घुँघरीःवेदना की सरस रागात्मक अभिव्यक्ति / शिवजी श्रीवास्तव

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घुँघरी-काव्य-संग्रहः डॉ कविता भट्ट, पृष्ठः 128 मूल्यः260 रुपये, संस्करणः 2018; अयन प्रकाशन 1/20

महरौली नई दिल्ली-110030

डॉ.कविता भट्ट का काव्य संग्रह 'घुँघरी' काव्य-सुमनों का एक ऐसा गुलदस्ता है जिसमें भारतीय काव्य-शैलियों-दोहा, मुक्तक, गीत, क्षणिका, मुक्त छन्दों की कविताओं के साथ ही जापानी शैली के हाइकु, ताँका, चोका के रंग-बिरंगे पुष्प, लोक मानस के सौंदर्य एवं भावों की अभिनव सुगंध के साथ सुसज्जित है। इस संग्रह में शैलियों के वैविध्य के साथ ही भावों / विषयवस्तु का भी वैविध्य विद्यमान है।

सर्वप्रथम संग्रह का शीर्षक ध्यान आकृष्ट करता है, घुँ घरी लोक भाषा का शब्द है, कवयित्री ने पुरोवाक् में स्वयं ही इसका अर्थ स्पष्ट करते हुए लिखा है-'उत्तराखण्ड के ग्रामीण अंचलों में प्रचलित लोक शब्दावली में इसके दो अर्थ हैं, पहला-घुँघरू के भीतर धातु का छोटा—सा दाना, जो चलने पर आवाज़ करता है...दूसरा-घुँघराली लटों वाली सुंदर पहाड़ी महिला ...'

संग्रह की कविताओं के संदर्भ में यह शीर्षक अत्यंत प्रतीकात्मक है, इसमें पहाड़ी क्षेत्र के प्राकृतिक सौंदर्य, वहाँ के लोक जीवन के विविध पक्षो के चित्रों के साथ ही समसामयिक विषयो एवं नारी मन की वेदना को बड़े सहज ढंग से चित्रित किया गया है, जैसा कि स्वयं कविता जी ने लिखा है-'प्रस्तुत संग्रह में शृंगार एवं सामयिक विषयों पर केंद्रित रचनाओं के साथ ही हिमालयीय क्षेत्र की सुंदरता, रीति-रिवाज, दुरूह जीवन शैली, नारी जीवन की विसंगतियों, यहाँ के बचपन, लोकपर्व सैनिकों एवं उनके परिवार की मनोदशा आदि को सम्मलित किया गया है। अतः लोकभाषा में प्रचलित' घुँघरी' शब्द से मैंने इस संग्रह का नामकरण किया। "

स्पष्ट है कि घुँघरी के दोनों अर्थों को आत्मसात् करते हुए इस संग्रह का नामकरण हुआ है। वस्तुतः घुँघुरू के भीतर बजने वाले दाने को सतत कठोर कवच से टकराना पड़ता है, वेदना सहनी होती है, तभी वाह्य परिवेश में एक सरस नाद की अभिव्यक्ति होती है, इस अर्थ में 'घुँघरी' शीर्षक बड़ा ही प्रतीकात्मक है, संग्रह की कविताओं का मूल स्वर वेदना और करुणा ही है। यद्यपि प्र।ति के सौंदर्य और उल्लास को अभिव्यक्त करने वाली कविताएँ भी संग्रह में है; पर मूलतः वेदना ही इसका मूल स्वर है, कवयित्री के अंतस् की वेदना विविध रूपों में अभिव्यक्त होती है, संग्रह का प्रारम्भ 'माँ शारदे' , वंदना से हुआ है इस वंदना में संसार में व्याप्त दुःखों से व्यथित कवयित्री का हृदय माँ शारदा से स्वयं के लिये कोई याचना, कोई कामना नहीं करता, उसे चिन्ता है तो बस लोक की—

पहाड़ी पगडंडी पर घोर अँधेरे / गाँव के जीवन में कर दे सवेरे

गीतों में इनका शृंगार लिखूँगी / माँ शारदे तेरा प्यार लिखूँगी।

जहाँ-जहाँ लोक के चित्र है उनमें या तो वेदना है, वेदना से संघर्ष / मुक्ति का संकल्प है या मुक्ति का उल्लास है, 'नई रीत लिखे अब' कविता में ये संकल्प देखें—

