घृणा / साहित्य शास्त्र / रामचन्द्र शुक्ल
सृष्टि विस्तार से अभ्यस्त होने पर प्राणियों को कुछ विषय ग्राह्य और कुछ अग्राह्य प्रतीत होने लगते हैं। इन अग्राह्य विषयों के उपस्थित होने पर जो दु:ख होता है उसे घृणा कहते हैं। सुबीते के लिए हम यहाँ घृणा के दो विभाग करते हैं-स्थूल और मनसिक। स्थूल घृणा, ऑंख, कान और नाक इन्हीं तीन इन्द्रियों से संबंध रखती है। हम चिपटी नाक और कानी ऑंख से सुसज्जित चेहरे को देख घृणा करते हैं। खरस्वान खर्राट की तान सुनकर कान में उँगली डालते हैं और म्युनिसिपैलिटी की मैलागाड़ी सामने आने पर नाक पर रूमाल रखते हैं। रस और स्पर्श अकेले घृणा नहीं उत्पन्न कर सकते। रस का भला या बुरा अनुभव तो कई अंशों में घ्राण से मिला हुआ है। यहाँ पर यह न समझना चाहिए कि हम इन्द्रियानुभव और मनोवेग को एक करते हैं। विषष का भला व बुरा लगना उसका ज्ञान मात्र नहीं है कुछ और भी है। मनसिक घृणा मन में कुछ अपनी ही क्रिया से आरोपित और कुछ शिक्षा द्वारा प्राप्त आदर्शों के प्रतिकूल विषयों की उपस्थिति से उत्पन्न होती है। यह मनसिक घृणा स्थूल घृणा से भिन्न है। निर्लज्जता की कथा कितनी ही सुरीली तान में सुनायी जाय घृणा उत्पन्न ही करेगी। कैसा ही गंदा आदमी परोपकार करे उसे देख श्रद्धा उत्पन्न हुए बिना न रहेगी। आनंद की कोटि में मनसिक घृणा का उलटा श्रद्धा है।
ऐसे अग्राह्य और प्रतिकूल विषयों के उपस्थित काल में इन्द्रिय वा मन का व्यापार अच्छा नहीं लगता, इससे या तो प्राणी ऐसे विषयों को दूर करना चाहता है अथवा अपने इन्द्रिय वा मन के व्यापार को बंद करना। इसके अतिरिक्त वह और कुछ नहीं करना चाहता। क्रोध और घृणा में जो अंतर है वह यहाँ देखा जा सकता है। क्रोध का विषय पीड़ा वा हानि पहुँचानेवाला होता है इससे क्रोधी उसे नष्ट करने में प्रवृत्त होता है। घृणा का विषय इन्द्रिय वा मन के व्यापार में संकोच मात्र उत्पन्न करनेवाला है। इसी से मनुष्य को उतना उग्र उद्वेग नहीं होता और वह घृणा के विषय की हानि करने में तुरंत बिना कुछ और विचार किए प्रवृत्त नहीं होता। हम अत्याचारी पर क्रोध और व्यभिचारी पर घृणा करते हैं। क्रोध और घृणा के बीच एक अन्तर और ध्यान देने योग्य है। घृणा का विषय हमें घृणा का दु:ख पहुँचाने के विचार से हमारे सामने उपस्थित नहीं होता पर क्रोध का चेतन विषय हमें आघात वा पीड़ा पहुँचाने के उद्देश्य से हमारे सामने उपस्थित होता है वा समझा जाता है। न दुर्गंध ही इसलिए हमारी नाक में घुसती है कि हमें घिन लगे और न व्यभिचारी ही इसलिए व्यभिचार करता है कि हमें उसकी करतूत सुन उससे घृणा करने का दु:ख उठाना पड़े। यदि घृणा का विषय जानबूझ कर हमें घृणा का दु:ख पहुँचाने के अभिप्राय से हमारे सामने उपस्थित हो तो हमारा ध्यान उस घृणा के विषय से हटकर उसकी उपस्थिति के कारण की ओर हो जाता है और हम क्रोध साधन में तत्पर हो जाते हैं। यदि आपको किसी के पीले दाँत देख घिन लगेगी तो आप अपना मुँह दूसरी ओर फेर लेंगे उसके दाँत नहीं तोड़ने जायँगे। पर यदि जिधर जिधर आप मुँह फेरते हैं उधर उधर वह भी आकर खड़ा हो तो आश्चर्य नहीं कि वह थप्पड़ खा जाय। यदि होली में कोई गंदी गालियाँ बकता चला जाता है तो घृणा मात्र लगने पर आप उसे मारने न लग जायँगे उससे दूर हटेंगे पर यदि जहाँ जहाँ आप जाते हैं वहाँ वहाँ वह भी आपके साथ साथ अश्लील बकता जाता है तो आप उसपर टूट पड़ेंगे।
