घोंघा / संजीव कुमार
उम्र की दूसरी-तीसरी दहाई में अनगिनत बार मैंने वह सपना देखा होगा...
पर मुश्किल यह है कि अभी जब उस सपने से कहानी शुरू करना चाहता हूँ, कुछ भी कायदे से याद नहीं आ रहा।
ये भी हो सकता है कि हर बार मैं उसे वही सपना समझता होऊँ, पर वह वही न होता हो। कुछ अजीबो-गरीब चीजें हर सपने में एक-सी होती हों, जिनके चलते लगता हो कि सपना वही है। जैसे यह, कि शहर के अपने छात्रावास से निकलते ही मैं गाँव की बूढ़ी गंडक नदी के घाट पर पहुँच जाता हूँ! जैसे यह, कि गंडक-तट की रेतीली मिट्टी पर पड़े असंख्य घोंघों के बीच मैं बचता-बचाता चलता हूँ और साथ में सोचता हूँ कि मैं किसे बचा रहा हूँ, खुद को या घोंघों को? जैसे यह, कि नदी की सतह समतल न होकर उन्नतोदर है, बीच से उठी हुई! जैसे यह, कि बाँध की ढलान पर सलवार-कुर्ते की एक जोड़ी पड़ी है, अपने होने में किसी के न होने को अनायास दर्ज करती। जैसे यह, कि अचानक मुझे पता चलता है, यह बूढ़ी गंडक नदी नहीं, बूढ़ा गंडक समुद्र है! जैसे यह, कि मैं धरती से आसमान तक फैले डरावने जबड़े जैसी एक लहर से बचने के लिए भागता हूँ और घोंघों के कठोर खोल के टूटने-चुभने से मेरे तलवे लहूलुहान होते जाते हैं और रफ्तार ऐसी कि घोंघों से बस थोड़ी ही तेज!
तो मुझे यह नहीं कहना चाहिए कि अनगिनत बार मैंने यह सपना देखा होगा। कहना चाहिए कि अनगिनत बार ये चीजें मेरे सपनों में आयी होंगी, जोड़-घटाव के अलग-अलग समीकरणों में उलझी।
इनके पीछे भी एक कहानी है। यों तो एक नहीं, अनेकों कहानियाँ होंगी, पर एक को मैं अपने पूरे होशोहवास में जानता हूँ। उस एक कहानी के पीछे भी अनेकों कहानियाँ होंगी जिन्हें मैं बिल्कुल नहीं जानता।
हमारा कॉलेज गंगा के किनारे था। अंग्रेजों का बनवाया हुआ वह परिसर इतना विराट और जटिल था कि मैं विश्वास के साथ नहीं कह सकता कि स्कूल से निकलने के बाद के जो पाँच साल मैंने वहाँ गुजारे, उनमें कॉलेज की इमारत के हर कोने को देख पाया होऊँगा। शहर की मुख्य सड़क पर - उसे 'मेन रोड' कहा भी जाता था - कॉलेज का प्रवेश-द्वार था, जिससे घुसने के बाद पेड़ों की कतारों के बीच एक लंबा फासला तय कर के ही हम इमारत के भीतर के किसी ठिकाने तक पहुँच पाते थे। हमारा छात्रावास, कई और छात्रावासों के साथ, इसी परिसर में एक तरफ था, गंगा के ज्यादा करीब। लेकिन एक ही परिसर के भीतर हमारे गौरवशाली कॉलेज और दयनीय छात्रावास की इमारत के बीच कोई तुलना न थी। दरअसल, उसे इमारत कहना ही अजीब लगता है। वह अंग्रेजों के जमाने की एक फौजी बैरक थी, करकट यानी एस्बेस्टॉस की छत वाली, जिसे छात्रावास में तब्दील करने के बाद बेहतर तो क्या, ज्यों-का-त्यों बनाये रखने की भी कोई कोशिश नहीं की गयी थी। लिखित इतिहास पर भरोसा न करने वाले मेरे ज्यादातर सहपाठियों का तो मानना था, और इसके लिए मौखिक स्रोतों के अनगिनत साक्ष्य उनके पास थे, कि वह फौजियों की बैरक नहीं, उनका अस्तबल था जिसे छात्रावास में तब्दील करते वक्त सिर्फ इतना किया गया कि हर कमरे के सामने की लोहे वाली बैरियर हटा कर वहाँ दीवार चुनवा दी गयी और एक दरवाजा निकाल दिया गया। इसके अलावा सब कुछ घोड़ों के हिसाब से ही बना रहने दिया गया। करकट की छत के नीचे लगी प्लाई की फाल्स सीलिंग के बारे में उनका कहना था कि वह तो अंग्रेजों के घोड़ों के लिए भी 'आवश्यक आवश्यकता' की श्रेणी में आता होगा। वह न होती तो मई-जून के महीनों में, जब करकट की वजह से इन कमरों में अदृश्य आग जल रही होती, घोड़े शर्तिया बगावत कर बैठते और अंग्रेजों को यह साबित करने में अपने कई इतिहासकारों को झोंकना पड़ता कि चूँकि घोड़ों का सामंतवाद के साथ करीबी रिश्ता रहा है, इसलिए इस बगावत का मूल चरित्र प्रतिगामी है।
बहरहाल, निहायत घोड़ोपयोगी होते हुए भी हमारा छात्रावास बाहर कहीं किराये का कमरा लेकर रहने की बनिस्बत बहुत आरामदेह था। उसके आसपास खुला-खुला वातावरण था, उत्तर की तरफ कुछ कदम के फासले पर गंगा थी, चारों ओर काफी बड़ी संख्या में पेड़-पौधे थे, और सबसे बड़ी बात कि एक 'बबजिया' की देख-रेख में चलने वाला किफायती मेस था जहाँ 110 रुपये में महीने भर सुबह-शाम का खाना मिल जाता था। जिस मैथिल युवक को 'बाबा' के साथ सम्मानसूचक 'जी' और अपमानसूचक 'आ/वा' लगा कर 'बबजिया' कहा जाता था, वही मेस का कर्ताधर्ता और सर्वेसर्वा था। मेस में खाने के हकदार तो हॉस्टलर्स ही थे, लेकिन आठ-दस बाहर के ग्राहक भी वह बनाये रखता था जिनसे वह उसी खाने के 140 रुपये वसूलता था।
