घिर्रराऊ / नीलम शंकर
पढ़े-लिखे लोगों के मुँह से सुने थे, लोकगीत, लोककथा, लोकोक्ति, लोकनृत्य जैसे शब्द। लेकिन ठीक-ठीक मतलब यानी अर्थ तो आज भी नहीं मालुम। ना ही कभी किसी से पूछने की हिम्मत ही पड़ी। ये तो कहो ये कठिन-कठिन शब्द, याददाश्त अच्छी है इसलिए, जेहन नाम के बक्से में पड़े हैं। इन शब्दों के आगे-पीछे की कुल जानकारी होती तब भी न पूछने की हिम्मत पड़ती किसी पढ़े-लिखे बबुआन से, कारण वही पढ़ाई-लिखाई इतनी कि बस अक्षर पहचान लेता था। कभी सही अर्थ समझ पाता कभी अर्थ का अनर्थ लगा लेता था।
लेकिन, व्यावहारिक ज्ञान मेरे पास आ गया था। जैसे सौ, पाँच सौ, हजार के नोट पहचान लेता था। ई न समझना कि हम बाबू के पास देखे हैं, भारी-भारी नोट। ऊ गाँव के ठकुरान के लड़कन के पास देखे थे, वही बोलते भी, 'अरे तिरछहवा ते कमात-कमात फेचकुर छोड़ देबे, तबौ ई नोट देखै के न मिली। जुड़वाय ले आपन आँख, चीन्ह ले हमरी जाती नोटिया। लोग मुझे नीचा दिखाने का एक भी अवसर हाथ से जाने नहीं देते थे। ऐसा नहीं कि मेरी ही आँख में गड़बड़ी थी या मैं ही केवल नान्ह जात का था। एक जन के बड़ी माता निकली थी, तो उसमें उनकी बाईं आँख चली गई थी। सब उसे कनवा कहते लेकिन उससे चिढ़ते न थे। उसे बबुआन के यहाँ बाहर-भीतर सब काम की आजादी थी। हमरी जाति में जिनके पास मोबाइल था उनसे रिरिया के खोलना बंद करना सीख लिया था। रिरियाना ही पर्याप्त होता तो क्या बात थी अपने हिस्से का गुड़ चबेना भी देना पड़ता था, घूस स्वरूप। जानने सीखने के एवज में उनके अपने काम भी करने पड़ते। किसी के लिए पेड़ से पकी जामुन तोड़ता, किसी के लिए पका बड़हल और नहीं तो गोरू-बछरू हाँकता कि किसी के खेत में न पड़ने पाएँ। ऐसे भी काम करता जो कुछ-कुछ खतरे वाले होते।
एक नया शब्द मैंने हाल ही में सुना लोक-टोटका। टोना-टोटका तो बचपन से ही सुनता आया था। माई कहती भी, 'हे रे कोई कुछ देवे तो खाना मत पता नहीं ओहमे टोना-टोटका ना हो' कभी कहती, 'ओकरे घरे जिन जाया ऊ बड़ी टोनही बा'। कभी कहती, 'फलाने के मेहरारू टोटका झार दे तो मरत मनई टन्न होइ जाए'
शायद ही कोई दिन गुजरता हो जब कानों में यह शब्द (टोना-टोटका) न पड़ता हो। मतलब बिन सुने दिन पूरा न होता था।
लेकिन जब से शहर में आया हूँ, तब से इन शब्दों का सुनना लगभग कम हो गया था, बल्कि दिखाई ज्यादा पड़ता था। कहीं किसी की बिल्डिंग, बँगले पर रंग-बिरंगी हंडिया टँगी होती। तो कहीं अमूमन दुकानों के मुख्य द्वार पर नीबू हरी मिर्च धागे में पिरोई दिख जाती। उम्र बढ़ रही थी गँवई वातावरण से आया था इतनी तो समझ आ ही गई थी कि यह शहरी भी जो मेरी जानकारी के हिसाब से पढ़े-लिखे थे, टोना-टोटका की गिरफ्त में थे।
