अपनी वाक्शक्ति से सुगंधा को प्रभावित कर लिया था। उसे स्वयं भी आज काफी खुशी हो रही थी सुगंधा से मिलकर। चलते-चलते उसने सुगंधा को अपना टेलीफोन नंबर भी दे दिया। अगले ही दिन अभय सुगंधा की प्रतीक्षा कर रहा था उसके कॉलेज के बाहर। सुगंधा आयी, जैसे वह जानती ही थी कि अभय उसकी प्रतीक्षा कर रहा होगा। उसके कदम स्वयमेव अभय की ओर बढ़ गये। अभय उत्साहित दिखायी दे रहा था। "सुगंधाजी, कैसी हैं आप?' "कल से कोई विशेष भिन्न नहीं।' "आपने ओथेलो के विषय में सोचा क्या?' "जी, मेरा उट्ठेश्य अभी तो अच्छी डिविजन लेने का है। हमारे विश्वविद्यालय के अनुसार विद्यार्थी को सोचने की अनुमति नहीं है। जब मैं एम.ए.फर्स्ट डिविजन में पास कर चुह्लाूँगी, तब स्वयं सोचना शुरू करूँगी। तब तक ब्रेडले और टी.एस.एलियट ने जो कहा है, उसे पढ़कर ही गुजारा कर लूँगी। लेक्चरार लगने के बाद जब जी जाहेगा, शोध कर लूँगी।' "लेकिन हम जो कुछ पढ़ें, उसे समझना भी तो चाहिए न! साहित्य को हम भी तो समझ सकते हैं, केवल जाने-माने आलोचक ही तो साहित्य के ठेकेदार नहीं हैं।' "अभयजी, आप जैसा सोचनेवाले हमारी क्लास में भी दो लड़के हैं, परंतु अब तक केवल थर्ड डिविन ही पा सके हैं। परीक्षा में वही लिखना चाहिए जो निरीक्षक को पसंद आये। मेरा लक्ष्य फर्स्ट डिविजन पाने का है। चाहे उसके लिए कोई मुझे नालायक समझे या नासमझ।' कुछ क्षणों के लिए अभय हत्प्रभ रह गया। आज तक किसी भी लड़की ने उसके तर्कों का इतने सशक्त ढंग से प्रतिरोध नहीं किया था। वह कुछ सोच में पड़ गया-'सच ही तो कह रही है, सुगंधा। मैं भी तो बी.ए. और एम.ए. में थर्ड डिविजन ही ला सका। मेरे ज्ञान या वाक्शक्ति का क्या लाभ?' कुछ समय के लिए वह चुप खड़ा रह गया। अंतत: सुगंधा ही बोली, 'क्या सोच रहे हैं महाशय? कहीं मेरी ही समीक्षा तो नहीं कर रहे?' "जी, जी नहीं। आइए, कहीं बैठते हैं। सामने ही रेस्तराँ है।' "अभयजी, इस रेस्तराँ के विषय में मुझे पूरी जानकारी है। मेरी कई सहेलियाँ इसमें जाती रहती हैं। मैं आपके साथ अपने संबंधों की शुरुआत ऐसे रेस्तराओं के ऍंधेरों से नहीं करना चाहती। मैंने आपमें एक प्रकाश की किरण देखी है। हमारे संबंध भी वैसे ही उजले रहें तो ठीक होगा। यदि आपको मुझसे मिलना ही हो तो मेरे मॉलेज आ सकते हैं या फिर मेरे घर। मैं छुपकर कोई भी काम नहीं करना चाहती।' अभय चुप था। दोनों बस-स्टॉप की ओर चल दिये। सुगंधा की बस आयी और वह बस में चढ़कर घर की ओर चल दी। वह अभय को भीतर और बाहर से हिला गयी थी। रह-रहकर सुगंधा के शब्द अभय के मस्तिष्क से टकरा रहे थे। कितनी सहजता से अपने मन की बात कह दी थी सुगंधा ने! अभय घर पहुँचा तो शारदा का पत्र आया हुआ था। उसका मन पत्र खोलने का भी नहीं हुआ। वह बेहद बेचैन था। सुगंधा...शारदा...