बाहर के ग्राहकों में सिर्फ जीतेंद्र था जिससे बबजिया 110 रुपये ही लेता था, या कहिए कि ले पाता था। जीतेंद्र हमारे ही कॉलेज का विद्यार्थी था और हमारे छात्रावास के साथ उसका ऐसा रिश्ता था कि बहुत-से लोग उसे यहीं का अंतेवासी समझते थे। रहता भी पास ही था, उपप्राचार्य की कोठी के आउटहाउस में। प्राचार्य और उपप्राचार्य को कॉलेज के परिसर में ही अंग्रेजों के जमाने की बनी कोठियाँ मिली हुई थीं। दोनों कोठियाँ गंगा के ठीक किनारे पर बनी थीं जिनमें पेड़ों और झाड़-झंखाड़ से भरा बड़ा-सा अहाता था। अहाते और गंगा की तरफ जाती ढलान के बीच कम्पाउंड वॉल थी जिसे अहाते की तरफ से देखो तो खेत की मेड़ से बस थोड़ी ही ऊँची नजर आती, पर गंगा की तरफ से देखने पर उसकी ऊँचाई आठ फुट से कम न थी। प्राचार्य ने तो नहीं, पर उपप्राचार्य ने अपना आउटहाउस किराये पर एक मामा-भानजे को दे रखा था। जीतेंद्र वही भानजा था। उससे उम्र में तीन-चार साल बड़ा उसका मामा शायद ठेकेदारी के धंधे में हाथ-पैर मार रहा था। वह अक्सर सुबह जल्दी निकल कर देर रात लौटता था। इसीलिए हमारे मेस में खाना सिर्फ जीतेंद्र खाता था।
लंच और डिनर के समय के अलावा भी जित्तू का काफी वक्त हमारे छात्रावास में बीतता। बी.ए. अंतिम वर्ष के सारे लड़के उसके मित्र थे और वह प्रायः किसी-न-किसी के कमरे में बैठा पाया जाता। गरज कि हमारा छात्रावास उसकी अड्डेबाज़ी का पसंदीदा ठिकाना था।
इस ठिकाने पर दो चीजों को उसकी विशिष्ट पहचान का दर्जा हासिल था। पहली चीज थी उसकी हँसी, जो किसी भी तरह की मासूमियत से कोसों दूर थी। हँसते हुए अक्सर उसकी आँखों में एक शैतानी चमक होती जो ऐसे सभी लोगों की आँखों में होती है जिनके भीतर दूसरों को नुकसान पहुँचा कर, या किसी भी तरीके से उन्हें मायूसी, हताशा या कुंठा में धकेल कर लुत्फ लेने की प्रवृत्ति होती है। लेकिन उसकी पहचान के रूप में स्थापित विशेषता यह नहीं थी। पहचान वाली विशेषता यह थी कि उस हँसी में घोड़ों की हिनहिनाहट और परिंदों के परों की फड़फड़ाहट का विचित्र संयोग था। हिनहिनाहट का संबंध गले से रहा होगा और फड़फड़ाहट का जीभ और होठों से। बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा कि हिनहिनाहट उसकी हँसी का मूल स्वर था और फड़फड़ाहट उस लार की वल्गा को खींचे रखने का शोर जो हर हँसी के साथ जीतेंद्र के मुँह से बरबस बाहर की ओर चल पड़ती थी। ऐसी हँसी पूरे हॉस्टल में किसी की नहीं थी। वह कॉरीडोर के कोने वाले कमरे में भी हँस रहा हो तो दूसरे कोने में बैठा बंदा समझ जाता कि जितुआ हँस रहा है। और जितुआ हँस रहा है, मतलब पूरी संभावना है कि उसके आसपास कोई-न-कोई परेशान या चिड़चिड़ा या बगलें झाँकता या मायूस या आहत है।
कॉरीडोर के एक कोने वाले कमरे से दूसरे कोने वाले कमरे तक आवाजों के पहुँच जाने का रहस्य यह था कि कमरों में लगी फाल्स सीलिंग जगह-जगह से उजड़ चुकी थी और उसके तथा करकट की छत के बीच सभी कमरों को जोड़ता हुआ एक सुरंगनुमा खालीपन था, क्योंकि कमरों के बीच की पार्टीशन वाली दीवार फाल्स सीलिंग की ऊँचाई तक ही थी। लिहाजा किसी एक कमरे से उठती आवाज उस सुरंग में घुसने के बाद सभी कमरों में यथायोग्य बँट जाती। बिल्कुल पास के कमरों में उसकी गुणवत्ता उत्तम, थोड़े बाद वाले कमरों में मध्यम और खासे दूर के कमरों में अधम होती।
और इस सुरंग से होकर आती आवाजों में से जीतेंद्र की हँसी ही नहीं, उसके गपास्टक की आवाज भी एकदम अलग से पहचानी जाती थी। जी हाँ, यह गपास्टक या क़िस्सागोई उसकी दूसरी पहचान थी। वह जहाँ भी बैठता, वहाँ धीरे-धीरे पाँच-सात लड़के इकट्ठा हो ही जाते, क्योंकि वह एक-के-बाद-एक दिलचस्प किस्से इंतहाई सहज और गैरबनावटी अंदाज में सुनाता जाता। महमूद और दानिश भी, जो इन दिनों दास्तानगोई की कला को दुबारा जिंदा कर रहे हैं, उससे कुछ-न-कुछ सीख सकते थे। वह जो कुछ सुनाता, उसमें आपबीती कितनी होती थी और कितना मनगढ़ंत, कहना मुश्किल है, लेकिन उसका दावा सच का होता और बातें सच्ची लगती भी थीं। यानी वह पत्रकारीय अर्थों में 'स्टोरी' सुनाता था जहाँ झूठ को भी सच के दावे और ढब के साथ पेश किया जाता है, साहित्यिक अर्थों में नहीं जहाँ हम सच को भी झूठ कह कर परोसते हैं। उसके पास दुनिया का विशाल अनुभव था जो कभी भी निःषेश न होने वाले खजाने की तरह उसके साथ चलता था और उसकी बातें सुन कर हम खुद को कुएँ का मेढ़क समझने पर मजबूर होते थे। हमारे पास दरी वाले सिनेमाघरों से लेकर पलंग और मसनद वाले सिनेमाघरों तक का तज़ुर्बा नहीं था। हमने कोठों और चकलाघरों का स्वाद नहीं चखा था। हमने ट्रकों में सफर करके लाइन-होटलों में रातें नहीं गुजारी थीं। हम कभी डब्ल्यू.