घृणा के दु:ख और पीड़ा के बीच जो अन्तर है वह स्पष्ट है। वज्रपात के शब्द का अनुभव भद्दे गले के आलाप के अनुभव से भिन्न है। ऑंख में किरकिरी पड़ना और बात है सड़ी बिल्ली सामने आना और बात। यदि कोई स्त्रीम आपके सामने मीठे शब्दों में कलुषित प्रस्ताव करे तो उसके प्रति आपको घृणा होगी पर वही स्त्री यदि आपको छड़ी लेकर मारने आवे तो आप उस पर क्रोध करेंगे। घृणा का भाव शांत है, उसमें क्रियोत्पादिनी शक्ति नहीं है। घृणा निवृत्ति का मार्ग दिखलाती है और क्रोध प्रवृत्ति का। यदि हम किसी से घृणा करेंगे तो बहुत करेंगे उसकी राह बचाएँगे। उससे बोलेंगे नहीं पर यदि किसी पर आप क्रोध करेंगे तो ढूँढ़कर उससे मिलेंगे और उसे और नहीं तो दस पाँच ऊँची नीची सुनावेंगे। घृणा विषय से दूर ले जानेवाली है और क्रोध हानि पहुँचाने की प्रवृत्ति उत्पन्न कर विषय के पास ले जानेवाला है। कहीं कहीं घृणा क्रोध का शांत रूपांतर प्रतीत होती है। साधारण लोग जिन बातों पर क्रोध करते देखे जाते हैं साधु लोग उनसे घृणा मात्र करके, और यदि साधुता ने बहुत जोर दिया तो उदासीन ही होकर रह जाते हैं। दुर्जनों की गाली सुनकर साधारण लोग क्रोध करते हैं पर साधु लोग उपेक्षा ही करके संतोष कर लेते हैं। जो क्रोध एक बार उत्पन्न होकर सामान्य लोगों में बैर के रूप में टिक जाता है वही क्रोध साधु लोगों में घृणा के रूप में टिकता है। दोनों के जो भिन्न भिन्न परिणाम हैं वे प्रत्यक्ष हैं। यदि जिसपर एक बार क्रोध उत्पन्न हुआ उसका व्यवहार आकस्मिक है तो बैर कर बैठना और यदि बराबर अग्रसर होनेवाला है तो घृणा मात्र करना निष्फल है।
आजकल की बनावटी सभ्यता वा शिष्टता में 'घृणा' शब्द बैर वा क्रोध को छिपाने का काम दे जाता है। यदि हमें किसी से बैर है तो हम दस पाँच सभ्यों के बीच बैठकर कहते हैं कि हमें उससे घृणा है। इस बात से हमारी चालाकी प्रत्यक्षहै। बैर का आधार व्यक्तिगत है, घृणा का सार्वजनिक। बैर के नाम पर यह समझा जाता है कि कहीं दो वा अधिक मनुष्यों के लक्ष्य का परस्पर विरोध हुआ है पर घृणा का नाम सुनकर अधिकतर यही अनुमन होता है कि समाज के लक्ष्य वाआदर्श का विरोध हुआ है। बैर करना एक छोटी बात समझी जाती है अत: बैर के स्थान पर घृणा का नाम ले लेने से हमारा बदला और बचाव दोनों हो जाता है।
