घेराव / पंकज सुबीर

Gadya Kosh से
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घटना को देखा जाए तो एसी कोई बहुत बड़ी घटना भी नहीं है कि उस पर इतना हंगामा हो। लेकिन अगर शहर का इतिहास देखें तो यही छोटी-सी घटना बारूद के घर में जलती हुई अगरबत्ती की तरह साबित हो सकती है। शहर के कुछ आवारा शोहदे स्कूल से लौटती हुई दो बहनों को रोज़ छेड़ते थे। बहनों के साथ मुश्किल यह थी कि उनके घर में मर्द नाम की कोई चीज़ नहीं थी। उनके पिता बैंक में नौकरी करते थे जिनके अचानक गुज़र जाने के बाद माँ को अनुकंपा नौकरी बैंक में मिल गई थी। इस तरह घर में कुल मिलाकर ये ही तीन थीं, माँ और दो बेटियाँ। दोनों बहनें चुपचाप सिर नीचा किये इन आवारा लड़कों की छेड़छाड़ को सहन करते हुए घर लौटती थीं।

एक बार स्कूल के प्रिंसीपल को भी दोनों ने शिकायत की, जिस पर प्रिंसीपल ने पुलिस में सूचना दर्ज भी करवाई, लेकिन अगर कहावत की भाषा में बात की जाए तो ढाक के पत्ते तीन ही रहे। पुलिस ने आकर उल्टा उन दोनों बहनों से ऐसे-ऐसे सवाल पूछे कि उसके बाद फिर उनकी हिम्मत ही नहीं हुई कि फिर से कहीं शिकायत दर्ज करवाऐं। पुलिस की ओर से भी जब हरी झंडी मिल गई तो शोहदों की हिम्मत और भी बढ़ गई। लड़कियों के पास से तेज़ रफ़्तार में मोटर साइकिल ले जाना, दुपट्टा खींच लेना जैसी हरकतें करने लगे।

ये जो घटना हुई वह भी इसी तारतम्य में घट गई। घटना में इन लड़कियों की क़िस्मत और मरने वाले लड़कों का दुर्भाग्य दोनों एक ही बात से जुड़े थे और वह बात केवल इतनी-सी थी कि मरने वाले मुसलमान थे। हाँ तो हुआ इस तरह कि रास्ते में दुपट्टा खींचना, छेड़ना जैसी घटनाऐं वैसे कोई एक लड़का नहीं करता था, ये सभी का मिला जुला प्रयास था, मगर वह लड़का कुछ ज़्यादा जोश में आ गया था। रविवार के दिन अल सुबह जब वह लड़की के घर के सामने से मोटर साइकिल पर जा रहा था तो उसने देखा कि बड़ी बहन घर के बाहर रस्सी पर कपड़े डाल रही है। उसने आव देखा ना ताव मोटर साइकिल खड़ी की और दौड़ पड़ा, जब तक वह लड़की कुछ समझती तब तक इसने उसे बांहों में भरा और जगह-जगह चूम लिया। चूमने के बाद मोटर साइकिल उठाई और ये जा वह जा। रोती हुई लड़की अंदर पहुँची और माँ को सारी बात बताई। माँ भी शायद इसी दिन की ताक में थी, क्योंकि छेड़ने वाले लड़कों में आधे हिंदू थे और आधे मुसलमान थे इसलिये उसका कोई भी दांव नहीं लग रहा था, मगर आज जो आया था वह तो केवल और केवल मुसलमान ही था और लड़की हिंदू थी।

मां ने बाहर निकल कर छाती पीट-पीट कर रोना शुरू कर दिया, बात की बात में लोग इकट्ठे हो गए। माँ ने जो तस्वीर लोगों के सामने रखी उसमें ये कहीं नहीं था कि एक आवारा लड़का आकर मेरी लड़की के साथ ग़लत हरकत करके चला गया। तस्वीर तो कुछ इस तरह से सामने आई कि एक मुसलमान लड़का हिंदुओं के मोहल्ले में आकर एक हिंदू लड़की के साथ अभद्रता करके चला भी गया। माँ जानती थी कि जब तक लड़के के आवारापन को गौण करके उसके मुसलमान होने का ढिंढोरा ना पीटा जाएगा तब तक कुछ भी नहीं होने वाला है।

लड़कियों की माँ का तीर बिल्कुल निशाने पर जाकर लगा। भीड़ में शामिल जवान लड़कों की मछलियाँ माँ की बात सुनते ही फड़क उठीं। कब बनी, किसने बनाई ये योजना, ये तो कोई नहीं जानता लेकिन हुआ ये कि वह घटना घट गई। रात को वह लड़का अपने एक दोस्त को लेकर फिर आया मगर उसका दुर्भाग्य कि सुबह से रात होने तक वह आवारा लड़का नहीं रहा था, वह अब मुसलमान हो चुका था और इधर एक भरा पूरा हिंदू धर्म उसके कारण अपने को, अपनी अस्मिता को ख़तरे में महसूस कर रहा था। हालांकि ये प्रश्न अभी भी अनुत्तरित है कि अगर रविवार की उस सुबह वह लड़का जोश में ना आता और उसके साथ वाला हिंदू लड़का जोश में आकर वह हरकत कर जाता तो क्या होता।