टी. यात्रा करने के जुर्म में जेल नहीं गये थे। हमने टिकटें ब्लैक में बेच कर उम्दा रेस्तराँओं में मुर्गमुसल्लम नहीं उड़ाया था। रहरी यानी अरहर के खेत देखने में कैसे होते हैं, यह हममें से ज्यादातर को पता नहीं था, फिर भला हम कैसे जानते कि वह कामातुर जोड़ों के लिए अभयारण्य क्यों साबित होता है! निचोड़ यह कि जीतेंद्र के किस्से हमारे लिए अवैध और निषिद्ध ज्ञान का भंडार थे।
इस भंडार में यों तो लगभग हर चीज हमारे काम की थी, पर सबसे ज्यादा काम की चीज थी उसका कामशास्त्र। उसे हम श्लेष में 'काम' की चीज कहते, क्योंकि वही हमारी अभावग्रस्तता (या शायद अकालग्रस्तता) और गर्जमंदी का सबसे अहम संदर्भ था। कहने को हम एक सहशिक्षा महाविद्यालय में पढ़ रहे थे, पर लड़कियाँ हमारे लिए उतनी ही दुर्लभ थीं जितनी पास वाले ब्वॉयज कॉलेज यानी 'बंडाश्रम' के लड़कों के लिए। हिकारत में दिये गये इस 'बंडाश्रम' नाम के बदले ब्वॉयज कॉलेज के लड़के हमारे बारे में कहने लगे थे कि साले, बात तो ऐसे करते हैं जैसे सहशिक्षा महाविद्यालय में नहीं, सहवास महाविद्यालय में पढ़ते हों। ये करमघट्टू, ताखे पर रखी हुई मिठाई देख-देख के रोज इतनी लार टपकाते हैं कि एक दिन जब मिठाई मिलेगी तब पूरी लार खत्म हो चुकी होगी, मिठाई घोंटी नहीं जाएगी।
बंडाश्रम वालों की इस बात का उत्तरार्द्ध भले ही शुद्ध खिसियाहट का नमूना हो, ताखे पर रखी हुई मिठाई वाला उपमान गलत नहीं था। लड़कियों के साथ हमारा संबंध वैसा ही था जैसा दिन और रात, सूरज और चाँद के बीच होता है। कभी कायदे से मिल न पाना हमारी किस्मत में बदा था। बस, कक्षाएँ थीं जो सुबह और शाम की भाँति आधे-अधूरे ढंग से हमें पास आने का मौका देती थीं। पता नहीं, कॉलेज के स्थपति ने कितना विराट गर्ल्स कॉमन-रूम बनावाया था कि कक्षाओं में बैठी लड़कियों के अलावा बची हुई सारी लड़कियाँ उस कॉमन-रूम के पेट में समा जाती थीं। क्लास शुरू होने से दो मिनट पहले वे कॉमन-रूम से निकल कर क्लास-रूम के बाहर झुंड में खड़ी हो जातीं। उनके झुंड का रंग-ढंग देख कर मुझे रॉयल चिकेन सेंटर की वे मुर्गियाँ याद आतीं जो आसिफ मियाँ का हाथ पिंजरे के अंदर जाते ही मुँह दूसरी ओर घुमाये परले कोने में अँड़सने लगती थीं (जाहिर है, उसमें मुर्गे भी होते होंगे, लेकिन मेरी याद में सब मुर्गियाँ बन कर ही आते)। टीचर के आने पर उसके पीछे-पीछे वे क्लासरूम में प्रवेश करतीं और आगे की दो खाली कतारों में जाकर बैठ जातीं। इन कतारों को उन्हीं के लिए खाली छोड़ा जाता था। फिर क्लास खत्म होने पर वे टीचर के पीछे-पीछे क्लास-रूम से निकलती हुई सीधे गर्ल्स कॉमन-रूम या किसी और क्लास-रूम की तरफ झुंड में बढ़ जातीं। ज्यादातर लड़कियों को हम उनके रॉल नंबर से जानते थे, क्योंकि हाजिरी लगाने के लिए नाम नहीं, रॉल नंबर पुकारा जाता था। थक-हार कर उसे ही हमने उनके नाम का दर्जा दे दिया था। मिसाल के लिए, हमारे क्लास की तीन निहायत खूबसूरत लड़कियों के नाम थे, 84, 310 और 320। कॉलेज के 99 फीसदी लड़कों को सालों-साल किसी लड़की से दो शब्द बात करने का मौका न मिलता था और यही हाल 99 फीसदी लड़कियों का था। बचे 1 फीसदी लड़के और लड़कियाँ। तो उनकी बात ही अलग थी! वे हमें अपने शहर तो क्या, इस मर्त्यलोक के ही प्राणी नहीं लगते। उन्हें हम देवलोक का प्रतिनिधि मानते थे। हाँ, कभी-कभी जब कोई देवता हमारी दुनिया के किसी असुर से इस बात पर पिट जाता कि उसने उस लड़की से बात क्यों की जिसके पिता को असुर विशेष ने अपना ससुर मान लिया है, तब उसका देवत्व हमारे लिए संदेह के घेरे में आ जाता था।
खैर, अकाल की इस चर्चा को यहीं विराम दें, क्योंकि वह हरिकथा की तरह अनंता है और आपके सामने मैं अपने अभावों का रोना रोने नहीं बैठा हूँ। मैं तो...
या पता नहीं...