स्थूल घृणा के विषय प्राय: सब मनुष्यों के लिए समन हैं। सुगंध और दुर्गंध, सौंदर्य और भद्दापन इत्यादि के विषय में प्राय: एक मत रहता है। यह दूसरी बात है कि एक प्रकार की सुगंधकी अपेक्षा दूसरी प्रकार की सुगंध किसी को बहुत अच्छी लगे, पर गुलाब की गंधको कोई दुर्गंध नहीं कहेगा। मनसिक घृणा और श्रद्धा के मूलाधार भी सब मनुष्यों में समन और निर्दिष्ट हैं। वेश्यागमन, जुआ, मद्यपान, स्वार्थपरता, कायरता, आलस्य, लंपटता, पाखंड, अनधिकार चर्चा, मिथ्याभिमन आदि विषय उपस्थित होने पर सब मनुष्य घृणा करने के लिए विवश हैं। इसी प्रकार से स्वार्थ, परोपकार, इन्द्रियसंयम आदि पर श्रद्धा होना एक प्रकार स्वाभाविक सा हो गया है। मतभेद वहाँ देखा जाता है जहाँ और और विषयों को पार कर लोग अनुबंध द्वारा इन मूलाधारों तक पहुँचते हैं। यदि एक ही व्यापार में एक आदमी को घृणा मालूम हो रही है और दूसरे को नहीं तो यह समझना चाहिए कि पहला उस व्यापार के आगे पीछे चारों ओर जिन रूपों की उद्भावना करता है दूसरा नहीं। दलबल सहित भरत को वन में आते देख निषाद को उनके प्रति घृणा उत्पन्न हो रही है और राम को नहीं। क्योंकि निषादराज भरत के आगमन में असहाय राम को मार निष्कंटक राज्य करने की उद्भावना करता है और राम नहीं। इस प्रकार के भेद का कारण मनुष्य के अनुबंध ज्ञान की उलटी गति है। सृष्टि का क्रम मूल आधार से सिद्ध रूपों की ओर चलता है, पर अनुबंध ज्ञान का क्रम या तो सिद्ध रूप के पीछे मूल आधार की ओर जाता है अथवा आगे परिणाम की कल्पना करता है। प्रत्येक व्यक्ति के अनुबंध ज्ञान की गति एक ही ओर को नहीं हो सकती। किसी सिद्ध रूप को पाकर हर एक आदमी अनुबंध द्वारा उससे वास्तविक संबंध रखनेवाले अत: समन रूपों तक नहीं पहुँच सकता। एक बात को देखकर हर एक आदमी उसका एक ही वा समन कारण और परिणाम नहीं बतलावेगा। किसी रियासत के नौकर ने अपने एक मित्र से कहा कि तुम कभी भूलकर भी इस रियासत में नौकरी न करना। इस कथन में एक आदमी को तो हित कामना की झलक दिखलाई पड़ रही है और दूसरे को ईर्ष्या की। इससे एक उसपर श्रद्धा करता है दूसरा घृणा। जहाँ घृणा के मूलाधार प्रत्यक्ष रूप में हमारे सामने आते हैं वहाँ कोई मतभेद नहीं दिखाई देता। पर कभी कभी ये विषय स्वयं हमारे सामने नहीं आते,उनके अनुमानित आभास हमारे सामने रहते हैं जो और और विषयों (आधारों) के भीआभास हो सकते हैं। घृणा संबंधी इस प्रकार का मतभेद सभ्य जातियों में जिनमें उद्देश्यों के छिपाने की चाल बहुत है, अधिक देखा जाता है। एक ही आदमी को कोई परम धार्मिक राजनीतिक नेता समझता है कोई मक्कार। एक ही राजकीय कार्रवाई को कोई व्यापार की स्वतंत्रता प्राप्ति का प्रयत्न समझता है कोई राज्य का लोभ।
मूसाई और ईसाई लोग देवपूजकों से इसलिए घृणा नहीं करते कि वे छोटी छोटी वस्तुओं पर श्रद्धा भक्ति करते हैं बल्कि यह समझकर कि वे उनके जमीन और आसमन बनानेवाले खुदा से दुश्मनी किए बैठे हैं। अपने बनाने और पालने वाले से बैर ठानना कृतघ्नता है। अत: उनकी घृणा आरोपित कृतघ्नता के प्रति है देवपूजा के प्रति नहीं। संस्कार द्वारा ऐसे आरोपों पर यहाँ तक विश्वास बढ़ा कि अरब और यहूद की धर्म पुस्तकों में मूर्तिपूजन वा देवाराधान महापातक ठहराया गया। ऍंगरेज कवि मिल्टन ने प्राचीन जातियों के देवताओं को शैतान की फौज के सरदार बनाकर बड़ी ही संकीर्णता और कट्टरपन का परिचय दिया है। सीधा सादे गोस्वामी तुलसीदासजी से भी बिना यह कहे न रहा गया-