आइए उस तरफ चलते हैं जहाँ से मेरे जीवन में टोटका शब्द आ घुसा था। बात घर में पैदाइश को लेकर है। हमारी माई, काका, काकी, आजी, आजा (दादा-दादी) के हिसाब से घर में बच्चा (लड़का या लड़की) पैदा होता तो वह जीवित न बचता। कोई न कोई कारण होता कि वह खत्म हो जाता। घर से ही सुना माँ के ग्यारह बच्चे हुए जो सभी अधिक से अधिक एक आध महीना जीकर खत्म हो गए। मेरे जीवन के लिए भी माँ ने पंडित, पीर-मजार एक भी न छोड़ा पैदा होने तक। उन्हीं दिनों किसी परसिद्ध लोकाचारी (टोना-टोटका मामले के) ने उन्हें बताया कि छठी वाले दिल बच्चे को सूप में लिटाकर उसका एक हाथ पकड़ कर इस तरह जमीन में रखकर घसीटा जाए कि बच्चे के साथ-साथ सूप भी घसीट आए।
मेरे पैदा होने का इंतजार होने लगा। ऐसा अजीबोगरीब नुस्खा किसी ने न बताया था। शायद इसी लिए घर में सबको यकीन आने लगा था। मुझे पैदा होना था, सो मैं अपने समय से पैदा हो गया। मेरे पैदा होने के ठीक छठे दिन पंडितजी के हिसाब से सूप और मुझको लेकर जो नुस्खा बताया था, उसको एहतियात के साथ अंजाम दे दिया गया। घर चूँकि खपरैल का था सो जमीन भी कच्ची यानी मिट्टी-गोबर की लिपी-पुती थी। सिमेंट की फर्श के समान वह समतल न थी। लिहाजा सूप पर लिटाए बच्चे को घसीटने में ज्यादा घर्षण हुआ तो बल भी अधिक लगा। यानि मेरे शरीर पर इकट्ठा हुआ बल कुछ न कुछ असर छोड़ गया।
इसीलिए तभी से मेरा नाम घिर्रराऊ पड़ गया क्योंकि सूप में लिटाकर घसीटा (घिरराया) जो गया था। मेरे लंबे जीवन की कामना के लिए। मुझे जीवन तो मिल गया पता नहीं उस टोटके से या मेरा जीवित रहना विधि से तय था नहीं मालुम। लेकिन शरीर में एक एैब आ घुसा था जो मुझे बाद में पता चला कि यह मेरे बचपने में घिर्रराने से हुआ था। वह था मेरी आँख में भैंगापन (पुतली का तिरछा होना) आ गया था। आज भी शहरी मुहावरेदार भाषा में कहूँ तो लुकिंग लंदन टॉकिंग टोकियो। मतलब कहीं पर निगाहें कहीं पर निशाना। माँ-बाप का दुलारा था, पर अन्य लोगों का दुत्कारा हुआ होता। आप सोच रहे होंगे ऐसा क्यों? ऐसा इसलिए कि हमारे रूढ़िग्रस्त समाज में भैंगापन विकलांगता नहीं अमंगल जाना जाता। इस लिहाज से माँ-बाप के अलावा मुझे कोई भी प्यार सम्मान नहीं देता। एकाध उदाहरण दे रहा -
'कहाँ रस्ते में खड़े रहते हो, शुभ काम से निकल रहा अब तो कत्तई नहीं बनेगा।'
'जब देखो तब राह में काठ ऐसा खड़ा हो जाता है। एकर मइय्यो न छुट्टा छोड़ देती है, न आपना सुख से रहे के बा न दूसरे के रहे देय क बा।'
मतलब हर कदम पर ताने-उलाहने दिल भेदी व्यंग-बाण। मैं भी पता नहीं कैसे बेशरम या कहो कि मोटी खाल का हो गया था। मेरा संवेदनशील मन हर बार तानों से आहत होता, लगता दिल की एक परत कोई चाकू से खुरच गया है। अनजाने चेहरे कहते तो दिल कम दुखता। जानी-पहचानी, अड़ोसी-पड़ोसी-पट्टीदार नातेदार कहते तो दिल भर-भर आता। भूलता। समय मरहम लगा देता। नहीं तो कैसे जी पाता।
माँ को तो कभी नहीं पाया, हाँ पिता को कई बार उनकी भावनाओं से पकड़ा कि मेरे भैंगेपन को वह भी अशुभ मानते हैं। उन्हें जब कहीं अपने काम से जाना होता तो माँ से कहते -