अच्छा, छोड़िए! मैं क्या करने बैठा हूँ, यह खासा बहसतलब हो सकता है, पर फ़िलहाल मैं जो कर रहा था, वह चर्चा थी जीतेंद्र की हँसी और क़िस्सागोई की। तो उसके किस्सों का जादू ही था जो हमें उसके आसपास मँडराने के लिए मजबूर करता था, वर्ना उसकी शैतानी हँसी का निशाना हम सब कभी-न-कभी बन चुके थे। और जब भी कोई उसका निशाना बनता, अविलंब यह कसम खाता कि इस साले से अब कोई दोस्ती-यारी नहीं रखनी है... लेकिन बमुश्किल चौबीस घंटे बाद वह जितुआ के आसपास मँडराता पाया जाता।
ऐसे ही एक दिन, जब शैतानी हँसी का शिकार बनने के बाद खायी गयी कसम का स्वाद मेरे मन की जिह्वा से उतरा भी न था, जित्तू ने रात के खाने के बाद और दोस्तों से अलग मुझे पकड़ा।
'का रे चिकेन! गुस्सा हो?' कहते हुए उसने मेरे कंधे के पास की गोलाई को बड़े मानीनीखेज अंदाज में दबाया। यह उसका प्यार जताने का ख़ास तरीका था। उसके 'चिकेन' में चिकना होने और सुस्वादु खाद्य पदार्थ होने का अर्थ मिला हुआ था और यह संबोधन उसने खास मेरे लिए सुरक्षित कर रखा था। यह शब्द मुझे सचेत रूप से कभी आपत्तिजनक नहीं लगा, पर शायद मेरे मन में इसने अनजाने ही कोई गाँठ डाल दी थी जिसका कहीं-न-कहीं मेरी मोटी मूँछों के साथ संबंध है जिन्हें मैंने उन्हीं दिनों तराशना बंद कर फलने-फूलने के लिए छोड़ दिया था।
बहरहाल, कंधे की गोलाई को उसकी हथेली की पकड़ से आजाद कराते हुए मैंने उसे 'बड़गाहीभाई' की पदवी से नवाजा और कहा कि बताये, बात क्या है। वह पहले तो हिनहिनाती हँसी हँसता रहा, फिर मेरे और पास आकर धीमे से, लगभग बुदबुदाते हुए बोला, 'आज केतनो गरिया लो भइवा, सब माफ है। हम त अंदर तक सिलाबोर (सराबोर) हैं... पूरा, जबर्दस्त!'
कह कर वह मुस्कुराती आँखें से इस बयान के असर को टटोलने लगा। उसे पता था कि वह गपास्टक का पहला टुकड़ा मेरी ओर उछाल चुका है और अब मेरा उपेक्षापूर्वक वहाँ से चलते बनना असंभव हो गया है।
असर तो सचमुच हुआ था, पर मैंने कोशिश की कि वह दिखे नहीं। बात को हल्के में लेने वाले अंदाज में कहा, 'बेसी पेल मत। बताओ, का बात है?'
वह फिर हिनहिनाया, जैसे कहना चाहता हो कि लाख छुपाओ, छुप न सकेगा... वगैरा। फिर बोला, 'आजकल धकाधक चल रहलउ हे, भइवा। रात दिन।' कह कर उसने एक गंदा इशारा किया जिसका मतलब था कि रात-दिन चलने वाली चीज और कुछ नहीं, संभोग है।
सुन कर मैं चौंधिया गया होउँगा, क्योंकि वह मेरे चेहरे को देखते हुए, उस चेहरे की ओर तर्जनी से निशाना साधे हुए, इतनी जोर से हिनहिनाया कि दूर खड़े सारे लड़के हमारी ओर देखने लगे। कुछ पलों बाद जब उसका हिनहिनाना रुका, तो हँसी के दबाव में उसकी आँखों से पानी बहने लगा था। 'ओह, मजा आ गेलउ, भइवा,' कहते हुए उसने मुझे कंधे से पकड़ा और जो लड़के इस हँसी के चलते समुत्सुक होकर हमारी ओर कदम बढ़ा चुके थे, उनसे अलग ले चला।
अलग जाते हुए जो बात उसने लगभग फुसफुसाते हुए बतायी, वह इस प्रकार थी।
पिछली रात जब वह अपने मामू के साथ नाइट शो देख कर स्टेशन के पास के सिनेमा हॉल से कैम्पस की ओर लौट रहा था, एक लड़की सड़क पर अकेली दिखी। मामा-भानजे ने सोचा, शायद पैसे पर चलने वाली है। थोड़ी ठिठोली करने की इच्छा हुई। टोका। लड़की बहुत घबरायी हुई थी। बात करने पर पता चला कि रात के दस बजे स्टेशन पर उतरी थी। सदर अस्पताल जाना है, जहाँ उसकी माँ भर्ती है। पास में पैसे नहीं हैं और पैदल किस रास्ते जाये, उसे समझ नहीं आ रहा।... मामा-भानजे ने एक-दूसरे को देखा, आँखों ही आँखों में बातें हुईं। उपप्राचार्य, जिनकी कोठी के आउटहाउस में वे रहते थे, हफ्ते भर के लिए सपरिवार बाहर गये हुए थे। इससे अच्छा समय और क्या हो सकता था! तुरंत एक रिक्शा रुकवाया। लड़की से कहा कि वे जहाँ रहते हैं, वह जगह अस्पताल के पास ही है, साथ आ जाये। लड़की उनके साथ रिक्शे पर बैठ गयी। मामा-भानजा उसे लिये हुए अपने कमरे पर आ गये। कॉलेज के विशाल परिसर में घुसने के बाद से लड़की यही समझती रही कि अस्पताल आ गया है। कमरे में लाने के बाद लड़की को धमका कर दोनों ने अपनी प्यास बुझायी। साथ में एक काम और किया। प्यास बुझाते समय उसके जो कपड़े उतारे थे, उन्हें एक बक्से में बंद कर ताला लगा दिया। लड़की अब बिल्कुल नंगी थी, इसलिए उसके भाग खड़े होने का सवाल ही नहीं था। तब से लगभग चौबीस घंटे गुजर चुके थे। लड़की इस बीच सोई नहीं थी। उनके बिस्तर के एक कोने में घुटने मोड़े, अपनी देह से ही देह को ढँके बैठी थी, गठरी की तरह। मामू ने सुबह काम पर जाने से पहले इस गठरी को खोला था और उसके बाद से भानजा तीन बार खोल चुका था। हर बार वह लाचार-सी खुल जाती और गिड़गिड़ाती कि उसे एक बार अस्पताल पहुँचा दिया जाए, वह रात को फिर आ जाएगी। हर बार जितुआ उसे आश्वस्त करता कि एक दिन अच्छे से भोग लेने दे, अगले दिन पहुँचा दिया जाएगा।
सच कहूँ तो अब बिल्कुल याद नहीं कि इस बात को सुन कर मुझे कैसा लगा था। अंदर कहीं गुस्से का ज्वार उठा हो और मैंने जितुआ के मुँह पर थूक दिया हो, या दूर-दूर से हमें बातें करते देख रहे दोस्तों को बुला कर जितुआ की हैवानियत के लिए उसे सार्वजनिक रूप से जलील किया हो, या चुप रह कर मन-ही-मन संकल्प किया हो कि कल पुलिस को सूचना देकर उसके कमरे पर छापा डलवा दूँगा, या चेहरे पर याचक भाव लाकर उससे कहा हो कि हमरो दिलबा दे न, यार। ऐसा कुछ नहीं हुआ था। शायद जितुआ की हैवानियत के प्रति एक गहरी वितृष्णा और निर्वस्त्र स्त्री-देह की दुर्निवार रूप से सम्मोहक कल्पना के बीच मैं ठिठक गया था। शायद ये सी-सॉ के दो बाजुओं की तरह थीं, जिनकी बीच वाली टेक के दोनों ओर अपने पैर जमाये मैं सीधा खड़े रहने की कोशिश कर रहा था। इतना याद है कि छूटते ही कोई प्रतिक्रिया देने के बजाय कुछ क्षण ठहर कर मैंने कहा था, 'साला, एकदम्मे जंगली है का रे? भाक्!' और अपने कमरे की ओर चल पड़ा था। पीछे से हँसी के फव्वारे के साथ झरते उसके ये शब्द सुनाई पड़े थे, 'जंगलवा में ई सब कहाँ मिलता है, भइवा!'