ख़ैर तो हुआ ये कि सुबह की ख़ुमारी में डूबा वह लड़का शाम को फिर लौटा मगर इस बार उसका आना ऐसा रहा कि फिर उसका लौटना नहीं हुआ। इधर उसने मोटर साइकिल को लड़की के घर के सामने रोका और उधर किसी ने ट्रांसफार्मर के कट आउट निकाल कर पूरे मोहल्ले की बिजली गुल कर दी। इसके बाद जो कुछ हुआ, वह क्या हुआ कोई नहीं जानता। हर कोई यही कहता है कि वह तो उस समय अंधेरे में था। शोर शराबा, मार पीट, चिल्लाने के, कराहने के स्वर, हड्डियों के चटख़ने की आवाज़ें, बस यही सब कुछ दस पंद्रह मिनिट तक होता रहा, फिर कुछ भगदड़ का स्वर हुआ और ख़ामोशी छा गई। ये अंधेरे का विशेष गुण है कि उसमें घटने वाली घटनाओं का अंत ख़ामोशी के साथ ही होता है। ख़ामोशी काफ़ी देर तक बनी रही, टूटी तो पुलिस के सायरन के साथ। घटना का मुख्य पात्र तो घटना स्थल पर ही समाप्त हो चुका था, मगर उसका सहयोगी केवल इसलिए जीवित था क्योंकि उसकी सांसें चल रहीं थीं। मरना उसको भी था सो वह भी अस्पताल में रात भर ज़िंदा रहने के बाद सुबह सिधार गया।

देखा जाए तो घटना यहीं पूरी हो जानी थी क्योंकि जो होना था वह हो चुका था। मगर वास्तव में घटना यहीं से शुरू हुई थी। दोनों लड़कों मरने के बाद और ज़्यादा ज़ोर से मुसलमान हो गए। ज़ोर से मतलब उनके मरने से पहले तो हिंदुओं को लगा था कि ये मुसलमान हैं, मगर मरने के बाद मुसलमानों को भी लगा कि अरे...! वह तो मुसलमान थे। कुछ लोग कहते हैं कि उस तेरह साल के लड़के सनी ने ही अपने पिता के मोटर साइकिल के शोरूम से पुराना साइलेंसर उठा कर उससे दोनों लड़कों के सिर पर वार किये थे, जिससे वह मर गये। कुछ कहते हैं सनी का घटना कि दो प्रधान चरित्र उन बहनों में से छोटी बहन के साथ कुछ चक्कर था और अपनी प्रेमिका के सामने वीरता दिखाने का ये सबसे अच्छा अवसर उसे जब मिला तो उसने इसे हाथ से जाने नहीं दिया। इस बात को कुछ लोग यह कह कर काट देते हैं कि भला तेरह साल के बच्चे का भी ऐसा कुछ चक्कर वगैरह हो सकता है। तो इस पर जवाब मिलता है, टीवी सीरियल देखने वाले बच्चे हैं भई, इधर माँ का दूध छोड़ते हैं उधर जवान हो जाते हैं।

इस पूरे मामले पर कुछ (यकीनन हिंदू) कहते हैं कि दरअसल तो मरने वाला दूसरा लड़का सनी के पिता के शोरूम पर काम करता था जहाँ से उसे निकाल दिया गया था, बस इसी अदावत में उसने मारने वालों में सनी का नाम भी लिखवा दिया और मर गया। कुछ लोग (यकीनन मुसलमान) कहते हैं कि मरने वाले लड़के के साथ सनी की बहन का कुछ चक्कर हो गया था। इसी कारण सनी के पिताजी ने उसे अपने यहाँ से हटा दिया था और उसी का बदला सनी ने उससे उस रोज़ लिया, उसे इतना मारा कि वह मर ही गया। जितने मुंह उतनी बातें। इसलिये भी क्योंकि घटना में भीड़ भी थी और अँधेरा भी था। ये दोनों ही अंधी वस्तुऐं हैं, ना तो भीड़ की आंखें होती हैं और न ही अंधेरे की। ये दोनों चीज़ें अकेले-अकेले ही बहुत ख़तरनाक होती हैं, अगर दोनों मिल जाऐं तो फिर तो क्या कहा जाए।

ख़ैर तो दोनों लड़के मरने के बाद मुसलमान हो गए। दोनों के घर पास-पास ही थे। जब दोनों की लाशें घर लाई गईं तब तक मोहल्ले के सारे लड़के उसी तरह से मुसलमान हो चुके थे जिस तरह से बीती रात दूसरे मोहल्ले के सारे लड़के हिंदू हो गए थे। बात की बात में, ख़ून का बदला ख़्रून, जैसे नारे उछलने लगे। शहर में पूर्व में तीन सांप्रदायिक दंगे हो चुके थे, इसलिये पुलिस भी फ़ौरन हरकत में आ गई और साथ ही साथ हरकत में आ गए पत्रकार भी जिनमें समीर भी था। एक टीवी समाचार चैनल का स्ट्रिंगर। शहर में तनाव कब हो गया किसी को पता ही नहीं चला, रात में ठीक ठाक सोए लोगों ने जब सुबह आंखें खोलीं तो शहर तनाव में था।

जैसे जैसे दिन चढ़ने लगा लोग धीरे-धीरे लोगों से हिंदू और मुसलमानों में बदलने लगे। पुलिस इन्हें वापस लोगों में बदलने के प्रयास में जुट गई, तो पत्रकार लोगों में आ रहे बदलाव को सुर्खियों में ढालने में जुट गए। समीर का अपने चैनल पर तीन बार फ़ोनो हो चुका था तीनों बार समाचार वाचक ने उससे एक ही बात पूछी थी, 'हाँ समीर जी बताइये कैसी स्थिति है वहां' और तीनों बार उसने एक-सा ही उत्तर दिया था 'जी यहाँ काफ़ी तनाव है, हालांकि अभी कोई भी अप्रिय घटना नहीं घटी है और पुलिस भी नियंत्रण के प्रयास में लगी है, फिर भी चारों तरफ़ दहशत का माहौल है'।