रात का रोना बहुत हो चुका अब / नई भोर की नई रीत लिखें अब।

बसन्त ऋतु में खिलने वाली 'बुराँस की नई कली' उल्लास का संदेश लिये है, पर इस उल्लास के मूल में इस बात की प्रसन्नता भी छुपी है कि गाँवों की व्याकुलता मिटेगी और वे कष्टमुक्त होंगे-

किवाड़ गाँव के विकल / झूम कर खुलेंगे कल

अब रंग जाएँगे बदल / पहाड़ सब जाएँगे सँवर।

कवयित्री का एक मन सदा अपने अंचल में विचरता रहता है, अपने अतीत से, अपने बचपन से अपने गाँवो से कवयित्री को बेहद लगाव है, यह लगाव जहाँ एक ओर आह्लादित करता है, वहीं लोक संस्कृति के परम्परागत मूल्यों के विलुप्त होते जाने से आहत भी है, चिंतित भी है, विकास एवं आधुनिकता के नाम पर जिस प्रकार लोक-संस्कृति को नष्ट किया जा रहा है, नई पीढ़ी अपनी परम्पराओं, लोक-उत्सवों और विरासत को भूलती हुई जड़ों से कट रही है इस पीड़ा को कविता जी की कविताओ में स्पष्ट देखा जा सकता है। 'फूलदेई' जैसी कविताओं में-

उन्होंने इस पीड़ा को बड़े ही सहज ढंग से व्यक्त किया है-

आज चौंक पूछ बैठी मुझसे / एक सखी-क्या है फूलदेई

मैं बोली पुरखों की विरासत है / पहाड़ी लोकपर्व है फूलदेई

मैं नहीं थी हैरान, सुदूर प्रांत की / सखी क्या जाने फूलदेई,

किन्तु गहन थी पीड़ा, पहाड़ी बच्चा भी नहीं जानता, -फूलदेई।

लोक-संस्कृति के निरन्तर छीजते जाने, पहाड़ों के सहज सरल जीवन में महानगरीय-आधुनिक सांस्कृतिक प्रदूषण के घुलते जाने की इसी प्रकार की वेदना को संग्रह की 'मैतियों के आर्से-रुटाने' , 'पहाड़ी नारी' , 'मुकद्दमा' , 'बचपन पहाड़ का' , 'कुछ याद-सी है' , 'बूढ़ा पहाड़ी घर' , जैसी कई कविताओं में महसूस किया जा सकता है।

पहाड़ों के जीवन में निर्धनता अब भी पैर पसारे हुए है, अभाव अब भी यथावत् हैं, पहाड़ी ग्राम्य-बालाएँ अब भी कठोर श्रम करके जीवन यापन कर रही हैं, लोकतंत्र के विकास की किरणें उनके जीवन को अब तक प्रकाशित नहीं कर सकी हैं, ये तमाम चिंताएँ कविता जी की कविताओं में देखने को मिलती है 'घुँघरी तब ही मनाएगी' कविता में इस पीड़ा को अत्यंत सघन रूप में देखा जा सकता है-

सिसकते-प्रश्नों के उत्तर / ये पहाड़न जब पा जाएगी

झुकी कमर में प्राण-संचार होगा / झुर्रियों में धँसी हँसी-आँख नचाएगी

लोकतंत्र का उत्सव घुँघरी तब ही मनाएगी

संग्रह की कविताओं 'शैलबाला' , 'काँच की चूड़ियाँ' , 'पहाड़ की नारी' , 'पहाड़ी नारी' , 'पहाड़ी गाँव' , 'दूर पहाड़ी गाँव' में जैसी कविताओं में इन चिंताओं को देखा जा सकता है।

घुँघरी'की कविताओं में शृंगार है / प्रेम है पर यह प्रेम विरह के, पीड़ा के झीने आवरण में लिपटा हुआ है, प्रत्यक्षतः जिन कविताओं में घने प्रेम की अनुभूति होती है उनके ऊपर भी वेदना का बहुत महीन पर्दा है, सम्पूर्ण प्रेम कविताओं में मिलन का स्वप्न है, प्रेम की अतृप्ति है प्रिय के प्रति भावनात्मक समर्पण है पर नायिका इसी स्वप्न में जीती है और संतुष्ट रहती है, संग्रह की घुँघरी' कविता को ही देखें-