'ई घिर्री को कहीं पठै दा तो। कहीं सार सामने न आय के फाट पड़े।'।
अपनी समझ में वह माँ से फुसफुसाहट वाले अंदाज में कहते पर मरद की आवाज कितनी भी धीमी हो जरा कान तेज कर लो तो सुनी जा सकती है। पिता के जरिए ऐसा कुछ सुनते हुए आहत तो होता था, परंतु अपनी आदत के अनुसार जल्दी ही उससे बाहर भी आ जाता। धीरे-धीरे आदी होता जा रहा था। यह मन, मस्तिष्क की भी बड़ी अजीब सी दशा है कौन सी बात बुरी लग जाए, कौन सी बात झटक दी जाती है। पिता को जब खेत में खाद या कार्बनिक खाद डालना होता, न तो मुझे साथ ले जाते ना ही सामने पड़ने देते। उनकी नाराजगी की एक बानगी -
'साल भर के अनाज है, कहीं बीज मर-मरा न जाए। इहै तो आसरा है, गाहे-गाढ़े बेंच-विकिन लेते हैं। दवाई, दुआ का खर्च निकल आता है, नहीं तो उहौ से गए।'
यदि उनका कभी कोई काम बिगड़ या गड़बड़ा जाता तो वह अपनी भूल या अक्षमता को नहीं कोसते-ठहराते। दोष मेरे मत्थे मढ़ देते थे -
'एसै तो निरबंसिया रहे होइत तो ठीक रहा। पता नहीं ई कहाँ से बज्जर के माफिक आय पड़ा। जैसे ईगारह ठो दऊ अपने पास रख लेहेन इहौ क लय लेतेन तो का बिगड़ जात। नाहीं तो जब देखो तब हमरे राह में काठ के माफिक धर उठता है।'
उससे भी उनका जी न भरता तो माँ को झीनी-झीनी गालियों से लाद देते। माँ तो उस ऊपर नीली छतरी वाले को सुकीरत देते नहीं थकती थीं जिसने उसके माथे से डायन की कजरी मिटा दिया था। पता नहीं, मेरे गाँव की महिमा थी, या मैं ही इतना अभागा था कि भैंगेपन को लेकर इतनी... आशंका? मुझे मजूरी करने को तो मिलता पर वही काम जिससे लोगों का किसी भी तरह का नुकसान होने का अंदेशा न रहता। कोई दिन ऐसा न जाता जिस दिन मैं थुथकारा-दुरदुराया न जाता। दुर्र-थूः शब्द जैसे मेरे लिए राम-नाम हो गया था।
रोते, सिसकते, कलपते किशोर से सयानेपन को आ पहुँचा था। वही एकमात्र मेरी माँ थी, जिसे मेरी फिकर रहती। मेरा बाप चाहता मैं मरूँ तो न, पर उसकी नजरों से दूर जाकर मजूरी करूँ, जहाँ मैं उन्हें रोज-ब-रोज नजर न आऊँ। लेकिन पिता के शब्दों की कठोरता तो मेरे मरने जैसी ही होती। बल्कि मार ही देते तो ठीक रहता।
धीरे-धीरे मैं बड़ा हो रहा था। होठ के ऊपर मसों की लकीरें मोटी, तथा ठोढ़ी पर भी कुछ बाल उग आए थे। माँ कहती, 'ई तेरी आवाज को क्या हो गया है भर्र-भर्र भर्राती है।' माँ अभी तक मुझे छोटा बच्चा ही समझती थी। न उसे मेरी मसें दिखती, न गले की भारी आवाज सुनाई पड़ती। हाँ एक बदलाव मेरे अंदर जरूर आया था मैंने थोड़ा शीशा देखना जरूर शुरू कर दिया था। बालों में कड़ू (सरसों) का तेल लगाके खूब चिपका-चिपका कर झारता। जिस हाथ से बालों में तेल लगाता, वही हाथ एक बार चेहरे पर फिराना नहीं भूलता था। लगे हाथ वही हथेली अपने दोनों बाजुओं में भी फिरा लेता।
