घनाक्षरी छंदों का लालित्य / ओम नीरव

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धनाक्षरी छन्द चार तुकान्त चरणों का एक ऐसा छंद है जिसके प्रत्येक चरण में वणों की संख्या निश्चित होती है किन्तु वर्णों का मात्राभार निश्चित नहीं होता है। इन छन्दों की कोई निश्चित मापनी नहीं होती है अपितु इनकी एक निश्चित लय होती है जो अनुकरण से आती है। इन छंदों की लय को निर्धारित करने लिए (क) कुछ विशेष वर्णों के लघु-गुरु सम्बंधी तथा (2) सम-विषम पदों के क्रम सम्बंधी नियमों का उल्लेख किया जाता है। ये नियम लय को निर्धारित करने में सहायक अवश्य हैं किन्तु पर्याप्त नहीं हैं। इन छंदों के सर्जन में लय ही मुख्य है।

जिन शब्दों में (विभक्ति सहित) 1, 3, 5 आदि विषम वर्ण होते हैं उन्हें विषम पद तथा जिन शब्दों में (विभक्ति सहित) 2, 4, 6 आदि सम वर्ण होते हैं उन्हें सम पद कहते हैं। उदाहरणार्थ 'वे' , 'तुम को' , 'अनुबंध से' आदि क्रमशः 1, 3, 5 वर्णों वाले विषम पद हैं तथा 'वह' , 'अनुबंध' , 'अनुमोदन में' आदि क्रमशः 2, 4, 6 वर्णों वाले सम पद हैं। उल्लेखनीय है कि पास-पास आने वाले दो विषम भी सम जैसा व्यवहार करने लगते हैं। वर्णों की गणना में संयुक्ताक्षर को एक ही वर्ण माना जाता है। प्रभावशाली कहन की दृष्टि से कथ्य का मन्तव्य छंद के चौथे चरण या उसके उत्तरार्ध में निहित होना चाहिए. काव्यशास्त्र में इस छंद को 'मुक्तक दण्डक' कहते हैं। मात्राक्रम से मुक्त होने के कारण मुक्तक कहा गया है तथा इसका बहुत लम्बा चरण एक सांस में पढ़ना दंडित होने जैसा लगने के कारण इसे दण्डक कहा गया है।

कभी-कभी कुशल काव्य शिल्पी घनाक्षरी के चरणांत से अगले चरण का प्रारम्भ करते हैं, इससे छंद में विशेष सौन्दर्य उत्पन्न होता है, इस विशिष्टता को 'सिंहावलोकन' कहते हैं।

किसी घनाक्षरी के चरणों में 8-8 वर्णों के पदों पर 'अंत्यानुप्रास' होने से विशेष लालित्य उत्पन्न होता है किन्तु यह सदैव अनिवार्य नहीं होता है बल्कि कृपाण, विजया और देव जैसे घनाक्षरी में ही अनिवार्य होता है।

कवि सम्मेलन और काव्य गोष्ठियों के काव्य पाठ और मंच-संचालन में ये छन्द बहुत प्रभावशाली होते हैं।

घनाक्षरी छन्द के कुछ भेद दृष्टव्य हैं-

(1) मनहर घनाक्षरी

विधान-31 वर्ण, 16, 15 पर यति अनिवार्य, 8, 8, 8, 7 पर यति उत्तम, अंत में गा अर्थात गुरु, 8-8 वर्णों के खंडों में 'सभी सम पद' उत्तम, 'विषम-विषम-सम पद' उत्तम, 'सम-विषम-विषम पद' पचनीय, 'विषम-सम-विषम पद' वर्जित, चार समसतुकान्त चरण।

उदाहरण


माटी का ही घट हो या स्वर्ण का कलश भव्य,

मदिरा के पात्र से दुर्गंध ही तो आयगी।

शब्द के तलाव में डुबाओ जितना भी चाहे,

झूँठ की किताब शव तुल्य उतरायगी।

अनुबंध चूनरी के प्रेम तार टाँकने में,

द्वेष ग्रंथि आयी तो बुनाई उलझायगी।

द्वेष की दीवार हो विशाल कितनी भी चाहे,

प्रेम के आकाश से तो नीची रह जायगी।
-स्वरचित

सम-विषम के नियम को समझने के लिए इस छन्द के पदों को निम्न प्रकार विभाजित कर देखा जा सकता है। ध्यान रहे की इस नियम को समझने के लिए पदों का विभाजन लय अनुसार ही किया जाता है।