मैं प्रिया पहाड़ी सैनिक की, लोग मुझे कहते हैं घुँघरी

निःशब्द रात्रि में निर्झर सी, विरह-गीत रचती ही रही।

घुँघरी की ही भाँति हर नायिका विरह गीत ही रच रही है जहाँ प्रेम का सघन रूप है, गहरा मिलन है वह स्वप्न मात्र है यथार्थ नहीं, प्रिय! अब जाने की करो नहीं हठ' गीत ऐसे ही संयोग की सघन अनुभूतियों का गीत है; किन्तु गीत की प्रथम पंक्ति में ही स्पष्ट है कि ये सम्पूर्ण प्रेम व्यापार स्वप्न में ही घटित हो रहा है-

प्रिय! हम स्वप्न-पाश में आलिंगनरत।

इतना ही नहीं गीत के मध्य में नायिका कहती है-'असीम संघर्ष, मेरी घुँघराली लट / कुछ समय हो दो इन्हें प्रिय सुलट...' प्रेम का यह रूप अन्यत्र भी विद्यमान है। 'स्वप्न सभा में प्रिय तुम आना' में भी यही भाव व्यक्त हुआ है-

रात्रि-प्रहर की इस स्वप्न-सभा में प्रिय तुम आना

सतरंगी विश्राम-भवन से कभी न जाना।

इसी प्रकार के भाव-'प्रिय! यदि तुम पास होते' , 'तुम क्या खोज रहे हो प्रियतम?' , 'समर्पण' , जैसी कविताओं में भी देखे जा सकते हैं, वियोग और मिलन की ये आँख-मिचौली कवयित्री की क्षणिकाओं, हाइकु, चोका, ताँका इत्यादि में भी देखी जा सकती है-

क्षणिका-पीड़ा

तुमसे दूर होकर / विरह को जीने में / असहनीय पीड़ा / बार-बार मरने जैसी।

ताँका-

कभी पसारो / बाँहें नभ-सी तुम / मुझे भर लो / आलिंगन में प्रिय / अवसाद हर लो।

'घुँघरी' संग्रह की कविताओं में व्यक्त विरह का भाव अत्यन्त व्यापक मनोभूमि का है, उसका आधारभूत धरातल वह पवित्र एवं सात्विक प्रेम है जहाँ देह गौण है, वासना से रहित प्रेम का यह भाव अत्यंत पवित्र है, जो आत्मा को निर्मल बनाता है-

हे प्रिया! मैं तुम्हारे पास आना चाहता हूँ / दूर पहाड़ी नदी के एक तट पर

सर्दी में तुम्हें बाहों में भरकर / वासना से रहित प्रेम आलिंगन

ध्वनित हों प्रेम के अनहद गुंजन / हे प्रिया! मैं पावन गीत गाना चाहता हूँ...

वस्तुतः पावन गीत गाने की कामना का यह भाव दार्शनिक दृष्टि से सूफियों / ज्ञानियों के उस धरातल का विरह है, जहाँ चिर वियोगिनी आत्मा, परमात्मा से मिलन को आतुर है और उसके मिलन के स्वप्नों में लीन है। 'प्रेम है अपना' में कवयित्री कहती है-

उपनिषदों के तत्वमसि-सा / साँस-साँस तुम्हें रटते जाना

तुम चाहो इसको जो समझो / मैंने तुम्हें परब्रह्म-सा माना।

संग्रह में आद्योपान्त प्रेम की अतृप्ति, करुणा का व्यापक मनोभाव और लोकमंगल की कामना का स्वप्न विद्यमान है। इस सबके मूल में विरह-वेदना की वह उदात्त मनोभूमि है, जो छायावादी कविताओं की आधारभूत भूमि रही है, इनके साथ ही अनेक कविताओं में सामाजिक चिंताएँ भी बहुत प्रभावी ढंग से व्यक्त हुईं हैं, इनमे अंचल की निर्धनता से उपजी पीड़ाएँ हैं, विकास के नाम पर बढ़ती हुई अपसंस्कृति है, नशे की गिरफ़्त में युवा पीढ़ी है, स्त्री समाज की घुटन और बेबसी है तथा निरन्तर फ़न फैलाता भ्रष्टाचार है।

