घट का चौंका कर उजियारा / कुबेर

Gadya Kosh से
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हिन्दू पंचाग के अनुसार वह कार्तिक का महीना था, और उजले पाख की चौदहवीं तिथि थी। चौदह दिन पहले ही दीवाली मनाई गई थी। नंदगहिन काकी के घर उत्सव का माहौल था। आमंत्रित रिश्तेदार, भाई-भतीजे, जान-पहचान वाले, सुख-दुख में साथ देने वाले, सभी जुटे हुए थे। बेटी-दामाद, नाती-नतनिनें सभी आए हुए थे। सुबह सात बजे ही घर की छानी पर पोंगा रख दिए गये थे। पोंगा बजाने वाले से काकी ने साफ-साफ कह दिया था कि भजन के अलावा और किसी प्रकार का गाना नहीं बजाना है।

घर के नाम पर मिट्टी की दीवारों से बने, सामने की ओर बरामदे में खुलने वाले दो कमरे हैं। घर में जब कोई मांगलिक काम संपन्न होना हो तो घर की साफ-सफाई लिपाई-पुताई तो जरूरी होता है। दीवारों को अभी, दीवाली के समय, सफेद छुई मिट्टी से पोता गया था, पीली छुई मिट्टी से खुंटियाया गया था। चमक अभी भी कायम है; फिर भी नेग के लिये पीली छुई मिट्टी से खुंटियाने का रस्म निभाया गया है। कच्चे फर्स को गोबर से लीपा गया है।

घर के सामने बहुत बड़ी खाली जगह है जिसे गोबर से लीप कर चिकनाया गया है। काफी बड़ा शामियाना लगाया गया है। एक कोने में रसोई बन रहा है। दार-चाँउर, नून-तेल, लकड़ी-फाटा आदि, की जिम्मेदारी सुकवारो काकी ने ले रखा है। सुकवारो काकी और नंदगहिन काकी की मिताई गाँव में प्रसिद्ध है। दोनों हम-उम्र हैं, एक ही साल गौना होकर आई हैं इस गाँव में। दोनों के ही सुहाग कम उम्र में उजड़ गए थे।

बेटी और दामाद, दोनों, मेहमानों और आमंत्रितों के स्वागत सत्कार में जुटे हुए हैं। सब काम ठीक-ठाक निबट रहा है, फिर भी नंदगहिन काकी को बड़ी चिंता है, कहीं जग हँसाई न हो; बार-बार कबीर साहेब से दुआ मांग रही है - ’हे साहेब! मोर लाज ह अब तोरेच् हाथ म हे। सहित रहिबे।’

इसी साल, अषाड़ की बात है। एक दिन सांझ के समय नंदगहिन काकी खेत से लौटी, और आते ही खाट पर पसर गई। सोई तो उठ नहीं पाई। बदन दर्द से टूट रहा था, और तवे के समान तप भी रहा था। घर भर का कंबल-कथरी ओढ़ कर भी वह लदलद-लदलद कांप रही थी। घर में और कोई होता तो कुछ करता। सुकवारो का ध्यान आया, दो घर छोड़कर उनका घर है; पर वहाँ तक भी जाने की उनकी हिम्मत नहीं हुई। अपने अनुभव से उसने समझ लिया था कि यह मलेरिया का प्रकोप है।

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अंदर, रसोई में बहू रात का भोजन बनाने में व्यस्त थी। पोते को गोद में लेकर सुकवारो काकी आंगन में टहल रही थी। मन बेचैन हुआ जा रहा था; आखिर नंदगहिन को आज क्या हुआ, अब तक नहीं आई? जिंदगी में कभी, कोई ऐसा दिन बीता है, जब इस समय वह मिलने न आती हो? सोचते हुए वह बाहर, गली में निकल आई। निगाहें गली के उस ओर मुड़ गई जिधर नंदगहिन का घर पड़ता है। गली के दोनों ओर कतार में घर बने हुए हैं। सबके घर की छानी में से सफेद-नीले रंग के घुँए की लकीरें निकल कर ऊपर उठ रही थी। रात का भोजन बनाने का समय जो था; पर नंदगहिन के घर की छानी से बिलकुल भी धुँआ नहीं उठ रहा था। सुकवारो की चिंता और बढ़ गई। उसे मन में कुछ अनहोनी की आशंका होने लगी और उसके दिल की धड़कनें तेज हो गई। महिलाओं का दिल वैसे ही कोमल और कमजोर हुआ करता है, परिस्थितियों की मार ने सुकवारो के दिल को और भी कमजोर कर दिया है। धड़कते दिल के साथ तेज कदमों से उसने नंदगहिन के घर की राह ली।

दरवाजे पर पहुँते ही उसने आवाज लगाई - ’नंदगहिन गोई?’