दिल्ली में बैठे समाचार संपादक व्याकुलता से प्रतीक्षा कर रहे थे कि कुछ हो जाए, मगर यहाँ का तनाव घटना में बदल नहीं पा रहा था। समाचारों की दुनिया ही ऐसी है, यहाँ रोज़ कुछ चाहिए होता है, कल जो कुछ भी घट गया वह भले ही कितना महत्त्वपूर्ण रहा हो लेकिन वह आज की सुर्ख़ी नहीं हो सकता। आज तो कुछ ना कुछ नया ही चाहिए, कुछ ऐसा जो आज का ही हो।

पुलिस सक्रिय थी तो केवल इस बात को लेकर कि दोनों मरे हुए लड़कों को जल्दी से जल्दी दफ़ना दिया जाए। पुलिस को पता था कि लाशें राजनीति करने का सबसे अच्छा साधन होती हैं। जब तक लाशें घर में रखी हैं तब तक ये तनाव भी रहेगा और घटना कि आंशका भी रहेगी। डीएसपी स्वयं दो बार लड़कों के घरवालों से मिन्नत कर चुका था कि जल्दी से जनाज़ा उठाया जाए, लेकिन लड़कों के घरवाले हर बार टका-सा जवाब देकर लौटा रहे थे। ख़ून का बदला ख़ून, के नारों के बीच अब सुगबुगाहट शुरू हो गई थी कि जब तक सनी के ख़िलाफ तीन सौ दौ का मामला दर्ज नहीं किया जाएगा तब तक जनाज़े नहीं उठेंगे। डीएसपी माथे का पसीना पोंछते हुए कभी वायरलेस पर फटकारते एस पी को जवाब देता, तो कभी समाचार चैनल वालों को सेल फ़ोन पर घटना कि जानकारी दे रहा था।

दोपहर होने तक भी जब जनाज़े नहीं उठे तो अंततः एस पी को आना पड़ा। एस पी अरविंद कुमार भी घुटा हुआ डिप्लोमेट था उसने लड़कों के परिवार वालों को इस बात का आश्वासन दिया कि सनी के ख़िलाफ मामला दर्ज कर लिया जाएगा इस बात का भरोसा मैं देता हूँ आप जनाज़े तो उठाइये और अंततः जनाज़े उठे, आगे बड़ी संख्या में पुलिस जवान डीएसपी के साथ थे तो पीछे भी उतनी ही पुलिस सिटी कोतवाली के थाना प्रभारी के साथ और उनके साथ थे पत्रकार पल-पल की जानकारी सेलफ़ोन द्वारा प्रसारित करते, 'हाँ अख़लाक़ यहाँ से जनाज़े उठ गये हैं, भारी पुलिस बल भी साथ में है।'

होने को तो पुलिस को यही लग रहा था कि सब कुछ उसके सोचे अनुसार ही हो रहा है लेकिन कहते हैं ना कि भीड़ और भेड़ का जिसने भरोसा किया उससे बड़ा बेवकूफ़ कोई नहीं। युवा डीएसपी भी यहीं पर मात खा गया। जनाज़े की नमाज़ के बाद जनाज़ा मस्ज़िद से आगे बढ़ा तो भीड़ के सुर बिल्कुल बदल चुके थे। जिस समय डीएसपी एस पी को वायरलेस पर सूचित कर रहा था कि सर यहाँ सब ठीक है, ठीक उसी समय जनाज़ा शहर के मुख्य चौराहे पर रखा भी जा चुका था और बाक़ायदा भीड़ ने चक्काजाम भी शुरू कर दिया था।

चौराहा ठीक उस स्थान पर था जहाँ से दोनों मोहल्ले अलग होते हैं, अर्थात मरने वालों का मोहल्ला और मारने वालों का मोहल्ला। नारेबाज़ी, शोरशराबे के बीच आनन फ़ानन में दुकानों के शटर गिरे और अफ़रा तफ़री का माहौल मच गया। घरों में दुबके लोग सांस थामे अब कुछ हुआ, तब कुछ हुआ की प्रतीक्षा करने लगे। चैनलों के संवाददाता सेलफोनों पर चीखने लगे, 'हाँ प्रियदर्शन यहाँ पर जैसी कि आशंका कि जा रही थी वैसा ही हुआ है, जनाज़े को चौराहे पर रखकर चक्काजाम कर दिया गया है, सारी दुकानें बंद हो गईं हैं'। 'जी अख़लाक भारी तनाव है, पूरे बाज़ार की दुकानें बंद हो चुकीं हैं' और इन्हीं सब के बीच समीर भी था, पन्द्रह दिन पहले ही दिल्ली से स्ट्रिंगर नियुक्त हुआ था, उसके लिए ये बड़ी घटना थी।

एस पी ने स्वयं पहुँच कर चक्का जाम कर रहे लोगों को समझाने का प्रयास किया मगर भीड़ डी एम से बात करना मांग रही थी। उन्हें सनी की गिरफ़्तारी के साथ-साथ पांच, पांच लाख का मुआवज़ा भी चाहिए था। एस पी ने डी एम वंदना सक्सेना से बात की, थोड़े नानुकुर के बाद वे घटनास्थल पर आ गईं। डी एम को देख भीड़ पूरे जोश में आ गर्ई। मांगों के नारे लगने लगे। डी एम ने मुआवज़े को लेकर मजबूरी बताई कि डी एम के पावर में जितना होता है मैं उससे ज़्यादा नहीं दे सकती। भीड़ पुनः सनी पर प्रकरण दर्ज करने की मांग पर अड़ गई कि जब तक सनी पर तीन सौ दो का प्रकरण दर्ज नहीं होगा, तब तक जनाज़ों को नहीं उठाया जाएगा।