माँ हाँक लगाती, 'अबै तैं खेते पर गए नाए? बिना देरी किए मेरा जवाब, 'बस जाय रहै माई तनिक मुँह हाथ चिकनावत रहे।' माँ ने राहत की साँस ली जो काम अब तक उनको करना पड़ता था, वहीं काम अब मैं स्वयं करने लगा था। नहीं तो रूखे-रूखे फैले उजरे बाल लिए उजरियाया-सा चेहरा-हाथ-गोड़ लिए घूमता रहता था।
कभी-कभी तो सजी सँवरी माँ भी मुझे अच्छी लगती थी। कल्पना में डूब जाता 'कास हमरो मेहरारू अएसहिन मिल जात तो का बात बने।' मैं दुलार में माँ से चिपक जाता उनसे दुलराता।
'माई रे तहिन तो है जो हमार खियाल राखत है बाकी क त करजवै जरत रहत है। न केहू से झगरा न केहू से रार फिरऊ सब खिसियान-से रहत हैं।' माँ दुलार से खूब मेरी चूमा-चाटी करती। हाथ चूमती-माथा चूमती और मेरी आँखों को भी चूमती थी। तब मैं अपने आप को बड़ा ही सुरक्षित पाता। सीना चार इंच जैसे फूल जाता था। फिर मैं घर से एकदम चौड़िया के निकलता। कोई हो न हो माई तो ठाढ़ हैइए है।
मर-मजूरी करते अपमान सहते हुए किशोरावस्था से जवानी की दहलीज पर पहुँच गया था। 'तेल-फुलेल लगा के कलगी झार लेबे पर गाँड़ी हल्दी ना लागी तोरे'। ऐसे साप मुझे जवानी आने तक अनगिनत बार सुनने को मिले थे। जिस दिन थोड़ा ठीक-ठाक साफ-सुथरा पहन लेता उस दिन जरूर सरापा जाता था। ऐसा नहीं ये साप माँ के कानों में न पड़े हों, पर जितनी बार वह सुनती, उससे उसकी दृढ़ता दो गुनी हो जाती। माँ ने भी ठान लिया था, मेरा ब्याह जितनी जल्दी हो सके करवा के रहेगी।
माई-बाबू के परयास से हल्दी लग गई। घर में एक अल्हड़ युवती-नवयौवना, काया की गठीली बीवी आ गई थी। शुरू-शुरू में कोई नाम न सूझा तो 'हे मेहरारू' कह कर ही बुलाता था। जैसे ही मजूरी से छूटता घर आ जाता था। मेरा ज्यादा से ज्यादा घर में रहना मेरे संगियों को न सुहाता। वह कभी-कभी मेरी कोठरी पर भी आ धमकते।
'अबे तिपंखहा कहाँ गयै रे। ई नऽऽमेहरी में फँस गवा है। चल-चल बेऽऽऽ निकर।' डर के मारे निकल आता था। मेरा ब्याह भी हो गया। घर-गृहस्थी वाला, तो क्या, रहा मैं घिर्रराऊ का घिर्रराऊ और तिपंखा। मेरी सामाजिक स्थिति में रत्ती-राई भी परिवर्तन नहीं हुआ था। मेरे अंदर अपने को उचित और सही ठहराने की भावनाएँ और विचार तो आते लेकिन मैं अपढ़ शब्द कहाँ से लाता। सो अपनी बात कह नहीं पाता था। मन मसोसने के अलावा क्या चारा था।
वह दिन भी आ गया, जब यह होने लगा कि मैं आज-कल में बाप बन जाऊँगा। दिल बल्लियों उछलता। आने वाली संतान को लेकर किसिम-किसिम के सपने देखता-मिटाता, देखता-मिटाता। देखता वहाँ तक जहाँ तक मेरी जानकारी थी, मिटाता वहाँ से जहाँ से लगता बस के बाहर की चीज है। पर सपने तो सपने ही होते हैं। हकीकत में उसे बदलना, हम जैसों के लिए कहाँ आसान। मेरे जैसों की मेहनत और दिमाग का आकलन दूसरों के भरोसे जो ठहरा।