दरवाजा अंदर से बंद नहीं था, और हाथ के हल्के दबाव से ही खुल गया। घबराई हुई सुकवारों ’नंदगहिन गोई’ की आवाज लगाते हुए घर के अंदर तक आ गई, जहाँ पर नंदगहिन की खाट पड़ी होती है। चादर-कथरियों में लिपटी सोई और बुरी तरह काँपती-कराहती नंदगहिन को देखकर सुकवारो की घिघ्घी बंध गई। दिल की धड़कने और तेज हो गई। आँखें डबडबा गईं। गालों पर बह आए आँसुओं को आँचल के कोर से पोंछते हुए उसने कहा - “तोला का हो गे मोर बहिनी? कइसे लागत हे? काबर सुते हस?”

तेज बुखार की हालत में भी नंदगहिन सचेत थी, पैरों की आहट से सुकवारों के आगमन को भांप लिया था, कहा - “कुछू नइ होय हे मंडलिन, मलेरिया बुखार कस लागत हे। घंटा दू घंटा म उतर जाही।”

पर सुकवारो कहाँ मानने वाली थी। तुरंत डॉक्टर बुलाने के लए उसने अपने किसन बेटा को भेज दिया। एक अकेली बेचारी नंदगहिन, बेटी है जो अपने ससुराल में रहती है, यहाँ कौन हे नंदगहिन का उसके सिवाय?

गाँव के झोला झाप डॉक्टर का इलाज शुरू हुआ। सप्ताह भर तक दोनों समय इंजेक्शन लगाए गये। टॉनिक दी गई, गोलियाँ खिलाई गई, पर बुखार नहीं गया। गाँव के बैगा-गुनिया लोगों से झाड़-फंूक भी कराया गया, नंदगहिन फिर भी ठीक नहीं हुई। खबर पाकर बेटी-दामाद दोनों दूसरे दिन सुबह ही आ गये थे और सेवा-जतन में जी-जान से जुटे गए थे। अब तो इन्हें भी चिंता होने लगी थी। बीमारी बढ़ती ही जा रही थी। गाँव के झोला छाप डॉक्टर ने जवाब दे दिया।

गाँव की नर्स बाई और सुकवारो काकी कब से जिद्द कर रही थी कि इसे तुरंत राजनांदगाँव के बड़े अस्पताल में भरती कर देना चाहिये, पर कोई मानता न था। आखिर उन्हीं की सलाह काम आई।

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बड़े सरकारी अस्पताल में दो दिन तक खून, पेशाब और कई तरह के जांच किए गये। तीसरे दिन सिस्टरों ने बताया कि मलेरिया का असर दिमाग तक पहुँच गया है। पीलिया और टॉयफाइड अलग है। तुरंत खून चढ़ाना पड़ेगा, फिर भी अब केवल ऊपर वाले का ही सहारा है।

पंद्रह दिन तक नंदगहिन अस्पताल में भर्ती रही।

आधुनिक चिकित्सा और ऊपर वाले की ही कृपा थी कि नंदगहिन बच गई। और अब तो वह टंच भी हो गई है। जन्म से ही चुलबुली और हँसमुख स्वभाव की नंदगहिन, पाँव घर में कब थिराते हैं? पुराना रेवा-टेवा फिर शुरू हो गया। बीच-बीच में आकर दामाद बराबर खोज-खबर लेता रहता है। बेटी बराबर आती-जाती रहती है, चिंता हुई कि बदपरहेजी में और कहीं कुछ गड़बड़ न हो जाय? एक दिन उन्होंने कहा - “दाई, अब तोर गŸार खंगत आ गे हे। चल हमर संग। संग म रहिबे। इहां घर के सिवा अउ का रखे हे?”