'नहीं सर ऐसी कोई विशेष गंभीर बात नहीं है' एस पी अरविंद कुमार ने सेलफ़ोन पर आइ जी को उत्तर दिया।

'क्या गंभीर नहीं है, अभी आपके यहाँ के पत्रकार का फ़ोनो चैनल पर हो रहा था, वह बता रहा था कि जबरदस्त तनाव है कुछ भी हो सकता है' उधर से आई जी की फटकार आई।

'जल्दी स्थिति ठीक करिए और मुझे बताइये' कहते हुए आइ जी ने फ़ोन काट दिया।

एस पी ने पास से गुज़रते समीर को रोक कर माथे का पसीना पोंछते हुए कहा 'समीर जी प्लीज़ थोड़ा लो प्रोफाइल रखिए मामले को, आख़िर को आप भी तो शहर का ही भला चाहते हैं'।

'भला तो आप कर सकते हैं, इस चक्काजाम को जल्दी टाल कर, नहीं तो अभी कुछ का कुछ हो जाएगा' समीर ने उत्तर दिया।

'वो तो हम कर ही रहे हैं, पर आप देख तो रहे हैं कि वह लोग डी एम की भी नहीं सुन रहे हैं।' एस पी ने समझाइश के स्वर में कहा।

'अरविंद जी आप पत्रकारों को मैनेज करने के बजाय जाकर भीड़ को मैनेज कीजिए, वह ज़्यादा अच्छा होगा' समीर ने उत्तर दिया। अरविंद कुमार ने गहरी नज़रों से समीर की ओर देखा, समीर आगे बढ़ गया।

'एस पी साहब आप इन लोगों के सामने सनी पर प्रकरण दर्ज करने की कार्यवाही कर दें, ये लोग जनाज़ा उठा लेगें' डी एम वंदना सक्सेना ने अरविंद कुमार से कहा, जो कुछ बुज़ुर्ग नज़र आने वाले व्यक्तियों के साथ घटना स्थल से आई थीं।

'जी मैडम' अरविंद कुमार ने उत्तर दिया।

'चलिए आप लोग भी सिटी कोतवाली तक चलें आप लोगों के सामने ही सारी कार्यवाही हो जाएगी' वंदना सक्सेना ने साथ आए लोगों की तरफ़ देखते हुए कुछ नरम स्वर में कहा।

'बहुत अच्छा मैडम' उनमें से एक ने उत्तर दिया। सिटी कोतवाली में अरविंद कुमार ने स्वयं अपने हाथ से सनी पर प्रकरण दर्ज किया। वंदना सक्सेना ने उन लोगों को रोज़नामचा दिखाया, मुतमईन होकर वे लोग वापस हो गए। कुछ ही देर में चक्काजाम समाप्त हो गया और जनाज़े बढ़ गए।

'जी यहाँ स्थिति अब ठीक है, एस पी अरविंद कुमार ने स्वयं उस तेरह वर्षीय बालक सनी के खिलाफ हत्या का प्रकरण दर्ज कर लिया है' समीर अपने सेलफ़ोन पर फ़ोनो कर रहा था। फ़ोनो समाप्त करके पलटा तो अरविंद कुमार ने व्यंग्यात्मक मुस्कुराहट के साथ कहा 'पत्रकार महोदय अगर आप तेरह वर्षीय बालक नहीं कहते तो शायद घटना सनसनीख़ेज़ नहीं हो पाती है ना?'।

'इसमे सनसनीख़ेज़ की क्या बात है, ये तो सच है' समीर ने भी मुस्कुराकर उत्तर दिया।

'वही तो मैं कह रहा हूँ कि सच भी आपको वही अच्छा लगता है जो सनसनीख़ेज़ हो।' अरविंद कुमार ने व्यंग्य के साथ कहा।

'क्या करें साहब ये तो आपकी और हमारी मजबूरी ही है कि हम दोनों चाह कर भी अच्छाइयों की दुनिया में नहीं रह सकते, हमारा सामना उसी सच से होता है जो बुरा है' समीर ने उत्तर दिया।

'चलिए अब फ़िज़ूल बहस करने से कुछ फ़ायदा नहीं है मामला ख़त्म हो गया, कोई अप्रिय घटना नहीं घटी यही बड़ी बात है' वंदना सक्सेना ने दोनों के बीच में दख़ल देते हुए कहा।

'क्या आप ऐसा सोचती हैं कि मामला ख़त्म हो गया है?' समीर ने कुछ गंभीर स्वर में वंदना श्रीवास्तव की ओर देखते हुए कहा।

'क्या आप ऐसा नहीं समझते?' वंदना सक्सेना ने भृकुटियों को कुछ तिरछा करते हुए कहा।

'कोई भी समझदार व्यक्ति ऐसा नहीं सोच सकता और विशेषकर वह जो इस शहर की फ़ितरत से वाक़िफ़ हो।' समीर ने संतुलित स्वर में उत्तर दिया।

'क्यों?' इस बार प्रश्न अरविंद कुमार ने किया।

'वो इसलिए क्योंकि अभी आपने एक धर्म को संतुष्ट करके घटना को टाल दिया है, अभी दूसरा धर्म तो बाक़ी है, जिसका वह तेरह साल का लड़का है जिसके ख़िलाफ़ आप ने मुकदमा दर्ज कर लिया है' समीर ने उत्तर दिया।

