घर जोड़ने की माया / हजारीप्रसाद द्विवेदी
सन् 1942-43 ई. में मैंने कबीरदास के सम्बंध में एक पुस्तक लिखी। पुस्तक लिखने की तैयारी दो-ढाई साल से कर रहा था और नाना प्रकार के प्रश्न मेरे मन में उठते रहे। मुझे सबसे अधिक आश्चर्य कबीरदास के परवर्ती साहित्य को पढ़कर हुआ। जिस धर्मवीर ने पीर, पैगंबर, औलिया आदि के भजन-पूजन का निषेध किया था, उसी की पूजा चल पड़ी, जिस महापुरुष ने संस्कृत को कूपजल कहकर भाषा के बहते नीर को बहुमान दिया था, उसी की स्तुति में आगे चलकर संस्कृत भाषा में अनेक स्त्रोत लिखे गए और जिसने बाह्याचारों के जंजाल को भस्म कर डालने के लिए अग्नि तुल्य वाणियाँ कहीं, उसकी उन्हीं वाणियों से नाना बाह्याचारों की क्रियाएँ संपन्न की जाने लगीं। इससे बढ़कर आश्चर्य क्या हो सकता है? कबीरोपासना पद्धति में सोने का, उठने का, दिशा जाने का, तूँबा धोने का, हाथ मटियाने का, मुँह धोने का, दातून करने का, जल में पैठने का, स्नान करने का, तर्पण करने का, चरणमृत देने और लेने का, जल पीने का, घर बुहारने का, चूल्हे में आग जलाने का, परसने का, अँचाने का तथा अन्य अनेक छोटे-छोटे कर्मों का मंत्र दिया गया है। टोपी लगाने का, दीपक बारने का, आसन लगाने का, कमर कसने का, रास्ता चलने का सुमिरन दिया हुआ है। ये मंत्र 'बीजक' आदि ग्रंथों की वाणियों से लिए गए हैं। आवश्यकतानुसार उनमें थोड़ा बहुत घटा बढ़ा लेने में विशेष संकोच नहीं अनुभव किया गया। वाणियाँ भी ज़रूरत पड़ने पर बना ली गई हैं। इस प्रकार दातून का मंत्र यह है:
सत्त की दातौन संतोष की झारी।
सत्त नाम ले घसो विचारी॥
किया दातौन भया परकास।
अजर नाम गहा विश्वास॥
अभी नाम ले पहुँचे आय।
कहै कबीर सब लोक सिधाय॥
चूल्हा में आग देने का मंत्र इस प्रकार है:
चूल्हा हमारे चौहटे सब घर तपे रसोई.
सत्त-सुकृत भोजन करें हमको छूत न होई॥
थाली परसने का मंत्र:
चंदन चौका कंचन थारी। हीरालाल पदुम की झारी॥
बहुत भाँति जेवनार बनाये। प्रेम प्रीति सों पारस कराये॥
संत सुहेला भोजन पाईं। सत्त सुकृति सत्त नाम गुसाँई॥
मेरे मन में बराबर यह प्रश्न उठता रहा कि ऐसा क्यों हुआ। कबीरपंथ की ही यह हालत हो, ऐसा नहीं है। अनेक महान धर्म-गुरुओं के आंदोलन अंत तक जाति-पाँति के ढकोसलों, चूल्हा चाकी के निरर्थक विधानों और मंत्र यंत्र के क्लांतिकर टोटकों में पर्यवसित हो गए हैं। बुद्धदेव ने ईश्वर के विषय में कोई बात तक कहना पसंद नहीं किया, परंतु उनका प्रवर्तित विशाल धर्म-मत मंत्र यंत्र में समाप्त हो गया। यह नहीं कहा जा सकता कि जनता में धर्म गुरुओं के प्रति श्रद्धा नहीं है। श्रद्धा का अतिरेक ही तो सर्वत्र पाया जाता है। कबीरदास ने अवतारों और पैगंबरों की पूजा की कड़े शब्दों में निंदा की। उनके शिष्यों ने श्रद्धा के अतिरेक में उन्हें जिस प्रकार भवफंद को काटनेवाला समझकर स्तुति की, वह शायद किसी भी पीर-पैगंबर के लिए ईर्ष्या की वस्तु हो सकती है:
नमो आद ब्रह्मं अरूपं अनामं।
भइ आप इच्छा रचे सर्व धामं॥
न जानामि कोई करै कौन ख्यालं।
नमोहं नमोहं कबीरं कृपालु॥
तुही कोटि कोटान ब्रह्मांण कीन्हों।
तुही सर्व को सर्वदा सुक्ख दीन्हों।
बसे सर्व में सर्व रूपं दयालं।
नमोहं नमोहं कबीरं कृपालु॥
सबै संत कारन्न तोही बतावै।
यही वेद ब्रह्यादि षट् शास्त्र गावैं॥
जपे नाम तेरी भजे जो त्रिकालं।
नमोहं नमोहं कबीरं कृपालुं॥
लहै ज्ञान विज्ञान कैवल्यं पूरं।