अमेरिका - सब उसके दिमाग को मथ रहे थे। वह किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पा रहा था। कहीं उसके मन के भीतर से आवाज आयी - 'यहीं रुक जाओ अभय, यह खतरनाक खेल मत खेलो। शारदा कानूनन तुम्हारी पत्नी है। अगर और आगे बढ़े, तो हो सकता है, नौकरी से भी हाथ धोना पड़े। फिर सोच लो!' सिर भटककर अभय उठ खड़ा हुआ - 'यह मैं क्या ऊलजलूल बातें सोचने लगा हूँ। सुगंधा से जरा सी बात कर ली तो क्या हुआ? उससे विवाह तो नहीं कर रहा हूँ मैं।' उसका अंतर्मन अट्टहास कर उठा -- 'क्या तुम स्वयं नहीं चाहते कि सुगंधा तुम्हारी हो जाये? क्या जीवन में पहली बार तुम किसी लड़की के सामने कमजोर नहीं पड़ गये? क्या सचमुच तुम सुगंधा के सौंदर्यजाल में नहीं फँसते जा रहे हो?' रात-भर बिस्तर पर करवटें बदलता रहा अभय। सुबह उठा तो सिर भारी था। दफ्तर जाने से पहले सिरदर्द की गोली भी ली उसने। शारदा का पत्र खोला। सदा की भाँति बहुत लंबा पत्र लिखा था शरदा ने। अभय को विश्वास भी दिलाया था कि कुछ ही महीनों में वह अमेरिका आ सकेगा। और समय होता तो अभय खुशी से झूम उठता; किंतु आज उसकी परेशानी और बढ़ गयी थी। अभय ने मन-ही-मन फैसला कर लिया कि अब सुगंधा से नहीं मिलेगा, चाहे कुछ भी क्यों न हो जाये। पर उसका मन कैसे मानता? दो ही दिन बाद वह फिर उसके कॉलेज के बाहर खड़ा था। सुगंधा बाहर निकली। लाल और काले रंग के सूट में उसका गोरा रंग और भी खिल उठा था। उसने अभय की ओर देखा। अपने विशेष अंदाज में मुस्करायी, 'आप दो दिन आये नहीं। मैंने सोचा, नाराज हो गये हैं। क्या हुआ, सब ठीक तो है?' "नहीं, वैसी तो कोई बात नहीं, बस दफ्तर में काम बहुत था, इसीलिए व्यस्त रहा। आप कैसी है?' "बहुत सुस्त लग रहे हैं आप? खैरियत तो है?' "नहीं, यों ही कुछ परेशान-सा चल रहा हूँ। एक अहम निर्णय लेना है मुझे अपने जीवन के विषय में। उसके लिए शायद मुझे डॉ. सोमदेव के पास एक बार फिर जाना पड़े। दरअसल सुगंधा, मेरा अमेरिका जाना लगभग तय हो चुका है। किंतु तुम्हें मिलने के बाद अमेरिका में मेरी रुचि समाप्त होती जा रही है। कुछ समझ में नहीं आ रहा है।' अभय स्वयं ही 'आप' से 'तुम' पर उतर आया था। "इसमें ऐसी कौन-सी मुश्किल बात है! जो आपका दिमाग कहे, कीजिए। कई बार मन की बात मनुष्य को कमजोर बना देती है। वैसे आपकी खुशी में मैं भी खुश ही होऊँगी। मुझे तो विदेश या विदेशी वस्तुओं से कोई लगाव नहीं।' जाने कैसे कह गयी सुगंधा। "क्या हम कहीं बैठकर बात नहीं कर सकते?' "चलिए, कॉलेज के लॉन में बैठ लेते हैं।' अभय और सुगंधा कॉलेज के लॉन में ही बैठ गये। आज की मुलाकात उन्हें और भी करीब ले आयी थी। अभय को मालूम हुआ कि सुगंधा के पिता होम मिनिस्ट्री में काफी बड़े ओहदे पर हैं। और यह भी कि सुगंधा उनकी इकलौती संतान है। लेकिन अपने विषय में अभय सुगंधा को कुछ विशेष नहीं बता पाया था। बताता भी क्या? सुगंधा की वार्षिक परीक्षाएँ समाप्त हो गयीं। अब उसका कॉलेज जाना भी बंद हो गया। उसकी माँ चाहती थी कि अब सुगंधा