माटी का ही / घट / हो या / 4-2-2

स्वर्ण का / कलश / भव्य, 3-3-2

मदिरा के / पात्र से / दुर् / 4-3-1

गंध / ही तो / आयगी। 2-2-3

उल्लेखनीय है कि इसके दूसरे पद को निम्नप्रकार बदल कर देखें तो स्पष्ट हो जाएगा कि विषम-सम-विषम होने पर किसप्रकार प्रवाह बाधित हो जाता है-

स्वर्ण का / भव्य / कलश 3-2-3

इसीप्रकार अन्य को भी समझा जा सकता है।

(2) जनहरण घनाक्षरी

विधान-31 वर्णों के चार समतुकांत चरण, 16, 15 पर यति अनिवार्य, 8, 8, 8, 7 पर यति उत्तम, प्रारम्भ के 30 वर्ण लघु और अंत में गुरु। लय और प्रवाह मुख्य।

उदाहरण-


विकल-विकल मन, सुनयनि तुझबिन,

प्रकट मनस पर, सँवर निखर तू।

हृदय पटल पर, प्रतिपल बस कर,

सुखकर सुखकर, अनुभव भर तू।

सँभल-सँभल कर, थिरक-थिरक कर,

लय-गति वश कर, पग-पग धर तू।

रुनझुन-रुनझुन, छनन-छनन छन,

झनन झनन झन, पग-पग कर तू।
-स्वरचित

(3) रूप घनाक्षरी

विधान-32 वर्ण, 16, 16 पर यति, अंत में गाल अर्थात गुरु-लघु, 'सभी सम पद' उत्तम, 'विषम-विषम-सम पद' उत्तम, 'सम-विषम-विषम पद' भी उत्तम, 'विषम-सम-विषम पद' वर्जित, चार तुकान्त चरण।

उदाहरण


कवि कण्ठ कूजते हैं छंदलोक में अमंद,

हो रही अछन्दलोक में विचित्र भाँय-भाँय।

जानते हो, क्योंकि मृदु छन्द की पुकार सुन,

अम्बर से अम्ब अविलम्ब चली पाँय-पाँय।

सुनो हास्य करुणा शृंगार शान्ति के कवित्त,

चाहे सुनो वीर-रौद्र रचना की धाँय-धाँय।

छन्द काव्य के कबाब में जो हड्डियाँ बने है,

करते रहेंगे वे तो नित्य नयी चाँय-चाँय।
-स्वरचित

(4) जलहरण घनाक्षरी

विधान-32 वर्णों के चार समतुकांत चरण, 16, 16 वर्णों पर यति अनिवार्य जबकि 8, 8, 8, 8 पर यति उत्तम, अंत में लल अर्थात लघु-लघु अनिवार्य। अन्य वर्णों का भार अनिश्चित। लय और प्रवाह मुख्य।

उदाहरण


रिमझिम जलवृष्टि, रचती विचित्र सृष्टि,

जिसकी जैसी हो दृष्टि, आती वैसा रूप धर।

लगी न दिहाड़ी कहीं, चूल्हा भी जला है नहीं,

कहीं पकवान रहीं, तल नारियाँ सुघर।

कहीं चले मनुहार, कहीं है विरह-ज्वार,

कहीं पर है बहार, कहीं जियें मर-मर।

किन्तु जब रस-वृष्टि, करती है काव्य-सृष्टि,

होती सदा दिव्य-दृष्टि, बनती आनंदकर।
-स्वरचित

(5) डमरू घनाक्षरी

विधान-32 वर्णों के चार समतुकांत चरण, 16, 16 पर यति अनिवार्य, 8, 8, 8, 8 पर यति उत्तम, सभी 32 वर्ण लघु। लय और प्रवाह मुख्य।

उदाहरण-


विकल-विकल मन, सुनयनि तुझबिन,

प्रकट मनस पर, सँवर निखर प्रिय।

हृदय पटल पर, प्रतिपल बस कर,

सुखकर सुखकर, अनुभव भर प्रिय।

सँभल-सँभल कर, थिरक-थिरक कर,

लय-गति वश कर, पग-पग धर प्रिय।

रुनझुन-रुनझुन, छनन-छनन छन,

झनन झनन झन, पग-पग कर प्रिय।
-स्वरचित

(6) कृपाण घनाक्षरी

विधान-32 वर्णों के चार समतुकांत चरण, 8, 8, 8, 8 पर यति अनिवार्य, 8, 8, 8 पर अंत्यानुप्रास अनिवार्य, अंत में गाल अर्थात गुरु-लघु आनिवार्य। अन्य वर्णों का भार अनिश्चित। लय और प्रवाह मुख्य।