वह दिन भी आ गया, जब मैं एक बेटे का बाप बन गया। उसके लिए भी वही टोटका अपनाया जाना था जो मेरे जन्म के समय हुआ था। वह प्रक्रिया छठी के दिन अपनायी जानी थी तब तक मैं उसे देख नहीं सकता था। बेताब दिल कहाँ मानता। समाज ने तो हर तरफ से नकारा नाकाबिल मान लिया था। लेकिन मेरा भरोसा भगवान पर बाप बन जाने से थोड़ा-थोड़ा आने लगा था। दो-तीन दिन तो किसी तरह बिन देखे काटे। जब न रहा तो ठान लिया कि देखना ही है। यह सोच-विचार करते हुए, कि यदि मैं अपशकुनी ही होता, तो नौ महीने के पहिले ही न चू-चा जाता। आखिर पूरा समूचा पैदा हुआ है, तो क्यूँ न देखूँ। छठी के पहले ही एक दिन मैं कोठरी में बच्चे को देखने की ललक लिए जा पहुँचा। पत्नी चीखी, 'हे कनढेबरा बाहर जा, बाहरऽऽऽ छठी के बाद, समझ नाही आवत। करेठा-नदीगाड़ा।
उसने तिपंखा से एक सीढ़ी आगे की गाली (कनढेबरा) दे दी थी। उसके कहने का ढंग इतना उपेक्षित और अपमान भरा था कि मैं उसी दम घर से बाहर आ गया। चार-छै घंटे इधर-उधर गाँव बाहर भटकता रहा। बेचैन अपमानित मन लिए शहर को निकल पड़ा। बेटिकट अपने आपको बचाता-छुपाता शहर पहुँच गया।
आ तो गया था शहर, पर बिन पैसे-रुपया के कितने दिन गुजरते? एक दिन, दो दिन पानी पी-पी। न सिर पर छत न ओढ़ना-बिछौना। गाँव की मजूरी और शहर की मजूरी में बड़ा फरक था। यहाँ वैसे काम न थे, जैसे गाँव में हुआ करते। बड़ा दिमाग लगाता किससे कहूँ कि काम दे दो। एक भय कि कोई डाँट के भगा न दे, अजीब-अजीब से डर सताते, पर पेट की भूख के आगे, सब डर बेमानी हो गए। पैदल ही निकल पड़ा केवल काम ढ़ूँढ़ने। हर कोई जमानत या जान-पहचान माँगता। पहले तो जमानत का मतलब मेरी समझ में नहीं आया। जब किसी सरल-सज्जन सेठ ने अर्थ बताया तभी आया। एक तो शहर तिस पर अनजान, जान-पहचान कहाँ से लाता। यूँ ही राह चलते, अपने जैसे धज वाले मिल जाते, तो उनसे कहता, 'हमार जमानत ले ल्यो, ताकि हमरो दू रोटी का जुगाड़ हो जाए'। ढेरों से कहा। एक दयावान कलेजा मिला, उसी ने मेरी जमानत ले ली। मिला, कैसे न मिलता, कोई काम। डाँट खाते, दुत्कार सहते एक काम मिला। ट्राली से ईंटा ढोने का। ट्राली मालिक की थी। 'सुनो ट्राली लेकर भागने की कोशिश न करना। पुलिस पा जाएगी, तो पैर तोड़ के हाथ में दे देगी। बहुत बड़ा शहर नहीं है, ढ़ूँढ़ निकालेंगे तुम्हें।'
सेठ की धमकी भरी बातें सुन कर, मेरे जैसे अपढ़-गँवई आदमी की रूह काँप गई थी। पर पेट भरने का जुगाड़ करना था, न कि भागने का तो दिमाग में आया भी नहीं। मैंने अपनी रहने की समस्या भी लगे हाथ बता दी। पता नहीं क्या सोच कर, मेरा चेहरा एक मिनट तक देखता रहा, फिर सिर नीचे करके सोचने लगा, कहा, 'जब मैं दुकान बंद करूँगा, तो सटर के बाहर बरामदे में सो जाना, ट्राली भी यहीं जंजीर से ताला लगा के बाँध देना और खाना यहीं बाहर, कहीं साइड में ईंटा-फीटा रखकर बना लेना।' ओढ़ना-बिछौना का इंतजाम, जरूर पुरानी चादर-दरी देकर कर दिया था। भगवान का लाख-लाख शुक्र मालिक रहमदिल निकला।