भावों के साथ ही संग्रह के कलापक्ष में भी वैविध्य है, बिम्बों एवं प्रतीकों का सहज ढंग से चित्रण हुआ है। व्यंजना एवं प्रतीकों के माध्यम से वे तीव्र प्रहार भी करती हैं, एक उदाहरण द्रष्टव्य है, जिसमे गंगा-स्वच्छता-अभियान पर तीखा प्रहार बड़े सहज और प्रभावी ढंग से हुआ है-

कहने को कुम्भ नहाते हो / अगणित मुझमें पाप बहाते हो!

उन पाप के नोटों का क्या होगा? / जो तकियों में छिपाए जाते हो!

कवयित्री ने भावों के अनुरूप ही प्रतीकों, बिमम्बों और शब्दों का चयन किया है, भाषा में भावों की विविधता के अनेक प्रयोग हैं, परिवेश की संस्कृति को सजीव रूप से प्रस्तुत करने हेतु पहाड़ी आंचलिक शब्दों का प्रयोग किया है साथ ही उनके अर्थ भी कविता के पश्चात् दे दिए हैं यथा-फूलदेई, फूलारे, फ्योंली, थड़िया, निन्यारो, मांगुल चौफुला, झुमैलो, इत्यादि...इसके साथ ही प्रचलित उर्दू एवं अंग्रेज़ी के शब्द भी अपनी विशिष्ट अर्थवत्ता के साथ प्रयुक्त हुए हैं-

जब अल्ट्रासाउंड साउंड करेगा / एक्सरे स्वास्थ्य किरण पहराएगी

इसी प्रकार-

अरे साहेब! एक मुकद्दमा तो उस शहर पर भी बनता है

जो हत्यारा है-सरसों में प्रेमी आँख-मिचौलियों का ...

हाँ उस एयर कंडीशन की भी रिपोर्ट लिखवानी है

जो अपहरणकर्ता है गीत गाती पनिहारिन सहेलियों का।

निःसन्देह कविता जी की कविताओं का वैविध्य उनकी अपार सम्भावनाओं का सूचक है, जिस कौशल के साथ वे लम्बी कविताएँ लिखती हैं, वही निपुणता क्षणिका, हाइकु, ताँका जैसी लघु कलेवर की कविताओं में भी विद्यमान है, इन कविताओं में अनूठे बिम्ब, नवीन उपमान और अभिव्यक्ति-कौशल कमाल की है, 'जिंदगी' क्षणिका में सिर्फ़ चार पंक्तियों में विराट मनोभाव को समेटने की कला देखें-

जिस शिद्दत से देखते हो / तुम मेरा चेहरा, / काश! ज़िन्दगी भी / उतनी ही कशिश भरी होती।

प्रेम, आकर्षण, मिलन की उत्कंठा, मिलन का आनन्द और विछोह की पीड़ा, उनकी स्मृतियाँ 'घुँघरी' के विषय हैं, उनके हाइकु-ताँका में भी ये भाव विद्यमान है, इन भावों को अभिनव बिम्बांे के साथ व्यक्त किया गया है, एक हाइकु देखें-

जब भी रोया / विकल मन मेरा / तुमको पाया।

प्रेम के उदात्त मनोभाव की सुंदर अभिव्यक्ति इस ताँका में भी द्रष्टव्य है—

मन का कोना / उदीप्त-सुवासित / इत्र नहीं, कपूर, / पूजा के दीपक-सा / प्रिय प्रेम तुम्हारा।

वस्तुतः 'घुँघरी' की प्रत्येक कविता एक अलग मनोभाव की कविता है; पर संकलन का मूल स्वर प्रेम और उसके वियोग की वेदना का है, यह प्रेम व्यक्ति मन से लोकमन तक व्यापक है, इसमें व्यष्टि से समष्टि तक की मंगल भावना समाहित है। कविता भट्ट जी में अपार संभावनाएँ हैं, आशा है अपनी रचनात्मक सम्पदा से वे इसी प्रकार माँ भारती का भण्डार समृद्ध करती रहेंगी।

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