नंदगहिन निरक्षर है तो क्या हुआ, स्वाभिमानी है, दीन-धरम का उसे खयाल है, सामाजिक रीति-रिवाजों और मान-मयार्दा की सीमाओं को भी वह अच्छी तरह पहचानती है; कहा - “तुंहला खाली घर भर नजर आथे मोर बेटी-बेटा हो। बने कहिथव। घर म का रखे हे। आज हे, काली नइ रहही। फेर ये गांव म मोर सुख-दुख के बंटइया मोर संगी जहंुरिया हें। सबर दिन के संगवारी खेत-खार, नंदिया-तरिया, रुख-राई, धरसा-पैडगरी हें। मोर खरतरिहा के आत्मा हे। पुरखा मन के नाव-निसानी हे। इही अंगना म मोर डोला उतरे रिहिस। अब इहिंचेच ले मोर अरथी घला उठही। बेटी-बेटा हो, अपन घर, अपन देहरी, अपन गांव, अपन देस, अपनेच होथे ग। कइसे ये सब ल छोड़ के तुंहर संग चल देहूं? अउ फेर सुकवारो बहिनी के राहत ले इहां मंय ह अकेला नइ हंव। तुहंर अतकेच मया ह मोर बर गजब हे।”

माँ की भावनाओं को समझते हुए बेटी ने कहा - “दाई, तंय बने कहिथस। फेर एक बात अउ हे। तंय बीमार रेहेस अस्पताल म भरती रेहेस, बांचे के कोनों आस नइ रिहिस तब मंय ह कबीर साहेब ल बदना बद परे रेहेंव कि ’हे साहेब, मोर दाई ल एक घांव बचा दे, तुंहर चौंका आरती कराहूँ।’ साहेब ह मोर बिनती ल सुन लिस। अब वचन ल पूरा करे बर परही।”

भावविभोर होते हुए नंदगहिन काकी ने कहा - “तुंहर सेवा अउ साहेब के किरपा ले मंय नवा जनम धरे हंव बेटी। जउन बदना बदे हस, वोला पूरा करे म देरी झन कर। केहे गे हे कि काल करे सो आज कर।”

इस तरह कार्तिक शुदी चौदस के दिन चौका आरती का होना तय हुआ था। और नियत तिथि के अनुसार आज नंदगहिन काकी के घर इसी की तैयारियाँ चल रही है।

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दस बजते-बजते महंत साहेब अपने दीवान साहेब और आधा दर्जन चेले-चपाटियों के साथ पहुँच गए। साहेब को स्वच्छ और सुंदर आसन पर बिठया गया। महंत साहब का चरण पखारने के पश्चात् पूरे परिवार सहित नंदगहिन काकी ने चरणामृत पान किया। आरती उतारा गया।

महंत रामा साहेब के नाम को इस इलाके में कौन कबीर-पंथी होगा जिसने नहीं सुना होगा? महंत रामा साहेब बहुत बड़े साधक हैं, बड़े ज्ञानी और तत्वदर्शी हैं, बीजक के एक-एक अक्षर की बड़ी विशद् व्याख्या करते हैं। जाने-माने प्रवचनकार हैं, पर वे उतने ही बड़े कर्मकाण्डी और नेम-धरम मानने वाले भी हैं। जिसके गले में तुलसी का कंठी न बंधा हो, उसके हाथ से वे कुछ भी ग्रहण नहीं करते। नल और बोरिंग के पानी को हाथ भी नहीं लगाते; मोटर-पंपों में चमड़े, रबर या प्लास्टिक का वायसर जो लगा होता है। केवल नारियल के रेशे की रस्सी और धातु की बाल्टी से खींचा गया कुँए का पानी ही पीते है; प्लास्टिक की रस्सी-बाल्टी से खींचा हुआ नहीं।

दामाद को पहले ही ताकीद किया जा चुका है, पूरी व्यवस्था इसी के अनुरूप की गई है।

साथ में आये हुए सारे चेले-चपाटी खंजेरी बजा-बजाकर निर्गुनिया भजन गाने में मस्त हैं। दीवान साहब चौंका पोतने में लगे हुए हैं। दामाद ने दी गई सूची के अनुसार, बाजार से खरीद कर लाया गया, चौके में काम आने वाला सारा समान बड़े से एक झोले में पहले ही दीवान साहब को सौंप दिया है। सील का नया बहरी, पान, सुपारी, नारियल, खारिक-बादाम सहित सभी प्रकार के मेवे, कपड़े, कपास, तेल, घी, आटा, गुड़, शक्कर सब है। थाली, लोटा, कोपरा, आम और केले की पत्तियाँ जैसे कई सामान अब भी जुटाए जाने हैं, इस काम में दामाद स्वयं लगा हुआ है; पता नहीं कब, किस सामान की जरूरत पड़ जाय?