कमरे में लौट कर मैं अपनी मेज-कुर्सी ठीक से जमा ही रहा था कि वह पीछे से फिर आ पहुँचा। 'जंगली बनना है, शिशिर?' इस बार उसका अंदाज गंभीर था, 'सोच ले, भइवा! एक नंबर समान है। बाद में मत बोलना कि साला दोस्त काम नहीं आया। हम त अपना भर कोसिस करते ही हैं कि तू लोग को दुनिया का सब स्वाद चखवा दें।'
बेशक! अभी दो दिन पहले ही उसने हमें सामूहिक रूप से एक स्वाद चखवाया था। ब्लू-फिल्म का। उपप्राचार्य उसी दिन सपरिवार बाहर गये थे। उनके निकलते ही जितुआ ने 'चंदा' करके रात को अपने कमरे पर ब्लू-फिल्म का प्रोग्राम रखा (इससे पहले तक 'चंदा' हमारे लिए सरस्वती पूजा से जुड़ी शब्दावली का हिस्सा था)। डेढ़ सौ रुपये में टी.वी. सेट, वी.सी.पी. और कैसेट्स - रात भर के लिए। हम लपक कर और ललक कर इस आयोजन में शरीक हुए थे, एक अभूतपूर्व स्वाद की उम्मीद में खुदबुदाते। जित्तू के कमरे की ओर जाते हुए रास्ते में एक तजुर्बेकार साथी ने बताया था कि बेट्टा, जब सीन देखोगे न, त अइसा साँस फुलने लगेगा जइसे ऑक्सीजन कम पड़ गया हो। फस्ट टाइम वाला सब लोग का यही हाल होता है।
और सचमुच, हमारा यही हाल हुआ था।
लेकिन यह मेरे लिए थोड़ा परेशान करने वाली बात थी कि जित्तू ने जब जंगली बनने का न्यौता दिया, तब भी एकाएक मैंने उसी तरह साँसों का फूलना महसूस किया। फेफड़ों में एकाएक जैसे कुछ ज्यादा जगह बन आयी थी और हवा जाने का रास्ता नाकाफी लगने लगा था। एक मिनट तक मैं उसकी ओर पीठ किये अपनी मेज पर किताबें जमाता रहा, फिर एक शब्द में मैंने जवाब दिया, 'कल।' मेरी इस असहमत-सी सहमति पर वह फिर हिनहिनाया और कुछ 'घाघ' या 'घुन्ना' या 'घोंघा' जैसा कमेंट मारते हुए रुख्सत हो गया।
'हाँ रे साला, घाघ तो हम हैं,' मैंने सोचा, 'कल पता लगेगा। ई जान रहा है कि हम स्वाद के चक्कर में आ रहे हैं? जब लड़की को आजाद करा देंगे, तब समझ में आयेगा, केतना घाघ हैं।' मैंने खुद को विश्वास दिलाया कि कमरे पर चलने का न्यौता पाकर मेरी साँसों का फूल आना, दरअसल, एक मजलूम को आजाद कराने के दुस्साहसिक विचार से उपजे भय और रोमांच का नतीजा था।
वह एक बेचैन रात थी। जितुआ की हैवानियत के बारे में सोच-सोच कर मैं सो नहीं पा रहा था। साले ने पिछले चौबीस घंटे से किसी को कैद कर रखा है और वह भी इस हालत में! कल रात से वह अपने लाचार जिस्म पर सात-आठ दफे इन दरिंदों की ठोकरें झेल चुकी है।... और यह सिलसिला ऐन उस घड़ी शुरू हुआ है जब वह ऊपर वाले का शुक्र मना रही थी कि उसने आखिरकार अपने दूत भेज कर उसे माँ के पास पहुँचवा ही दिया। कॉलेज के विशाल परिसर में पेड़ों की कतारों के बीच से गुजरते हुए और दूर-दूर गलियारों और छात्रावासों के कमरों में जलती लाइटों को देखते हुए उसे तसल्ली हुई होगी कि इतने शांत और शानदार अस्पताल में मौत उसकी माँ के आस-पास भी फटकने का साहस नहीं करेगी। शहर का सारा इंतजाम कितना 'निम्मन' है और लोग कितने 'सुपातर', उसने सोचा होगा। और इसके तुरंत बाद वह जैसे पहाड़ की चोटी से अँधेरे खड्ड में गिरी होगी। फिर मन और देह की भयावह पीड़ा से कराहती एक गठरी बन कर बिस्तर के कोने में धँस गयी होगी।
यह सब कुछ मैं शायद इन्हीं शब्दों में नहीं सोच रहा था, पर इतना तो याद है कि शब्दों में ही सोच रहा था। ध्यान जब भी भटक कर किसी और दिशा में जाता, मैं शब्दों और सुचिंतित वाक्यों से हाँक कर उसे गुस्से और हमदर्दी की उसी राह पर ले आता। अंततः मैंने तय किया कि कल कंचन'दी के घर से - वह उसी शहर में रहने वाली मेरी मौसेरी बहन थीं - एक जोड़ी कपड़े लेकर आना है, ताकि जितुआ के कमरे पर जाते ही उस लड़की को कपड़े दूँ और उसके सदर अस्पताल जाने का इंतजाम करूँ।
अगले दिन क्लास खत्म होते ही मैं कंचन'दी के यहाँ गया। उन्हें बताया कि नाटक खेलने के लिए सलवार-कुर्ते की एक जोड़ी चाहिए। वे इस शर्त पर कपड़े देने को राजी हुईं कि मैं रात का खाना वहीं खाऊँ। रात का खाना खाकर अपने झोले में एक सलवार सूट रखे मैं नौ बजे छात्रावास पहुँचा।
जितुआ गेट पर ही मिल गया। वह डिनर के बाद अपने कमरे की ओर जा रहा था। मुझे देखते ही बोला, 'का भइवा, कहाँ गायब हो जाते हो? साला दिन भर खोज खोज के तबाह हो गये।' फिर पास आकर फुसफुसाया, 'अबहीं चलबे?'
