घरबारी मसीहा विष्णु प्रभाकर / अजित कुमार

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आवारा मसीहा’ जैसी प्रख्यात कृति के लेखक की धीर-शान्त छवि से परिचित जन तो उनको याद रखेंगे ही, जिन्हें उनके व्यक्तिगत सम्पर्क में आने का सौभाग्य नहीं मिला, वे तमाम हिन्दीप्रेमी भी हमारी पुरानी पीढ़ी के उन जैसे लगभग अन्तिम अवशेष को भुला नहीं सकते- विशेष रूप से इसलिए भी कि 95-96 की वय और स्वास्थ्यगत कठिनाइयों के बावजूद विष्णुजी लगभग अन्त तक लेखन, प्रकाशन तथा जन-सम्पर्क से जुड़े रहे और इधर कुछ बरसों से उनकी गति धीमी भले हुई हो, पर बन्द कदापि नहीं हुई । अनेक अर्थों में वे पारम्परिक मूल्यों पर टिकी उस भारतीयता के प्रतीक थे, जो आज़ाद हिन्दुस्तान में तेज़ी से मिटती नज़र आती है । जहाँ देश की नई पी़ढी़ में व्यक्तिवाद, आत्मकेन्द्रिकता, अधैर्य, भौतिकता, महत्वाकांक्षा, प्रतियोगिता आदि के प्रति उत्सुक आकर्षण है, वहाँ उनकी निष्ठा की परिधि में थे-- संयुक्त परिवार, सामाजिकता, धीरता-गम्भीरता, गाँधीवादी सादगी, दैनिक चर्या के अनिवार्य क्रम में लेखन का सम्मिलन और मान-सम्मान के प्रति निर्विकार दृष्टि । उनकी मित्रमंडली में बुज़ुर्गों से लेकर नौजवानों तक सभी शामिल थे लेकिन न तो उन्होंने अपने इर्द-गिर्द कोई गुट बनाया था, न हिन्दी की साहित्यिक राजनीति में वे कोई रुचि लेते थे । सच तो यह है कि इस सब के लिए उनके पास समय भी न था ।रोज़ी-रोटी की फिक्रें तो थीं ही, बाकी वक्त वे अनेक दायित्वों,, टी-हाउस-काफी हाउस की गपशप, पत्राचार, सुबह-शाम की लम्बी सैर और अनिवार्य लेखन-धर्म को देते थे ।

कुंडेवालान, अजमेरी गेट स्थित जिस किराए के घर में विष्णुजी अपने अनेक भाइयों और उनके परिवारों-सहित हिलमिलकर बीसियों बरस तक रहे, जहाँ से तमाम बाल-बच्चों की शादियां हुईं और जो नगर भर के युवा-वृद्ध लेखकों के लिए सदा खुला रहता था, वहाँ 52 साल हुए, सन 1957 में पहली बार ओंकारनाथ श्रीवास्तव के साथ जाने की याद मैंने अपनी एक पुस्तक ‘अंकित होने दो’ (1962) में दर्ज की थी, जिसका यह अंश विष्णुजी और उनके परिवेश का थोड़ा परिचय दे सकेगा-

‘मालूम हुआ कि घर में कुल सत्रह बच्चे हैं । दस तो यहाँ मौजूद हैं, बाक़ी का पता नहीं लग रहा है कि कौन कहाँ सोया, और कौन कहाँ दुबका हुआ है ।

‘सत्रह बच्चे?’ आश्चर्य से मेरी आँखें फैल गईं ।

‘और क्या? किसीको नज़र न लगा दीजिएगा।‘ फिलासफर ने अपने भाई-बहनों की तरफ अभिमानभरी दृष्टि डालकर कहा ।

‘सत्रह नहीं, आज से कहा कीजिए कि हमारे घर में उन्नीस बच्चे हैं । सत्रह आप और दो हम लोग । बराबर..?.’ मैंने करिश्मा से पूछा ।

‘बराबर उन्नीस’ करिश्मा बोली और सारे बच्चों ने उन्नीस का नारा लगायात।... इस बात से हम लोग बच्चों के बिलकुल अपने हो गए। न सिर्फ बच्चों के बल्कि उनकी माँ के भी, जो बीच में बैठी हुई हम सारे बच्चों में बराबर दिलचस्पी ले रही थीं, उन माँ के भी हमलोग अपने बच्चों जैसे हो गए । ‘

ये माँ थीं- सुशीलाजी, श्रीमती विष्णु प्रभाकर- जो केवल अतुल, अमित, अनीता, अर्चना की ही नही्, घर के और हम जैसे बाहर के भी कितने ही बच्चों- बड़ों की ममतामयी माँ हुईं और जिनने अपने असाध्य रोग के बावजूद पति और परिवार का भरपूर साथ दिया, भले ही वे अपने तब के मसिजीवी, संघर्षशील पति के निर्मल-उज्ज्वल यश का भरपूर विस्तार तथा उसकी सार्वजनिक स्वीकृति देखने के लिए पूरे समय जीवित न रह सकीं ।

ऐसी इन समर्पित अर्धांगिनी के प्रति अपने स्नेह-सद्भाव के नाते, कुंडेवालान के उसी पुराने छोटेसे घर में रहते हुए, विष्णुजी ने महाराणा प्रताप एन्क्लेव में जो ‘सुशीला भवन’ बनवाया, उसमें रहने की सुविधा भी उन्हें एक व्यक्ति के अतिक्रमण के कारण बहुत विलम्ब से और अत्यन्त कष्ट उठाने के बाद ही मिल पाई । पत्नी तो जा चुकी थीं पर बेटे अतुल, बहू अनुराधा, उनकी होनहार सन्तानों और नगर भर में बिखर गए विस्तृत परिवार का भरपूर सहयोग पा विष्णुजी मनोयोग से लिखते रह सके ।