महामोह माया रहे ताहि दूरं॥
लखे ताहि उर में महा चित्तकालं।
नमोहं नमोहं कबीरं कृपालुं॥
फिर वह कौन-सी वस्तु है, जो अनुयायियों को अपने गुरु के उपदेशों के प्रतिकूल चलने को बाध्य करती है? यह कहना अनुचित है कि अनुयायी जान-बूझकर अपने धर्मयुग के वचनों की अवमानना करते हैं, वस्तुतः अनुयायी धर्मयुग की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए ही बहुधा ग़लत मार्ग ग्रहण करते हैं। वे लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ऐसे साधनों का उपयोग निस्संकोच करने लगते हैं, जो लक्ष्य के साथ मेल नहीं खाते और बहुधा उसके विरोधी होते हैं। हजरत ईसामसीह अहिंसा मार्ग के प्रवर्तक थे, परंतु उनकी महिमा संसार में प्रतिष्ठित करने के लिए सौ-सौ वर्षों तक रक्त की नदियाँ बहती रही हैं। हमें इतिहास को ठंडे दिमाग से समझना चाहिए. सचाई का सामना करना चाहिए.
जब किसी महापुरुष के नाम पर कोई संप्रदाय चल पड़ता है तो आगे चलकर उसके सभी अनुयायी कम बुद्धिमान ही होते हैं, ऐसी बात नहीं। कभी-कभी शिष्य परंपरा में ऐसे भी शिष्य निकल आते हैं, जो मूल संप्रदाय प्रवर्त्तक से भी अधिक प्रतिभाषाली होते हैं। फिर भी संप्रदाय स्थापना का अभिशाप यह है कि उसके भीतर रहने वाले का स्वाधीन चिंतन कम हो जाता है। संप्रदाय की प्रतिष्ठा ही जब सबसे बड़ा लक्ष्य हो जाता है, तो सत्य पर से दृष्टि हट जाती है। प्रत्येक बड़े 'यथार्थ' की संप्रदाय के अनुकूल संगति लगाने की चिंता ही बड़ी हो जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि साधन की शुद्धि की परवा नहीं की जाती। परंतु यह भी ऊपरी बात है। साधन की शुद्धि की परवा न करना भी असली कारण नहीं है, वह भी कार्य है, क्योंकि साधन की अशुचिता को सत्य भ्रष्ट होने का कारण मान लेने पर भी यह प्रश्न बना ही रह जाता है कि विज्ञान और प्रतिभा-शाली व्यक्ति भी साधन की अशुचिता के शिकार क्यों बन जाते हैं। कोई ऐसा बड़ा कारण होना चाहिए, जो बुद्धिमानों की अक्ल पर आसानी से परदा डाल देता है। जहाँ तक कबीरदास का सम्बंध है, उन्होंने अपनी ओर से इस कारण की ओर इशारा कर दिया था। घर जोड़ने की अभिलाषा ही इस प्रवृत्ति का मूल कारण है। लोग केवल सत्य को पाने के लिए देर तक नहीं टिके रह सकते। उन्हें धन चाहिए, मान चाहिए, यश चाहिए, कीर्ति चाहिए. ये प्रलोभन 'सत्य' कही जानेवाली बड़ी वस्तु से अधिक बलवान साबित हुए हैं। कबीरदास ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि जो उनके मार्ग पर चलना चाहता हो, अपना घर पहले फूँक दे:
कबिरा खड़ा बाज़ार में लिए लुकाठी हाथ।
जो घर फूँके आपना सो चले हमारे साथ॥
घर फूँकने का अर्थ है धन और मान का मोह त्याग देना, भूत और भविष्य की चिंता छोड़ देना और सत्य के सामने सीधे खड़े होने में जो कुछ भी बाधा हो, उसे निर्ममतापूर्वक ध्वंस कर देना। पर सत्यों का सत्य यह है कि लोग कबीरदास के साथ चलने की प्रतिज्ञा करने के बाद भी घर नहीं फूँक सके. मठ बने, मंदिर बने, प्रचार के साधन आविष्कार किए गए और उनकी महिमा बताने के लिए अनेक पोथियाँ रची गईं। इस बात का बराबर प्रयत्न होता रहा कि अपने इर्द-गिर्द के समाज में कोई यह न कह सके कि इनका अमुक कार्य सामाजिक दृष्टि से अनुचित है। अर्थात् विद्रोही बनने की प्रतिज्ञा भूल गई, सुलह और समझौते का रास्ता स्वीकार कर लिया गया। आगे चलकर 'गुरु-पद' पाने के लिए हाईकोर्ट की भी शरण ली गई.