'चल।' मैंने कहा और उसके साथ हो लिया।
पिछली बार फूलती हुई साँसों के बीच मैं सिर्फ 'कल' कह पाया था, इस बार सिर्फ 'चल'। चलते हुए मैंने एक बार अच्छी तरह कंधे से लटके झोले को टटोला। यह अपनी साँसों के फूलने को झुठलाने की कोशिश रही होगी।
कोठी पर पहुँच कर मेरी चाल खुद-ब-खुद धीमी पड़ गयी। जितुआ को मैंने दो कदम आगे निकल जाने दिया। वह पैंट की जेब में चाभी टटोलता कमरे के दरवाज़े की ओर बढ़ा... पर यह क्या! वहाँ तो कोई ताला था ही नहीं। हाथ लगाते ही दरवाजा खुल गया। 'अरे! खुलल कैसे है यार? मामू आ गये का?' कह कर उसने हड़बड़ी में लाइट जलायी।
लाइट ने बताया कि मामू तो नहीं ही आये हैं, लड़की भी नदारद है।
जितुआ सन्न! 'अरे, कहाँ गेलउ भइवा?' वह ऐसे तड़फड़ाने लगा जैसे बिर्हनी के छत्ते में हाथ पड़ गया हो। झटाझट उसने कमरे के सारे कोने-अँतरे तलाश लिये।
मैंने गौर किया, तीन दिन पहले के मुकाबले कमरे की रंगत थोड़ी बदली हुई थी। सामान तो अपनी पुरानी जगह पर ही थे - दरवाज़े के ठीक सामने की दीवार के साथ एक स्टोव और दो-चार बर्तन, बायीं तरफ एक चौड़ी-सी चौकी और उस पर बिछा तोशक, फोल्डिंग मेज पर कूड़े के ढेर की तरह रखी किताबें, पास ही जस्ते का एक बड़ा-सा बक्सा - पर तोशक को छोड़ कपास का कोई नामोनिशान नहीं था। बिस्तर पर चादर तक न थी और कमरे में आर-पार बँधी रस्सी, जिस पर ढेरों कपड़े टँगे होते थे, खाली पड़ी थी। शायद मामा-भानजे ने सारा कुछ, एहतियातन, बक्से में बंद कर दिया था। उस बक्से पर अभी ताला लटक रहा था।
इन सारे सामानों के बीच वह 'समान' कहीं नहीं था। दरवाज़े की आड़ में एक देह भर का जो छोटा-सा गुप्त ठिकाना था, वहाँ भी नहीं। जितुआ दौड़ कर ग़ुसलखाने में झाँक आया। वह भी ख़ाली था।
'ले लोट्टा। लगता है, कमरवा बंद करके जाना भूल गये थे।... लेकिन कपड़ा त सब ताला में बंद है। साली लँगटे भाग गई का?' कहता हुआ वह बाहर की ओर दौड़ा और फाटक से निकल कर हड़बड़ाया हुआ दोनों तरफ देखने लगा, इस दुविधा में कि किधर जाए।
मैं कमरे के बारामदे पर खड़ा रहा। मुझे संदेह होने लगा था कि कहीं सब कुछ इस साले की किस्सागोई तो नहीं है! सोचता होगा, ऐसा कोई किस्सा बनाने से इसकी मर्दानगी का रुआब जमेगा।... वाह, क्या मर्दानगी है!... अब ये हरामी फाटक के पास से अपने कंधे झुलाये हुए लौटेगा और कहेगा, 'भाग गेलउ रंडिया। साइद चद्दर-उद्दर कुछ बाहर छूट गेलई होत। ओही लपेट-उपेट के भाग गेलउ।'
उसकी ऐक्टिंग की ओर से मुँह फेर लेने की गरज से, या शायद किसी अंतःप्रज्ञा के चलते, या शायद यों ही, मैं फाटक से ठीक उल्टी दिशा में देखने लगा जहाँ पेड़ों और झाड़-झंखाड़ से भरा कोठी का विशाल अहाता था। अहाते के छोर पर खेत की मेड़ से बस थोड़ी ही ऊँची दीवार और आगे गंगा की ढलान। चाँदनी रात में यह पूरा विस्तार बहुत रहस्यमय लग रहा था, क्योंकि कोठी की सारी बत्तियाँ बुझी हुई थीं। सिर्फ एक बल्ब था, जितुआ के कमरे का, जो मेरी पीठ के ठीक पीछे था। पर चाँदनी में सब कुछ साफ-साफ नजर आ रहा था, गाछ-वृक्षों की हरीतिमा को छोड़ कर। साँवलापन ओढ़े ये गाछ-वृक्ष ऐसे लग रहे थे जैसे त्रिआयामी परछाइयों में बदल गये हों। हवा थमी हुई थी। बाउंडरी वॉल के आगे तेजी से धुँधली पड़ती चाँदनी गंगा के विस्तार पर जाकर लगभग लुप्त हो गयी थी। वहाँ अँधेरा पसरा था और पानी की सरसराहट में सुनाई पड़ता सन्नाटा भी।
