घरोंदा / शोभना 'श्याम'
घर में घुसते ही शिप्रा माँ के गले लग गयी। दोनों के आंसू एक दूसरे के कंधे भिगो रहे थे। थोड़ी देर तकमाँ बेटी गले लगकर रोती रही। इस बीच पापा भी उसकी अटैची और सूटकेस उसके कमरे में रख कर उनके पास आ खड़े हुए थे। वे भी उसको ढांढस बंधाते हुए बोले-"बस बेटा बस! हिम्मत रख, जो होना था हो चुका। वह आदमी तेरे लायक ही नहीं था। अच्छा हुआ उसकी असलियत जल्दी सामने आ गयी, अब नए सिरे से अपनी ज़िंदगी की शुरुआत करना। हम दोनों तेरे साथ हैं मेरी बच्ची, चल अब मुंह हाथ धो और आराम करले, फिर शाम को बाहर चलेंगे तेरी मनपसंद चाट खाने।"
सुबह शिप्रा सोकर उठी तो काफी ताजा लग रही थीं। उसने स्वयं को अपनी इस परिस्थिति के लिए काफी हद तक तैयार कर लिया था। दर असल शादी के इस अंजाम का अंदाज़ा तो उसे शादी के कुछ दिनों में ही हो गया था। बस अपनी ओर से हर संभव कोशिश करना चाहती थीं सो वह भी कर के देख ली और अब हमेशा के लिए उस घर से वापस आ गई थीं। सर को एक झटका देकर शिप्रा ने दुःख को एक ओर फेंका और पानी पीने रसोई की ओर चल दी।
रसोई की ओर जाते हुए उसकी नजर बरामदे के रोशनदान पर पड़ी। बेतरतीबी से पड़े कुछ तिनके और घास फूस देखकर वह रुक गयी। "उफ़! फिर यहाँ घोंसला बन जायेगा ... फिर यहाँ गंदगी होगी। माँ पापा भी बस कुछ नहीं देखते, हर बार मुझे ही हटाने पड़ते हैं ये तिनके ..." बड़बड़ाते हुए वह आदतन डाइनिंग टेबल की कुर्सी खीँच कर रोशनदान के नीचे ले आई। कुर्सी पर चढ़कर उसने तिनकों की ओर हाथ बढ़ाया ही था कि उसकी नज़र कुछ दूर चोंच में तिनका दबाये चिड़िया पर पड़ी। चिड़िया कि खामोश मगर बेचैन नज़रों ने जाने उससे क्या कहा कि वह बिना तिनके हटाए कुर्सी से उतर गई।
शायद घरोंदा उजड़ने का दर्द जान चुकी थीं वह।