का विवाह हो जाये। उन्हें उसका आगे पढ़ना कोई विशेष अच्छा नहीं लग रहा था। सुगंधा एक दिन अभय को अपने घर ले गयी। माँ को अभय अच्छा लगा, किंतु उसकी नौकरी पसंद नहीं आयी। सुगंधा ने माँ को समझा दिया कि शीघ्र ही अभय की प्रमोशन होनेवाली है। माँ ने पिताजी को मना लिया और माँ तथा पिताजी अभय के घर शादी की बात करने जा पहुँचे। यह सब इतनी जल्दी हुआ कि अभय को कुछ कहने-करने का अवसर ही नहीं मिल पाया। वह सोचता ही रह गया कि सुगंधा से बात करे या न करे। इस बीच शारदा के भी दो-तीन पत्र आ चुके थे। अभय किसी एक का भी जवाब नहीं दे पाया था। शारदा को पूरा विश्वास था कि अब उसका पति जल्दी ही अमेरिका आ पायेगा, क्योंकि आप्रवासी विभाग की नैसी जैक्सन से उसने अच्छी दोस्ती कर ली थी। अब उसे अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी। और अभय एक अजीब से भँवर में फँसता जा रहा था। सुगंधा और उसकी सगाई भी हो गयी थी। राज को मालूम हुआ तो उसे एकाएक विश्वास ही नहीं हुआ। उसके पास शारदा का अमेरिका का पता नहीं था अन्यथा वह उसे पत्र लिखकर सूचित करता। राज अपनी असमर्थता पर बहुत परेशान था। उसने अभय से कई बार बात करने की कोशिश की, किंतु हर बार किसी-न-किसी कारण बात नहीं हो पायी। दोनों घरों में विवाह की तैयारियाँ होने लगी थीं। सुगंधा के माता-पिता गहने, कपड़े व अन्य वस्तुएँ खरीदने में व्यस्त थे। सुगंधा अभी भी अभय के साथ रेस्तराओं में जाने को राजी नहीं होती थी। अब तो वह अभय से अकेले में मिलती ही नहीं थी। उसे भी प्रतीक्षा थी मिलन की घड़ियों की, किंतु वह जल्दबाजी के विरुध्द थी। विवाह को केवल एक महीना बाकी रह गया था। अभय के माता-पिता भी अपनी बहू के लिए जेवर, साहिड़याँ खरीदने में लगे हुए थे। इतनी सुंदर बहू देखकर अभय की माँ फूली नहीं समाती थी। शारदा का एक और पत्र आया था, लेकिन अब तो अभय के लिए वह केवल कागज का टुकड़ा मात्र था। उसने उसे खोलने की भी जहमत नहीं उठायी। घर में काफी चहल-पहल थी। अभय की माँ और बहनें सुगंधा के लिए साड़ियाँ लायी थीं। साड़ियाँ व गहने पलंग पर ही खुले पड़े थे। दोपहर का एक बजा था। साउथ एक्सटेंशन में दिल्ली की वीरान गर्मी सदा की तरह फैली हुई थी। इतने में दरवाजे की घंटी बजी। अभय ने दरवाजा खोला। सामने शारदा खड़ी थी- अभय का ग्रीन कार्ड। अभय के मस्तिष्क में जैसे एक विस्फोट हो गया। उसे ऐसे भयानक 'सरप्राइज' की तो तनिक भी आशंका नहीं थी। सुगंधा और शारदा-शारदा और सुगंधा-वह कुछ भी सोच नहीं पा रहा था। सुगंधा और अभय का विवाह नहीं हो पाया। शारदा न्यूयॉ वापस चली गयी और साथ ही चला गया अभय की ग्रीन कार्ड-उसका सपना। अभय के सपनों का महल जलकर राख हो गया। और बच गया सिर्फ धुऑं-गहरा और काला। रास्ते अब भी थे, पर एक मोड़ पर आकर सब बंद हो जाते थे। उनमें से कोई भी रास्ता न तो सुगंधा के घर की और जाता था और न ही शारदा की ओर।