'उससे क्या होता है' वंदना सक्सेना ने प्रश्न किया।

'उससे धर्म ख़तरे में पड़ जाता है' समीर ने व्यंग्य के लहज़े में उत्तर दिया।

'मतलब' वंदना सक्सेना ने पुनः प्रश्न किया।

'मतलब ये कि लड़के के पिता को केवल यही तो कहना है कि ये प्रकरण मेरे बेटे के ख़िलाफ़ नहीं बल्कि हिंदू धर्म के ख़िलाफ़ दर्ज किया गया है। धर्म ख़तरे में है और हमारे देश में भीड़ को इकट्ठा करने के लिए सबसे अच्छा तरीक़ा यही है कि धर्म को ख़तरे में डाल दो।' समीर ने कुछ लापरवाही के स्वर में कहा।

'नहीं नहीं ऐसा कुछ नहीं होगा, एस पी साहब आप स्थिति पर पूरी निगरानी रखिएगा कहीं कोई अफवाहें फ़ैलाने की कोशिश ना कर पाए और समीर जी आप भी थोड़ा देखते रहिएगा, आप लोगों के हाथों में तो शहर की नब्ज़ होती है।' कहते हुए वंदना सक्सेना ने ड्राइवर को इशारा कर दिया। ड्रायवर ने कार लाकर लगाई और वंदना सक्सेना उसमें बैठकर रवाना हो गईं।

'अच्छा सर मैं भी चलता हूँ' समीर ने अरविंद कुमार की ओर हाथ बढ़ाते हुए कहा, अरविंद कुमार ने गर्मजोशी से हाथ मिलाते हुए अपना दूसरा हाथ भी हाथ के ऊपर रखते हुए कहा 'अच्छा समीर जी, बस थोड़ा हम लोगों का ध्यान रख लीजिएगा।'

अगले दिन जब सुबह लोग सोकर उठे तो शहर भर में धर्म के ख़तरे में होने सम्बंधी परचे वितरित हो चुके थे। कम्प्यूटर पर कम्पोज़ करके उसकी फ़ोटोकापी करवा के बांटे गए इन परचों में कुल मिलाकर एक ही बात थी कि धर्म ख़तरे में है और एकजुटता कि आवश्यकता है। अब इन परचों के बारे में भी कई मत हैं कुछ लोग कहते हैं कि ये परचे लड़के के पिता ने ही अपने शोरूम के कम्प्यूटर पर निकलवा कर वितरित करवाए थे। कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि शहर से निकलने वाले हिंदूवादी दैनिक समाचार पत्र के मालिक के साथ लड़के के पिता कि रात को एक गुप्त बैठक हुई थी और अल सुबह समाचार पत्र बांटने वाले हाकरों ने ही इन पर्चों का वितरण किया था।

वज़्ह चाहे जो भी रही हो लेकिन आसमान से सुबह का भगवा सिंदूरी रंग हटा और उधर शहर भगवा हो गया। सारे शहर में गले में केसरिया चिंदी डाले हुए लोग नज़र आने लगे। जैसे-जैसे दिन चढ़ने लगा केसरिया चिंदियों की संख्या भी बढ़ने और चढ़ने लगी। रात को वितरित किये गए परचों में अपनी एकजुटता दिखाने की बात कही गई थी और एकजुटता के लिए बजरंग दल के वीर पुरुष हरकत में आ चुके थे।

'नहीं समीर सांप्रदायिक संगठनों का कोई समाचार हमारे चैनल से प्रसारित नहीं होता' समाचार संपादक ने फ़ोन पर उत्तर दिया।

'लेकिन अवधेश जी यहाँ पर भारी तनाव है और ये हिंदुवादी संगठन उस लड़के के पिता के इशारे पर सारे शहर को आग में झोंकने को तत्पर हैं।' समीर ने आपत्ती दर्ज करते हुए कहा।

'चाहे जो हो, हमारा नियम है कि हम सांप्रदायिक संगठनों का कोई समाचार प्रसारित नहीं करते, ना अच्छा ना बुरा' समाचार संपादक अवधेश चतुर्वेदी ने दो टूक उत्तर दिया।

'तो फिर मैं क्या करूँ' समीर ने प्रश्न किया।

'आप स्थिति पर नज़र रखिए, कुछ भी होता है तो हमे तुरंत बताइयेगा' अवधेश चतुर्वेदी ने उत्तर दिया।

'ठीक है अवधेश जी मैं कुछ होने की प्रतीक्षा करता हूँ' समीर ने व्यंग्यात्मक लहज़े में कहा और फ़ोन काट दिया।

घर की खिड़की से समीर बाहर की ओर देखने लगा जहाँ भगवा रंग गाढ़ा होता जा रहा था। कहीं-कहीं से नारों के स्वर भी सुनाई दे रहे थे। 'चाचा आप जा नहीं रहे वहां' बारह साल के भतीजे ने आकर पूछा। 'नहीं बेटा अभी नहीं, जब दंगा होगा तब जाऊँ गा' समीर ने उसी प्रकार खिड़की से बाहर देखते हुए कहा। भतीजा चुपचाप वापस लौट गया।

खिड़की के पास से निकलते एक परिचित बजरंगी को देख कर समीर ने पूछा 'क्यों भाई क्या चल रहा है?'।

'बस अभी तो बड़ा बाज़ार में दोपहर बारह बजे सबको एकत्र किया है फिर वहीं निर्णय होगा कि क्या करना है।' उस व्यक्ति ने उत्तर दिया।

'फ़िर भी क्या योजना है' समीर ने टटोला।

'अभी कुछ तय तो नहीं है फिर भी बड़े बाज़ार से कलेक्टोरेट तक रैली तो निकलेगी। प्रदर्शन घेराव का तय होना अभी बाक़ी है।' उस व्यक्ति ने उत्तर दिया