मेहनती तो बचपन से ही था। काम, कोई भी, कैसा भी हो, आनाकानी न करता। इसी से शायद मालिक खुश रहने लगा था। इर्द-गिर्द का माहौल और गँवई परिवेश का परिणाम ये हुआ कि न ठीक से चालाकी आई न बेईमानी। बस मेहनत और मेहनत करना। दो बोल प्रशंसा के मिल जाते किस्मत से, तो दोगुने उत्साह से काम करने लगता। मालिक जब-तब बक्सीस दे दिया करता था।
बचपने में कभी-कभार मेला-ठेला में ही खर्च करने को पैसा मिलता था, सो पैसा जान से भी बढ़कर बचाने की आदत पड़ गई थी। इसी आदत से पेटी में काफी पैसा बटोर लिया था। जो मालिक के सीढ़ी के ढलान वाली नीचे की जगह ही रखा रहता था इ भी मालिक की रहमदिली से था। पैसा देकर कुछ ही महीनों में ट्राली अपनी हो गई थी। सोता रहता तो उसी मालिक के दुआरे ही था लेकिन और अधिक काम करके पैसा कमा ले रहा था। इस बात से मालिक को कोई एतराज न था। कपड़े-लत्ते से अपना रहन-सहन भी कुछ ठीक कर लिया था।
घर की याद आती। जब आती, तो परेशान कर देने वाली होती, खास तौर से अपने बच्चे को देखने की। वह कैसा होगा, कितना बड़ा हुआ होगा, क्या करता होगा, माँ तो कहता ही होगा और बाबू? जब सोचता तो लगता दिल बाहर आ जाएगा। लेकिन इन सब भावों के ऊपर पत्नी का अपमान याद आ ही जाता, जो मन के घावों पर पड़ी पपड़ी को उचार देता। फिर से अपमान के खून का रिसाव चालू हो जाता। पपड़ी जमने में कई दिन लग जाते थे।
पेट भरने लगा तो पता नहीं कहाँ से परोपकार की सूझने लगी। जिस इलाके में रहता था वहाँ स्कूली लड़के बहुत थे। वह आए दिन कमरा बदलते। कमरा वह शौकिया नहीं मजबूरी में बदलते। कहीं मालिक मकान वजह होती या असुविधाओं का ढेर होता था। तो मेरी ट्राली ईंटा, मिट्टी, बालू ढोते-ढोते बच्चों का सामान भी ढो दिया करती थी। कुछ ऐसा था, कि लगभग रोज ही सामान इधर से उधर पहुँचाने का काम मिलने लगा और मुझे इसमें आनंद भी आने लगा था। और मैं 'तिरछी आँख ट्राली वाला' के नाम से लोगों में जाना जाने लगा था। पता नहीं क्यों इस संबोधन से मुझे जरा भी बुरा नहीं लगता था।
लड़कों का सामान चढ़ाने-उतारने और अपनी योग्यतानुसार सेटिंग में भी मदद करवाने लगा था। यह तो मेरा बचपने का गुण था, ठकुरान-बभनान की मन से चाकरी जो की थी। धीरे-धीरे पढ़ाई वाले लड़कों के बीच आत्मीयता बढ़ने लगी थी। कभी जब खाली समय मिल जाता, तो उन्हीं लड़कों के बीच काटता। शहरी बातचीत का ढंग काफी कुछ सीख गया था। कभी किसी की सब्जी काट देता, बरतन माँज देता, कपड़े प्रेस करवा लाता आदि-आदि छोटे-मोटे काम करने में मजा आता साथ ही प्यार भी मिलता ही था। अब अपनी नन्हीं-सी गृहस्थी उठाकर एक स्टूडेंट के कमरे के साथ ही लगा खाली गैराज था उसी में लाकर रख दिया था। था ही कितना? एक बक्सा, ओढ़ना, बिछौना और कुल जमा पाँच बरतन।
'तिरछे चचा आज खाना यहीं बनाओ और खाओ भी।'
लगभग ऐसा सिलसिला चल निकला था। जिनकी परीक्षाएँ नजदीक होती या हो रही होती उनकी हर तरीके से मदद करता। बाकी खर्चों के लिए दिन में एक-दो चक्कर किसी न किसी का सामान ढोने को मिल ही जाता था। जो अकेले को काफी था। कौन सा घर को पैसा भेजना था। चाह करके भी मन में कहीं कुछ फाँस थी या हिचक कह लो जो कुछ भी करने से रोकती थी।
