ग्लेशियर से / मृदुला गर्ग
मिसेज़ दत्ता अकेली ताजीवास ग्लेशियर की तरफ़ जा रही हैं। ताजीवास ग्लेशियर है। सब गाइड किताबों में लिखा है, है। इतने सारे लोग उसे देखने सोनमर्ग आए हैं। इसलिए...ज़रूरी है..कि है..पर दिखलाई नहीं दे रहा.... दिखलाई जो दे रहा है, बिलकुल साफ़ दिख रहा है, वह है, आसमान को छू रहे हरे पहाड़ों की चोटियों पर पुता सफ़ेद रंग। बस में आते हुए रास्ते में ही दीख गया था।
‘‘बर्फ़ वह देखो, बर्फ़’’, मिस्टर दत्ता ने अपनी सीट से कहा था। ‘‘बर्फ़’’, सीट नंबर चौदह ने खँखारकर कहा था। ‘‘बर्फ़’’, सीट नंबर तेईस ने किलककर कहा था। ‘‘बर्फ़’’, सीट नंबर दो और तीन ने इकट्ठा कहा था। मिसेज़ दत्ता ने देखा था, पहाड़ों की चोटियों पर सफ़ेदी जमी है। हाँ, वह बर्फ़ है...होनी तो चाहिए। पहाड़ों पर बर्फ़ होती है। बर्फ़ सफ़ेद होती है। बर्फ़ ठंडी होती है बेहद ठंडी...बर्फ़ की तरह। वे जानती हैं। नहीं, जानती नहीं। उन्होंने पढ़ा है, ऐसा होता है; सुना है, ऐसा है। देखा नहीं तो जाना क्या ?
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