जे परिहरि हरिहर चरण भजहिं भूत गण घोर।
तिनकी गति मोहिं देहु विधिा जो जननी मत मोरड्ड
भिन्न भिन्न मत वालों में जो परस्पर घृणा देखी जाती है वह अधिकतर ऐसे ही आरोपों के कारण है। एक के आचार विचार से जब दूसरा घृणा करता है तब उसकी दृष्टि यथार्थ में उस आचार विचार पर नहीं रहती है बल्कि ऊपर लिखे घृणा के सामान्य मूलाधारों में से किसी पर रहती है।
घृणा के विषय में मतभेद का एक और कारण ग्राह्य और अग्राह्य होने के लिए विषम मात्रा की अनियति है। सृष्टि में बहुत सी वस्तुओं के बीच की सीमाएँ अस्थिर हैं। एक ही वस्तु व्यापार वा गुण किसी मात्रा में श्रद्धा का विषय है किसी मात्रा में अश्रद्धा का। इसके अतिरिक्त शिक्षा और संस्कार के कारण एक ही मात्रा का प्रभाव प्रत्येक हृदय पर एक ही प्रकार का नहीं पड़ता। यह नहीं है कि एक बात एक आदमी को जहाँ तक अच्छी लगती है वहाँ तक दूसरे को भी अच्छी लगे। मन में प्रतिकूल बातें रखकर मुँह पर अनुकूल बातें करनेवाले को एक आदमी शिष्ट और दूसरा कुटिल कहता है। उपचार वा मुँह पर प्रसन्न करनेवाली बात कहने को जहाँ तक एक आदमी शिष्टता समझता चला जाता है दूसरा वहाँ से कुटिलता का आरंभ मन लेता है। दो चार बार किसी आदमी को थोड़ी थोड़ी बात पर रोते वा कोप करते देखकर एक तो उसको दुर्बल चित्त और उद्वेगशील समझता है और दूसरा उसी को थोड़ी थोड़ी बात पर विलाप करते और आपे के बाहर होते दस बार देखकर भी उसे सहृदय कहता है। रसिक लोग शुष्क हृदय लोगों से घृणा करते हैं और शुष्क हृदय लोग रसिकों से। यदि ये दोनों मिलकर एक दिन शुष्कता और रसिकता की सीमा तय कर डालें तो झगड़ा मिट जाय। शुष्क हृदय लोग नाप तौल कर बतला दें कि यहाँ तक की रसिकता शोहदापन या विषयासक्ति नहीं है और रसिक लोग यह बतला दें कि यहाँ तक की शुष्कता कठोर हृदयता नहीं है, बस झगड़ा साफ। पर यह हो नहीं सकता। दृढ़ता और हठ, धीरता और आलस्य, सहनशीलता और भीरुता, उदारता और फिजूलखर्ची, किफायत और कंजूसी आदि के बीच की सीमाएँ सब मनुष्यों के हृदय में न एक हैं और न एक होंगी।
मनोवेग दो प्रकार के होते हैं-प्रत्यावर्ती और अनावर्ती। प्रत्यावर्ती वे हैं जो एक के हृदय में दूसरे के प्रति उत्पन्न होकर दूसरे के हृदय में भी पहले के प्रति उत्पन्न हो सकते हैं, जैसे-क्रोध, घृणा, प्रेम इत्यादि। जिस पर हम क्रोध करेंगे वह हमारे क्रोध के कारण हम पर भी क्रोध कर सकता है। जिससे हम प्रेम करेंगे वह हमारे प्रेम को देख हमसे भी प्रेम कर सकता है। अनावर्ती मनोवेग जिसके प्रति उत्पन्न होते हैं उसके हृदय में यदि करेंगे तो सदा दूसरे भावों की सृष्टि करेंगे। इनके अंतर्गत भय, दया, ईर्ष्याग आदि हैं। जिससे हम भय करेंगे वह हमसे हमारे भय के प्रभाव से भय नहीं करेगा बल्कि हम पर दया करेगा। जिसपर हम दया करेंगे वह हमारी दया के कारण हमपर दया नहीं करेगा बल्कि श्रद्धा करेगा। जिससे हम ईर्ष्याा करेंगे वह हमारी ईर्ष्याप को देख हमसे ईर्ष्याल नहीं करेगा बल्कि घृणा करेगा।