आधे मिनट मैं इस रहस्यलोक के किनारे पर खड़ा उसकी चौहद्दियाँ टटोलने की कोशिश करता रहा। वे जितनी पास थीं, उतनी ही दूर भी।... या शायद वे कहीं थीं ही नहीं। उनके एक साथ पास और दूर होने की अतार्किकता का यही निदान था।
पर उस रहस्यलोक के भीतर कुछ और था जिसने एकाएक मेरा ध्यान खींच कर मुझे हतप्रभ कर दिया और अगले एक-डेढ़ मिनट में वह सब हो गया जिसे बताने के लिए मैं इतने ब्यौरे पार करता यहाँ तक पहुँचा हूँ।
मैंने देखा, दूर किसी मोटे तने की आड़ से झाँकती एक गोरी बाँह और कमर के कटाव से नीचे का सफेद झक्क अर्द्धचंद्र! वह अपने नंगे जिस्म को एक उम्रदराज पेड़ की आड़ में छिपाने की नाकाम कोशिश कर रही थी। जिस्म का जो कतरा तने से बाहर निकला था, उससे टकरा कर चाँदनी जैसे बिखर-बिखर जाती थी। पेड़ कुछ बेतरतीब और विरल झाड़ियों के पीछे था। इसलिए कमर से नीचे की अधगोलाई किसी ढीले-ढाले जाल में उलझी-सी दिख रही थी।
मैं साँसों को सँभालता कुछ क्षण रहस्यलोक में छिपे इस सबसे गहरे, किंतु अंशतः अनावृत, रहस्य को देखता रहा। इस बीच उसने तने के पीछे से अपना आधा चेहरा बाहर निकाला और एक आँख से इसी दिशा में देखने लगी जिधर आउटहाउस था, फाटक था और मैं भी। मेरे पीछे बल्ब से रौशन कमरे का दरवाजा था, शायद इसीलिए वह समझ न पाई हो कि मैं उसे ही देख रहा हूँ। समझ पाती तो तुरंत अपने को छुपा लेने का कोई और जतन करती।
उतनी देर में मैंने अपनी साँसों पर थोड़ा काबू पा लिया था और मुझे याद आ गया था कि मैं इसे देखने नहीं, कपड़े देने आया हूँ। मैं बारामदे से उतर कर उस ओर बढ़ गया।
और यही सारी गड़बड़ी की शुरुआत थी। मुझे आगे आता देख वह एकाएक सचेत हुई और वहाँ से भाग कर पीछे एक केले के पेड़ की आड़ में खड़ी हो गयी। एक कौंध की तरह उसका पूरा नंगा जिस्म दृश्य से होकर गुजरा। किसी ग्लानि या घबराहट या महज एक अपरिचित-सी झेंप के चलते मेरे पैर बरामदे से चार कदम आगे ही ठिठक गये और मैं कठपुलती की तरह पीछे मुड़ गया, जैसे यह साबित करना हो कि मैंने कुछ नहीं देखा। जितुआ उस समय फाटक के बाहर दाहिनी तरफ से लौट कर बाईं तरफ जा रहा था। उस पर नजर पड़ते ही मैं वापस झुरमुट की ओर मुड़ गया।
भाग कर केले की आड़ में उसका जाना, बेशक, खुद को बचाने की कोशिश में एक बेमतलब-सा कदम था, पर कोई उपाय न देख कर वह लुका-छिपी के खेल में ही बचाव और प्रतिरोध का छद्म संतोष ढूँढ़ रही होगी। यह भी हो सकता है कि केले के नाटे कद और नीचे को लटके हुए दुकूल-नुमा पत्तों से उसे कुछ ज्यादा ही उम्मीद रही हो। वहाँ जाकर शायद उसे महसूस हुआ कि उसकी उम्मीद कितनी गलत थी; वह जितना छुप रही थी, उससे ज्यादा दिख रही थी। मुझे अपनी ओर देखता देख वह स्तनों पर अपने हाथ बाँधे पीछे खिसकने लगी। अब वह आड़ से बिल्कुल बाहर थी, पीछे को जाती हुई। उसके बाल बँधे थे। चेहरे से लेकर गर्दन तक का रंग गेहुँआ रहा होगा, तभी वह बहुत साफ नजर नहीं रहा था, पर पूरी देह चाँदनी में चमक रही थी।... दो-चार कदम पीछे जाने के बाद जमीन पर गिरी हुई एक सूखी डाल से उसके पैर उलझे। जैसे आत्मरक्षा की कोई युक्ति अचानक सूझ गयी हो, उसने वह मोटी-सी डाल हाथों में उठा ली और उसे ध्यान नहीं रहा... या रहा भी हो... कि ऐसा करने से उसके स्तन पूरी तरह बेबाक हो गये हैं - डुबकी मार कर ऊपर को उठते गोताखोरों की तरह दो भारावनत स्तन...
बचपन के भूगर्भ की किन्हीं परतों में दबा परितृप्त स्पर्श का एक अहसास मेरी हथेलियों, गालों और होंठों पर बिछलता चला गया।
क्या इसे ही जादुई यथार्थ कहते हैं?