निकट निवास होने के कारण मै उनसे अब भी प्राय: मिलता रहता था .गत वर्ष भी जन्मदिन पर अभिवादन करने गया तो देखा वे काफी शिथिल हो चुके हैं पर चिन्ता कर रहे हैं कि इकट्ठी हो गई डाक का उत्तर क्योंकर जाएगा । बोलकर लिखाने और पत्रोत्तर के लिए वे इधर कई सालों से सहायकों-सहायिकाओं की जरूरत समझने लगे थे और उन्हें नियुक्त भी करते रहते थे। कुछ ही समय पहले , श्री अशोक बाजपेयी तथा रेखाजी के साथ जब गया तो उनका स्वास्थ्य और भी जर्जर पाया । वे हमें ठीक से पहचान भी नहीं पा रहे थे यद्यपि कुछ ही् समय पहले उन्होंने अशोक जी की पहल से उन पर तैयार हो रहे महात्मा गाँधी विश्वविद्यालय के भव्य मोनोग्राम का खाका दिखाते हुए पर्याप्त संतोष व्यक्त किया था । उससे भी पहले अपने घर का कब्ज़ा हासिल होने पर उन्होंने सामने के बड़े पार्क मे भोज का आयोजन किया था जिसमें लेखकों-मित्रों-सहित परिवार के भी सारे सदस्य एकत्र हुए थे । .उसके बाद भी, काफी समय तक वे अपनी रोज़ाना की सैर नियमित रूप से करते रहते थे गोकि दूरी के कारण शाम कनाट प्लेस में बिताना बन्द हो गया था ।

विष्णुजी के साहित्यिक मूल्यांकन का यह समय अथवा अवसर नहीं । मैं उसका अधिकारी भी नहीं लेकिन मन में उनके अध्यवसाय और मूल्यनिष्ठा के प्रति आदर अवश्य है। हिन्दी में भिन्न स्वर-स्तर का जो तरह-तरह का लेखन है और होता रहता है, उसमें उनका स्थान आज कहां है और आगे चलकर कहां होगा, ये सारे सवाल जब उठेंगे तब उठेंगे, अभी तो इतना ही कहने का मन है कि विष्णुजी ने अपने लेखन में कभी ‘हाई प्रोफाइल‘ मुद्रा नहीं अपनाई, यह उनके देसी, गाँधीवादी स्वभाव के अनुरूप भी न था । अपने बारे में वे कोई लम्बे-चौड़े दावे नहीं करते थे । शायद यही वजह रही होगी कि उनकी ‘लो प्रोफाइल’ के चलते ‘आवारा मसीहा’ जैसी नायाब कृति को साहित्य अकादमी के पुरस्कार-योग्य नहीं समझा गया था और विवश हो उस कृति के प्रशंसकों- तमाम युवा लेखकों- ने चयन-प्रक्रिया से अपना सार्वजनिक विरोध जताना ज़रूरी समझा था । बहरहाल,, इस उपेक्षा से विष्णुजी की सेहत पर कोई फर्क नहीं पडा । उलटे वे पहले से भी तेज़ रफ्तार से लेखन करते गए । ‘अर्धनारीश्वर’ जैसे महत्वपूर्ण उपन्यास के बाद उन्होंने आत्मकथा के कई खंड लिखे और पिछले वर्षों में उनकी रचनावली के भी अधिकांश खंड निकल आए हैं।

आज उनका प्रचुर-प्रभूत लेखन हमारे सामने है और उनकी गणना देश के प्रमुख लेखकों में सर्वसम्मति से होती है । शान्त-मन्थर मानसिकता में लिखित और चमक-दमक से परहेज़ रखनेवाला लेखन होने के नाते वह हमें चकित-विस्मित नहीं करता, बौखलाहट से भी नहीं भरता, जिस तरह कि उग्र- भुवनेश्वर-राजकमल जैसों का लेखन करता था । उसे पढ़ने का मतलब शायद यह होगा कि सतह की उथलपुथल के भीतर मौजूद स्थिरता की ओर हमारा ध्यान जाए .। इस तथ्य की ओर मेरा ध्यान तब और गया जब उनके देहदान की खबर मीडिया से पाकर मैं उनके निवास पर पहुँचा और वहां विष्णुजी तो न मिले पर उनकी सन्तानें अपने भरेपूरे परिवारों सहित मौजूद थीं... तब... उन सबकी बेतरह बदल चुकी शक्लों में झाँककर मैं बावन साल पहले की उस शाम तक एक बार फिर पहुँच सका, जिसका बयान उन पन्नों मे इस तरह अंकित था-

‘ एक लड़का बिलकुल शान्त । द्सरा छत की धन्नी पर चढ़ जाने को आतुर ।... एक बच्ची बिलकुल पास सटकर खड़ी हुई लेकिन नाम पूछो तो बताती ही नहीं ...नींद के मारे अर्चना की आँखें झुकी पड़ रही हैं... पूछा कि नींद लग रही है ?- तो अर्चना ने अधमुदी आँखें पूरी मूँदकर सिर हिला दिया ।‘ ...

जिस तरह बूढों में हम वयस्कों को और वयस्कों मे शिशुओं की झलक पा लेते हैं , उसी तरह विष्णु प्रभाकर के भी प्रभूत लेखन में समोई हुई भारत की छवि को गौर से देखने पर हम ज़रूर पहचान लेंगे, —जिस तरह कि आधुनिकता में निहित पारम्परिकता को- । यह बात मै लगभग साठ साल पहले लिखित और पुरस्कृत उनकी प्रसिद्ध कहानी ‘ धरती अब भी घू्म रही है’ के आधार पर भरोसे के साथ कहना चाहूँगा ।