'कितने लोग हो जाऐंगे रैली में' समीर ने पुनः उसे टटोला।

'तीन चार हज़ार तो होने ही चाहिए। हमने इसको राजनीतिक रूप नहीं दिया है, हर सच्चे हिंदू को बुलाया है जिसे भी लगता है कि मुसलमानों के इशारे पर एक तेरह साल के मासूम हिंदू बच्चे के खिलाफ प्रकरण दर्ज करना हमारी अस्मिता पर प्रहार है वह हमारे साथ-साथ आए हमने एसा निवेदन किया है।' उस व्यक्ति का चेहरा कुछ तन गया।

'लड़के की गिरफ़्तारी हो गई?' समीर ने प्रश्न किया।

'एसे कैसे हो जएगी, आग नहीं लगा देंगे थाने को' उस व्यक्ति का चेहरा पूर्णतः भगवा हो चुका था।

'आप नहीं आ रहे कवरेज करने?' उस व्यक्ति ने समीर से पूछा।

'बस आता हूँ आप चलिए?' समीर ने मुस्कुरा कर उत्तर दिया।

उस व्यक्ति के जाते ही समीर भी उठकर जूते के तस्मे बाँधने लगा 'जाना तो होगा ही, पता नहीं कब क्या हो जाए'। बड़ा बाज़ार का माहौल बड़ा उत्तेजना पूर्ण था हज़ारों लोग थे जिनमें से अधिकांश के गले में केसरिया चिंदियाँ वीरता के प्रतीक के रूप में डली हुई थीं। सबके चेहरे तने हुए थे। कुछ नौजवान चिंदियाँ नारेबाज़ी भी कर रहीं थीं।

'समीर भय्या सुना है वह लोग भी जमा हो रहे हैं उधर सराय में।' एक नौजवान चिंदी ने उसके पास आकर पूछा।

'कौन लोग?' समीर ने जानते हुए भी कुछ अनजान बनते हुए कहा।

'वही साले क... अभी भी छाती ठंडी नहीं हुई उनकी, तेरह साल के लड़के को फंसवाने के बाद भी।' लड़के की सांसों के साथ समीर को एक जानी पहचानी-सी गंध आई, उसने मुस्कुराकर लड़के का कंधा थपथपाया और बढ़ गया।

'देखिए निर्णय ले लिया गया है, हम लोग अपनी पूरी ताकत के साथ प्रदर्शन करेंगे, तब तक कलेक्टोरेट के दरवाज़े से नहीं हटेगें जब तक ज़िला प्रशासन स्वयं हमें ये लिखित आश्वासन नहीं देता है कि सनी के ख़िलाफ दर्ज प्रकरण वापस ले लिया जाएगा। आप लोग याद रखें हमें कल की घटना का उसी शैली में उत्तर देना है। यदि वह लोग दबाव डालकर सनी के ख़िलाफ प्रकरण दर्ज करवा सकते हैं तो हमें भी दबाव डालना आता है। ये किसी एक बच्चे की बात नहीं है ये धर्म की बात है, आज उन लोगों ने दबाव डालकर एक बात मनवाई है कल कुछ और भी कर सकते हैं, अच्छा होगा अभी इसी समय उन्हें उन्हीं की शैली में जवाब दे दिया जाए'। दैनिक समाचार पत्र के संपादक एक मकान के बाहर बने ऊँचे चबूतरे पर खड़े होकर भगवी भीड़ को सम्बोधित कर रहे थे। समीर वहीं पास खड़े स्कूटर पर बैठकर अपनी नोटबुक में नोट करने लगा।

'नमस्ते भाई साहब' स्वर सुनकर समीर ने सर उठाया तो देखा सनी का चाचा सुनील खड़ा है। सुनील भी पत्रकार है राजधानी से प्रकाशित एक नामालूम से समाचार पत्र की पच्चीस प्रतियाँ शहर में मुफ़्त बंटवाता है और जेब से उन प्रतियों का पैसा भर देता है। एवज़ में उसको पत्रकार होने का कार्ड मिला हुआ है।

'और सुनील क्या हाल है' समीर ने पूछा।

'बस भाई साहब मैं तो यहाँ आना ही नहीं चाहता था पर पत्रकार होने के कारण आ गया।' सुनील ने उत्तर दिया।

'यानि तुम यहाँ सनी के चाचा कि हैसियत से नहीं आए हो' समीर ने मुस्कुराते हुए कहा।

सुनील कुछ उत्तर देता इससे पहले ही एक भगवा लड़के ने आकर कहा 'सुनील भय्या बैनर वाला बिना पैसे के बैनर नहीं दे रहा है' सुनील ने जेब से उसे सौ रुपये का नोट निकाल कर दिया और वह चला गया।

'क्या पूछ रहे थे आप भाई साहब' सुनील ने कहा।

'नहीं कुछ नहीं' समीर ने हंसते हुए कहा।

'थोड़ा देख लीजिएगा भाईसाहब ठीक ठाक कवरेज मिल जाए, चैनल वगैरह पर आता है तो प्रशसन पर दबाव पड़ता है।' सुनील ने चापलूसी भरे स्वर में कहा।