कम पड़ने वाले सामानों के लिये दीवान साहेब जब तब आवाज लगाते ही रहते हैं। अब की बार तेल मंगाया गया था। कांच की बड़ी सी, सुंदर सी चौकोर शीशी में तेल लेकर नंदगहिन काकी स्वयं हाजिर हो गई। रख कर लौटने ही वाली थी तभी महंत साहब की वाणी सुनकर वह ठिठक गई।

बड़े कोमल और शांत भाव से महंत साहब पूछ रहे थे - “क्या लेकर आई हो माई?”

“तेल ताय साहेब।”

“किसमें लाई हो?”

“सीसी म तो लाय हंव साहेब।”

“किस चीज की शीशी है?”

“कांच के ताय साहेब, रस्ता म परे रिहिस हे। बने दिखिस त बीन के ले आय रेहेंव। चार साल हो गे हे। मंय अपढ़, का जानंव, का के होही?”

घुड़कते हुए महंत साहब ने कहा - “माई! तुम केवल अपढ़ ही नहीं हो, मूर्ख और अज्ञानी भी हो। खुद का धरम तो नाश कर ही रही हो, गुरू को भी धर्मभ्रष्ट करने पर तुली हुई हो। दारू की बोतल में तेल देती हो?”

दारू की बात सुनकर और गुरु को क्रोधित देखकर नंदगहिन काकी सिर से पांव तक कांप गई। हिम्मत जुटा कर बोली - “बने कहिथव साहेब। हम मूरख, अज्ञानी; दारू मंद के मरम ल का जानबोन। जानतेन त अइसन अपराध काबर करतेन साहेब। आप मन गुरू हव, ज्ञानी-धियानी हव, तउन पाय के जानथव।”

यद्यपि नंदगहिन काकी ने ये बातें बड़ी सहजता, सरलता और विनीत भाव से कही थी, परंतु महंत साहब को चुभ गई। उनका शरीर क्रोध से कांपने लगा। कहा - “अरी पापन! एक तो पाप करती है, ऊपर से व्यंग्य वचन कह कर गुरू का अपमान करती है।”

“दारू ह नसा करथे कहिथें साहेब। चार साल हो गे, ये सीसी के तेल ल खावत, गोड़-हाथ म चुपरत। हमला तो आज ले नसा नइ होइस। तुंहला तो देखिच के नसा हो गे तइसे लागथे?”

नंदगहिन काकी का जवाब सुन कर महंत साहब से कुछ कहते नहीं बना, परंतु क्षोभ और अपमान के आवेग में वह उठ खड़ा हुआ। शरीर क्रोध से जला जा रहा था।

गुरू का यह विकराल रूप देखकर नंदगहिन काकी सिर से पांव तक कांप गई। वह सोच रही थी, ’हे भगवान! पता नहीं किस जनम में कौन सा पाप मैंने किया था कि भरी जवानी में पति को खोया, सारी जिंदगी दुख भोगा। यह लोक तो मेरा बिगड़ा ही हुआ है, और अब गुरू को नाराज करके अपना परलोक भी बिगाड़ लिया।’ उनकी आँखों से आँसुओं की धारा बह निकली। उसे अपनी दुनिया में, लोक और परलोक में, केवल अँधेरा ही अँधेरा दिखने लगा। उसने सोचा, अब तो गुरू की शरण में जाने में ही भलाई है। गुरू के पांवों में गिर कर बिलखते हुए उसने कहा - “हे गुरू, मंय जनम भर के पापिन, तुंहर अपमान करके मंय तो अउ पाप म बूड़ गेंव। मोर तो चारों खूंट ह, चारों जग ह अंधियारेच अंधियार हो गे। पाप ल छिमा करो साहेब।”

महंत साहब का क्रोध अब शांत हो चुका था। काकी के सहज, निष्पाप और निश्छल व्यवहार ने, उसके इस आत्म-समर्पण ने उनके शुष्क हृदय को भावों की तरलता से भर दिया था। उनकी आँखें नम हो गई थी। कहा - “माई! उठो। तुम पापन नहीं हो। पाप तो मेरे अंदर भरा हुआ था। पाप के अंधकार में तो मैं ही डूबा हुआ था। कबीर साहब ने कहा है - ’अहंकार अभिमान विडारा, घट का चौंका कर उजियारा।’ तुम्हारा घर और तुम्हारा घट तो उजियारे से जगमगा रहा है। अहंकार का अंधियारा तो मेरे अंदर छाया हुआ था जिसे तुमने दूर कर दिया। तेरी देहरी में आकर तो मेरे सारे पाप ही धुल गए। तुम्हारे रूप में तो आज मैंने साक्षात गुरू को ही पा लिया है।”