ग्लानि / विजयानंद सिंह

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विजयानंद विजय »

आज सर्दी कुछ ज्यादा-ही थी। चारों ओर घना कोहरा छाया हुआ था। दिन के दो बज रहे थे।उसकी ट्रेन और दो घंटे लेट हो गयी थी। जाड़े में इन ट्रेनों का तो कोई हिसाब-किताब ही नहीं रहता....! ऊपर से पत्नी की तबीयत...! उसका मन खिन्न हो उठा था। ट्रेन का इंतजार करने के सिवा अब कोई चारा भी तो नहीं था !ठंड से बचने के लिए वह वेटिंग हॉल में आ गया। जहाँ वह बैठा, वहीं बगल में एक दुबला-पतला व्यक्ति भी कंबल में दुबक कर बैठा हुआ था।

भूख लग गयी थी, इसलिए उसने बैग से बिस्कुट निकाला और खाने को ही हुआ कि बगल में बैठे उस व्यक्ति ने निरीह स्वर में कहा - " सुबह से कुछ नहीं खाया है, बाबू.....! " बिस्कुट मुँह में डालते हुए उसने बड़ी विद्रुपता से कहा - " तो...! मैं क्या करूँ...? जाओ कहीं मजदूरी करो और खाओ...! यहाँ आराम से क्यों बैठे हो...? " मेेेरी डाँट सुनकर विवशतावश वह चुप हो गया। बिस्कुट खाते हुए वह उस भिखारीनुमा व्यक्ति को देखने लगा।

वह भिखारीनुमा व्यक्ति अचानक जब वह उठा, तो कंबल उसके कंधे से सरक गया। कंबल संभालने की असफल कोशिश करते उसकी ओर जब नजर मुड़ी, तो वह स्तब्ध रह गया। बिस्कुट उसके हाथ से छूट गया...। उसे अपने आप पर ग्लानि होने लगी थी....।

उस व्यक्ति के तो दोनों हाथ ही कटे हुए थे...!