प्रत्यावर्ती मनोवेग सजातीय संयोग पाकर बहुत जल्दी बढ़ते हैं। एक के क्रोध को देख दूसरा क्रोध करेगा, दूसरे के क्रोध को देख पहले का क्रोध बढ़ेगा, पहले का क्रोध देख दूसरे का क्रोध बढ़ेगा, इस प्रकर एक अत्यंत भीषण क्रोध का दृश्य उपस्थित हो सकता है। इसी प्रकार एक के प्रेम को देख, दूसरे को प्रेम हो सकता है, दूसरे के प्रेम को बढ़ते देख दूसने का प्रेम और बढ़ सकता है और अन्त में रात रात भर करवटें बदलते रहने की नौबत आ सकती है। अस्तु, प्रत्यावर्ती मनोवेगों से बहुत सावधान रहना चाहिए।
अनावर्ती मनोवेग का ऐसे विजातीय मनोवेगों से संयोग होता है जिनसे उनकी वृद्धि नहीं हो सकती है। जिससे हम भय करेंगे वह हमपर दया करेगा। उसकी दया को देख हमारा भय बढ़ेगा नहीं। हमें जिससे भय प्राप्त हुआ है उसमें फिर क्रोध को देख हमारा भय बढ़ सकता है, पर हमारे भय के कारण उसमें नया क्रोध उत्पन्न नहीं होगा। अपने ऊपर किसी को दया करते देख हम श्रद्धा प्रगट करेंगे, हमारी श्रद्धा से उसकी दया तत्क्षण बढ़ेगी नहीं। श्रद्धा पर दया नहीं होती है, दया होती है क्लेश पर। श्रद्धा पर जो वस्तु हो सकती है वह कृपा है। जिसपर हमें दया उत्पन्न हुई है उसको और क्लेशित वा भयभीत देखकर हमारी दया बढ़ सकती है। पर हमें दया करते देख (उस दया के कारण) उसका क्लेश वा भय बढ़ेगा नहीं। किसी की अपने प्रति ईर्ष्यार देखकर हम उससे घृणा प्रगट करेंगे। हमारी घृणा उसमें नई ईर्ष्या उत्पन्न कर उसकी ईर्ष्या बढ़ावेगी नहीं। घृणा पर ईर्ष्याउ नहीं होती है। ईर्ष्या् होती है किसी की उन्नति वा बढ़ती देखकर। प्रतिकार के रूप में जो अहित कामना उत्पन्न होती है वह ईर्ष्याष नहीं है। घृणा के बदले में तो घृणा, क्रोध वा बैर होता है।
यह जानकर कि घृणा प्रत्यावर्ती मनोविकारों में से है लोगों को बहुत समझ बूझकर उसे स्थान देना और प्रकट करना चाहिए। अनुपयुक्त घृणा की स्थिति से अभाव रूप में और उपयुक्त घृणा के प्रदर्शन से कभी कभी भाव रूप में हानि पहुँच सकती है। ऊपर कहा जा चुका है कि घृणा निवृत्ति का मार्ग दिखलाती है अर्थात् अपने विषयों से दूर रहने की प्रेरणा करती है। अत: हमारी घृणा अज्ञानवश ऐसी वस्तुओं से है जिनसे हमें लाभ पहुँच सकता है तो उनके अभाव का कष्ट हमें भोगना पड़ेगा। युवा विवाह और शिक्षा आदि से जिन्हें घृणा है वे उनके लाभों से वंचित रहेंगे। किसी बुद्धिमन मनुष्य से जो मन में घृणा रखेगा वह उसके सत्संग के लाभों से हाथ धोएगा। उपयुक्त घृणा की यदि वह शुद्ध है तो प्रगट करने की आवश्यकता नहीं होती। घृणा का उद्देश्य जिसके हृदय में वह उत्पन्न होती है उसकी क्रियाओं को निर्धारित करना है, जिसके प्रति उत्पन्न होती है उसपर किसी प्रकार का प्रभाव डालना नहीं। अत: उपयुक्त घृणा को भी उसके पात्र पर यत्नपूर्वक प्रगट करने की आवश्यकता नहीं है। यदि हमें किसी आदमी से खालिस घृणा मात्र है तो हम उससे दूर रहेंगे, हमें इसकी जरूरत न होगी कि हम उसके