मैं मंत्रविद्ध-सा जड़ हो गया। फिर से यह बात साँसों की धौंकनी में कहीं खो गयी कि मेरे कंधे पर लटकते झोले में एक जोड़ी कपड़े इसी जादू और रहस्य को ढँकने के लिए हैं। शायद चाँदनी का नीम अँधेरा न होता और उसकी देह की चमक ही नहीं, आँखों के डर को भी मैं देख पाता तो यह भूल न होती।... या कौन जाने, यह सिर्फ एक लाचारी भरी सफाई हो! कैसे कह सकता हूँ कि दिन के उजाले में भी उन आँखों को मैं देख ही पाता! क्या इस वक्त मैं उसकी देह के अलावा और कुछ भी देख पा रहा था? उमस भरी रात में निस्तब्ध खड़े पेड़, अहाते की ठिगनी चारदीवारी, उसके पार धुँधली पड़ती हुई अँधेरे में गुम जाने वाली ढलान, गंगा के प्रवाह पर कहीं-कहीं रोशनी के काँपते प्रतिबिंब - ये सब मेरी निगाह के दायरे में रह कर भी अदृश्य थे। दृश्य सिर्फ एक जिस्म था।
पर यह सब, कुछ गिने-चुने लम्हों की ही बात थी। जब पीछे की ओर चलते हुए अहाते की छोटी-सी दीवार से उसके पैर अटके तो मुझे जैसे होश आया। मैं अपने ठिठके हुए कदमों को झटक कर आगे लपका और चिल्लाया, 'अरे, रुको! हम ई कपड़ा...।' वाक्य बीच में ही छूट गया, क्योंकि मेरे लपकने और चिल्लाने को एक निर्णायक हमला मान कर उसने हाथ में पकड़ी हुई डाल मुझ पर फेंक कर मारी। वह सीधा मेरे चेहरे पर लगी होती अगर हाथों पर रोकते और नीचे झुकते हुए मैं जमीन पर न आ गिरा होता। उधर लड़की, शायद जवाबी हमला कर चुकने के बाद की घबराहट में, या मेरी आवाज सुन कर पीछे से दौड़े आते हुए जितुआ को देख कर, तेजी से पीछे मुड़ी और दो-ढाई फुट ऊँची उस दीवार पर खड़ी हो गयी जिसके बाद गंगा की ढलान शुरू होती थी।
तुरंत उस पार कूद जाने के बजाय वह अगले कुछ सेकेंड वहीं खड़ी रही। शायद पसोपेश में थी कि दूसरी तरफ का संसार न जाने कैसा हो। पर यह पसोपेश, निस्संदेह, उसे बेमानी लगा होगा, क्योंकि दुःस्वप्न जैसे इन दो दिनों से ज्यादा बुरे दिनों की कल्पना भी नामुमकिन थी।
या शायद उन क्षणों में उसकी निगाह दाहिनी ओर के घाट पर, छात्रावास का डिनर निपटाने के बाद तफरीह करते दो-तीन युवकों की ओर चली गयी हो और एक बार को उसने सोचा हो कि उनसे कोई मदद मिल सकती है या नहीं। पर वे उसे, निस्संदेह, एक नग्न स्त्री-देह की मौजूदगी से अनजान, इसीलिए फिलहाल निष्क्रिय, दरिंदों की तरह नजर आये होंगे।
या शायद उन क्षणों में उसने सामने, सीधी ढलान के छोर पर, क्रमशः विरल होते दूधिया घोल-जैसी चाँदनी में ऊँघती गंगा मैया को एक बार आँख भर कर देखा हो और यह जानते हुए भी, कि इस बात का कोई मतलब नहीं है, 'रच्छा' की 'बिनती' की हो।
जो भी हो, उठ कर खड़े होते-होते उन क्षणों में मैंने जो देखा, वह मेरी साँसों और शब्दों पर बहुत भारी पड़ रहा था। उसकी पीठ मेरी तरफ थी और दीवार के ऊपर जहाँ वह खड़ी थी, नीम उजाला उसकी देह के आकार में धवल प्रकाश बन गया था।... उघड़ी हुई पीठ से लेकर कमर के कटाव से नीचे के उन्नतोदर विस्तार तक, लगभग स्तब्ध-अवाक् कर देने वाले सौंदर्य का यह भीषण सामना था।... मैंने उखड़ती हुई साँसों के बीच झोले में रखे कपड़े बाहर निकाल लिये और उन्हें हाथों में थामे एक पूरा वाक्य कह डालने की कोषिश की, लेकिन हकलाहट में कुछ बेमेल शब्द ही निकल पाये।...
या शायद वह भी नहीं... बस, कुछ निरर्थक ध्वनियाँ।
ऐन जिस वक्त पीछे से भाग कर आता जितुआ मेरे पास तक पहुँचा, लड़की दूसरी तरफ कूद गयी और तीर की तरह दौड़ती हुई, मेरी दुःकल्पना की हदों से भी आगे, ढलान पार कर गंगा में समा गयी। शांत लहरों में एक तेज हड़कंप हुआ, जैसे दो-तीन बड़े पत्थर एक के बाद एक फेंके गये हों। पर इतना ही। लहरें फिर शांत हो गयीं। दाहिनी ओर के घाट पर बैठे युवक चौंक कर खड़े हो गये और कौतुक से उधर देखने लगे। उन्हें अपनी बाँयी आँख के कोने से जो कुछ दिखा होगा, वह एक पहेली की तरह लग रहा होगा, जिसे वे समझने की कोशिश कर रहे थे।
मैं अब तक दौड़ कर अहाते की दीवार के पास आ गया था। तभी पीछे से जितुआ ने कॉलर पकड़ कर मुझे पेड़ों की आड़ में खींच लिया।
'भोंसड़ीवाले, सबके नजर में आने का सौख है का?' वह ग़ुस्से में था।
'अउ ई का है?' मेरे हाथ से कंचन'दी का सलवार-सूट खींचते हुए उसने पूछा।
बात समझते उसे देर नहीं लगी।
'भोंसड़ी के, हम विलेन बनके माल को लें और तू हीरो बनके? एही सोचे थे?... साला, घोंघा!'
शायद मुझे दुबारा कहना चाहिए - बात समझते उसे देर नहीं लगी।
कपड़े मेरे मुँह पर मारते हुए वह अपने कमरे की ओर बढ़ गया। जाते-जाते कहता गया कि तुरंत दफा हो जाऊँ, क्योंकि नीचे जिन लड़कों को कुछ गड़बड़ का अंदेशा हुआ है, वे आते ही होंगे।
घाट की ओर से पहेली को हल करने की हलचल लगातार कानों तक आ रही थी। अलबत्ता पानी की हलचल शांत हो गयी थी। गंगा की छाती पर कोई शोर नहीं था।...
क्या उसने इस डर से हाथ-पैर भी नहीं मारे कि कहीं कोई बचाने न आ जाये और कहीं उसकी निर्वस्त्र देह उसके चैतन्य रहते बाहर न निकाल ली जाये?...या क्या पानी की चादर ओढ़ कर उसे इतना सुकून मिला कि पिछले अड़तालीस घंटों से जगी हुई आँखें गहरी नींद में मुँद गयीं?...
भगवान जाने, उसे तैरना आता भी था या नहीं?...
मैं काठ बना कुछ देर पेड़ों के झुरमुट से गंगा को देखता रहा...
पर मेरे पास ज्यादा समय नहीं था। मुझे दूसरे रास्ते से भाग कर घाट पर खड़े लड़कों में शामिल होना था ताकि इस घटना का कोई सूत्र मुझ तक पहुँचता न लगे।
तेज-तेज चलते हुए मैंने सलवार-कुर्ते की जोड़ी को अंदर डाला... और शायद खुद को भी... साला, घोंघा!