घूंघट के पट खोल तोहे पिया मिलेंगे - 2 / जयप्रकाश चौकसे

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घूंघट के पट खोल तोहे पिया मिलेंगे
प्रकाशन तिथि :30 अक्तूबर 2015


विगत कई दशकों से सरकार अप्रैल में उस कमिटी की स्थापना करती है, जिसका काम है गोवा अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह का आयोजन करना तथा इस कमिटी में फिल्म उद्योग की शीर्ष संस्था फिल्म फेडरेशन से कुछ सदस्य आमंत्रित किए जाते हैं और ये सदस्य सभी क्षेत्रीय भाषाओं में बनने वाली फिल्मों का प्रतिनिधित्व करते हैं। एक तरह से सरकार के साथ पूरा भारतीय फिल्म उद्योग इसमें शामिल होता है। इस बार पचास वर्ष पुरानी परंपरा को ठुकराकर सरकार ने फिल्म फेडरेशन को दूर रखा। सरकारी बैठकों में एक महिला, जिसके पास कोई सरकारी पद नहीं है, वह आकर सबको आदेश देती थी। फिल्म फेडरेशन में फिल्म उद्योग के कम वेतन पाने वाले कर्मचारियों की संख्या विगत वर्ष 200 थी, जिन्हें लेकर वह गोवा पहुंचा था परंतु उन्हें किसी भी फिल्म को देखने की अनुमति नहीं दी गई। ज्ञातव्य है कि सारे सुपर सितारों की शूटिंग इन कर्मचारियों के बगैर संभव ही नहीं है। इस वर्ष इस शक्तिशाली संघ के अध्यक्ष श्री पेटवा हैं।

फिल्म फेडरेशन के साथ फिल्म उद्योग के समस्त संगठन जुड़े हैं और पेरिस में अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोहों के आयोजन की अाधिकारिक संस्था केवल फिल्म फेडरेशन को मान्यता देती है और उसको दिया अधिकार पचास वर्ष पूर्व उसने भारत सरकार को दिया है। ज्ञातव्य है कि पहला अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू की पहल और प्रेरणा से आयोजित हुआ और भारतीय फिल्मकारों को पहली बार पूरे विश्व की प्रतिनिधि फिल्में देखने का अवसर मिला। डि सिका की यथार्थवादी फिल्मों के प्रभाव से भारत में दो बीघा जमीन, जागते रहो, बूट पॉलिश जैसी फिल्में बनीं तथा बंगाल के फिल्मकारों ने इस उत्सव का लाभ उठाकर भारत में सामाजिक सौद्‌देश्यता की यथार्थवादी फिल्मों का आंदोलन ही खड़ा कर दिया।

इस वर्ष फिल्म फेडरेशन ने निर्णय लिया है कि वे गोवा में अपने उद्योग की फिल्मों पर कोई रोक नहीं लगा रहे हैं और गोवा उत्सव राष्ट्र के सम्मान का भी प्रतीक है। अत: उसमें कोई बाधा नहीं खड़ी कर रहे हैं परंतु अपनी अवहेलना के कारण फिल्म फेडरेशन से जुड़े सारे संस्थान अपने सदस्यों को गोवा नहीं जाने का संदेश भेजेंगे तथा फिल्म फेडरेशन अपने इस कार्य को सरकार के फिल्म डायरेक्टोरेट के साथ असहयोग का गांधीवादी नाम दे रहा है और ट्रेड यूनियनों की तरह इसे 'बायकॉट' या 'हड़ताल' इत्यादि से नहीं पुकार रहा है। वे चाहते हैं कि गोवा का आयोजन सफल हो, क्योंकि उससे राष्ट्रीय सम्मान जुड़ा है। वर्कर्स यूनियन के अध्यक्ष का तो यह कहना था कि वे सितारों की शूटिंग से भी असहयोग करेंगे परंतु फेडरेशन ने उन्हें इस तरह का सख्त कदम न उठाने का निर्देश दिया है।

बहरहाल, 28 अक्टूबर को 12 फिल्मकारों और अनेक वैज्ञानिकों ने अपने सरकारी पुरस्कार लौटाए हैं और सम्मान लौटाने वाले लेखकों का समर्थन किया है। इन सभी लोगों का कहना है कि देश में असहिष्णुता और डर के वातावरण के खिलाफ यह उनका विनम्र असहयोग है। गांधीजी का अंग्रेजों के खिलाफ, जो असहयोग आंदोलन था, यह उसी की वापसी है। दिल्ली स्थित केरल भवन में पुलिस के अतिक्रमण की भी आलोचना की गई है, क्योंकि सृजनशील लोगों का लगता है कि एक नए किस्म की क्रूरता अपने विविध मुखौटों के साथ पूरे देश में उभर रही है। हुक्मरानों को सृजनशील लोगों के असहयोग से कोई फर्क नहीं पड़ता और सच तो यह है सृजनशील लोगों ने 1984 में सिखों पर अत्याचार अौर आपातकाल का जमकर विरोध किया था। देश के कुछ अखबारों ने प्रथम पृष्ठ काली पट्टी के साथ कोरा ही प्रकाशित किया था। गौरतलब है कि लेखक, फिल्मकार, वैज्ञानिक इत्यादि भारत के सारे क्षेत्रों से आए हैं, अत: इस सविनय असहयोग को क्षेत्रीय नहीं कहा जा सकता।

सच है गांधीजी के महान आदर्श सर्वकालिक हैं और क्रूरता के विभिन्न रंगीन व रोचक मुखौटे के खिलाफ गांधीजी का सविनय असहयोग अपने ही एक स्वरूप में वापस आया है। दरअसल, सत्य का एक ही रूप है और उसे मुखौटों की आवश्यकता नहीं होती। महानतम कवि कबीर की पंक्तियां याद आती हैं, 'घूंघट के पट खोल तोहे पिया मिलेंगे।' कबीर का आशय था कि सत्य पर कोई घूंघट नहीं है, यह तो मनुष्य के अहंकार के घंूघट हैं, जो उसे सत्य के दर्शन से वंचित कर रहे हैं।