यह कह देना कि सब ग़लत हुआ, कुछ विशेष काम की बात नहीं हुईं, क्यों यह गलती हुई? माया से छूटने के लिए माया के प्रपंच रचे गए, यह सत्य है। कबीरपंथ का नाम तो यहाँ इसलिए आ गया है कि ये बातें कबीरपंथी साहित्य पढ़ते-पढ़ते मेरे मन में आई हैं, नहीं तो सभी महापुरुषों के प्रवर्तित मार्गों की यही कहानी है। माया का जाल छुड़ाये छूटता नहीं, यह इतिहास की चिरोद्घोषित वार्ता सब देशों और सब कालों में समान भाव से सत्य रही है।
स्पष्ट ही मालूम होता है कि घर जोड़ने की माया बड़ी प्रबल है और संसार का बिरला ही कोई इसका शिकार होने से बच सकता है। इतनी प्रबल शक्ति के यथार्थ को उलटा नहीं जा सकता। उसको मानकर ही उसके आकर्षक से बचने की बात सोची जा सकती है। स्वयं कबीरदास ने न जाने कितनी बार इस प्रबल माया की शक्ति के प्रति लोगों का ध्यान आकृष्ट किया है:
ई माया रघुनाथ की बौरी खेलन चली अहेरा हो।
चतुर चिकनिया चुनि-चुनि मारे काहु न राखे नेरा हो।
मौनी पीर दिगंबर मारे ध्यान धरते जोगी हो।
जंगल में के जंगम मारे माया किनहु न भोगी हो।
वेद पढ़ते बेदुआ मारे पूजा करते स्वामी हो।
अरथ विचारत पंडित मारे बाँधे सकल लगामी हो।
मैं ज्यों-ज्यों कबीरपंथी साहित्य का अध्ययन करता गया, त्यों-त्यों यह बात अधिकाधिक स्पष्ट होती गई कि इर्द-गिर्द की सामाजिक व्यवस्था का प्रभाव बड़ा जबर्दस्त साबित हुआ है। उसने सत्य, ज्ञान, भक्ति और वैराग्य को बुरी तरह दबोच लिया है। केवल कबीरपंथ में ही ऐसा नहीं हुआ है। सब बड़े-बड़े मतों की यही अवस्था है। समाज व मान-प्रतिष्ठा का साधन पैसा है। जब चारों ओर पैसे का राज हो तब उसके आकर्षण को काट सकता कठिन है। पंथ की प्रतिष्ठा के लिए भी पैसा चाहिए. जो लोग इस आकर्षण को न काट सकनेवालों की निंदा करते हैं, वे समस्या को बहुत ऊपर-ऊपर से देखते हैं।
मैं बराबर सोचता रहा कि क्या कोई ऐसा उपाय नहीं हो सकता कि समाज से पैसे का राज खतम हो जाय। हमारे समस्त बड़े प्रयत्न इस एक चट्टान से टकरा कर चूर हो जाते हैं। क्या कोई ऐसी व्यवस्था हो सकती है, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपने मतलब भर का पैसा पा जाय और उससे अधिक पा सकने का कोई उपाय ही न हो? यदि ऐसा हो सकता तो वह समूचा बेहूदा साहित्य लिखा ही न जाता, जो केवल पंथों और उनके प्रवर्तकों की महिमा बढ़ाने के उत्साह में बराबर उन बातों को ढकने का प्रयत्न करता है, जिन्हें पंथ के प्रवर्तक ने कठिन साधना से प्राप्त किया था। पुराने तांत्रिक आचार्यों ने बताया था कि जो राग बंधन के कारण होते हैं, वे ही मुक्ति के भी कारण होते हैं। काम-क्रोध आदि मनोवृत्तियाँ, जिन्हें शत्रु कहा जाता है, सुनियंत्रित होकर परम सहायक मित्र बन जाती हैं। क्या कोई ऐसी सामाजिक व्यवस्था नहीं बन सकती, जिसमें 'घर जोड़ने की माया' जीती भी रहे और सत्य के मार्ग में बाधक भी न हो?
मेरा मन कहता है कि यह संभव है।