शादी! मेरे लिए उपलब्धि थी, अम्मा के लिए चुनौती और गाँव वालों के लिए अजूबा तो थी ही। अभी हम मेहरारू को समझते-बूझते, लाग-लोर बढ़ता कि ऊ अइसन झटका दी कि उबर ही नहीं पा रहा था। किसी के जरिए खबर लगी कि माँ चल बसी। कष्ट बहुत हुआ। अंदर ही अंदर पी गया। किससे बाँटता? जिससे भी कोशिश करता, सभी जबरदस्ती गाँव भेज देते। वहाँ जाने में एक ही हिचकिचाहट थी, वह थी हमार मेहरारू। अब और घर जाने का मन न करता यदि कभी मन में विचार आ भी जाता तो लगता यही दुनिया ठीक है। यहाँ कम से कम प्यार-सम्मान और अपनापन तो है।
कंपटीशन वाले लड़कों के मध्य रह रहा था, प्रायः वह परीक्षाएँ तो देने जाते ही थे। उन्हीं में से कुछ लड़कों की श्रद्धा इतनी कि उमरदराजी होने के नाते वह मेरा पैर छूते और कहते, 'चचा आशीर्वाद दो कि मैं सफल हो जाऊँ।' जोर से बोल का साहस तो न होता लेकिन मैं दिल ही दिल, उन्हें खूब असीसता। पता नहीं मेरी किस्मत चमक उठी थी या कुछ जस हाथ में आ गिरा था, जो पैर छू कर जाता वह जरूर सफल हो जा रहा था।
मुहल्ले में मेरी इज्जत बढ़ गई थी। उन्हीं लोगों के उतरन से मैं भी बना-ठना रहने लगा था। आखिरकार पुराना शौकीनी जो ठहरा। गरीबी और नजरंदाजी के चलते पहले जुगाड़ भी नहीं हो पाता था।
पढ़े-लिखे लोगों के बीच रहते-रहते मेरे अंदर कुछ-कुछ विचार भी जन्म लेने लगे थे। कभी सकारात्मक तो कभी नकारात्मक, उस वक्त जैसी मेरी मन की सोच होती। शहर में मुझे अब तक किसी ने अपशकुनी नहीं माना था। माना भी हो तो मुझे बोध नहीं हुआ था। तो गाँव में कैसे अपसकुनी हो गया? यह प्रश्न मुझे बच्चे की भाँति परेशान करता। अंततः निष्कर्ष निकलता कि ई कुल पढ़ाई-लिखाई कऽऽऽ कमाल बा। कोई दादा कहता, कोई बाबा कोई चचा। जैसी जिस दिन धजा बनी होती उसी के अनुसार सब नामकरण कर देते। लेकिन मेरे मन में धीरे से उस वक्त चोर आ घुसता, जब कोई परीक्षा इंटरव्यू देने जाता। मेरी कोशिश होती कि मैं उसके सामने न पड़ूँ।
इतने सारे कंपटीशन देने वाले लड़कों के बीच रहते-रहते कोई न कोई आपको अधिक मान देने ही लगता है। मैं भी इससे विलग नहीं रहा। महेश नाम था उसका, वह जब भी कोई इम्तीहान देने जाता तो पहले बता के जाता, 'चचा जा रहे, पीछे कमरा देखना।' पता नहीं कब और कैसे वह मेरा पैरा छूने लगा ठीक-ठीक याद नहीं। पहली बार जब छुआ, तो अपनी छोटी जाति का होने की आत्मग्लानि सी हुई थी। दिल अंदर से रो पड़ा था, ऊपर से बस होठ ही बुदबुदा पाये थे। स्पष्ट कुछ भी नहीं हुआ था। अब वह प्रायः ही 'हे चचा हेने आवा' कहता और पैर छू कर चला जाता। शहर आकर पढ़ने के मकसद में वह कामयाब हुआ था। किसी इंटर कालेज में उसे पढ़ाने की नौकरी मिल गई थी।