पास जाकर कहें कि हमें तुमसे घृणा है। जब क्रोध, करुणा वा हित कामना आदि का कुछ मेल रहेगा तभी हम अपनी घृणा प्रगट करने को आकुल होंगे। हमें जिसपर क्रोध मिश्रित घृणा होगी, उसी के सामने हम अपनी घृणा प्रगट करके उसे दु:ख पहुँचाना चाहेंगे, क्योंकि दु:ख पहुँचाने की प्रवृत्ति क्रोध की है घृणा की नहीं। इसी प्रकार जिसके कार्यों से हमें घृणा उत्पन्न होगी यदि उसपर कुछ दया वा उसके हित की कुछ चिंता होगी तभी हम उसे उन कार्यों से विरक्त करने के अभिप्राय से उसपर अपनी घृणा प्रगट करने जाएँगे। पर इन दोनों अवस्थाओं में यह भी हो सकता है कि जिसपर हम घृणा प्रगट करें वह हमसे बुरा मन जाय।
मनोवेगों को उत्पन्न होने देने और न उत्पन्न होने देने की इच्छा को मनोवेगों से स्वतंत्र समझना चाहिए। किसी वस्तु से घृणा उत्पन्न होना एक बात है और घृणा के दु:ख को न उत्पन्न होने देने के लिए उस वस्तु को दूर करने वा उससे दूर होने की इच्छा दूसरी बात है। हम घृणा के दु:ख का अनुभव वा अनुभव की आशंका कर चुके तब उससे बचने को आकुल हुए। ऐसी आकुलता को हम 'घृणा लगने का भय' कह सकते हैं। एक पूछता है क्यों भाई! तुम उनके सामने क्यों नहीं जाते? दूसरा कहता है उसका चेहरा देखकर, उसकी बात सुनकर हमें क्रोध लगता है। इस प्रकार की अनिच्छा को क्रोध की अनिच्छा कह सकते हैं। किसी वस्तु का अच्छा लगना एक बात है और उस अच्छा लगने के सुख को उत्पन्न करने के लिए वस्तु की प्राप्ति की इच्छा दूसरी बात।
घृणा और भय की प्रवृत्ति एक सी है। दोनों अपने अपने विषयों से दूर होने की प्रेरणा करते हैं। परन्तु भय का विषय भावी हानि का अत्यन्त निश्चय कराने वाला होता है। और घृणा का विषय उसी क्षण इन्द्रिय वा ज्ञान के व्यापारों में संकोच उत्पन्न करनेवाला। घृणा के विषय से यह समझा जाता है कि जिस प्रकार का दु:ख यह दे रहा है उसी प्रकार का देता जायगा पर भय के विषय से यह समझा जाता है कि अभी और प्रकार का अधिक तीव्र दु:ख देगा। भय क्लेश नहीं है, क्लेश की छाया है; पर ऐसी छाया है जो हमारे चारों ओर घोर अंधकार फैला सकती है। सारांश यह कि भय एक अतिरिक्त क्लेश है। यदि जिस बात का हमें भय था वह हम पर आ पड़ी तो हमें दोहरा क्लेश पहुँचा। इसी से आनेवाली अनिवार्य आपदाओं की पूर्वापेक्ष्य की हमें उतनी आवश्यकता नहीं, क्योंकि उनसे भय करके हम अपने को बचा तो सकते नहीं उनके पहले के दिनों के सुख को भी खो अलबत सकते हैं।
सभ्यता वा शिष्टता के व्यवहार में घृणा उदासीनता के नाम से छिपाई जाती है। दोनों में जो अंतर है वह प्रत्यक्ष है। जिस बात से हमें घृणा है हम चाहते क्या आकुल रहते हैं कि वह बात न हो, पर जिस बात से हम उदासीन हैं उसके विषय में हमें परवा नहीं रहती चाहे हो, चाहे न हो। यदि कोई काम किसी की रुचि के विरुद्धा होता है तो वह कहता है उहँ! हमसे क्या मतलब जो चाहे सो हो। वह सरासर झूठ बोलता है, पर इतना झूठ समाज स्थिति के लिए आवश्यक है।
('नागरीप्रचारिणी पत्रिका', सितंबर 1912 ई.)
[चिन्तामणि, भाग-4]