घुटके मर जाएँ! / कांग्रेस-तब और अब / सहजानन्द सरस्वती
जो नेता आज गद्दीनशीन हैं वह चिल्लाते थे कि नागरिक स्वतंत्रता सबसे जरूरी है ─ उसकी रक्षा मरकर भी करेंगे। मगर उनने गद्दी पर बैठते ही उसी के खिलाफ जैसे जेहाद बोल दिया है। तीस दिन और बारह महीने सभाओं , मीटिंगों और जुलूसों पर रोक लगी है। सिर्फ पुलिस की नहीं , अब तो जिलाधीशों की आज्ञा के बिना आप कभी कुछ नहीं कर सकते। अखबार तो प्राय: सभी उन्हीं की हुआँ में हुआँ मिलाते हैं। जो कुछ बोलते भी हैं सिर्फ दबी जुबान से। नहीं तो जुबाँ खींच ली जाए ऐसा डर लगा है। जो खुलकर बोलते हैं वे लटका दिए जाते हैं।
सांप्रदायिकता के दंगों को दबाने के लिए सार्वजनिक रक्षा के नाम पर कानून बनाया गया। मगर उसका प्रयोग नागरिक स्वतंत्रता के विरुध्द सरासर हो रहा है। दिनोंदिन उसे और भी सख्त बनाकर करेले को नीम पर चढ़ाया जा रहा है! नागरिक स्वतंत्रता के मानी रह गए हैं सिर्फ लीडरों की बातों को दुहराना और शासक जो कहें उसी को सही-दुरुस्त बताना, ' ऊँट बिलैया ले गई , तो हाँ जी-हाँ जी कहना। ' थोड़े में ' न तड़पने की इजाजत है न फरयाद की है। घुट के मर जाएँ मर्जी यही सैयाद की है। ' रामगढ़ कांग्रेस के बाद जिस भाषण की स्वतंत्रता के नाम पर कांग्रेस ने लड़ाई छेड़ी थी वह आज उसी कांग्रेस के राज्य में शूली पर लटका दी गई है। फिर भी उम्मीद की जाती है कि लोगों के दिलों में बेचैनी की आग धक धक नजले!