'तुम चिंता मत करो' समीर ने उत्तर दिया।

जुलूस रवाना हो चुका था समीर ने सुनील को चलने का इशारा किया और ख़ुद भी साथ चल दिया। समीर ने देखा रास्ते भर यही होता रहा कि कोई न कोई केसरिया चिंदी सुनील के पास आकर कुछ कहती और सुनील उसको जेब से निकाल कर कुछ रुपये दे देता। बड़े वीरता पूर्ण नारे लगाती हुई भगवी भीड़ कलेक्टोरेट की ओर बढ़ रही थी। सेलफ़ोन वायब्रेट हुआ तो समीर ने जेब से निकाला देखा, दिल्ली से चैनल के कार्यालय से फ़ोन था। उसने अपनी रफ़्तार थोड़ी धीमी कर दी। 'हाँ समीर क्या स्थिति है वहाँ' लाइन पर अवधेश चतुर्वेदी थे।

'अभी तक तो कुछ हुआ नहीं है अवधेश जी, लेकिन जिस तरह के नारे लग रहे हैं, उससे मैं आशान्वित हूँ कि कुछ न कुछ तो होगा ही।' समीर ने अपने स्वर के व्यंग्य को दबाते हुए कहा।

'आशान्वित मतलब?' उधर से अवधेश चतुर्वेदी का स्वर आया।

'मतलब आशान्वित इस बात को लेकर हूँ कि आपको कुछ न कुछ समाचार तो आज मिल ही जाएगा' समीर ने कहा।

'ठीक है, मैं अभी चार बजे तक तो हूँ अगर कार्यालय का फ़ोन बिज़ी मिले तो तुरंत मेरे सेलफ़ोन पर काल करना, ऐसा न हो कि कुछ हो जाए और पहले दूसरे चैनल पर फ़्लेश हो जाए' अवधेश चतुर्वेदी ने कहा।

'ठीक है अवधेश जी' समीर ने अपने अंदर उठ रहे भावों को दबाते हुए संक्षिप्त-सा उत्तर दिया और फ़ोन काट दिया।

जुलूस कलेक्टोरेट पहुँच चुका था बड़ी उत्तेजक नारेबाज़ी चल रही थी। समीर ने देखा वंदना सक्सेना और अरविंद कुमार भारी पुलिस बल के साथ मेन गेट के अंदर हैं। गेट बाहर से बंद है और बाहर भी बड़ी संख्या में पुलिस है।

'आपमें से चार पांच लोग चलकर मैडम से बात कर लीजिए' डीएसपी ने भीड़ को हाथ से शांत रहने का इशारा करते हुए कहा।

'क्यों? उन लोगों से बात करने तो मैडम जनाज़े तक चली गईं थीं, हममें क्या कांटे लगे हैं।' एक भगवे नेता ने तल्ख़ स्वर में उत्तर दिया।

'देखिए मैडम आप लोगों के लिए ही यहाँ आईं हैं, प्लीज़ चलकर अपनी बात रख दीजीए' डीएसपी ने समझाइश के स्वर में लगभग गिड़गिड़ाते हुए कहा।

'ठीक है, चलिए कर लेते हैं बात' कहते हुए कुछ लोग मेन गेट की ओर बढ़ गए। भीड़ ने गेट के चारों तरफ़ घेराबंदी कर रखी थी समीर ने भी गेट की ओर बढ़ने का प्रयास किया मगर फंस के रह गया। कुछ ही देर में बात के लिए गए लोग बड़बड़ाते हुए और हाथों को हिलाते हुए वापस आ गए।

'भाइयों ज़िला प्रशासन ने सनी पर दर्ज प्रकरण वापस लेने से इनकार कर दिया है इसलिए मजबूरी में हमें अब घेराव और प्रदर्शन का रास्ता अपनाना पड़ेगा' समीर को इतना तो सुनाई दिया। उसके बाद का स्वर नारेबाज़ी में गुम हो गया कुछ लोग दौड़कर कलेक्टोरेट के मेन गेट से झूम पड़े और उसे हिलाने लगे। जब पुलिस का लाठीचार्ज हुआ तब समीर हट कर कुछ दूर खड़ा हो गया। सेलफ़ोन से अवधेश चतुर्वेदी को घटना कि जानकारी देने लगा। जानकारी देने के बाद उसने देखा कि भीड़ तितर बितर हो चुकी थी। सेलफ़ोन वायब्रेट हुआ तो समीर ने उसे अॅान किया फ़ोन समाचार प्रभाग से था। 'समीर जी हम कॉल को न्यूज़ रूम में ट्रांस्फ़र कर रहे हैं, न्यूज रीडर अख़लाक़ हैं जो आपसे प्रश्न पूछेंगे' और इसके बाद लाइन न्यूज़ रूम में ट्रांस्फ़र हो गई। 'हाँ समीर बताइये क्या स्थिति है वहँा' अख़लाक़ का स्वर सुनाई दिया। 'जी अख़लाक़ करीब दो हज़ार लोगों ने आज जुलूस निकाल कर प्रदर्शन किया था, यहाँ कलेक्टोरेट पर आकर उन्होंने नारेबाज़ी की। बाद में जब कलेक्टर से उनकी बातचीत में कलेक्टर ने सनी के ख़िलाफ़ प्रकरण वापस लेने से इंकार कर दिया, तो भीड़ ने कलेक्टोरेट का घेराव कर दिया, जिस पर पुलिस ने लाठी चार्ज कर भीड़ को तितर बितर कर दिया' समीर ने उत्तर दिया।

'अभी क्या स्थिति है वहाँ' अख़लाक़ का स्वर आया।

'जी अख़लाक़ अभी स्थिति शहर में तो तनावपूर्ण है, पर यहाँ कलेक्टोरेट पर लाठी चार्ज के बाद स्थिति नियंत्रण में है' समीर ने उत्तर दिया।

'समीर ये घेराव की स्थिति अचानक ही बन गई या पूर्व नियोजित थी।' अख़लाक़ का स्वर आया।