उसकी देखा-देखी लॉज के लगभग सभी लड़के इम्तिहान देने जाते वक्त मेरा पैर छूने लगे थे। जो नया आता, वही भी छूने लगता। धीरे-धीरे मेरे अंदर का कसैला और गीलापन काफी कम हो गया था।
अब तक मैं लड़कों का माननीय हो गया था। घिर्रराऊ नाम तो जैसे कहीं छूट सा गया था। जानते कई लड़के थे, पर लिहाजवश शायद कोई भी नहीं बुलाता था। हाँ मुहल्ले में घिर्रराऊ टॉनिक के नाम से जाना जाने लगा था। ट्राली चलाना लगभग छूट-सा गया था। तभी निकालता जब कोई लड़का कमरा अदलता-बदलता। वरना मेरा गुजारा लड़कों की सेवा-टहल और पुराना-धुराना पहनने से चल जा रहा था। लड़के कभी-कभार सौदा खरीदने से जो पैसा बचता वह न लेते थे। इससे मेरा सुर्ती-चूना का खर्चा निकल आता था।
अपना क्या है जी रहा था किसी तरह। मतलब इसी में मगन था। कसक थी तो परिवार की, याद भी आती। ऐसा कोई बड़ा रूप-रंग नहीं तैयार कर पाया था कि गाँव जाऊँ और दिखाऊँ कि देखो शहर से कमा के लौटा हूँ। कुछ अपनी आव-भगत बना पाता। ऐसा नहीं कि इतने दिनों में घर याद न आया हो। माँ तो मेरे घर छोड़ने के छै महीने बाद ही नदी तीरे (श्मशान) पहुँच गई थी। मैं ही उनका इकलौता आँख का तारा बच पाया था। नहीं तो सभी उन्हें डाइन ही कहते। अम्मा बाबू में मुझको लेकर हमेशा किचाहिन मची रहती। अम्मा मेरा पक्ष लेती। बाबू को पता नहीं क्यूँ, फूटी आँख नहीं सुहाता था। जबकि उनके आगे नाथ न पीछे पगहा। लेकिन बाबू तो बाबू ही थे। ऐसा नहीं कि मैं अकेला गाँव में तिपंखा था। टहोकी शुकुल का भी एक बेटवा था तिपंखा पर उसे कोई कुछ न कहता था। सामान्य बच्चों की तरह ही वह भी अपने घर और टोले में जाना जाता था। पता नहीं क्यूँ हमारे ही पीछे पूरा गाँव पड़ा रहता। इतना बदसूरत भी नहीं था। खैर आपन-आपन किस्मत है।
एक घटना मेरे साथ बड़ी मन को छूने वाली घटी। मुहल्ले की एक महिला लॉज में सवेरे-सवेरे अपने बेटे को लेकर आ गई। कहने लगी, 'घिर्रराऊ दादा अपने आशीर्वाद का टॉनिक हमारे बेटा को भी दे दो शायद अबकी बार पास हो ही जाए।'
तो मैं घिर्रराऊ, रामबाण, दादा, टॉनिक आदि-आदि उपनामों के साथ जाना जाने लगा था। कहीं अपने आप पर संतोष की एक परत बैठती-जमती पर जब-तब घर की याद आती तो वही पत्नी द्वारा अपमान कौंध जाता। लेकिन अपना बच्चा, उसे देखने की ललक अकेले में कभी इतना जोर मारती कि मेहरारू द्वारा बेज्जती भी कहीं जा लुकाती। कई बार अनायास भोंकार छोड़ कर रोया भी था, लेकिन सुन कोई नहीं पाया था।
एक दिन ममता इतनी जोर मारी कि ओकर अपमान-सपमान भूलकर गाँव चल पड़ा था अपने लाल को देखने। किसिम-किसिम का सोच-विचार लिए। भूखा-पियासा पहुँचा तो, लेकिन देखते ही भौचक्क रह गया। ओसारे में हमार मेहर हमरे बेटवा के साथ चौघड़ खेल रही थी। कुछ देरऽऽऽ निहारता रहा था आड़ से। उसका रंग-रूप बनावट, जो-जो दूर से देख पाया देखा। हल्की-सी तिरपती के बाद मन आगा-पीछा सोचने लगा। उसी क्षण उल्टे पाँव लौट पड़ा...।