उल्लेखनीय है कि सभी प्रकार के घनाक्षरी छंदों में 8-8 वर्णों पर अंत्यानुप्रास या समान्त होने से लालित्य उत्पन्न होता है किन्तु-किन्तु कृपाण घनाक्षरी के अतिरिक्त किस्से अन्य घनाक्षरी में यह अनिवार्य नहीं होता है।

उदाहरण


रिमझिम जलवृष्टि, रचती विचित्र सृष्टि,

जिसकी जैसी हो दृष्टि, रूप वैसा ले सँवार।

लगी न दिहाड़ी कहीं, चूल्हा भी जला है नहीं,

कहीं पकवान रहीं, तल नारियाँ अपार।

कहीं चले मनुहार, कहीं है विरह-ज्वार,

कहीं पर है बहार, कहीं जियें मन मार।

किन्तु जब रस-वृष्टि, करती है काव्य-सृष्टि,

होती सदा दिव्य-दृष्टि, हरती है अंधकार।
-स्वरचित

(7) विजया घनाक्षरी (नगणान्त)

विजया घनाक्षरी दो प्रकार की होती है, एक के अंत में ललल या नगण आता है जबकि दूसरे के अंत में लगा या लघु-गुरु आता है।

विधान-32 वर्णों के चार समतुकांत चरण, 8, 8, 8, 8 पर यति अनिवार्य, 8-8 वर्णों पर ललल अर्थात लघु-लघु-लघु अथवा नगण आनिवार्य। 8 वर्णों के प्रत्येक पद में सम-विषम-विषम अनिवार्य। अन्य वर्णों का भार अनिश्चित। लय और प्रवाह मुख्य।

उदाहरण-


नीति पर जो अटल, रहे धर्म से अचल,

प्रीति करे पल-पल, दंभ का करे शमन।

चले सत्य की डगर, सत्य ही धरे अधर,

आज पग-पग पर, होता उसी का दमन।

देख मन है विकल, रहा है बहुत खल,

उर में जले अनल, धैर्य करता गमन।

उर वेदना अकथ, जिसका न अन्त अथ,

फिर भी चले सुपथ, उसको मेरा नमन।
-स्वरचित

(8) विजया घनाक्षरी (लगान्त)

विधान-32 वर्णों के चार समतुकांत चरण, 8, 8, 8, 8 पर यति अनिवार्य, 8-8 वर्णों पर लगा अर्थात लघु-गुरु आनिवार्य। 8 वर्णों के पदों में विषम-सम-विषम भी मान्य। अन्य वर्णों का भार अनिश्चित। लय और प्रवाह मुख्य।

उदाहरण-

नखत दिखे जागते, सपन दिखे भागते,

हवाई गोले दागते, खिसक रही यामिनी।

बादल काले छा गये, युगल पास आ गये,

अनाड़ी मात खा गये, दमक गयी दामिनी।

पवन चली झूमती, मदिर मत्त घूमती,

दिशाएँ दस चूमती, अनोखी गजगामिनी।

कहीं न दिखी यामिनी, कहीं न दिखी दामिनी,

कहीं न गजगामिनी, दिखी तो दिखी भामिनी।
-स्वरचित

(9) देव घनाक्षरी

विधान-33 वर्णों के चार समतुकांत चरण, 8, 8, 8, 9 पर यति अनिवार्य, अंत में ललल अर्थात लघु-लघु-लघु अथवा नगण आनिवार्य। ललल की पुनरावृत्ति और भी ललित। अन्य वर्णों का भार अनिश्चित। लय और प्रवाह मुख्य।

उदाहरण-


मन में उठी उमंग, झूम उठा अंग-अंग,

मन हो गया मलंग, चलता उछल-उछल।

प्रीति की डगर पर, पहला चरण धर,

होता बड़ा ही दूभर, चलना सँभल-सँभल।

लोग जो सयाने बड़े, करते विरोध अड़े,

बोलते वचन कड़े, पड़ते उबल-उबल।

पड़े न दिखाई कुछ, पड़े न सुनाई कुछ,

उर है हवाई कुछ, उठता मचल-मचल।
-स्वरचित
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