'अख़लाक़ यह सब पूर्व निर्धारित था कि यदि मांगें नहीं मानी जाती हैं तो फिर घेराव किया जाएगा' समीर ने उत्तर दिया।

'ठीक है समीर जी आप घटनाक्रम पर नज़र रखिए हम आपसे जानकारी लेते रहेंगे' अख़लाक़ का स्वर आया और फ़ोन विच्छेद हो गया।

फ़ोन विच्छेद होने के कुछ ही देर में पुनः वायब्रेट हुआ अबकी बार डी एम वंदना सक्सेना लाइन पर थीं। 'समीर जी आप ये झूठा समाचार क्यों दे रहे हैं' कुछ तल्ख़ी भरे स्वर में वंदना सक्सेना ने कहा।

'कौन-सा मैडम' समीर ने उत्तर में प्रश्न किया।

'यही कि कलेक्टोरेट का घेराव हुआ' वंदना सक्सेना ने कहा।

'इसमें झूठ क्या है?' समीर ने पूछा।

'तो क्या आप सच बोलेगें' वंदना सक्सेना ने व्यंग्य के स्वर में कहा।

'जी मैं समझता हूँ कि मैं ऐसे ही पेशे में हूँ' समीर ने उत्तर दिया।

'और ये दो हज़ार लोग कहाँ थे?' वंदना सक्सेना ने झुंझलाते हुए कहा।

'भीड़ में थे मैडम और कहाँ थे' समीर ने उत्तर दिया। समीर के उत्तर के साथ ही फ़ोन डिस्कनेक्ट हो गया।

घर पहुँच कर समीर ने टीवी चालू ही किया ही था कि सेलफ़ोन फिर थरथरा उठा 'हलो समीर ये क्या कर रहे हो भई?' उधर से अवधेश चतुर्वेदी का झुंझलाया हुआ स्वर आया।

'क्या हो गया अवधेश जी' समीर ने पूछा।

'भई ये तुमने क्या बोल दिया फ़ोनो पर कि कलेक्टोरेट का घेराव हुआ है, तुम्हारी डी एम बोल रही हैं कि कुछ नहीं हुआ है ऐसा' अवधेश चतुर्वेदी ने लगभग चिल्लाते हुए कहा।

'वो तो ऐसा बोलेंगी ही' समीर ने कुछ लापरवाही भरे स्वर में कहा।

'घेराव का मतलब समझते हैं आप' अवधेश चतुर्वेदी ने व्यंग्य के स्वर में कहा।

'अवधेश जी घेराव तो हुआ था ...' समीर ने बोलने का प्रयास किया मगर अवधेश चतुर्वेदी ने बीच में ही बात काटते हुए कहा 'अब रहने दीजिए आप, हम आपके यहाँ की डी एम का फ़ोनो कर रहे हैं ताकि स्थिति स्पष्ट हो जाए।' समीर ने मोबाइल ऑफ़ कर दिया।

सामने टीवी पर वंदना सक्सेना का फ़ोनो चल रहा था जो कह रहीं थीं की शहर में स्थिति बिल्कुल शांत है, कहीं कोई तनाव नहीं है। कलेक्टोरेट के घेराव जैसी कोई बात ही नहीं हुई है कुछ संगठनों ने आकर ज्ञापन दिया है, जिस पर हमें निर्णय लेना है। टीवी का स्विच ऑफ़ करके समीर खिड़की के पास आकर खड़ा हो गया। सारी दुकानें बंद हैं, चारों तरफ़ सन्नाटा छाया है मानो डी एम वंदना सक्सेना द्वारा कु छ देर पूर्व फ़ोनो पर कही गई बात की पुष्टी कर रहा हो कि शहर पूरी तरह से शांत है। सच का सबसे विचित्र पहलू यही है कि जब वह बिल्कुल नग्न हो जाता है तो बहुत कुरूप लगता है। जब तक उस पर झूठ की छोटी मोटी चिंदियाँ यहाँ वहाँ लगीं हों तब तक सब उसे पसंद करते हैं, मगर यदि वे चिंदियाँ हट जाऐं तो फिर पसंद करने वाले लोग ही बवाल मचा देते हैं। काफ़ी देर तक समीर वहीं खड़ा रहा और शांति की दहशत को महसूस करता रहा। चारों तरफ़ दिन दहाड़े ही शांति फ़ैल जाए तो वह शांति भी अजीब-सी दहशत भर देती है मन में। वापस लौट कर टीवी चालू किया तो देखा कि इस बार एस पी अरविंद कुमार का फ़ोनो चल रहा है जोकि बार-बार एक ही बात दोहरा रहे हैं कि शहर शांत है कहीं तनाव नहीं है। कलेक्टोरेट पर कोई प्रदर्शन या घेराव नहीं हुआ ना ही कोई बल प्रयोग हुआ है।

समीर को लगा कि उसे चारों तरफ़ से एक भीड़ घेरती जा रही है भीड़ का कुछ हिस्सा भगवा है तो कुछ हरा है। एक तरफ़ से आ रही पूरी भीड़ खाकी रंग की है। ये भीड़ उसका घेराव करती जा रही है। सब लोग अपने-अपने रंग के हिसाब से नारे लगा रहे हैं। सबकी मुट्ठियाँ तनी हुई हैं और चेहरे भिंचे हुए है। समीर ने बंद पड़े सेलफ़ोन को चालू कर के टेबल पर रख दिया और प्रतीक्षा करने लगा चैनल के हेड ऑफ़िस से आने वाले फ़ोन की 'मिस्टर समीर यू आर फ़ायर्ड'। घेराव हो चुका था और शहर अभी भी शांत था।